3 जून के ‘जनसत्ता’ में श्री अरुण नारायण की एक टिप्पणी छपी है, ‘सृजन के सरोकार’। लिखते हैं, ” सभी जानते हैं कि दर्जनाों हत्याओं की जिम्मेदार रही रणवीर सेना के ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या के बाद बिहार में कैसा तांडव हुआ था और सरकार में शामिल भाजपा के एक मंत्री ने ब्रह्मेशवर मुखिया को ‘गांधीवादी’ का तमगा दिया था। लेकिन बीते एक-दो सालों की की रचनाओं में भी ये संदर्भ दर्ज करना शायद ही किसी को जरूरी लगा।”
कुछ संतोष के साथ और कुछ असंतोष बल्कि खीझ के साथ यह टिप्पणी लिख रहा हूँ। संतोष इस बात का , कि एक वर्ष पहले प्रकाशित मेरी कहानी ‘पैरघंटी’ ( ‘नया ज्ञानोदय’ जून, 2013) यह संदर्भ दर्ज करती है।
असंतोष और खीझ इस बात की कि किसी पाठक के ध्यान में यह बात दर्ज ही नहीं हुई, कम से कम मेरे जानते…
रचनात्मक कहानी और अखबारी कहानी (न्यूज स्टोरी) एक ही ढंग से न लिखी जाती है, न पढ़ी जानी चाहिए…
‘पैरघंटी’ के ‘उच्चकुलोद्भव, उच्चपदस्थ भोजपुरी भाषी’ अधिकारी श्री सत्यजित राजन, अपनी अधीनस्थ एक ओबीसी महिला की ‘धृ्ष्टता’ के प्रसंग में स्मरण करते हैं ‘मुखियाजी’ का…उसे सबक सिखाने के लिए कसम खाते हैं, ‘कुछ ही महीने पहले ब्रह्मलीन हुए मुखियाजी’ की…
साहित्य में चीजें साहित्यिक ढंग से ही दर्ज होनी चाहिएं…थोड़ी संवेदना और सचेतनता पाठक को भी साधनी चाहिए…
“उठ खड़ी हुई थी , वह,सो भी लुंज-पुंज नहीं, आँखों में आँसू भर कर नहीं। सीधी रीढ़ के साथ, सचाई भरी, सहज ही चमकती आँखों के साथ…इसे तो ठीक करके ही रहूँगा…एकाएक सत्यजितजी ने मन ही मन अरसा पहले वैकुंठवासी हुए पिताश्री के साथ-साथ कुछ ही महीने पहले ब्रह्मलीन हुए मुखियाजी की भी कसम खाई, और साथ ही वे अपनी धरती से भी जुड़ गये, यह बदतमीज औरत भी तो उसी धरती की थी… ‘चलतानी कहुँवा, बइठल रहीं, रउआ से त अभी ठीक से बात करि के बा.., रिमैन सीटेड, मिनिस्टर साहब से मिल कर आता हूँ फिर बताता हूँ तुम्हें कि कैसे बात की जाती है, सीनियर अफसर से…भगवान से डरिए…यू ऐंड यौर भगवान…माई फुट…’”