‘आप’ और अरविन्द केजरीवाल के बारे में…..

‘आप’ फिर खबरों में है, जनता से माफी मांगने के कारण, और नितिन गडकरी  से माफी ना माँगने के कारण….

‘आप’ से उम्मीदें बहुत हैं, लेकिन आशंका भी है कि कहीं अपने दुश्मन आप ना साबित ना हो जाएं…..

लोकसभा चुनाव से पहले प्रकाश रे को यह इंटरव्यू दिया था, ‘प्रभात-खबर’ के लिए….आज यहाँ लगा रहा हूँ, इस उम्मीद में कि शायद अब ‘आप’ के मित्र इसे शांतचित्त से पढें-गुनें…

 

 

प्रश्न- अलग अलग जातीय, क्षेत्रीय, आर्थिक-सामाजिक पृष्ठभूमि के लोग केजरीवाल की पार्टी से जुड़े हैं और जुड़ रहे हैं। क्या इसे भारतीय राजनीति के नये सूत्रपात के रूप में देखा जा सकता है, जहाँ अभी तक राजनीतिक दल किसी सामाजिक पहचान और उस पर आधारित समर्थन पर निर्भर हैं।

‘आप’ परिघटना का सर्वाधिक सार्थक और शुभ पहलू यही है कि यह पार्टी हमारे लोकतंत्र की ‘सहज और स्वाभाविक’ मान ली गयी विकृतियों को दूर करने का प्रयत्न करती दीख रही है। लोकतांत्रिक मूल्यों और सुशासन के लिए जनता को संगठित करने के बजाय किसी न किसी सामाजिक-धार्मिक या क्षेत्रीय अस्मिता के नाम पर राजनीति करने वालों की कृपा से नागरिक मुद्दे पीछे छूटते जा रहे हैं, और समाज में परस्पर अविश्वास का वातावरण बनता जा रहा है। सच तो यह है कि भारत-धारणा- आइडिया ऑफ इंडिया- ही खतरे में महसूस होने लगी है। ऐसे में  ‘आप’ के प्रति जनता का उत्साह इस बात की सूचना है कि भारत-धारणा राजनेताओं और बुद्धिजीवियों के लिए भले ही बस एक कल्पना भर हो, आम लोगों के लिए जीवन-मरण का सवाल है। लोग एक विश्वसनीय विकल्प के लिए बेकल हैं जिसके जरिए वे लोकतांत्रिक मूल्यों के आधार पर संचालित, जबावदेह सरकार हासिल कर सकें। नेता लोग किसी भी बात पर स्टैंड लेते समय अपने वोट-बैंक की चिंता करते हैं, लोकतांत्रिक मूल्यों और मर्यादाओं की नहीं। बुद्धिजीवी भी सार्वभौम लोकतांत्रिक मूल्यों की परवाह किये बिना, अपनी अपनी पसंदीदा अस्मितावादी राजनीति को जायज ठहराते हैं। जबावदेही का आलम यह है कि चुनाव के बाद नेताओं के दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं। भ्रष्टाचार और वीआईपी संस्कृति के विरोध की जिनसे उम्मीद थी, वे ही कमजोरों के सशक्तिकरण के नाम पर इन व्याधियों के सबसे बड़े पैरोकार बन  गये हैं।  इज्जत और सुरक्षा हरेक नागरिक का  अधिकार नहीं बल्कि वीआईपी का विशेषाधिकार बन गयी है।

‘आप’  के प्रति उत्साह प्रचलित राजनीतिक संस्कृति के प्रति असंतोष से ही उपजा है। यह दूसरे दलों के लिए स्वागत योग्य चेतावनी है। आखिरकार कुल चार विधायकों की कमी के बावजूद, दिल्ली में सरकार बनाने से इंकार कर देने के भाजपा के ‘नैतिक’ फैसले के बीच ‘आप’  की सफलता में ध्वनित होता जनता का यह असंतोष और उत्साह ही था। सवाल, लेकिन यह है कि यह ‘नयापन’ कितने दिन चल पाएगा।

प्रश्न- केजरीवाल का तीव्र विरोध राजनैतिक विरोध कहीं उनकी पार्टी की बढ़ती लोकप्रियता से उपजी तल्खी तो नहीं है? उन्हें मिल रहे जनसमर्थन का कोई तो ठोस आधार होगा?

केजरीवाल को मिल रहे जनसमर्थन के वास्तविक आधार की ओर मैं, आपके पहले प्रश्न का उत्तर देते हुए संकेत कर ही चुका हूँ। यह आधार है विकल्प की संभावना में आम हिन्दुस्तानी का विश्वास और ‘आप’ के रूप में उसे पा लेने का उत्साह। विरोध का कारण भी यही है। भाजपा खासकर तल्ख है क्योंकि उसे डर लग रहा है कि कहीं ‘आप’ के कारण, आने वाले चुनावों में उसकी हालत ‘ हाथ तो आया लेकिन मुँह नहीं लगा’ वाली ना हो जाए। जिस असंतोष को भुना कर सत्ता में आने के सपने भाजपा देख रही है, उसे ‘आप’ की झोली में जाते देख तल्खी स्वाभाविक ही है। लेकिन,  दूसरे दल भी चिंतित हैं क्योंकि  ‘आप’ किसी एक पार्टी के लिए नहीं, समूची राजनैतिक संस्कृति के लिए चुनौती के रूप में उभरी है।

प्रश्न- अन्ना आंदोलन से लेकर दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफे तक की समयावधि में केजरीवाल के विचार और व्यवहार में क्या बदलाव आए हैं? उनका और उनकी पार्टी का राजनीतिक भविष्य क्या हो सकता है? किसी भी मौजूदा गठबंधन से नहीं जुड़ने के उनके फैसले को किस रूप में देखा जा सकता है?

        अन्ना आंदोलन के दौरान, अन्ना हजारे के साथ ही एक टीवी शो में हिस्सा लेते हुए अरविन्द केजरीवाल उन लोगों पर बहुत तीखे आक्रमण  कर रहे थे, जो उनसे कहते थे कि बाकायदा राजनीति में आकर अपनी बात जनता के सामने रखें। तो, एक बदलाव तो जाहिर ही है कि वे अब बाकायदा एक राजनैतिक पार्टी ही नहीं बना चुके, बल्कि दिल्ली के मुख्यमंत्री भी रह चुके। जहाँ तक सवाल है व्यवहार का, अरविन्द केजरीवाल ने शायद अनजाने ही जता दिया है कि वे स्वभाव से आंदोलनकारी ही हैं, और इसी भूमिका में उनका मन रमता है। शायद उन्हें खुद भी आशंका नहीं थी कि सरकार चलाने की झंझट भी उनके सिर आ सकती है।

विडंबना यह है कि वोट माँगने के लिए वादा तो यही करना पड़ेगा कि बेहतर सरकार चलाएंगे या चलाने वालों  की मदद करेंगे, लेकिन वोट मिल जाने पर, लोकसभा में कुछ सीटें जीत जाने पर आंदोलन के अलावा क्या करेंगे…यह शायद वे खुद नहीं जानते। उन्हें और उनके साथियों को यह समझना ही होगा कि बेशक आंदोलन लोकतांत्रिक राजनीति का आधार है, लेकिन आंदोलन की प्रामाणिकता का प्रतिमान यह है कि अवसर मिलने पर बेहतर और स्थिर सरकार चला कर भी दिखाएँ।

प्रश्न- दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा भ्रष्टाचार मिटाने की प्रतिबद्धता की ओर इंगित करता है याकि आपको लगता है कि अरविन्द केजरीवाल सरकार चलाने की जिम्मेवारी से भागना चाहते थे? क्या इस घटनाक्रम को राजनैतिक पैंतरेबाजी के रूप में देखा जा सकता है?

        मुझे नहीं लगता कि इस्तीफा भ्रष्टाचार मिटाने की प्रतिबद्धता का सूचक है। मैं बारंबार कहता रहा हूँ कि लोकतंत्र केवल संख्याओं का खेल नहीं, संस्थाओं और मर्यादाओं का भी मामला है। जिस बिल को आप इतना महत्वपूर्ण मानते हैं, उसकी प्रतिलिपियाँ विधान-सभा सदस्यों को एक ही रात पहले मुहैया कराना क्या सूचित करता है? कानूनी तौर से, दिल्ली विधान-सभा में किसी विधेयक को पेश करने के पहले उप-राज्यपाल की अनुमति जरूरी है। यह दिल्ली की विशेष स्थिति से जुड़ा प्रावधान है। फिर, संसद द्वारा लोकपाल बिल पारित कर दिये जाने के बाद दिल्ली या किसी भी राज्य में लोकायुक्त का गठन केंद्रीय कानून की उपेक्षा करके नहीं किया जा सकता। केजरीवाल चाहते तो सरकार चलाते हुए, इस मामले में राजनैतिक और सामाजिक आम-राय बनाने की कोशिश कर सकते थे। लेकिन तब उन्हें भ्रष्टाचार के लिए हम शहीद हुए-ऐसा कहने का सुख और सरकार चलाने के झंझट से मुक्ति न मिल पाती, और वे लोकसभा चुनाव के लिए ‘इशू’ को ‘लाइव’ न रख पाते। केजरीवाल का इस्तीफा एक बहुत ही सोचा-समझी राजनैतिक चाल है।

‘आप’ की बुनियादी समस्या नैतिक दंभ है। इसीके दर्शन सोमनाथ भारती प्रकरण में हुए थे, और इसीके कारण जन-लोकपाल जैसे महत्वपूर्ण कानून का श्रीगणेश ही गैर-कानूनी ढंग से करने में ‘आप’ को कोई संकोच नहीं हो रहा था।  

        प्रश्न- केजरीवाल व्यवस्था-परिवर्तन के हिमायती हैं, अराजक हैं, समाजवादी हैं, या पूंजीवादी? या फिर राजनीतिक समझ को लेकर भ्रमित हैं?

 राजनैतिक दर्शन में ‘अराजकतावादी’ उन विचारकों को कहा जाता है, जो समाज में राजसत्ता के प्रभाव को कम से कम करना चाहते हैं। केजरीवाल तो जिस तरह के सर्वशक्तिमान, ‘ऑल इन वन’ लोकपाल की कल्पना करते हैं, वह राज्य की ताकत को कम नहीं, बल्कि अभूतपूर्व रूप से ज्यादा  करने वाला है। केजरीवाल के हिसाब से भ्रष्टाचार सभी समस्याओं की जड़ है, और उनकी कल्पना का जन-लोकपाल हर रोग का रामबाण इलाज। उनके हिसाब से व्यवस्था परिवर्तन का आशय इतना ही प्रतीत होता है।  चीजें इतनी आसान हैं नहीं। बात समाजवादी या पूंजीवादी होने की नहीं, जटिल समाजतंत्र और राज्यतंत्र की गतिशील और गहरी समझ की है, जिसका  केजरीवाल में अभाव लगता है। याद कीजिए, दिल्ली विधान-सभा में उन्होंने ऑटो-ड्राइवर से लेकर अंतरिक्ष-यात्री तक को ‘आम आदमी’ निरूपित कर दिया था, याने जो नेता नहीं है, वह आम आदमी है। स्वच्छ राजनीतिक संस्कृति का विकास सभी राजनेताओं और सारे राजनीतिक तंत्र के प्रति तिरस्कार का भाव रखके नहीं किया जा सकता। राजनीति मात्र को रद्द करने वाली यह मनोवृत्ति लोकतंत्र को भी रद्द करने वाली मनोवृत्ति में बड़ी तेजी से बदल सकती है। केजरीवाल के कुछ साथी उन पर तानाशाही मनोवृत्ति का आरोप लगाते सुने भी जाते रहे हैं।

मेरी चिंता केजरीवाल के भ्रमित होने से कहीं ज्यादा है। जैसाकि मैंने आपसे कहा, ‘आप’ की सफलता का आधार है विकल्प की संभावना में आम हिन्दुस्तानी का विश्वास और ‘आप’ के रूप में उसे पा लेने का उत्साह। खतरा यह है कि ‘आप’ अपने नैतिक दंभ के कारण इस विश्वास को तोड़ने वाली पार्टी भी साबित हो सकती है।

वीआईपी संस्कृति और भ्रष्टाचार से उत्पन्न रोष के कारण मिले विश्वास को यदि इस तरह से पथभ्रष्ट किया गया तो यह पार्टी अपनी सबसे बड़ी दुश्मन आप तो साबित होगी ही, भ्रष्ट तंत्र को नये सिरे से नैतिक वैधता प्रदान करने का पाप भी उसी के सिर जाएगा।

 

 

  

 

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