और क्या होंगे अभी…..

‘आउटलुक’ साप्ताहिक की वार्षिकी  में प्रकाशित मेरा लेख….भगवान जाने, संपुादक जी ने इसे छापते समय  शीर्षक क्यों बदल दिया….

 

और क्या होंगे अभी…..

 

‘हम कौन थे, क्या हो गये और क्या होंगे अभी?’ सौ साल पुराना यह सवाल आज के भारत में नये सिरे से गूँज रहा है। ना तो सवाल पूछने वाले वही हैं, ना सवाल पूछे जाने का संदर्भ वही है, लेकिन सवाल वही है। बड़े सवालों के जबाव इतिहास के अलग अलग मोड़ों पर बदलते रहते हैं, लेकिन सवाल फिर भी बने रहते हैं।

मैथिलीशरण गुप्त की ‘भारत-भारती’ द्वारा इस सवाल के पूछे जाने के कोई तीस बरस बाद, जवाहरलाल नेहरू अपनी ‘भारत की खोज’ में नोट कर रहे थे कि उनकी सभाओं में जब भी नारा लगता है, ‘भारत माता की जय’; वे लोगों से पूछते हैं कि ‘कौन है यह भारत माता, जिसकी जय का नारा लगा रहे हैं, जिसकी जय हम सब चाहते हैं?’ और फिर नेहरू लिखते हैं कि वे बताते थे लोगों को, कि ‘आप सब लोग स्वयं है भारत माता, हिन्दुस्तान का एक एक इंसान है भारत माता, भारत माता की जय का असली मतलब यही है कि साधारण हिन्दुस्तानियों की जय हो, उन्हें विदेशी शासन से ही नहीं, आंतरिक शोषण और अन्याय से भी मुक्ति मिले’।

ए. आर. रहमान ने ‘वंदे मातरम’ का बेहद मार्मिक,  निजी स्पर्श वाला रूप तैयार किया है, ‘अम्मां तुझे सलाम’। आप ने देखा-सुना ही होगा। इसे सुनते हुए, भारत माता की जय के किसी भी अन्य रूप को सुनते हुए मन में सवाल आते हैं, शायद आपके मन में भी आते हों कि क्या ऐसा जयकारा छत्तीसगढ़ और ओडिशा के आदिवासियों के मन में भी उतने ही सहज रूप से गूँजता होगा? यह जयकारा क्या उत्तरी मध्य-प्रदेश के उन सहरिया जनों के मन में भी गूँजता होगा, जिन में कुपोषण का स्तर इथियोपिया से भी बदतर पाया गया है, जिन की आबादी में डॉक्टरों की उपलब्धता हर एक लाख पर दस के आस-पास है? भारत अवधारणा के प्रति उन मणिपुरियों का रवैया क्या होगा जिनके प्रांत का महीनों तक चलने वाला घेराव, देश-दुनिया से, जिनके संपर्क का पूरी तरह टूट जाना राष्ट्रीय मीडिया के लिए महत्वपूर्ण समाचार नहीं बन पाता?

ये सवाल कई संदर्भों में, कई अवतारों में दोहराए जा सकते हैं। उन लड़कियों के संदर्भ में जो प्रेम करने के अपराध में ‘अपनों’ द्वारा नाक बचाने के लिए काट डाली गयीं, उन लोगों के संदर्भ में जो अपनी जाति या धर्म के कारण अपमान से ले कर प्राण-हरण तक झेलने को अभिशप्त हैं।

और, चूँकि हम बात कर रहे हैं, आजाद होने के पैंसठ साल बाद, ‘संप्रभु,लोकतांत्रिक गणतंत्र’ बनने के बासठ साल बाद; इसलिए यह सवाल सचमुच बहुत गहरी बेचैनी के साथ गूँजने वाला सवाल है- ‘हम कौन थे, क्या हो गये, और क्या होंगे अभी”।

ध्यान रखना चाहिए कि भारत यूरोपीय तर्ज का राष्ट्र-राज्य भले ही स्वाधीनता आंदोलन के फल-स्वरूप बना हो, लेकिन हिमालय के दक्षिण में, और हिन्द महासागर के उत्तर में स्थित भूखंड के निवासियों की संस्कृति के साझेपन की चेतना, इस भूखंड के एक सभ्यतापरक इकाई होने की चेतना महाभारत, विष्णुपुराण,कालिदास और सम्राट अशोक तक जाती है। विष्णुपुराण के अनुसार, हिमालय के दक्षिण में स्थित भू-भाग का नाम भारत, और इसकी सभी संततियों का नाम भारती है। मार्के की  बात है कि विष्णुपुराण का भारत-बोध  अल्लामा इकबाल के तराना-ए-हिन्दी में जस का तस चला आया है; भूगोल, विविधता और आत्म-गौरव तीनों ही स्तरों पर-

परबत वो सबसे ऊंचा हमसाया आसमां का

वो संतरी हमारा, वो पासबां हमारा

मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना

हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा

यूनान ओ मिस्र ओ रोमां सब मिट गये जहाँ से

अब तक मगर है बाकी नामो निशां हमारा

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी

सदियों रहा है दुश्मन दौरे जमां हमारा।

आगे चल कर भले ही, इकबाल ‘ चीनो अरब हमारा, हिन्दोस्तां हमारा/ मुस्लिम हैं हम वतन है सारा जहाँ हमारा’ के फेर में पड़ गये हों, लेकिन ‘तराना-ए-हिन्दी’ में वे भारत नामक सभ्यतापरक इकाई और उसकी पहचान ‘भारतीयता’ की निरंतरता और विशिष्टता को बिल्कुल ठीक पहचान रहे थे। ऐसी अद्वितीय निरंतरता का कारण है, सारे विवादों और झगड़ों के बावजूद संवादधर्मिता में विश्वास और सांस्कृतिक साझेपन का बोध। इस बोध और विश्वास ने ही भारतीयता को वह ताकत दी है कि विभिन्न धार्मिक-सांस्कृतिक परंपराएं इसमें अपना योगदान करती रही हैं, उनका उद्भव भारत भूखंड की सीमाओं के भीतर हुआ हो बाहर।

स्वाधीनता आंदोलन के दौरान ‘विविधता में एकता’ पर जो बल था, वह इसी पारंपरिक सभ्यता-बोध का समकालीन मुहावरे में प्रस्तुतीकरण था, कोरा तात्कालिक नारा नहीं। लेकिन स्वाधीनता आंदोलन और उसे संभव करने वाले बौद्धिक उपक्रमों की सीमाएं भी भुलाईं नहीं जा सकतीं। गुप्तजी के सवाल- कौन थे क्या हो गये, और क्यो होंगे अभी’  में सोचने का आव्हान भी था, ‘आओ मिल कर विचारें सभी’। दिक्कत यह थी कि इस सभी में व्यंजित ‘हम सब’ के बीच खाई थी। जो हम इस तरह की कविताओं में बोल रहा था, उसमें सारी सदिच्छा के बावजूद दलित, आदिवासी और स्त्री की आवाज की जगह बहुत ही कम थी। औपनिवेशिक ज्ञानकांड और प्रशासन ने जिस बौद्धिक को रचा, उसकी चेतना में और उसके प्रभाव के कारण सारे समाज की चेतना में एक तरह का संवेदना-विच्छेद पैदा हो गया था, जो आज तक चला आ रहा है। संवेदना-विच्छेद से मेरा आशय है—अपने समाज के फौरी अतीत, जीवंत परंपराओं और अपने जन-साधारण की रोजाना जिन्दगी को निर्धारित करने वाले सोच-विचार और दैनंदिन व्यवहार की अवहेलना करना। यह मान लेना कि किसी सुदूर प्राचीन अतीत में भारतीय समाज में आंतरिक गतिशीलता रही हो तो रही हो, अंग्रेजी राज के जड़ें जमाने के पहले याने अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी के भारत में सिवाय सांस्कृतिक जड़ता के कुछ बचा ही नहीं था। इसी संवेदना-विच्छेद के कारण, भारतीय आधुनिकता के जनक राजा राममोहन रॉय मान लिये गये, आज तक माने जाते हैं। भारतीय समाज की अपनी परंपरा में, देशभाषाओं में विकसित होती रही देशज आधुनिकता की संवेदना के साथ संवाद कायम करने के प्रयास, गाँधीजी जैसे अपवादों को छोड़ दें तो, बहुत ही कम हुए।  इस संवेदना-विच्छेद के दो एक ही रूपक याद कर लेना फिलहाल काफी होगा।

औपनिवेशिक ज्ञानकांड की अब तक चली आ रही ताकत के बताए हम जानते हैं कि विधवा-दहन पर रोक लगाने की पहली कोशिश राजा राममोहन राय के प्रयासों से विलियम बेंटिंक ने की थी। वास्तविकता यह है कि इन प्रयासों के सौ साल पहले, जयपुर नरेश जयसिंह अपने राज्य में विधवा-दहन प्रथा पर रोक लगा चुके थे। जिस अठारहवीं सदी को भारतीय इतिहास में ऐसे घोर अंधकार का युग मान लिया गया है जिसमें कि कहीं कोई उदार, प्रगतिशील स्वर था ही नहीं, उसी अठारहवीं सदी में बिहार में दरिया साहब और हरियाणा में चरनदास भक्ति-संवेदना के मुहाविरे में सामाजिक आलोचना ही नहीं, सामाजिक एक्टिवज्म भी कर रहे थे। चरनदास का साथ उनकी दोनों बहनें दयाबाई और सहजोबाई दे रहीं थीं, और दरिया साहब के साथ उनकी जीवन-संगिनी भी सक्रिय थीं। इसी अठारहवीं  सदी में, मारवाड़, गुजरात और मुल्तान के हिन्दू व्यापारी अरब सागर पार करके काहिरा तक और कैस्पियन सागर पार करके रूस तक जा रहे थे, वहाँ बस्तियाँ बनाने के साथ ही, समुद्र पार करके  अपने वतन आते-जाते रहने का सिलसिला अबाध रूप से बनाए हुए थे। लेकिन औपनिवेशिक ज्ञानकांड केवल ब्राह्मण समुदाय के रीति-रिवाजों को भारतीयता का प्रमाण मानते हुए ‘सिद्ध’ कर रहा था कि हिन्दू तो समुद्र यात्रा को पाप मानते थे।

अपनी जन्म-कुंडली में ही ऐसे संवेदना-विच्छेद के ग्रह लेकर जन्मी ‘भारतीयता’ में यह होना ही था कि ‘हम’ और ‘सब’ के बीच खाई पैदा हो जाए। इस लिहाज से, पिछले कोई दो दशकों से चल रहे विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक पहचानों के राजनैतिक-सांस्कृतिक आत्म-रेखांकन का महत्व स्पष्ट होता है।  ‘एकता’ सामाजिक रूप से वर्चस्वशील तबकों के वर्चस्व को दी गयी मनोहर संज्ञा भर न रह जाए, इसके लिए यह जरूरी भी है कि ‘विविधता में एकता’  से परिभाषित होने वाली  भारतीयता में विविधता को उसका उचित महत्व मिले।

लेकिन सवाल यह है कि क्या सिर्फ और सिर्फ विविधता पर ही बल देना उचित है? एकता के वर्चस्वशील सूत्रों के स्थान पर लोकतांत्रिक सूत्रों की तलाश जरूरी है या नहीं? ऐसी तलाश के अभाव में विविधता को विखंडन में बदलने से कैसे रोका जाएगा? यदि हर सामाजिक अस्मिता केवल अपनी ही मुक्ति की चिंता करे तो क्या किसी की भी मुक्ति संभव हो पाएगी? यदि यह तर्क मान लिया जाए कि दलित की बात दलित ही कर सकता है, और स्री की बात स्री  ही, तो फिर नागरिकता की अवधारणा का क्या होगा? क्या हम एक लोकतांत्रिक मिजाज की रचना नागरिकता की धारणा की उपेक्षा करके कर सकते हैं? हम नहीं भूल सकते कि  भारतीय समाज की बनावट ही  ऐसी है कि यहाँ न धक्कामार ब्राह्मणवाद चल सकता है, न धक्कामार गैर-ब्राह्मणवाद। किसी भी धार्मिक, सांस्कृतिक या भाषाई अल्पसंख्या के प्रति घृणा के आधार पर राजनीति अवांछनीय तो है ही, भारतीय समाज के स्वभाव के कारण दूरगामी तौर पर असंभव भी है। अल्पसंख्या चाहे मुसलमानों/ ईसाइयों की हो, चाहे ब्राह्मणों की।

विविधता में एकता सचाई है, बल्कि कहें कि विविधता तो ऐतिहासिक सचाई है और एकता ऐतिहासिक, राजनैतिक कामना। यह कामना किस हद तक संवेदनात्मक सचाई बन पाई है या बन पाएगी, सवाल यह है।  और सन दो हजार बारह में तो लगता यही है कि विविधता में एकता का संतुलन कुछ गड़बड़ाया है। कारण ऐतिहासिक भी हैं, और राजनैतिक आकांक्षाओं और स्वार्थों से जुड़े हुए भी।  हालत यह हो चली है कि सामाजिक-सांस्कृतिक पहचानों और उनकी राजनीति पर इतना बल है कि भारतीय नागरिकता की, उसमें निहित साझे सपनों की बात करना पिछड़ापन माना जाने लगा है। पहचानें आगे आ गयी हैं, सपने पीछे छूट गये हैं। साझे सपनों के ताने-बाने को, उन्हें वास्तविकता में बदलने  वाले तंत्र को ही ‘संप्रभु भारत’ के  संविधान निर्माताओं ने, ‘लोकतांत्रिक गणराज्य’ का नाम दिया था। डॉ. अंबेडकर ने सबसे बड़ी चुनौती भी याद दिलाई थी- ‘राजनैतिक लोकतंत्र को  सामाजिक लोकतंत्र में बदलना’। लोकतंत्र याने वह व्यवस्था और  वह मिजाज जो किसी भी व्यक्ति का मूल्यांकन उसकी व्यक्ति-सत्ता के आधार पर करे, न कि उसकी जन्मजात अस्मिता के आधार पर।

आज हालत यह है कि विधायिका में महिलाओं को आरक्षण देने का विरोध सबसे ऊंची आवाज में वे करते हैं जो जातीय अस्मिताओं के आत्मरेखांकन को राजनैतिक मुहावरे में ढाल रहे हैं। जिन पर समाज के लोकतांत्रिकीकरण की जिम्मेवारी है, और इसी जिम्मेवारी के निर्वाह के लिए संविधान जिन्हें ताकत देता है, वे खापों और पंचायतों के ऊंट-पटांग फरमानों पर चुप्पी साधते ही नहीं,कई बार उन्हें जायज ठहराते भी सुने जा सकते हैं। कहा जाता है कि ‘भई यह तो फलाँ समाज का अपना मामला है, सरकार इसमें क्यों पड़े?’ ध्यान देने की बात यह है कि इस किस्म के वक्तव्यों में ‘समाज’ का मतलब जातियों की पंचायतों और पहचानों से होता है। गोया भारतीय समाज का तो कोई मामला है ही नहीं, जो भी मामले  हैं वे इस या उस जाति के समाज के ही हैं।

निस्संदेह, जाति-व्यवस्था और उससे उपजे पूर्वग्रह, अत्याचार हमारे समाज की कड़वी सचाई हैं। सवाल लेकिन यह है कि इस व्यवस्था को समाप्त करना है या किसी बदले हुए रूप में जारी रखना है? भारतीयता की अवधारणा के लिहाज से, विविधता में एकता की फिर से परिभाषा करने के लिहाज से, और राजनैतिक लोकतंत्र को सामाजिक लोकतंत्र में बदलने के लिहाज से, यह सवाल केंद्रीय सवाल है।

इस बात को दो टूक रूप से कहने की और मन में बसाने की जरूरत है कि एक तरह के जातिवाद का विकल्प दूसरे तरह का जातिवाद नहीं हो सकता, जातिवाद के जाल को लोकतांत्रिक चेतना की छुरी से ही काटा जा सकता है, दूसरे जातिवाद के जाल से नहीं। दो जाल आपस में उलझ कर जो कर सकते हैं, वह आप और हम आज के भारत में देख ही रहे हैं। एक तरह के अस्मितावाद के अतिचार को खत्म करने के लिए दूसरी तरह के अस्मितावाद के अतिचार को रामबाण मानना व्यर्थ है। व्यक्ति की हो, या समुदाय की, किसी भी  अस्मिता का आत्मरेखांकन राजनैतिक लोकतंत्र को सामाजिक लोकतंत्र में  बदलने की दिशा में तभी चल सकता है, जब कि ‘आत्म’ का रेखांकन करते हुए, वह ‘अन्य’ के प्रति भी संवेदनशील रहे। भारतीयता की अवधारणा को पुनर्नवा करने के लिए बेहद जरूरी है कि हम सब याद रखें कि लोकतंत्र केवल संख्याओं के बूते नहीं, संस्थाओं और मर्यादाओं के बल पर चलता है। विभिन्न लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वायत्तता का घटना, उनकी  मर्यादाओं का ध्वस्त होना अंतत: उन्हीं के लिए घातक है जो कमजोर हैं।

 

 

 

 

3 Responses to “और क्या होंगे अभी…..”

  1. प्रफुल्ल कोलख्यान says:

    आपकी चिंता से सहमत हूँ… आशंकाएँ भी सही हैं..

  2. Dr, rama shanker shukla says:

    आदरणीय पुरुषोत्तम सर. आप जैसे शिखर साहित्यिक पुरुष के विचार जब भी प्रकट होंगे, संतुलित ही रहेंगे. आप सही कह रहे हैं कि लोकतंत्र “केवल संख्याओं के बूते नहीं, संस्थाओं और मर्यादाओं के बल पर चलता है। विभिन्न लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वायत्तता का घटना, उनकी मर्यादाओं का ध्वस्त होना अंतत: उन्हीं के लिए घातक है जो कमजोर हैं।” अब सवाल है कि हम जहाँ पहुच गए हैं, वहां संस्थाओं का आचरण क्या रह गया है. यदि इनकी मर्यादा घटी हैं तो संस्थाओं के लोगों को क्या फर्क पड़ रहा है. उनका ध्वस्त होना क्या वाकई उन्हें आखर रहा है. फिलहाल तो ऐसा दिख नहीं रहा. आज हम जो हो गए हैं, कल भी वैसे ही न रह जाएँ, यही चिंता २०१२ की घटनाओं की है. दुखद यह है कि संस्थाओं के संरक्षक इन घटनाओं पर नाराज हैं. वे संस्था के सम्मान वापसी के लिए आत्म सुधर की बजाय चिंतित समूह पर गुस्सा हो रहे हैं. एक बात यह भी कि वे प्रच्छन्न रूप से संस्था को गौड़ और खुद को विशिष्ट मान रहे हैं. तो फिर लोकतंत्र का मतलब क्या लगाया जाये, व्यक्तियों के लिए संस्था या संस्था के लिए व्यक्ति. आपने बहुत सही सवाल खड़ा किया है. हिंदी पट्टी का दुखद पक्ष यह भी है कि वह कम से कम साहित्य में लोकतंत्र की बात करना बंद कर चुका है और आप जैसे व्यक्ति अपने पद की परवाह किये बगैर इतनी सूक्ष्म चिंता प्रकट कर रहे हैं. आपके सम्बन्ध में हमारी विनयकांत मिश्र जी से कई बार वार्ता हुई है. मैंने आप द्वारा कबीर पर लिखी पुस्तक का कुछ हिस्सा पढ़ा है. बाकी किसी दिन किस्मत में रहा तो आशीर्वाद भी मिल जाएगा.

  3. Sir aapka kahna bilkul sahee hai.

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