Archive: October, 2011

Día de los Muertos

नवंबर की पहली और दूसरी तारीख मेक्सिको में दिया दे लॉस मोरता याने मृतकों के दिन के तौर पर मनाई जाती है। काफी धूम-धाम से लोग अपने मृतकों को याद करते हैं, उनकी याद में आँसू बहाते हैं, और उन्हें उनके पसंदीदा व्यंजन, वाइन आदि परोसते हैं। जैसे अपने यहाँ दिवाली पर खांड की मिठाइयां बनाई जाती हैं, वैसे ही यहाँ मृतकों की याद में खाँड की, चीनी की खोपड़ियाँ बनाते हैं, उपहार के तौर पर मित्रों को देते हैं, और अपने प्रिय जनों के नाम लिख कर उन्हें अर्पित करते हैं।

वैसे तो सारे मेक्सिको में यह ‘त्यौहार’ जोर- शोर से मनाया जाता है, लेकिन कुछ इलाकों में इसकी धूम बहुत ही ज्यादा होती है। लोग कब्रिस्तान जाते हैं, रोते भी हैं, नाचते भी हैं, वाइन पीते हैं, आँसू बहाते हैं। कुछ जगहों पर कब्रिस्तान से लेकर घर तक गेंदे की पत्तियों से राह बनाते हैं, ताकि इतने दिनों बाद मृतक घर का रास्ता न भूल जाएं। जो ऐसा नहीं कर पाते, वे गेंदे के फूल तो मृतकों को अर्पित करते ही हैं। गेंदा मेक्सिको में मृतकों का फूल है।

जाहिर है कि यह ईसाइयत के आगमन के पहले का चलन है, और सेमेटिक धर्मों के उदय के पहले की हर सभ्यता में किसी न किसी रूप में मिलता है। मृत्यु को जीवन का विरोधी नहीं, पूरक तत्व: जीवन की अपरिहार्य परिणति, बल्कि जीवन के सतत प्रवाह में एक और मोड़े मानने वाली सोच के लिए स्वाभाविक ही है कि प्रिय से बिछुड़़ने के अपरिहार्य मानवीय दुख के बावजूद मृत्यु और मृतकों दोनों से संवाद बनाने की कोशिश करता रहे। नचिकेता को जीवन के परम रहस्यों का बोध मृत्यु के देवता यम ने ही कराय़ा था।

मेक्सिको में दिया दे लॉस मोरता की तारीखें -पहली और दूसरी नवंबर- पारंपरिक आज्तेक काल-गणना पर ही आधारित हैं। रोमन कैथॉलिक ईसाइयत ने इस परंपरा को स्वीकृत और समाहित कर लिया है।

इन दो दिन मेक्सिको में छुट्टी का माहैल रहता है। अफसोस कि मुझे एक तारीख की दोपहर को ही रवाना हो जाना है,  सो मृतकों के श्राद्ध के इस राष्ट्रीय पर्व का साक्षी नहीं बन पाऊंगा, लेकिन उस भावना को तो महसूस कर ही रहा हूं जिस के साथ यह पैगन सभ्यता प्रयत्न करती है, मृत्यु को स्वीकार करने का, औऱ मृतकों को अस्तित्वहीन मानने की बजाय मृत्यु को ही एक वैकल्पिक अस्तित्व मानने का।

आज कालेकियो में मेरी “का्ंफ्रेस” ( याने बातचीत) थी, माहौल में दिया दे लॉस मोरता था। मृत्यु का आतंक नहीं,मृतकों के प्रति कृतज्ञता और प्यार के साथ संवाद कायम करने का प्रयत्न। जिस कमरे में बातचीत उसके ठीक बाहर ही दिया दे लॉस मोरता की झाँकी लगी थी, स्वर्गीय प्रोफेसरों के चित्रों के सामने उनकी पसंदीदा वाइन परोसी गयी थीं. धूप-बत्ती जल रही थी।

लाइब्रेरी में कालेकियो के पहले लाइ्ब्रेरियन के चित्र की झाँकी थी, साथ ही ऐन उजले दुल्हन जैसे कपड़ों में मृत्यु की छवि खड़ी थी, एक और छवि सोफे पर विराजमान थी। चीनी की बनी खोपड़ियां  तो थी हीं, याने मृत्यु के जिन प्रतीकों से भय होता है, यहाँ उनसे सहज संवाद का जतन था।

क्या पैगन सभ्यताएं मृत्यु के बारे में अधिक संवेदनशील, अधिक समझदार नहीं है? मेक्सिको से लेकर आयरलै़ड तक. जापान से लेकर भारत तक?

 

The Wisconsin Conference

कल याने रविवार, 23 अक्तूबर को मेक्सिको के लिए रवाना होना है, आज शाम टॉमस ट्रॉटमान के सम्मान में रिसेप्शन आयोजित किया गया था। उसके बाद हम कुछ दोस्तों को डिनर के लिए जाना था, लेकिन इंद्राणी ने रिसेप्शन के दौरान  जो कहा, उसके बाद बस एकांत में ही जाया जा सकाता था, स्मृति और लेखन के एकांत में…

इंद्राणी  कल पेनल सुनने भी आईं थीं, मैं तो पहचान नहीं पाया, उन्हीं ने बताया कि वे सन सत्तासी-अट्ठासी से लेकर बानवे तक के उन गहमा गहमी भरे दिनों में साथ थीं…वे दिन सांप्रदायिकता विरोधी आंदोलन के दिन….आज लगता है कि संस्कृति और परंपरा और राजनीति के अंतस्संबंधों को समझने की कोशिशों के दिन…

” I Was typical convent educated person…in my social set-up, it was not necessary, rather it was unthinkable that I should know anybody like Kabir, Mira or Nanak…I was upset that my liberal, open space was being taken over and wanted to intervene and felt helpless….had no language to comminaicte….I went to Sampradayikat Virodhi Andolan because of Dilip and He brought you in…

You, Purushottam ji were never my teacher in a formal sense but you taught me and many like me so much…in fact, it was you who made us realise the power of Bhakti poetics…you coined that most evocative slogan- ” कण-कण में व्यापे हैं राम..” you made us interact with the critical sensibilty implict in the Bhakti poetics…you made us realise way back in niniteis the existence of early modernity in pre-colonial India….It is so nice to see that great insight into the Indian cultural experience finally articulated in an academic way in your book..

What you taught me through the activites of Sampradayikta Virodhi Andolan-SVA- I have tried to inculcate in my teching, to convey it to my students…your work is being carried froward by many a young scholars…and I feel so grateful, Purushottam ji, I had to say this to you.”

 

इंद्राणी चटर्जी आजकल रटगर्ज यूनिवर्सिटी में इतिहास पढ़ाती हैं। यह लिखने के पहले मैं काफी उहा-पोह से गुजरा हूं, अपनी तारीफ सुनना तो खैर अच्छा लगता है, लेकिन इस तरह की कृतज्ञता को कोरी तारीफ कहना अच्छा नहीं लगता। संकोच यह भी था कि इसे सबके सामने रखना क्या ठीक होगा?

जो बात मैंने ेइंद्राणी से कही, उसमें शायद इस संकोच का समाधान भी था-” इंद्राणी मैं, यह बात हिन्दी में ही कह सकता हूं, अंग्रेजी मेरी खोज-बीन और उसे व्यक्त करने की जबान तो है, लेकिन दिल की जबान तो हिन्दी ही है सो हिन्दी में—छप्पन साल  का हो चुका हूँ ज्यादा से ज्यादा बीस और…आपकी बात सुन कर लगा कि जिन्दगी बेकार तो नहीं गयी. कुछ अच्छा काम हो गया है इस जीवन के जरिए….”

कुछ मित्रों को यह आत्म-विज्ञापन लग सकता है, लगता रहे, मेरी बला से… मुझे बस इतना कहना है- उन तीन-चार सालों ने सचमुच अपने समाज को, परंपरा को उसकी ताकत और कमजोरी को, उसके संकटों को समझने में बहुत गहरी मदद की। वे दिन सदा के लिए साथ हैं….जो नारा गढ़ा था, जिसे इंद्राणी याद कर रही थीं- कण कण में व्यापे हैं राम, मत भड़काओ दंगा लेकर उनका नाम’  इस नारे को लेकर हुईं बहसों को याद करते हुए जो परचा लिखा था, ऑक्सफोर्ड लिटरेरी रिव्यू में 1993 में जो छपा था- ‘स्लोगन एज ए मेटाफर ऑफ कल्चरल इंटेरोगेशन’ आज एक बार फिर से याद आया इंद्राणी की बात सुन कर कि वे दिन बहुत कुछ सिखा कर गये हैं, उस सीखने के दौरान इंद्राणी जैसे दोस्तों के जीवन और मन में कुछ महत्वपूर्ण घटने के कारक ग्रह अपन बने…क्यों न इस पर संतोष महसूस करें कि जिंदगी यूं ही नहीं चली गयी, अंत समय अभी ही वहाँ दरवाजे पर खड़ा अपन को शरारत से देख रहा हो, तो भी जब वह ऐन सर पर आ खड़ा होगा, शायद अगले चंद मिनटों में, शायद अगले चंद बरसों में….ऐसा नहीं लगेगा कि बस आए, खाया-पीया औऱ चलते बने…

इस संतोष का एक पल भी कितनी राहत  देता है…शुक्रिया दिलीप…सांप्रदायिकता विरोधी आंदोलन की परिकल्पना के लिए…शुक्रिया मुझे उससे जोड़ने के लिए…

कृतज्ञता की ऐसी निश्छल अभिव्यक्ति और उसका लक्ष्य होने के गौरव को क्यों छुपाऊं?

इतना प्यार जिन्दगी में इतने लोगों से मिला है, क्यो न उस प्यार का, और दोस्तो का गुण गाऊं…

दोनों घुटनों में दर्द के कारण चलनें तक में लाचारी और रज़ा अली हसन को सही नी-कैप लाने के लिए तीन बार बाजार जाना…फिर अपने पुर-लुत्फ अंदाज में यह कहना कि ‘ जाता कैसे नहीं, आपने मेरी शायरी की तारीफ जो की”…रज़ा पाकिस्तान के हैं, यहाँ अंग्रेजी साहित्य पर काम करते हैं, औऱ अंग्रेजी में ही कविता लिखते है, बहुत दिलचस्प कवितायें लिखते हैं, जल्दी ही आपके सामने पेश करूंगा उनकी कवितायें…उनके  दोस्त अजफर मोइन का काम मुगल इतिहास पर है, ‘अकथ..’ पर बातचीत सुनने मोइन तो आए थे, रज़ा साहेब कहीँ और मसरूफ बताए जाते थे। सुनने वालों में लुटजेंडार्फ तो थे ही, हाइडी पावेल्स भी थीं, और आंद्रे विंक भी। कई नौजवान अध्येता भी थे। पशौरा सिंह का पाठालोचन ( सिख परंपरा के संदर्भ में) मशहूर है, उनकी टिप्पणियां बहुत काम की थीं। डेविड औऱ जैक से तो इस पैनल के बहुत पहले से  ‘अकथ..’ के बारे में और उसके अलावा भी बरसों से बात होती ही रही है। शैल्डॉन पोलक और एलीसन बुश से भी भेंट हो गयी।

 

बढ़िया गुजरे ये दो दिन यहाँ विस्कांसिन में…

.टॉम ट्राटमान के बारे में सुना बहुत था, प्रभावित था उनके लाजबाव काम से, मुलाकात पहली बार हुई और दोस्ती की शुरुआत हो गयी…

 

स्टुअर्ट गोर्डन से भेंट हुई, दोस्ती में बदली। उनकी किताब की कापी नहीं मिल पाई, हालांकि अरबी अनुवाद उन्होंने दिखाया…किताब का नाम है ” व्हेन एशिया वाज वर्ल्ड”….याने आंद्रे गुंदर फ्रैक औऱ जैक गुडी की ही तरह उन्होंने दिखाया है कि यूरोप दुनिया का केंद्र हमेशा से ही नहीं चला आया है, बमुश्किल चंद सदी पहले हकीकत कुछ  और थी, और आज की हकीकत को समझने के लिए जरूरी है उन सदियों में बनी-बिगड़ी और बदली हकीकत का बोध हासिल करना।

स्टुअर्ट सातवें दशक के कैंपस-विद्रोह मे सक्रिय थे, वियतनाम युद्ध के विरोध में निकाली गयी झाँकी का हिस्सा होने  के कारण पिटे भी थे, लेकिन राजनैतिक हिंसा के सवाल पर उनकी राय उन दिनों के कॉमन सेसं के विरुद्ध थी, औऱ वे आज तक आहिंसा से प्रतिबद्ध हैं…उनके अपने शब्दों में…”I was trained in Gandhian  non-violence by the quakers…and we must realise that Gandhi has already transcneded the tradition he personally belonged to, he is the real universal hero, source of inspiration for any one who comes to the basic realisation that political violence ultimtely strengthens the most organised form of political violence-namely the state.”

 

 

आज शाम जैक हॉली के साथ चाय पी, जैक को भावुक होते आज पहली बार देखा….क्या है ऐसा पुरुषोत्तम….इतना स्नेह…Do you really deserve it….?

पता नहीं, शायद कुछ वस्तुनिष्ठ और एकेडमिक ढंग से लिखना चाहिए इन दो दिनों के बारे में, मसलन यह कि अपने देश के प्रगतिशील लोग अंग्रेजी आधुनिकता के प्रति अभी तक कितने भी “कृतज्ञ”  क्यो न हों, दुनिया भर के इतिहास पर काम करने वालों की समझ कुछ और बनती जा रही है। ‘अकथ कहानी…’ के ऐतिहासिक तर्क के प्रति जो उत्साह पैनल में, और पैनल के बाहर दिखा, दूसरे पैनलों में इसका जो उल्लेख हुआ, उसका कारण शायद यही है कि यह किताब प्रचलित आधुनिकता ही नहीं उत्तर-आधुनिकता के भी यूरोकेंद्रित स्वभाव और चरित्र से टकराती है। साथ ही यह किताब यूरो-केंद्रिकता का प्रतिवाद करने के उत्साह में यूरोप मात्र को रद्द करने, ओरियंटलिज्म के बरक्स ऑक्सि़डेंटलिज्म की रचना करने के प्रलोभन के विरुद्ध स्पष्ट चेतावनी भी देती है।

खैर, जो सराहना हुई, जो आलोचना हुई ( जैक, डेविड और पशौरा सिंह तीनों ने ही कई गंभीर सवाल उठाए हैं, अन्य दोस्तों ने भी), उन सबसे बात को और अधिक तर्क-संगत बनाने में सहायता मिलेगी, आखिरकार अध्ययन और जिज्ञासा की मूल प्रतिज्ञा तो यही है,यही होनी चाहिए—” तेजस्वि नावधीतमस्तु, मा विद्विषावहै’ ( हमे नहीं, हमारे पढ़े हुए को , सोचे हुए , हमारे अध्ययन को  तेजस्विता प्राप्त हो, हम विवाद कितने भी कर लें उन्हें विद्वेषों में न बदलने दें)…

कोशिश करूं कि विस्कांसिन के इन दो दिनों की स्मृति इस प्रतिज्ञा की स्मृति में घुल-मिल जाए, सदा ही घुली-मिली रहे…

कल की रात मेक्सिको—-एकांत की भूल-भुलैया- मेक्सिको में, “अपने” कासा में बीतेगी…

पेनल डिसकसन में बोलते हुए, पास में दिख रहे हैं टाम ट्राटमान। फोटो लिये हैं अजफर मोइन ने…बोलते हुए डेविड, साथ में टॉम ट्रॉटमान, मैं, पशौरा सिंह, जैक हॉली…

 

Panel on Akath at South Asia Conference

I am excited to share that there is a panel devoted to my book Akath Kahani Prem Ki at the 40th Annual Conference of South Asia at the University of Wisconsin, Madison, Wisconsin, USA. The panel is called “Kabir in context: Purushottam Agrawal’s New Study”.  The panel will be chaired by Prof. Thomas Trautmann. Professors David Lorenzen, John S Hawley and Pashuara Singh will present papers. I will respond to the discussion.

From the conference website:

Purushottam Agrawal�s 2010 book, Akath kahani prem ki: kabir ki kavita aur unka samay [Love�s Untellable Story: Kabir�s Poetry and His Times], is the most important new study about Kabir since the 1974 publication of Charlotte Vaudeville�s book Kabir. The most obvious comparison is with H. P. Dvivedi�s path-breaking book, also titled Kabir, first published in 1942. Agrawal�s own English version of his book is expected to be published in 2011. Each paper in the panel will offer discussions of selected topics found in Agrawal�s work and will suggest ways in which his treatment of these topics could be extended or modified. David Lorenzen will offer a general review of Agrawal�s study and discuss in more detail Agrawal�s ideas the nature of the Kabir-bijak of the Kabir Panth and about the roles of Ramananda and Kabir in fostering an indigenous early modernity that was later aborted as a result of political changes taking place first in the Mughal Empire and then with the advent of British colonialism. Pashaura Singh will discuss Agrawal�s analysis of early collections of Kabir�s songs and verses in the Adi Granth and the Kabir-granthavali. Singh will pay particular attention to the selection process for Kabir�s compositions in the Adi Granth of the Sikhs and will discuss why some compositions were included in the early drafts of the Adi Granth but edited out of the final text. John Hawley will discuss three aspects of Agrawal�s study: first, his analysis of the creation of a Sanskrit Ramanand in the early twentieth century and its bearing on the historical relation between Kabir and Ramanand; second, the coherence of the Kabir corpus and the problem of the songs and verses written in Kabir�s name after his death; and third, the role of Kabir in creating a modern Hindu identity. Purushottam Agrawal himself will respond to these three papers and offer his views about what he regards as the most important contributions of Kabir to Hindi literature, to the importance of the early collections as well as later oral tradition, to the social and religious changes that took place in medieval and colonial India, and to the continuing changes that have been incurring since Independence.

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