Vaishnva sadhu Anantdas was the first biographer of Kabir, he wrote his Kabir-Parchai in CE 1588. In one episode, he tells us about the petition which the religious leader of Kashi made to Sikandar Lodhi, accusing Kabir of hurting the sentiments of Hindus and Muslims both. The petitioners are content describing Kabir’s “anti-Muslim” stance by just saying that he has stopped living like a Muslim; but about Hinduism, they refer to a whole lot of practices and belief-structures.
The point to be noted here is the inherent diversity and multi-vocality of Hindu tradition. This a characteristic which makes a ‘definite and fixed definition’ of Hinduism a very difficult task. It also baffles those whose eyes are fixated at fixing all phenomena once and for all.
Incidentally, this episode also underlines the tremendous influence Kabir must have enjoyed, which annoyed the self-proclaimed community and identity representatives
I am posting these paragraphs from ‘Akath Kahani Prem ki…’ citing from Anantdas’s parchai in continuation of a dialogue with my dear friend Devdutt Pattanaik
कबीर के समकालीन ( उनके प्रशंसक हों या विरोधी) उनकी विशेषता भली भाँति समझते थे। उनकी कविता एक यदि करती थी तो उन्हीं को करती थी जो सामाजिक पहचान से ज्यादा मोल अनभय और अनुभव का मानते थे। बाकी लोगों के बारे में तो, अनंतदास बताते हैं: काशी के हिन्दू और मुसलमान नेता, भद्रजन, अपने अपने समुदाय के नेतृत्व का दावा करने वाले “प्रतिनिधि” गण कबीर की कविता के कारण नहीं, बल्कि उसके विरुद्ध एक होकर पहुँचे थे सिकंदर लोदी के हुजूर में। बादशाह हैरान, परेशान—एक अदना जुलाहे ने ऐसा क्या गजब ढा दिया? पूछने लगा: भई मामला क्या है? उसने क्या किसी का माल मार लिया है? किसी की जमीन दबा ली है? गाँव-परगना छीन लिया है?
काशी के हिन्दू-मुसलमान प्रतिनिधियों का जवाब लाजवाब है। लाजवाब और दो टूक। उनकी माँग भी उतनी ही स्पष्ट है: इस ‘अमारग’ चलने वाले, हिंदू, मुसलमान दोनों से न्यारा चलने वाले (आजकल के मुहाविरे में, ‘ भावनाओं को ठेस’ पहुँचाने वाले) कबीर को फौरन काशी से निकाल दिया जाए:
कहै सिकंदर क्या है भाई।
गांव प्रगना लिया छिनाई।।
गांव-प्रगना नहीं लिया।
जुलाहै ऐक अमारग किया।।
मुसलमांन की छोड़ी रीती।
अरु हिन्दू की भानैं छीती।।
निंदै तीरथ, निंदै बेदू।
निंदै नवग्रह सूरज चंदू।।
निंदै संकर निंदै माई।
निंदै सारद गणपति राई।।
निंदै ग्यारस होम सराध्य।
निंदै बांभन जग आराध्य।।
निंदै मातापिता की सेवा।
बहन भांणजी अरु सब देवा।
निंदै सकल धरम की आसा।
षट दरसन अरु बारह मासा।
ऐसी बिधि सब लोक बिगारा।
हींदू मुसलमान तैं न्यारा।।
ता तैं हमैं मानैं न कोई।
जब लग जुलहा कासी होई।।
( मुसलमान होते हुए भी इसने मुसलमानों के रीति-रिवाज त्याग दिए हैं। हिंदुओं के रीति-रिवाजों की भी निंदा करता है। वेद, तीर्थ, नवग्रह, व्रत, श्राद्ध—सभी की निंदा करता है। और तो और जगत के पूज्य ब्राह्मणों की निंदा करता है। हिन्दू, मुसलमान दोनों से न्यारे इस कबीर ने लोगों को बिगाड़ दिया है, इसके काशी में रहते हमारी कोई नहीं सुनने वाला।)
असली संकट यही है—“तातैं हमैं मानैं न कोई”। हाशिए तक सीमित आवाज होती कबीर की, तो मुल्लाओं और ब्राह्मणों को ‘साह सिकंदर’ को जहमत न देनी पड़ती, खुद ही इस आवाज से निबट लेते। यह एक और धर्म की स्थापना के लिए उत्सुक आवाज होती तो भी शायद एडजस्टमेंट हो जाता। ऐसी आवाज कभी मुल्लाओं के विरुद्ध ब्राह्मणों के काम की होती तो कभी ब्राह्मणों के विरुद्ध मुल्लाओं के काम की। लेकिन यह तो धर्मसत्ता मात्र के विरुद्ध मनुष्य की आत्मसत्ता की आवाज है। तरह-तरह की सामाजिक अस्मिताओं के “प्रवक्ताओं” के विरुद्ध विवेकवान व्यक्तिसत्ता की आवाज है। जो व्यक्ति यह आवाज दे रहा है, उस पर न प्रलोभनों का असर हो रहा है, न घर वालों के समझाने-बुझाने का—यह आदमी खतरनाक है।