Archive: May, 2014

नेहरू की छाया बहुत लंबी है….

लंबी छाया नेहरू की

 

वह ऐसी उमस भरी दोपहर थी,  जिसमें मांएं बच्चों को डाँट-डपट कर सुला दिया करती थीं कि  गली में खेलने ना निकल जाएं….वह नींद ऐसी ही डाँट से लाई गयी नींद थी….

सोते-जागते कानों में दूर से अजीब सी आवाजें आ रही थीं—‘जलाओ घी के…मर गया….’। यह दूसरी आवाज तो दूर से नहीं आ रही, यह तो जीजी (मां)  की आवाज है, ये तो जीजी  के हाथ हैं जो झकझोर रहे हैं, ‘उठ परसोतम, जल्दी उठ, सुन तो….नेहरूजी नहीं रहे….’ यह जो गाल पर आँसू टपका है, यह मुश्किल से ही रोने वाली जीजी की आँख में सँजोए हुए आँसुओं में से एक है….

कुछ ही देर बाद बाबूजी दुकान बढ़ा कर वापस आ गये थे….चाभी का झोला खूंटी पर लटका कर, पस्त पड़ गये खाट पर…

घी के (दिए)  जलाने का आव्हान करती आवाज का तर्क तो तभी समझ आ गया था, वह मोहल्ला हिन्दू महासभा का गढ़ ठहरा…लेकिन जीजी-बाबूजी के दुख को समझने की कोशिश आज तक जारी है। वे कांग्रेस के वोटर नहीं, विरोधी ही कहे जाएंगे… नेहरूजी की कई बातों से उन्हें चिढ़ होती थी, चीन से हारने की वजह भी तो नेहरू की नादानी ही थी…फिर भी उस रात घर में चूल्हा नहीं जला….जैसे घर का कोई बुजुर्ग ही चल बसा था…तीन दिन तक पूजा नहीं हुई…सूतक माना गया….

बहुत से लोग भारतीय जन-मानस में गांधीजी की उपस्थिति को तो स्वाभाविक मानते हैं, क्योंकि वे घोषित रूप से धार्मिक, पारंपरिक व्यक्ति थे, लेकिन नेहरू? उनके बारे में बताया जाता है कि उनका सोच-विचार, मन-संस्कार तो विलायती था—क्या लेना-देना उनका भारतीय जन-मानस से…

तो, क्या सत्ताईस मई उन्नीस सौ चौंसठ को क्या वह घर अनोखा था, जहाँ उस रात चूल्हा नहीं जला, तीन दिन तक सूतक माना गया; या वह देश के करोड़ों घरों जैसा साधारण घर ही था…क्या खो दिया था उस दोपहर, इन तमाम घरों ने?

आज,पचास बरस बाद एक बात तो लगती है कि हम में से बहुतेरे मानवीय संवाद की विधि ही नहीं समझते, इसीलिए उस जादू को नहीं समझ पाते जो गांधी और नेहरू जैसे विपरीत ध्रुवों पर खड़े दिखने वाले व्यक्तित्वों के बीच संवाद और विवाद का रिश्ता संभव करता है। औद्योगीकरण से लेकर संगठित धर्म तक के  सवालों पर अपने और जवाहरलाल के बीच मतभेदों से गांधीजी खुद भी नावाकिफ तो नहीं थे, फिर भी क्या कारण था, उनकी इस आश्वस्ति का कि, “स्फटिक की भाँति निर्मल हृदयवाले जवाहरलाल के हाथों देश का भविष्य सुरक्षित है”।

केवल आश्वस्ति नहीं, आग्रह, इस हद तक कि कांग्रेस संगठन में नेहरू की तुलना में पटेल के पक्ष में व्यापकतर समर्थन को जानते हुए भी स्वयं पटेल पर प्रभाव डाला कि नेहरू के नेतृत्व में काम करना स्वीकार करें। याद करें कि ग्राम-स्वराज्य के  सवाल पर  ‘असाध्य मतभेदों’  की बात का सार्वजनिक रेखांकन गांधी ने ही किया था। आज लगता है कि वह बहस चलनी चाहिए थी, उससे कतरा जाने की बजाय, दोनों पक्षों को, खासकर नेहरू को उलझना चाहिए था। ऐसा  होता तो दोनों पक्षों-गांधीजी और जवाहरलालजी- को ही नहीं, सारे समाज को बुनियादी सवालों पर अपनी सोच बेहतर करने में मदद मिलती।

खैर, जनमानस के साथ संवाद की कसौटी पर,एक लिहाज से नेहरू गांधीजी से भी अधिक प्रेरक व्यक्तित्व हैं। उनके मुहाविरे में ‘धार्मिकता’ नहीं थी, रहन-सहन में ‘पारंपरिकता’ नहीं थी, हिन्दी-उर्दू बोलते बखूबी थे, लेकिन गांधीजी की तरह कभी अपनी मातृभाषा में लिखा नहीं। ‘लेखक’ अंग्रेजी के ही थे; और ‘धर्मप्राण’ भारतीय जन-मानस से संवाद इतना गहरा था कि बेखटके बांधों और कारखानों को ‘नये भारत के नये तीर्थस्थल’ कह सकें।

गांधीजी को अपने ‘सत्य के प्रयोगों’ का सार जीवन-तप से मिला, नेहरू ने अपने जीवन-तप में ‘भारत की खोज’ की। यह केवल एक पुस्तक का शीर्षक नहीं, ईमानदार, विनम्र आत्म-स्वीकार था, अपनी न्यूनता का। मुंह में चांदी का चम्मच लेकर जन्मे जोशीले नौजवान को अहसास कैंब्रिज से लौटते ही हो गया था कि उसकी विशेषाधिकार-संपन्न सामाजिक स्थिति ने उसे अपने समाज से कितना काट दिया है, उसे भारत मिल नहीं गया है, उसे खोजना है। ‘भारत की खोज’ नेहरू के लिए अपनी जगह की तलाश भी थी।

‘आत्मकथा’ में कितने चाव और गर्व से लिखा है नेहरू ने, ‘ कांग्रेस के जन-संपर्क कार्यक्रम के तहत, मानव-जाति को ज्ञात हर यातायात-साधन का उपयोग किया’। मीलों पैदल चले, साइकिल चलाई, नाव पर बैठे, घुड़सवारी तो बचपन से करते आए थे, बैलगाड़ी, ऊंटगाड़ी की भी सवारी की….और देखा, ‘उन हताश, पीड़ित किसानों को जिन्होंने सारी तकलीफों और ज्यादतियों के बीच अपनी इंसानियत को बचाए रखने का कमाल कर दिखाया है’;  समझा और आत्मसात किया इस सत्य को कि ‘गांधीजी इन किसानों को उपदेश नहीं देते, वे इनकी तरह सोच पाते हैं, और इसलिए इनसे बातचीत ही नहीं, ऐसा गहरा संवाद कर पाते हैं, जिसके जादू को हम जैसे पार्लर सोशलिस्ट समझ ही नहीं सकते’।

इस जादू को समझने के तप ने ही ‘भारत की खोज’  का रूप लिया, यह खोज केवल वर्तमान की नहीं थी, फिर भी, यह किताब कोई इतिहास-ग्रंथ नहीं, बल्कि लेखक की आत्म-कथा का एक रूप है। यह किताब बेधड़क रूप से आधुनिक एक व्यक्ति द्वारा अपने समाज की परंपरा से संवाद की कोशिश, अपने समाज की आत्मा की खोज है। अपने आत्म में समाज की आत्मा, और उस समाज की परंपरा में अपनी जगह की तलाश है।

इस खोज में ही उन्होंने खुद को यह जानते पाया कि ‘भारत माता की जय’ के नारे में, ‘वंदे मातरम’ के अभिनंदन में जो मां शब्द  है वह संकेतक है वह देश के इतिहास, भूगोल, संस्कृति, विरासत सब कुछ का, लेकिन सर्वोपरि देश के साधारण इंसान का…।  ‘ एक तरह से आप स्वंय हैं भारत-माता’— यही कहते थे नेहरू बारंबार अपने श्रोताओं से। गांधीजी के अद्भुत शब्द-चित्र का ‘आखिरी आदमी’ है भारत-माता, उसकी आँख का आखिरी आँसू पोंछना ही होगा भारत-माता की सच्ची जय…।

‘भारत की खोज’ के ही प्रसंग में नेहरू ने अपनी धर्म-दृष्टि स्पष्ट की थी, “गैर-आलोचनात्मक आस्था और तर्कहीनता पर निर्भर” विश्वासों से वे असुविधा महसूस करते थे, ऐसे विश्वास चाहे ‘हिन्दू’ धर्म के नाम से पेश किये जाएं, चाहे ‘इस्लाम’ या ‘ईसाइयत’ के नाम से। लेकिन वे जानते थे कि, “धर्म मानवीय चेतना की किसी गहरी जरूरत को संतुष्ट करता है…मानवीय अनुभव के उन अज्ञात क्षेत्रों की ओर ले जाता है, जो समयविशेष के विज्ञान और अनुभवपरक ज्ञान के परे हैं”। इसीलिए संगठित धर्म के निजी अरुचि के बावजूद आक्रामक किस्म के धर्म-विरोध में नेहरू की कोई दिलचस्पी नहीं थी।

प्रचलित धार्मिकता का विकल्प वे प्राचीन भारत और प्राचीन यूनान की प्रकृति-पूजक, बहुदेववादी (उनके अपने शब्दों में ‘पैगन’) संवेदना और उसके साथ ही ‘जीवन के प्रति नैतिक दृष्टिकोण’ में पाते थे। उन्होंने गांधीजी का सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान ‘साधन-शुचिता’ पर बल को ही माना। उन्होंने रेखांकित किया कि ‘ सत्य पर एकाधिकार के किसी भी दावे से पैगन अवधारणा का मूलभूत विरोध है”। एक अमेरिकी पत्रकार ने जब उनसे कहा कि ‘ धीरे धीरे मुझे लगने लगा है कि किसी भी न्यूज-स्टोरी के स्याह-सफेद ही नहीं, और भी रंग होते हैं,’  तो नेहरू ने छूटते ही कहा था, ‘ वेलकम टू हिन्दू व्यू ऑफ लाइफ’।

इन सब प्रभावों और संवादों के साथ भारत की, और खुद अपनी खोज करते नेहरू ने और उनके मार्गदर्शक गांधीजी और साथी पटेल तथा दीगर नेताओं ने सेकुलरिज्म के शब्द-कोशीय अर्थ पर नहीं, भारतीय अनुभव से कमाए गये अर्थ पर बल दिया। सार्वजनिक जीवन तथा राजतंत्र में पंथ-निरपेक्षता की वकालत की, सेकुलरिज्म का अर्थ अल्पसंख्यकों के मन में सुरक्षा-बोध भरना माना। संविधान-सभा में अल्पसंख्यक-संरक्षण के बारे में विचार करने के लिए बनी समिति के अध्यक्ष नेहरू नहीं पटेल थे।

नेहरू ने गलतियां भी कीं; बड़े लोगों की गलतियाँ बड़ी भी होती हैं, महंगी भी। लेकिन, उन सारी गलतियों (जिनकी चर्चा होती ही रहती है, होनी ही चाहिए) के बावजूद, सच यही है कि नेहरू द्वारा अपनाई गयी मूल दिशा सही थी। गांधीजी  सच्चे अर्थों में मौलिक चिन्तक थे। नेहरू ने ऐसा कोई दावा परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से नहीं किया कि वे मानवीय स्थिति के प्रसंग में कोई नितांत मौलिक अस्तित्वमीमांसामूलक या ज्ञानमीमांसामूलक प्रस्थान प्रस्तुत कर रहे हैं। गांधीजी सत्य के प्रयोग कर रहे थे, राजनैतिक आंदोलन उनकी आध्यात्मिक खोज का अंग था। नेहरू भारत की और अपनी जगह की खोज कर रहे थे।

स्वाधीनता के बाद, नेहरू, पटेल और उनके साथियों के सामने चुनौती स्वाधीन देश में लोकतांत्रिक न्याय के साथ आर्थिक विकास संभव करने की थी; एक सनातन सभ्यता को आधुनिक राष्ट्र-राज्य का रूप देने की थी। इसके लिए संवैधानिक परंपराओं और संस्थाओं की महत्ता का व्यावहारिक रेखांकन सबसे बुनियादी था, और नेहरू ने यह करने की कोशिश की;  बेशक सफलता और असफलता के साथ। इसी से संबद्ध खोज थी विश्व-रंगमंच पर भारत की प्राचीनता, विविधता, और अंतर्निहित संभावना के अनुकूल भूमिका तलाशने की। यहाँ भी कुछ कामयाबी, कुछ नाकामयाबी— यह स्वाभाविक नहीं क्या?

उनकी नीतियों का मूल प्रस्थान मध्यम-मार्ग था। भगवान बुद्ध द्वारा प्रतिपादित मध्यमा प्रतिपदा। इसीलिए उन्हें समाजवादियों की भी आलोचना का सामना करना पड़ा, और मुक्त-व्यापार वालों की भी। उनकी मिश्रित अर्थव्यवस्था को उस चुटकुले का मूर्त रूप बताया गया कि, ‘ मैडम, अपने मिलन से होने वाली संतान को कहीं रूप मेरा और बुद्धि आपकी मिल गयी तो’?

लेकिन रास्ता तो यही था । सोवियत संघ के विघटन से लेकर पिछले दिनों जब बराक ओबामा को कहना पड़ा कि पूरी छूट तो मार्केट फोर्सेज को नहीं दी जा सकती।

रास्ता तो यही है, एक बार फिर दिख रहा है। चुनाव में शानदार हार के बाद, कांग्रेस के हार्वर्ड-पलट नीतिकार कह रहे हैं कि नेहरू की ओर लौटना होगा— जाहिर है कि जीत हुई होती तो नेहरू की ओर लौटने की बात तक नहीं होती।  खैर, कांगेस की बात तो ठीक है लेकिन…।

मेरे मित्र नीलांजन मुखोपध्याय ने बढ़िया किताब लिखी है नये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर। उन्होंने ठीक ही नरेन्द्र मोदी को भारत का पहला ‘नॉन नेहरूवियन’ प्रधानमंत्री पदाकांक्षी कहा है। लेकिन, इन ‘नॉन नेहरूवियन’ पदाकांक्षी के प्रधानमंत्री मनोनीत हो जाने के बाद तो उनकी भाषा भी नेहरूवियन होने की कोशिश कर रही है, और विदेश-नीति भी, सैनिकों के सर के बदले सर काटने की बातें करने वालों के मन-मयूर शपथ-ग्रहण में ही पाकिस्तान के प्रधान-मंत्री के आने की बात से नृत्य कर रहे हैं।

गांधी-नेहरू की विरासत केवल कांग्रेस तक वाकई सीमित नहीं है, चाहें तो कह लें, वह मजबूती है, चाहें तो कह लें कि मजबूरी है भारत नामके राष्ट्र-राज्य के लिए ।

जवाहरलाल नेहरू की पार्थिव देह तो सत्ताईस मई उन्नीस सौ चौंसठ को शांत हो गयी लेकिन उस देह की छाया बहुत लंबी है, वह भारत के पहले ‘नॉन नेहरूवियन’ प्रधानमंत्री पर भी पड़ ही रही है।

 

 

‘आप’ और अरविन्द केजरीवाल के बारे में…..

‘आप’ फिर खबरों में है, जनता से माफी मांगने के कारण, और नितिन गडकरी  से माफी ना माँगने के कारण….

‘आप’ से उम्मीदें बहुत हैं, लेकिन आशंका भी है कि कहीं अपने दुश्मन आप ना साबित ना हो जाएं…..

लोकसभा चुनाव से पहले प्रकाश रे को यह इंटरव्यू दिया था, ‘प्रभात-खबर’ के लिए….आज यहाँ लगा रहा हूँ, इस उम्मीद में कि शायद अब ‘आप’ के मित्र इसे शांतचित्त से पढें-गुनें…

 

 

प्रश्न- अलग अलग जातीय, क्षेत्रीय, आर्थिक-सामाजिक पृष्ठभूमि के लोग केजरीवाल की पार्टी से जुड़े हैं और जुड़ रहे हैं। क्या इसे भारतीय राजनीति के नये सूत्रपात के रूप में देखा जा सकता है, जहाँ अभी तक राजनीतिक दल किसी सामाजिक पहचान और उस पर आधारित समर्थन पर निर्भर हैं।

‘आप’ परिघटना का सर्वाधिक सार्थक और शुभ पहलू यही है कि यह पार्टी हमारे लोकतंत्र की ‘सहज और स्वाभाविक’ मान ली गयी विकृतियों को दूर करने का प्रयत्न करती दीख रही है। लोकतांत्रिक मूल्यों और सुशासन के लिए जनता को संगठित करने के बजाय किसी न किसी सामाजिक-धार्मिक या क्षेत्रीय अस्मिता के नाम पर राजनीति करने वालों की कृपा से नागरिक मुद्दे पीछे छूटते जा रहे हैं, और समाज में परस्पर अविश्वास का वातावरण बनता जा रहा है। सच तो यह है कि भारत-धारणा- आइडिया ऑफ इंडिया- ही खतरे में महसूस होने लगी है। ऐसे में  ‘आप’ के प्रति जनता का उत्साह इस बात की सूचना है कि भारत-धारणा राजनेताओं और बुद्धिजीवियों के लिए भले ही बस एक कल्पना भर हो, आम लोगों के लिए जीवन-मरण का सवाल है। लोग एक विश्वसनीय विकल्प के लिए बेकल हैं जिसके जरिए वे लोकतांत्रिक मूल्यों के आधार पर संचालित, जबावदेह सरकार हासिल कर सकें। नेता लोग किसी भी बात पर स्टैंड लेते समय अपने वोट-बैंक की चिंता करते हैं, लोकतांत्रिक मूल्यों और मर्यादाओं की नहीं। बुद्धिजीवी भी सार्वभौम लोकतांत्रिक मूल्यों की परवाह किये बिना, अपनी अपनी पसंदीदा अस्मितावादी राजनीति को जायज ठहराते हैं। जबावदेही का आलम यह है कि चुनाव के बाद नेताओं के दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं। भ्रष्टाचार और वीआईपी संस्कृति के विरोध की जिनसे उम्मीद थी, वे ही कमजोरों के सशक्तिकरण के नाम पर इन व्याधियों के सबसे बड़े पैरोकार बन  गये हैं।  इज्जत और सुरक्षा हरेक नागरिक का  अधिकार नहीं बल्कि वीआईपी का विशेषाधिकार बन गयी है।

‘आप’  के प्रति उत्साह प्रचलित राजनीतिक संस्कृति के प्रति असंतोष से ही उपजा है। यह दूसरे दलों के लिए स्वागत योग्य चेतावनी है। आखिरकार कुल चार विधायकों की कमी के बावजूद, दिल्ली में सरकार बनाने से इंकार कर देने के भाजपा के ‘नैतिक’ फैसले के बीच ‘आप’  की सफलता में ध्वनित होता जनता का यह असंतोष और उत्साह ही था। सवाल, लेकिन यह है कि यह ‘नयापन’ कितने दिन चल पाएगा।

प्रश्न- केजरीवाल का तीव्र विरोध राजनैतिक विरोध कहीं उनकी पार्टी की बढ़ती लोकप्रियता से उपजी तल्खी तो नहीं है? उन्हें मिल रहे जनसमर्थन का कोई तो ठोस आधार होगा?

केजरीवाल को मिल रहे जनसमर्थन के वास्तविक आधार की ओर मैं, आपके पहले प्रश्न का उत्तर देते हुए संकेत कर ही चुका हूँ। यह आधार है विकल्प की संभावना में आम हिन्दुस्तानी का विश्वास और ‘आप’ के रूप में उसे पा लेने का उत्साह। विरोध का कारण भी यही है। भाजपा खासकर तल्ख है क्योंकि उसे डर लग रहा है कि कहीं ‘आप’ के कारण, आने वाले चुनावों में उसकी हालत ‘ हाथ तो आया लेकिन मुँह नहीं लगा’ वाली ना हो जाए। जिस असंतोष को भुना कर सत्ता में आने के सपने भाजपा देख रही है, उसे ‘आप’ की झोली में जाते देख तल्खी स्वाभाविक ही है। लेकिन,  दूसरे दल भी चिंतित हैं क्योंकि  ‘आप’ किसी एक पार्टी के लिए नहीं, समूची राजनैतिक संस्कृति के लिए चुनौती के रूप में उभरी है।

प्रश्न- अन्ना आंदोलन से लेकर दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफे तक की समयावधि में केजरीवाल के विचार और व्यवहार में क्या बदलाव आए हैं? उनका और उनकी पार्टी का राजनीतिक भविष्य क्या हो सकता है? किसी भी मौजूदा गठबंधन से नहीं जुड़ने के उनके फैसले को किस रूप में देखा जा सकता है?

        अन्ना आंदोलन के दौरान, अन्ना हजारे के साथ ही एक टीवी शो में हिस्सा लेते हुए अरविन्द केजरीवाल उन लोगों पर बहुत तीखे आक्रमण  कर रहे थे, जो उनसे कहते थे कि बाकायदा राजनीति में आकर अपनी बात जनता के सामने रखें। तो, एक बदलाव तो जाहिर ही है कि वे अब बाकायदा एक राजनैतिक पार्टी ही नहीं बना चुके, बल्कि दिल्ली के मुख्यमंत्री भी रह चुके। जहाँ तक सवाल है व्यवहार का, अरविन्द केजरीवाल ने शायद अनजाने ही जता दिया है कि वे स्वभाव से आंदोलनकारी ही हैं, और इसी भूमिका में उनका मन रमता है। शायद उन्हें खुद भी आशंका नहीं थी कि सरकार चलाने की झंझट भी उनके सिर आ सकती है।

विडंबना यह है कि वोट माँगने के लिए वादा तो यही करना पड़ेगा कि बेहतर सरकार चलाएंगे या चलाने वालों  की मदद करेंगे, लेकिन वोट मिल जाने पर, लोकसभा में कुछ सीटें जीत जाने पर आंदोलन के अलावा क्या करेंगे…यह शायद वे खुद नहीं जानते। उन्हें और उनके साथियों को यह समझना ही होगा कि बेशक आंदोलन लोकतांत्रिक राजनीति का आधार है, लेकिन आंदोलन की प्रामाणिकता का प्रतिमान यह है कि अवसर मिलने पर बेहतर और स्थिर सरकार चला कर भी दिखाएँ।

प्रश्न- दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा भ्रष्टाचार मिटाने की प्रतिबद्धता की ओर इंगित करता है याकि आपको लगता है कि अरविन्द केजरीवाल सरकार चलाने की जिम्मेवारी से भागना चाहते थे? क्या इस घटनाक्रम को राजनैतिक पैंतरेबाजी के रूप में देखा जा सकता है?

        मुझे नहीं लगता कि इस्तीफा भ्रष्टाचार मिटाने की प्रतिबद्धता का सूचक है। मैं बारंबार कहता रहा हूँ कि लोकतंत्र केवल संख्याओं का खेल नहीं, संस्थाओं और मर्यादाओं का भी मामला है। जिस बिल को आप इतना महत्वपूर्ण मानते हैं, उसकी प्रतिलिपियाँ विधान-सभा सदस्यों को एक ही रात पहले मुहैया कराना क्या सूचित करता है? कानूनी तौर से, दिल्ली विधान-सभा में किसी विधेयक को पेश करने के पहले उप-राज्यपाल की अनुमति जरूरी है। यह दिल्ली की विशेष स्थिति से जुड़ा प्रावधान है। फिर, संसद द्वारा लोकपाल बिल पारित कर दिये जाने के बाद दिल्ली या किसी भी राज्य में लोकायुक्त का गठन केंद्रीय कानून की उपेक्षा करके नहीं किया जा सकता। केजरीवाल चाहते तो सरकार चलाते हुए, इस मामले में राजनैतिक और सामाजिक आम-राय बनाने की कोशिश कर सकते थे। लेकिन तब उन्हें भ्रष्टाचार के लिए हम शहीद हुए-ऐसा कहने का सुख और सरकार चलाने के झंझट से मुक्ति न मिल पाती, और वे लोकसभा चुनाव के लिए ‘इशू’ को ‘लाइव’ न रख पाते। केजरीवाल का इस्तीफा एक बहुत ही सोचा-समझी राजनैतिक चाल है।

‘आप’ की बुनियादी समस्या नैतिक दंभ है। इसीके दर्शन सोमनाथ भारती प्रकरण में हुए थे, और इसीके कारण जन-लोकपाल जैसे महत्वपूर्ण कानून का श्रीगणेश ही गैर-कानूनी ढंग से करने में ‘आप’ को कोई संकोच नहीं हो रहा था।  

        प्रश्न- केजरीवाल व्यवस्था-परिवर्तन के हिमायती हैं, अराजक हैं, समाजवादी हैं, या पूंजीवादी? या फिर राजनीतिक समझ को लेकर भ्रमित हैं?

 राजनैतिक दर्शन में ‘अराजकतावादी’ उन विचारकों को कहा जाता है, जो समाज में राजसत्ता के प्रभाव को कम से कम करना चाहते हैं। केजरीवाल तो जिस तरह के सर्वशक्तिमान, ‘ऑल इन वन’ लोकपाल की कल्पना करते हैं, वह राज्य की ताकत को कम नहीं, बल्कि अभूतपूर्व रूप से ज्यादा  करने वाला है। केजरीवाल के हिसाब से भ्रष्टाचार सभी समस्याओं की जड़ है, और उनकी कल्पना का जन-लोकपाल हर रोग का रामबाण इलाज। उनके हिसाब से व्यवस्था परिवर्तन का आशय इतना ही प्रतीत होता है।  चीजें इतनी आसान हैं नहीं। बात समाजवादी या पूंजीवादी होने की नहीं, जटिल समाजतंत्र और राज्यतंत्र की गतिशील और गहरी समझ की है, जिसका  केजरीवाल में अभाव लगता है। याद कीजिए, दिल्ली विधान-सभा में उन्होंने ऑटो-ड्राइवर से लेकर अंतरिक्ष-यात्री तक को ‘आम आदमी’ निरूपित कर दिया था, याने जो नेता नहीं है, वह आम आदमी है। स्वच्छ राजनीतिक संस्कृति का विकास सभी राजनेताओं और सारे राजनीतिक तंत्र के प्रति तिरस्कार का भाव रखके नहीं किया जा सकता। राजनीति मात्र को रद्द करने वाली यह मनोवृत्ति लोकतंत्र को भी रद्द करने वाली मनोवृत्ति में बड़ी तेजी से बदल सकती है। केजरीवाल के कुछ साथी उन पर तानाशाही मनोवृत्ति का आरोप लगाते सुने भी जाते रहे हैं।

मेरी चिंता केजरीवाल के भ्रमित होने से कहीं ज्यादा है। जैसाकि मैंने आपसे कहा, ‘आप’ की सफलता का आधार है विकल्प की संभावना में आम हिन्दुस्तानी का विश्वास और ‘आप’ के रूप में उसे पा लेने का उत्साह। खतरा यह है कि ‘आप’ अपने नैतिक दंभ के कारण इस विश्वास को तोड़ने वाली पार्टी भी साबित हो सकती है।

वीआईपी संस्कृति और भ्रष्टाचार से उत्पन्न रोष के कारण मिले विश्वास को यदि इस तरह से पथभ्रष्ट किया गया तो यह पार्टी अपनी सबसे बड़ी दुश्मन आप तो साबित होगी ही, भ्रष्ट तंत्र को नये सिरे से नैतिक वैधता प्रदान करने का पाप भी उसी के सिर जाएगा।