चेंग-चुई.
-पुरुषोत्तम अग्रवाल।
‘यह मकबरा सा क्यों बना दिया है भई’
‘सर, इसे मकबरा मत कहिए’ सागरकन्या ने प्रवीण की कम-अक्ली पर तरस खाते हुए कहा, ‘यह चेंग-चुई आर्किटेक्चर है…’
चेंग-चुई?
प्रवीणजी बहुत बड़े अफसर बनने के बाद एलाट हुआ बंगला देखने आए थे। देश के बड़े सेवकों का जैसा होना चाहिए वैसा ही बंगला था। विशाल, भव्य, गरिमापूर्ण। लेकिन प्रवीण अकेले आदमी, जोरू ना जाता, अल्लाह मियाँ से नाता टाइप। इतने बड़े घर का करेंगे क्या? मकबरे सरीखे डोम पर निगाह पड़ते ही उनकी दुष्ट कल्पना सक्रिय हो गयी थी। सोचने लगे कभी कभी, आधी रात में सारे घर की बत्तियां बंद कर, सफेद कुर्ता पाजामा धारण कर, हाथ में मोमबत्ती लेकर गृह-भ्रमण किया करेंगे। ‘ गुमनाम है कोई, बदनाम है कोई’ या ‘नैना बरसें रिमझिम, रिमझिम’ जैसे किसी धाँसू घोस्ट-सांग की सीडी सही बैकग्राउंड स्कोर देगी। मरने के बाद का हाल तो कोई कह नहीं सकता। सारे ज्ञान और सारी सर्जनात्मक, खुराफाती क्षमता के बावजूद अपन भी नहीं कह सकते-यह बुनियादी सचाई प्रवीणजी भी जानते ही थे। सोच यह रहे थे कि जीते जी भूत बनने में कितना मजा आएगा। उच्च कोटि के इंटेलेक्चुअल के मजे और मूर्खों के मजे में कुछ फर्क भी तो होगा। सबसे बड़ी बात तो यही कि अपने इस मजे में डिफरेंस का भी ऐसा स्टेटमेंट होगा कि मार्क्स के प्रेतों का बखान करने वाले ज्याक देरिदा भी अपने प्रेतावतार में प्रसन्न हो जाएंगे। ‘देखो न यार’, प्रवीण ने अपने आप से कहा, ‘फिल्मों में सफेद कपड़े पहना कर, नीम अंधेरी रातों में गाना गाने का काम महिलाओं से ही कराया जाता है, अपनी रची इस घोस्ट स्टोरी में अपन इस सेक्सिस्ट स्टीरियो-टाइप को भी तोड़ेंगे और सदा के लिए न सही, कभी कभार तो आधी रातों में अपने प्रेत बनने का नजारा भी आप ही देखेंगे, बतर्ज ‘आप ही डंडी, आप तराजू, आप ही बैठा तोलता…’।
प्रवीणजी के अफसर ने प्रवीणजी के सिनिकल पोयट-फिलासफर को धकियाया, और बंगले को ठीक से देखना शुरु किया। यहाँ रह कर देश की सेवा करने में मजा तो आएगा। दोमंजिला बंगला। नीचे तीन, ऊपर दो बेडरूम। टायलेट-बाथ अटैच्ड । ऊपर की मंजिल पर, कोने का एक कमरा बिना अटैचमेंट के भी। यह रहने वाले की इच्छा पर कि इसे स्टोर मान ले या पूजा अथवा प्रेयर रूम। सागरकन्या फरमा रही थीं, ‘इंटरनेशनल ट्रेंड है न सर दीज डेज, आपने तो देखा ही होगा, आजकल एयरपोर्ट्स पर भी प्रेयर-रूम होते हैं। वैसे आप चाहें तो इस कमरे को स्टोर-कम-प्रेयर रूम के तौर पर भी यूज कर सकते हैं, ज्यादातर एलाटी करते ही हैं’।
‘याने भगवान की औकात वही मानते हैं, जो घर के फालतू या इफरात सामान की’, प्रवीणजी सोचने लगे, ‘ उनकी माँ को अगर सुझाव दिया जाए कि उनके लड्ड़ू गोपाल के लिए घर की बुखारी का एक कोना मुकर्रर किया गया है तो सुझाव देने वाले की कितनी पीढ़ियों को, चुनिंदा सुभाषितों के जरिए वैतरणी तार देने में माताराम को कितना समय लगेगा’। वह जानते थे कि पूजा-घर में टायलेट ना बनाने के डिजाइन से तो माताराम भी सहमत ही होंगी, लेकिन उनके अपने मन में यह जरूर आया कि एलाटी और उसके परिवार के बेडरूम्स में तो टायलेट्स हैं लेकिन भगवान के लिए?
यह अतिप्रश्न था। व्यावहारिक और पारमार्थिक दोनों ही धरातलों पर। भगवान के बारे में ऐसे सवाल नहीं पूछे जाते। भगवान वैसे भी सवालों के जबाव देने के फेर में पड़ते नहीं। पड़ने लगें तो नाक में दम हो जाए। उनकी तरफ से उत्तर देने का काम हो, या उनके नाम पर आहत भावनाओं की जंग छेड़ने का, करना भक्तों को ही पड़ता है। ऐसे में भगवान के भक्तों के रोष की परवाह किये बिना कोई पूछ भी ले टायलेट विषयक अतिप्रश्न तो भगवान का उनके जैसा ही खुराफाती कोई भक्त यह प्रति-प्रश्न भी तो कर सकता है ना कि सारी दुनिया और क्या है बे?
और, फिर भगवान तो दो जहाँ के मालिक हैं। ऐसे सवाल तो इस दुनिया के भी छोटे-बड़े मालिकों के बारे में भी नहीं पूछे जाते। मालिकों के टायलेट से जुड़ा सवाल मिलियन डालर क्वेशचन की कोटि में आता हो न आता हो, अपने ही देश के प्रसंग में, इस सवाल का जबाव जरूर मिलियन रुपीज आंसर साबित हो सकता है…
एकाएक प्रवीणजी की यादों के स्क्रीन पर कालेज के दिनों की फतेहपुर सीकरी यात्रा की डाक्यूमेंट्री चलने लगी। खसखसी दाढ़ी वाले बुजुर्ग गाइड मियाँ शहंशाह अकबर की सुलहकुल नीति का नॉस्टेल्जिक लहजे में बयान कर रहे थे। आजकल के दंगे फसाद के माहौल को अकबर के सुनहरी दौर के बरक्स रखते हुए ऐतिहासिक पछतावे से गुजर रहे थे, और कोशिश कर रहे थे कि पछतावे के कुछ छींटे इन नौजवानों के दामन पर भी नजर आएँ। नौजवान पछता रहे थे या नहीं, यह तो नहीं कहा जा सकता। हाँ, सिक्स्थ सेंस से यह जरूर जान रहे थे कि उनकी कन्या-मित्रों के मन में अपने अपने बायफ्रेंड्स के लल्लूपन की तुलना शहंशाह अकबर की शानदार पर्सनाल्टी के साथ जरूर चल रही है। सो, कुढ़ रहे थे, और कर ही क्या सकते थे।
उधर, बुजुर्गवार का बयान जारी था, ‘ देखिए हाजरीन, यह दीवाने आम याने बादशाह सलामत का दरबार रूम, यह दीवाने खास, यहीं बादशाह दीनो मजहब, मंतिको फलसफा के आलिमों के साथ गहरे मसलों पर तवील गुफ्तगू किया करते थे….और यह इस तरफ उनकी ख्वाबगाह, मतलब बेडरूम, यहाँ वे आराम फरमाते थे…”
बाकी लोग आधी ऊब आधी दिलचस्पी के साथ बादशाह सलामत की दिनचर्या का कंडक्टेड टुअर ले रहे थे। लेकिन समीर जो आगे चल कर बहुत अच्छा और बहुत उपेक्षित बल्कि कुछ उचकबुद्धुओं के शब्दों में दयनीय कवि बना, इस वक्त अपना निजी इंवेस्टिगेशन कर रहा था। ख्वाबगाह में इधर-उधर घूमा, बाहर तक ताक-झाँक कर आया। लौटा तो, संबोधित गाइड को किया, “सुनिए चचा” लेकिन फिर जिज्ञासा उनके सामने नहीं जैसे सारे इतिहास के सामने ठेठ पुरबिया लहजे में ऱखी, “बादशाह सलामत झाड़ा कहाँ फिरते थे जी?”
मुगलिया शान के कसीदों से ऊबते, जिसे सिस्क्थ सेंस से जान रहे थे, उस तुलनात्मक अध्ययन से जलते लड़के तो जितना जरूरी था, उससे भी ज्यादा जोर से हँसे ही, अकबर की पर्सनाल्टी से टू मच इंप्रेस होती लड़कियों के लिए भी इस सवाल पर हँसी रोकना मुश्किल हो गया। इन साधारण मर्त्य मानवों से अलग, प्रवीण और उनके जैसे ज्ञानी, अवसर के अनुकूल न होने पर भी, जिज्ञासा की मूल वैधता को स्वीकारते हुए उसके सामाजिक आर्थिक और सांस्कृतिक निहितार्थों की पड़ताल में जुट गये।
गाइड बुजुर्ग तड़प उठे थे। मुगलिया सल्तनत का नॉस्टेल्जिया कहिए या मुश्तर्का कल्चर का, इस गुस्ताख सवाल पर उनकी भँवें ही नहीं टेढ़ी हुईं, खसखसी दाढ़ी भी गुस्से से काँपने लगी। बोले कुछ नहीं, एकाएक आदाब अर्ज करके चल दिए, पैसे भी लेने को राजी नहीं। किसी तरह प्रवीण ने ही बात सँभाली थी। गाढ़ी उर्दू और गाढ़ी हिन्दी को बोलचाल की जुबान के समर्थक कितना भी कोसें, इस गाढ़े वक्त साथ गाढ़ेपन ने ही दिया। मर्जी होने पर प्रवीण साध सकते थे दोनों तरह का गाढ़ापन। सो, उन्होंने काफी हाई फंडा उर्दू बोलकर ‘अहमकों के इस हुजूम में वाहिद बाशऊर शख्स’ होने का यकीन बड़े मियाँ को दिलाया, समीर की गुस्ताखी की माफी माँगी, और बुजुर्गवार को फीस देकर, उनकी दुआएं हासिल कर उन्हें विदा किया।
इस अनुभव की याद ने प्रवीण को रोका पूजारूम में अटैच्ड टायलेट-बाथरूम न होने के बारे में अतिप्रश्न करने से।
लेकिन ड्राइंग रूम के पीछे के इस विशाल हाल में, सपाट छत की जगह, मकबरे के गुंबद जैसा आकार देखकर रहा नहीं गया, पूछ बैठे, और ज्ञानान्वित हुए कि यह चेंग-चुई आर्किटेक्चर है। तिलमिलाए भी कि आज तक नाम नहीं सुना था, चेंग-चुई का। मामला चाहे मकान का हो, चाहे श्मशान का, प्रवीणजी को सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता में कहीं भी, किसी से भी पीछे रहना सुहाता नहीं था। विडंबना देखिए कि इस निहायत फैशनेबल (और इस कारण, प्रवीणजी के इंटेलेक्चुल संसार के अलिखित नियमों के अनुसार, अज्ञानी होने को अभिशप्त) बाला ने चेंग-चुई के बहाने प्रवीणजी को अज्ञानी सिद्ध कर ही दिया। ‘पढ़ना कम कर दिया है, साले, तुमने, लिखने और भषणियाने ज्यादा लगे हो’- प्रवीण जी ने खुद को खबरदार किया।
उधर सागरकन्या बड़े अफसर और प्रसिद्ध विद्वान के टू-इन-वन को इंप्रेस करने के अवसर का पूरा लाभ उठा रही थीं, ‘अभी अपने यहां किसी ने नाम तक नहीं सुना है, सर। लोग फेंग सुई तक ही रह गये हैं। मैं तो एक बार इनके साथ शिप पर आइवरी कोस्ट से गुजरी थी.. ही इज़ विद दि मर्चेंट नेवी, यू नो…. वहां चीनी डायस्पोरा की एक बस्ती थी उन्होंने अपनी क्लासिकल ट्रैडीशंस के साथ लोकल नालेज का हाइब्रिड करके फेंग सुई का जो रूप रिकंस्ट्रक्ट किया, उसे चेंग-चुई कहते हैं,’ सागर कन्या पोस्ट-मॉडर्न शब्दावली से गुजर कर असली चीज पर अब आईं, ‘चेंग-चुई का प्रिंसिपल है कि ऐसा डोम बनाने से पाजिटिव एनर्जी सारे घर में सर्कुलेट करती है, यहाँ जो वैक्यूम बनता है, वह सारी नेगेटिव एनर्जी को एब्जार्ब करके, प्यूरिफाई करके उसे पाजिटिव एनर्जी में बदल कर सारे स्ट्रक्चर में सर्कुलेट कर देता है, स्प्रिचुअल एनर्जी का रिसायकलिंग सिस्टम बन जाता है चेंग-चुई के हिसाब से डोम बनाने से…हमारी फर्म ने तो पेटेंट करा लिया है, चेंग-चुई का…अब इन दि एंटायर साउथ एशिया, बस हमारी ही फर्म चेंग-चुई प्रिंसिपल्स के इन एकार्डेंस मकान बनाती है, इसीलिए तो मिनिस्ट्री ने आप जैसे टॉप ऑफिशियल्स की इस कॉलोनी का कांट्रैक्ट हमें दिया है….बिटवीन मी ऐंड यू सर, जब मिनिस्टर साहब को मालूम पड़ा तो ही वाज लिटिल अपसेट कि… ऑनली फॉर ऑफिसर्स…अब आपकी दुआ से ऐंड विद दि ग्रेस ऑफ गॉड ऑलमाइटी, मिनिस्ट्रियल बंगलोज का काम भी हमीं को मिलने वाला है’।
‘लेकिन मेरे यहाँ आने के पहले दीवारों की सीलन तो ठीक करवा देंगी ना आप, लीकिंग पाइप्स हैं शायद…’
‘ ओ, नो, सर, दिस इज आलसो चेंग-चुई, ताकि आप कभी भी अपरूटेड महसूस न करें, आपकी जडें ही नहीं आपका लेफ्ट-राइट भी बैक टू फ्रंट, सदा भीतर से नम बना रहे, आपकी पर्सनाल्टी और रिलेशनशिप्स में कभी रूखापन न आए…आप तो जानते ही हैं सर कि आजकल फैमिलीज के भीतर ह्यूमन रिलेशंस कितने रूखे और खोखले होते जा रहे हैं…हमने मकानों के चेंग-चुई डिजाइन के जरिए एन्स्य़ोर किया है कि रिश्ते भीतर से नम रहें औऱ घर में पाजिटिव एनर्जी लगातार मूव करती रहे…बाई दि वे आप तो हिन्दी के राइटर भी हैं न सर?’
पहले मकबरे का सा गुंबद, अब यह सीलन, इसमें भी साला यह चेंग-चुई का आर्किटेक्चर…प्रवीण एक के बाद इन गुगलियों से हिल गये थे, हिन्दी के राइटर होने की याद दिलाए जाने से हकबका गये। इतना ही कह पाए, ‘हाँ, तो?’
‘मेरे हसबैंड एक्टिव इंटरेस्ट लेते हैं हिन्दी राइटिंग में, ही इज ए शॉर्ट स्टोरी राइटर एज वेल एज ए पोयट…’
प्रवीण को चेंग-चुई से बड़ा खतरा मंडराता दिखने लगा। अगला वाक्य यही होने वाला है कि जब आपको टाइम हो, हम लोग आते हैं, हसबैंड की पोयम्स सुन कर कुछ एडवाइज कीजिएगा। हिन्दी का लेखक या प्रोफेसर होने के यों तो कई कुपरिणाम हैं, लेकिन पिछले कई बरसों से जिससे प्रवीण सर्वाधिक आतंकित रहे आए थे, वह यही था- एक से बढ़ कर एक नमूनों की राइटिंग हाजत रफा कराने का माध्यम बनना…। एक से एक चुनिंदा बेवकूफों की रचनाशीलता का मूल्यांकन करना, उनकी महान रचनाओं पर राय देना। साहब लोगों की दुनिया में हिन्दी का लेखक चांदमारी का बोर्ड था। जिन्हें हिन्दी में अपनी क्रिएटिविटी फायर करने की लत लग जाए, उन्हें अपनी इलीट दुनिया में न पाठक मिलते थे, न श्रोता। इस दुनिया में प्रवेश करने के बाद प्रवीण को, भलमनसाहत कहिए या एटीकेट की विवशता, दर्जनों कुड हैव बीन नोबल लारेट्स एमेच्योर्स की फायरिंग झेलने का दुर्भाग्य भोगना पड़ा था, अब उनका धीरज जबाव देने लगा था। एक भी पल गँवाए बिना, उन्होंने कवर-पोजीशन ले ली,‘ मैं किसी हिन्दी राइटर का लिखा कुछ नहीं पढ़ता’…बात को थोड़ा मजाक का टच देने के लिए आगे जोड़ा, ‘सिवा अपने…’
सागरकन्या को प्रवीण का कथन न तो मजाक लगा, न बुरा और न ही उसे कोई ताज्जुब हुआ, ‘आई नो दैट सर, हसबैंड भी यही बताते हैं, मैंने भी फील किया, वो क्या है कि एक बार हमारे घर पर गैदरिंग हुई थी तो सारे के सारे राइटर्स बस फॉरेन या एट बेस्ट इंडियन इंगलिश ऑथर्स की ही बात कर रहे थे, या अपनी खुद की राइटिंग्स की। सो आई नो… बट, मैं तो कह यह रही थी कि उस गैदरिंग में भी, और वैसे भी मैंने नोट किया है कि कंटेंपरेरी हिन्दी राइटिंग, इन पर्टिकुलर फिक्शन में, नमी पर बड़ा एंफेसिस है। सम एक्सप्रेशंस इन दैट गैदरिंग वर रियली फेबुलस….लाइक…मेरी चेतना भीतर से नम हो गयी, जड़ों की नमी पत्तों तक आ गयी ऐंड आँखों में ही नहीं सारी देह में नमी छा गयी…यू नो…’
गुगली पर गुगली… प्रवीणजी को लगा, अब तो शॉट खेल ही लिया जाए, ‘तो आपके हिसाब से हिन्दी की कंटेपरेरी राइटिंग में भी आपका चेंग-चुई काम कर रहा है, आप मकान बना रही हैं, लेखक लोग कहानियाँ बना रहे हैं..दोनों चेंग-चुई के हिसाब से…राइट?’
‘ऐंड वाय नाट सर?’ सागरकन्या पर प्रवीणजी की चोट का कोई असर नहीं हुआ, ‘किसी चीज से इंप्रेस या इंफ्लुएंस होने के लिए उसे जानना कोई क्रिटिकली जरूरी थोड़े ही है। क्रिश्चियनटी विदाउट क्राइस्ट…यू नो…’
प्रवीणजी की हालत सेंचुरी बनाने के आदी, लेकिन जीरो पर आउट हो गये बैट्समैन की सी हो गयी। ग्लव्स उतारते, पैवेलियन की ओर वापस जाते बस इतना ही कह पाए, ‘सागरकन्या जी, आभारी हूँ आपका, कि चेंग-चुई की पाजिटिव एनर्जी से भरे इस मकबरे…आई मीन मकान में रहने जा रहा हूँ। सफेद कुर्ता-पाजामा और मोमबत्ती आपकी दुआ से मेरे सामान में है, गुमनाम है कोई की सीडी का जुगाड़ कर लूंगा, बस फिर अपने मकबरे…सॉरी अगेन..मकान… में अपना प्रेत-विचरण देखने का सौभाग्य प्राप्त करूंगा। बहुत शुक्रगुजार हूँ…क्या कमाल किया है इस मकान के डिजाइन में व्याप्त, और बाकी सारी चीजों में व्याप्त होती जा रही चेंग-चुई विद्या ने कि मकबरे में रहने के लिए दफ्न होना जरूरी नहीं रहा, और प्रेत बनने के लिए मरना…’।
‘वाट ए क्यूट एक्सप्रेशन, सर’ सागरकन्या के मुँह से हँसी की खनखनाहट बरसने लगी, ‘एनीवे, आप शिफ्ट तो कीजिए, आई एम एब्साल्यूटली श्योर, कभी छोड़ना नहीं चाहेंगे इस बंगलो को, मन ही नहीं करेगा कभी भी, देख लीजिएगा…यही तो है चेंग-चुई का कमाल…’ एकाएक उसने घड़ी देखी, ‘सॉरी सर, मुझे निकलना होगा, बाय सर, बट यू हैव ए वे विद वर्ड्स, मकबरे में रहने के लिए दफ्न होना जरूरी नहीं, प्रेत बनने के लिए मरना जरूरी नहीं, क्या बात है…’ हँसी फिर से खनखनाई…
खनखनाहट गूंजती रही- यही तो है चेंग-चुई का कमाल…गुमनाम है कोई…यही तो है चेंग-चुई का कमाल…गुमनाम है कोई…यही तो है चेंग चुई का कमाल…
‘Cheng-chui’ padhte aur padhne ke baad chehre par se muskaan jaa hi nahi rahi. Pathak ko apni muskurahat raas aaye ye iss kahani ka kamaal hai.
शुक्रिया, अपराजिता जी
बेहतरीन लगी कहानी, सर…
शुक्रिया भाई..
बहुत रवानी है कहानी की भाषा में. आप भी मनोहर श्याम जोशी की तरह कई तरह की भाषाओं में महारत रखते हैं. भाषा के जादूगर को सलाम.
शुक्रिया, प्रभात…
हम १९८८ से मित्र हैं पर मिलते नहीं, पर साथ बराबर रहते हैं….कमाल है डियर पुरुषोत्तम जी….बहुत दिनों बाद आनन्द आया!
शुक्रिया हेमंत जी, साथ रहना ही ज्यादा मानीखेज है, नहीं?
सर.. बहुत अच्छी लगी कहानी.. मुह बंद नहीं हुआ हंसने से..
कहानी अच्छी लगी सर..!!
सबसे अच्छा डायलाग ये लगा…
“पढ़ना कम कर दिया है, साले, तुमने, लिखने और भषणियाने ज्यादा लगे हो”
सर ऐसा लगा मैं अपने आप से बोल रहा हूँ।।