Archive: September, 2016

भय और क्रूरता की सांस्कृतिक ठेकेदारी का समकाल: ‘बनास जन’ ( मई-जून 2016) में प्रकाशित नाकोहस की समीक्षा युवा आलोचक शशिभूषण मिश्र द्वारा

भय और क्रूरता की सांस्कृतिक ठेकेदारी का समकाल

                                     

                                                                          शशिभूषण मिश्र

कालजयी रचनाकार की यह खासियत होती है कि वह न केवल अपने समय और परिवेश की बारीक से बारीक हरकतों पर नजर रखते हुए संभाव्य परिवर्तनों को सजगता से पहचानने की कोशिश करता है बल्कि उस समय की अचीन्हीं प्रतिगामी शक्तियों की निशानदेही भी करता है | इस प्रक्रिया में वह व्यथा और पीड़ा से लथपथ मूक विवशताओं को दर्ज करता उन कारणों तक पहुँचता है जिनके फलस्वरूप प्रतिरोध पस्त पड़ चुका है | कई बार रचनाकार को समय की दुरभिसंधियों और जटिलताओं की बहुआयामिता को प्रश्नांकित करने के लिए विधाओं और शैली की बनी बनायी हदबंदियों का अतिक्रमण करते हुए सृजन करना पड़ता है | हिंदी आलोचना में स्थापित हो चुके पुरुषोत्तम अग्रवाल का पहला उपन्यास ‘नाकोहस’ हमारे समय की ऐसी ही निर्मम सचाइयों का संश्लिष्ट विश्लेषण करता एक बहसतलब हस्तक्षेप है | कुछ रचनाएं ऐसी होती हैं जो अपने खोल से बाहर निकलकर हमारे जिए भोगे का हिस्सा बन जाती हैं | ‘नाकोहस’ एक ऐसा ही उपन्यास है जो समय-समाज की नब्ज टटोलता अपने आयतन में न सिर्फ समकाल की भयावहता को समेटे हुए है बल्कि भविष्य के संकटों का संकेतायन भी करता है |

जे.एन.यू.की पूरी घटना ने सबको झकझोर कर रख दिया है | हाल के दिनों में वहाँ जो कुछ भी घटा है वह उसी सुनियोजित राजनीति का दुष्चक्र है जिसे ‘नाकोहस’ में गहरी अर्थव्यंजनाओं के साथ व्यक्त किया गया है | इसे संयोग कहा जा सकता है कि रचना में जिन दुरभिसंधियों की ओर लेखक ने संकेत किया है ;  वह इसके  प्रकाशन के महज कुछ ही समय बाद जे.एन.यू. में घटित होती हैं किन्तु इसे केवल संयोग मान लेने से यह सच नहीं झुठलाया जा सकता कि एक अंतर्दृष्टिपरक लेखक भविष्यद्रष्टा की तरह आगामी संकटों की अनुगूंजों को महसूस कर हमें पहले से ही आगाह कर देता है | उपन्यास के पूरे विमर्श को जे.एन.यू.के घटनाक्रम से वाबस्ता करने पर हम देख पाते हैं कि कुकुरमुत्ते की तरह उग आए बौनैसर (बौद्धिक-नैतिक समाज रक्षक) तबके ने सांस्थानिक प्रगतिशीलता को अपनी जद में लेने की मुहिम शुरू कर दी है | जे.एन.यू. एक विश्वविद्यालय भर नहीं है वह  इस पूरे राष्ट्र के सम्मान का प्रतीक भी है और निश्चित तौर पर विचारों की स्वतंत्रता को यहाँ हमेशा तरजीह दी जाती रही है | उपन्यास के तीन मुख्य किरदारों –सुकेत,रघु और शम्स को भी इसी विचार स्वातंत्र्य की कीमत चुकानी पड़ती है | जब स्वयं व्यवस्था द्वारा ही इस साजिश को  सुनियोजित ढंग से संचालित किया जा रहा हो ,ऐसे में किसी भी प्रकार के न्याय की उम्मीद करना बेमानी है |

यह समय ही आभासी है ; जो जैसा हमें दिखता है असल में वह वैसा होता नहीं और जो है वह दिख नहीं रहा है | छद्म और चकाचौंध के बीच असलियत छितरा गई है ,रौंद दी गयी है | पूंजी के सूत्रधारों द्वारा छेड़े गए इस भूमंडलीय अभियान में ऐसी मिथ्या निर्मितियां तैयार की गईं हैं जहां सब कुछ गड्ड-म-गड्ड नजर आता है | रचना के शैल्पिक गठन में जो जादुई-सा यथार्थ दिखता है वह केवल एक कलात्मक प्रयास नहीं है बल्कि आभासी सा दिखता इस जगत का प्रतिरूप है | यह बाजार के फैलाए जादू (मिथ्याभाष) का प्रतिपक्ष है जो बहुवचनात्मकता में व्यक्त होता है | सर्ररियलिज्म के प्रतिनिधि चित्रकार के रूप में ख्याति अर्जित करने वाले साल्वेडार डाली के व्याख्याकार आंद्रे ब्रेंतां की महत्वपूर्ण स्थापना को यहाँ रेखांकित करना चाहूंगा-“चेतना का एक स्तर वह भी होता है जहां जीवन और मृत्यु ,वास्तविकता और काल्पनिकता,अतीत और भविष्य के अंतर्विरोध समाप्त हो जाते हैं |” इस रचना को इस सन्दर्भ में भी देखे जाने की जरूरत है | बाजारवादी शक्तियों,सत्ताधारियों और धर्म के महाप्रभुओं की कदमताल की ठोकर से जो ध्वंश हुआ है उसके कारण जीवन के बुनियादी सवाल हाशिए पर चले गए हैं | धर्म ,नस्ल और जाति की अगम्य संरचना का बाहरी खोल कमजोर पड़ने के बजाए और मजबूत हुआ है | रचना की समूची घटनात्मकता में पसरा अँधेरा हमें मुक्तिबोध की कविता ‘अँधेरे में’ की  याद दिलाता है , जिसमें चहुँओर  घुप्प अन्धकार की भयावहता का चित्र हमें अन्दर तक हिला देता है |

उपन्यास भय के वातावरण से शुरू होकर लोकतान्त्रिक राष्ट्र के विचारशील नागरिकों की असुरक्षा और विवशता का जायजा लेता पाठक के अन्दर मंत्रबिद्ध बेचैनी छोड़ जाता है | लेखक ने हिन्दू धर्म के एक पौराणिक मिथक का रूपक लिया है जिसमें मगरमच्छ द्वारा हाथी पर प्राणघाती हमला किए जाने पर हाथी की पुकार सुन स्वयं नारायण अवतरित होकर मगरमच्छ का अंत करते हैं | समकालीन सन्दर्भों में इस मिथक का प्रयोग करते हुए लेखक ने सर्वग्रासी शक्तियों के प्रतीक मगरमच्छ के रूप में यह दिखाने की कोशिश की है कि किस तरह  सरेआम गलियों में घुसकर वह अपनी ताकत का बेजा  प्रदर्शन कर रहा है |  राष्ट्र,राज्य, समाज,व्यक्ति सब उसकी शक्ति से डरे हुए हैं | मगरमच्छ उस सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक प्रतिक्रियावाद  के गर्भ से उपजी सोच का प्रतीक है जिसने अपना सुरसा विस्तार किर लिया  है | यह बर्बरता, भय और असीमित शक्ति का प्रतीक है जिसने नागरिक जीवन के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर दिया है – “सुरक्षा की छांव तक ले जाने वाली उसी गली से एक मगरमच्छ आ रहा है –दुम इत्मीनान से मटकाता हुआ ,गली की छाती पर मठलता हुआ…| ”(पृष्ठ-09) भाषा की टोन में यहाँ उस तनाव को महसूस किया जा सकता है जो सपने के दौरान  सुकेत के अन्दर पैदा हुआ है | हाथी की एक टांग मगरमच्छ चबाता जा रहा है और  हाथी चीख रहा है,छटपटा रहा है किन्तु उसकी चीख सुनने के बाद भी भीड़ उसे अनसुना कर देती है | हाथी को बुद्धिजीवी-विवेकशील व्यक्ति का प्रतीक माना जा सकता है | इस रूपक के माध्यम से उपन्यास  उत्तर-आधुनिक व्यक्ति-समाज की प्रवृत्ति को लक्षित करता अपनी बढ़त में कई सवालों से मुठभेड़ करता है | मसलन  जिसे हम ‘समाज’ कहते हैं क्या वह अपना अस्तित्व खोता जा रहा है ! क्या मूकदर्शक भीड़ ने समाज को प्रतिस्थापित कर दिया है ! विडंबना यह कि इतना सब होने के बावजूद  सुरुचिसम्पन्न होने का ढोंग करते थकता नहीं |

रचना  का प्रारंभ  सुकेत के इसी डरावने स्वप्न से होता है और नींद खुलने के बाद भी सपने का वह भय  उसका पीछा नहीं छोड़ता | जगने पर वह पाता है कि भीड़ उसके घर को घेरे हुए कभी एंटी नेशनल प्रोफेसर के नारे लगा रही है तो कभी उनके बीच से कोई चीखती आवाज में कहता है- जला दो,मिटा दो | हम कैसे भूल सकते हैं कुछ ही वर्ष पहले उज्जैन में हुई प्रोफेसर सभरवाल की हत्या का वीभत्स खेल | दरअसल सुकेत का दोष यह है कि उसके लेख से लोगों की भावना आहत हुई  है और  इसी की प्रतिक्रिया में उसे सबक सिखाने के इरादे से बौनैसरों की फ़ौज इकट्ठी हुई  है | उपन्यास की  केन्द्रीय समस्या है- अभिव्यक्ति की आजादी और उससे  आहत बौनैसरों का प्रतिशोध | इसी प्रक्रिया का  रणनीतिक हिस्सा है ‘नाकोहस’ यानी  नेशनल कमीशन आफ हर्ट सेंटीमेंट्स का गठन | सुकेत के साथ उसके ईसाई मित्र रघु और मुस्लिम मित्र शम्स भी उसी  युनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं जिन्हें भी  अभिव्यक्ति की आजादी के कारण कई शारीरिक और मानसिक यातनाओं से गुजरना पड़ता है | सुकेत,रघु और शम्स लोकतांत्रिक राष्ट्र की प्रगतिशील सोच का प्रतीक हैं | आलोचना की फार्मूलाबद्ध एप्रोच यहाँ रघु  और शम्स की धार्मिक पहचान पर सवाल उठा सकती है किन्तु यहाँ स्पष्ट कर देना जरूरी है कि ये तीनो चेहरे बाहरी तौर पर धर्म या सम्प्रदाय के रूप में अलग-अलग होते हुए भी एक ही चेतना के हिस्से हैं, तीनो के डी.एन.ए.का रसायन एक-दूसरे से इस कदर घुला-मिला है कि उसे अलगाकर नहीं देखा जा सकता | उपन्यास अपनी बढ़त में दिखाता चलता है कि किस तरह शोध संस्थानों पर हमले हो रहे हैं , बहुमूल्य पांडुलिपियाँ जलाई जा रही हैं | शब्दों से आहत हो जाने वाली भावनाओं के डर से फिल्मों के नाम बदले जा रहे हैं और उनसे गीत हटाए जा रहे हैं , फिल्म रिलीज होने से पहले धर्मगुरुओं से अनुमति ली जा रही है | भावनाओं के आहत होने का विस्फोट सा हो गया है जिधर देखो उधर ही कोई परंपरा के नाम पर तो कोई धर्म या संस्कृति के नाम पर आहत है | सुकेत प्रश्न करता है कि- “ परंपरा,संस्कृति और धर्म के नाम पर चल रही हिंसक राजनीति के विरुद्ध पालिटिकल आर्ग्यूमेंट में हर्ट सेंटीमेंट्स का क्या सवाल है ?” (पृष्ठ-13)

  

सुकेत का भीड़ द्वारा विरोध एक सोची समझी रणनीति की अतिरेकी कार्रवाई का हिस्सा था | इस घटना के साथ हम उसी विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले कई शिक्षकों के माध्यम से यह देख पाते हैं कि सांस्थानिक प्रगतिशीलता के क्षरण के मूल में कौन से कारण विद्यमान हैं | लेखक मारे जा रहे हैं ; पत्रकारों पर हमले हो रहे हैं ; कार्टून बनाए जाने पर तूफ़ान खड़ा हो जाता है ; पेंटिंग बनाने वाले कलाकारों के खिलाफ प्रदर्शन हो रहा है ; आगजनी की घटनाएं हो रहीं है ; और न जाने क्या क्या ! उपन्यास के इन दृश्यों से गुजरते हुए सहसा बाबुषा कोहली की कविता ‘हुसैन की निर्वासित देवी के लिए’  स्मृति में कौंध जाती है,जिसमें वह लिखती हैं –“संसार भर के शब्दकोष उलट पलट दो /तब भी न समझ आएगा नग्नता और नंगई का अंतर /उंगलियाँ कट गिरें या गले रेत दिए जाएं / फिकिर किसे ? / माँ / एक बात बताओ न / सभ्यता के बुनकरों ने कपड़े लत्तों के सिवाय और क्या बुना है ?”  सभ्यता के यही तथाकथित  बुनकर हैं जिन्हें लेखक बौनैसर के रूप में रेखांकित करता है जो हमारे चारो ओर बेतरह उग आए हैं- भारतीय संस्कृति की रक्षा का बीड़ा उठाए | संस्कृति-रक्षा के इस अभियान में शामिल ये आहत बौनैसर लोगों को जिन्दा जलाने में भी संकोच नहीं करते | उपन्यास ऐसी विकृत मानसिकताओं की निर्मितियों की पहचान करने के क्रम में हमें वैश्विक चिंताओं से भी रू-ब-रू कराता है | विचारों के दमन की अतिवादी सोच से उपजा नफ़रत का गारा भौगोलिक सीमाओं को पार कर पूरी दुनिया में फैला हुआ है | यदि हम गत दशक में आस्ट्रेलिया,इटली,इंग्लैण्ड,जर्मनी और यू.एस.ए.में  दूसरे मुल्कों  के लोगों पर हुए हमलों, हत्याओं और मानसिक यातनाओं के मूल में जाएं तो पाएंगे कि मूकदर्शक बना वहाँ का पूरा तंत्र इसी मानसिकता का शिकार है | लेखक प्रश्न करता है – “ क्या कभी ऐसी कोई व्यवस्था बन पाएगी जिसके निर्माण में किसी इंसानी पहचान से नफ़रत का गारा न इस्तेमाल किया गया हो ?” (पृष्ठ-99)

उपन्यास के कथानक का विस्तार इन तीनों मित्रों की आपसी बातचीत और चिंताओं की आवाजाही में होता है | यहाँ प्रेम,आलिंगन,धोखा सिगरेट-शराब और  मस्ती की  स्मृतियों के बीच दलित अत्याचार,हिंसा,मारपीट,धर्म की दुकानदारी,बाबाओं का पाखण्ड,ग्लोबल विलेज की अनुगूंजों को सुना जा सकता है | इन गंभीर चर्चाओं के बीच तीनों ही मित्रों के मन के कोनों में गहराते भय की देह को महसूस किया जा सकता है | नाकोहस की अगली रणनीति  है – अभिव्यक्ति की आजादी  से दूसरों की भावनाओं को आहत करने वाली इस तिकड़ी को जड़ से  उखाड़ फेकना | इसी के मद्देनजर इस तिकड़ी को बौनेसरों द्वारा जबरन उठा लिया जाता है और तब हमारा सामना उस ‘गिरगिट’ से होता है जिसके पास फ़रेब,तिकड़म,गुंडागर्दी,चालाकी, साम्प्रदायिकता के सारे हुनरों  का लम्बा अनुभव है | सुकेत,रघु और शम्स को गिरगिट द्वारा अपने कारिंदों से जबरन घर से उठवाकर इस यातनापूर्ण और घुटन से भरी सुरंग में लाया जाता है | ‘नाकोहस’ के इस ‘नियंता’ गिरगिट द्वारा चेतावनी भरा फैसला सुनाया गया, जिसका सार है – वक्त रहते सुधर जाओ…इंटेलेक्चुअल छोड़ टेक्नेक्चुअल बनने की कोशिश करें…बौनैसरों की सुनें…सदा सुखी रहें…आदि-आदि | तो यही है ‘नाकोहस’ रूपी समकाल-कथा का पाठ जो इस रचना से निकलकर दबे पाँव हमारे भीतर उतर जाता है और ताबड़तोड़ रंग बदलते इस गिरगिट की बेरहम आँखों से टपकती निर्लज्जता और घृणा, फुफकारते थूथन से निकलती हिंसा ,लपलपाती जीभ से बाहर आता जहर और उसकी निर्मम मुस्कान हमें बेचैन कर देती है |

‘नाकोहस’ हमारे समय का संकट है जिसे लेखकीय विकलता के रूप में हम इस उपन्यास की संरचना में विन्यस्त पाते हैं | यहाँ भाषा की अनेकानेक भंगिमाओं में पूरा दृश्य एक दु:स्वप्न–कथा की तरह उभरता है, जहाँ केवल आभास होता है और वह आभास भी उलट-पुलट, अचकचाया-सा है | इस संकट ने समय के सवालों को निरस्त कर नेपथ्य की खूंटी में टंगा दिया है , उलझा दिया है | नाटकीय दृश्यों और शिल्प के बहुविध प्रयोगों में यहाँ तर्क-वितर्क के पल पल बदलते दृश्य हैं | उपन्यास का ढांचा कथा के बने बनाए ढब को तोड़ता है | इसे यथार्थ का जादू कहें या जादुई यथार्थ की उलटबासी या फिर अतियथार्थवाद ! इसका लगभग समस्त  उत्तरार्ध विमर्शपरक और संश्लिष्ट है जिसमें पूरे समकाल का हौलनाक यथार्थ समाया है | यहाँ उपन्यासकार का आलोचकीय नजरिया ज्यादा हावी दिखाई देता है जिसके चलते पाठक कई बार सहज पाठ-बोध से विच्छिन्न  महसूस करता  है |

दूसरी पहचान के लोगों का खून बहाना,उन्हें अपना घर-गाँव छोड़ने पर मजबूर करना,शरणार्थी कैम्प की निर्ममताएं और बेचारगी की मर्माहत स्थितियां रचना की अंतर्वस्तु में पैबस्त हैं | यहाँ धर्म पर,तंत्र पर और उसकी विचार-सरणि पर सवाल करने की सख्त मनाही है | सत्यनारायण पटेल की कहानी ‘काफ़िर बिजूका उर्फ़ इब्लीस’ की चर्चा यहाँ बेहद प्रासंगिक होगी, जिसमें फिल्म क्लब के माध्यम से बिजूका मनुष्यता के बीच बढ़ती धार्मिक कड़वाहट को पराजित करने की जद्दोजहद में डटा है किन्तु बौनैसरों की तरह यहाँ भी धर्म की दुकानदारी करने वाले उसे काफिर ठहरा देते हैं | प्रोफेसर हमज़ा कुरैशी बौनैसरों की सेना के ‘बौ’ का  प्रतिनिधि चरित्र हैं | वह  धिक्कार भरी भाषा  में बिजूका से सवाल करते हैं –“आप कौन होते हैं धर्म के नियम कानून पर बात करने वाले ?” रेखांकित किया जाना चाहिए कि उन्हीं प्रोफेसर के इशारों पर उनके प्रिय शागिर्द बाबा द्वारा  फातिमा के चेहरे पर तेज़ाब फेंका जाता है | सांप्रदायिक सोच से पनपी विचलित कर देने वाली तमाम स्थितियां-घटनाएं इसी तरह ‘नाकोहस’ में भी दर्ज हैं | एक बेहद संजीदा सवाल लेखक यहाँ उठाता है जिसकी नोटिस ली जानी चाहिए – “ खून में नहला दी  गयी वह स्त्री रघु की चेतना में सवाल बनकर अटक गयी थी , रहम…दया…मर्सी…हर धर्म गुण गाता है, हर परंपरा इसके गीत गाती  है…हकीकत इतनी बेरहम…अपने-अपने भगवान को करुणानिधान सब कहते हैं…हकीकत में कहाँ घुस जाती है करुणा ?” (पृष्ठ 93)

  

गौर किया जाना चाहिए कि भूमंडलीय पूँजी की लोभी संस्कृति ने विकास के नाम पर जिस तरह लूट मचाई है उसमें जनकल्याण का मुखौटा पहने हमारी सरकारों की भी मिलीभगत है | सब कुछ जल्दी से भकोस लेने वाले हप्पू विकास की असल नीयत को बेनकाब करना हमारा दायित्व है | गिरगिट के रूप में हम  धर्म,संस्कृति,सत्ता और विकास को अपनी मुट्ठी में रखने वाले इसी तंत्र को पाते हैं जिससे हम चारो ओर से  घिरे हुए हैं | ‘नाकोहस’ इनकी नुमाइंदगी करता है और सभ्य नागरिक समाज के लोगों को सुधर जाने की कड़ी हिदायद देता है  -“खैर, होगा इस बीमारी का इलाज भी होगा | काम चल ही रहा है | राष्ट्रीय चरित्र निर्माण आयोग ,राष्ट्रीय अनुशासन संस्थान ,विवेक पुनर्निर्माण समिति का गठन किया गया है | नाकोहस  यानी आहत भावना आयोग है ही…टारगेट यह कि –कोई भी नागरिक किसी भी हालत में अपने चरित्र को और दूसरों की भावनाओं को चोट न पहुंचा पाए,एकांत और फिजूल सोच-विचार की खतरनाक जकड़ में न आने पाए…| ”(पृष्ठ-123)

उपन्यास का ऊपर से अंतर्विरोधी लगता यथार्थ हमारी कारस्तानियों का ही अक्स है जिसे इतनी तलस्पर्शी साफगोई से कह पाना लेखकीय उपलब्धि है | समय-समाज के  भीतर उतरते जाने की इस यात्रा में रचनाकार धर्म-संस्कृति के तथाकथित ठेकेदारों और लम्पट ताकतों की हठधर्मिता और घेरेबंदी से मुठभेड़ करता , हमसे  इनके प्रतिपक्ष में खड़े होने की गुहार लगाता है |

नाकोहस(उपन्यास),पुरुषोत्तम अग्रवाल,राजकमल प्रकाशन, दिल्ली,प्रथम संस्करण,2016,पृष्ठ-164,मूल्य-150 रु.

समीक्षक-डॉ०शशिभूषण मिश्र,सहायक प्रोफेसर-हिंदी,राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,बाँदा (उ.प्र.)                    मोबा.-9457815024,ई-मेल-sbmishradu@gmail.com

कट्टरता का प्रत्याख्यान- नाकोहस…’कादम्बिनी’ के सितंबर अंक में युवा आलोचक पल्लव की समीक्षा

कट्टरता का प्रत्याख्यान 
पल्लव 
आज़ादी के सत्तर वर्षों में विकास के साथ जैसा समाज बनता गया है उस समाज में नफरत और हिंसा की जगह बढ़ी ही है। इस नए दौर में जब भावनाएं इतनी कमज़ोर हो गई हैं कि जरा जरा सी बात में आहत हुई जा रही हैं तब यह सोचना अत्यंत कठिन है कि स्वतंत्रता आंदोलन केवल आज़ादी का आंदोलन नहीं था अपितु वह सांस्कृतिक आंदोलन भी था जिसने हमारे लिए आधुनिकता का दरवाज़ा खोला। पुरुषोत्तम अग्रवाल का पहला उपन्यास ‘नाकोहस’ हमारे इस बदरंग और मुश्किल दौर का चित्र बनाने का प्रयास है, जिसमें आधुनिकता के स्थान पर परम्परा और मध्यकालीन बर्बरता को उचित ठहराने की गुंडई की जा रही है । छोटी से कथावस्तु के सहारे भी उपन्यास अपने उद्देश्य में सार्थक यात्रा कर सका है तो इसका कारण यह है कि लेखक बदरंग दृश्यों को आकर्षक बनाने में ऊर्जा लगाने के स्थान पर पाठक को बौद्धिक उन्नयन के लिए तैयार करता है। इस कट्टरताप्रेमी बौनेसर (स्वयंभू बौद्धिक – नैतिक समाज रक्षक) समाज को बौद्धिकता से इतना डर है कि यह डर घृणा और हिंसा में बदल गया है। उपन्यास के तीन पात्रों सुकेत, रघु और शम्स को बौनेसर अगवा कर ले जाते  हैं और यंत्रणाएं देते हैं। ये यंत्रणाएं असल में अभियक्ति को कुंठित करने वाली धौंस और गुंडागर्दी है जो विश्व भर में कट्टरपंथी ताकतों द्वारा उदारता के सनातन विचार के सामने आ खड़ी हो गई हैं। इनका नारा है – इंटेलेक्चुअल होना पाप है, टेकनेक्चुअल सबका बाप है’। उपन्यास का प्रारम्भ एक मगरमच्छ द्वारा निरीह हाथी को भंभोड़ने से हुआ है तो आगे गिरगिट का विशाल और घिनौना बिम्ब है। उपन्यास असल में परमपरा, संस्कृति और धर्म के नाम पर चल रही हिंसा के विरुद्ध बौद्धिक प्रत्याख्यान है।

अकारण नहीं कि उपन्यास में एक स्थान पर सवाल आया है –  ‘क्या कभी ऐसी कोई व्यवस्था बन पाएगी जिसके निर्माण में किसी इंसानी पहचान से नफ़रत का गारा न इस्तेमाल किया गया हो ?’ नाकोहस का आशय है नेशनल कमीशन फॉर हर्ट सेंटिमेंट्स ! यहाँ लाए गए इन तीनों मित्रों को गिरगिट की हिदायत देखिये – ‘उम्मीद तो है कि आप तीनों अब सुधर जाएंगे… नहीं तो… आप जानें… वैसे, यू मस्ट एप्रिशिएट द फैक्ट कि आपके साथ नाकोहस ने कमाल की नरमी बरती है… बस जरा से दस्तखत, दस्तखत भी क्या, इनिशियल्स ही तो किए गए हैं, आप लोगों की बॉडीज पर… डू यू रियलाइज सर… कि जितना वक्त आपने नाकोहस के फ्रेंडली इंटरएक्शन में बिताया, जितना आपको वहां ले जाने, वापस पहुंचाने में लगा, यानी कुल मिलाकर आप तीनों जितनी देर इस किस्सा-ए-नाकोहस में रहे, बस उतने ही अरसे में एक जाने-माने बुजुर्ग इंटेलेक्चुअल भारत में भगवान को प्यारे हो गए, और एक अरब में अल्लाह मियां से मिलने भेज दिए गए…’ उपन्यास केवल बौद्धिक व्यायाम नहीं है और अग्रवाल इसे सचमुच कथा बनाते हैं। यहाँ सुकेत के असफल विवाह और प्रेम की कहानी है तो शम्स की बातें जिस भाषा में आई हैं वह देर तक याद रह जाने की क्षमता रखती हैं। यही नहीं उसका खिलंदड़ापन बौद्धिक समाज की जिजीविषा का प्रतीक बनकर आता है जो मार खाकर भी स्वभाव नहीं छोड़ सकता। प्रो बख्शी जी और पुलिस वाला चौड़ा सिंह जैसे एक बार ज़रा सी देर के लिए आए पात्र भी असर छोड़ने वाले हैं। इस दृश्य में मीडिया कहाँ है, उपन्यास बताता है – ‘तेजी से दौड़ती कर की खिड़कियों पर इस पल बीते कल के अक्स नहीं, आज की ब्रेकिंग न्यूज़ की परछाइयाँ डोल रही थीं, बल्कि टूटी पड़ रही थीं।’ विडम्बनाओं और त्रास के मध्य नष्ट हो रही सामाजिकता को उपन्यास एक झन्नाटेदार टिप्पणी बनकर ही दिखा सकता है।

नाकोहस(उपन्यास) – पुरुषोत्तम अग्रवाल,
राजकमल प्रकाशन, दिल्ली,प्रथम संस्करण,2016
पृष्ठ-164,मूल्य-150 रु.

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कुछ शब्द एक सिलसिले में

कितना भव्य शोर भयानक

एकान्त अकेला विवश

 

चहुंदिसि शोर
कविता में खोज
भीतर सन्नाटा

क़िस्सा दामिनी की दूसरी मौत और हम सब की बेबसी का….’वसु का कुटुम’….मृदुला गर्ग के उपन्यास की समीक्षा ( ‘हंस’ में प्रकाशित)

 

प्रचलित विधा विभाजन में आप इसे लंबी कहानी कहें या छोटा उपन्यास, ‘बोल कर लिखवाया गया’ ‘वसु का कुटुम’  असल में ठेठ क़िस्सा है, तवील नहीं मुख्तसर सा क़िस्सा। लेकिन यह क़िस्सा बनावट में जितना मुख्तसर है, सरोकार में उतना ही वसीह और बुनावट में उतना ही सघन।

इसे लिखे जाने का क़िस्सा बयान करते हुए मृदुलाजी ने लिखा है, “ प्रतिरोध, परकाया प्रवेश और रसोक्ति (आइरनी)—ये तीन तत्व मेरी सभी रचनाओं के अभिन्न अंग रहे हैं।” लेखिका के इस कथन को यदि कसौटी मान लें, तो बेधड़क कहा जा सकता है कि ‘वसु का कुटुम’ इन तीनों तत्वों को भरपूर धारण करते हुए भी, मृदुला गर्ग की रचनाशीलता के सर्वथा नये, और किसी हद तक अप्रत्याशित प्रस्थान की सूचना देता है। स्त्री-पुरुष संबंधों की विडंबनाओं की मार्मिक, अभावुक पड़ताल के लिए ख्यात लेखिका द्वारा नये विषय का अनुसंधान नयी भंगिमा और नये रूपाकार में करना अनुभवपगी वरिष्ठता के साथ युवाओं सरीखे जोश और एडवेंचर के प्रेरणाप्रद संयोग का रेखांकन भी है।

क़िस्सा मुख्तसर है,  एक पुराने घर की जगह मकान बनवाया जा रहा है। आस-पास के लोगों की समस्याओं की परवाह किये बग़ैर, क़ायदे-क़ानून को ध्वस्त करते हुए मकान का निर्माण हो रहा है। इस निर्माण से शुरु कर यह क़िस्सा बहुत सी चीज़ों के बनने और बिगड़ने की नवैयत का बयान करता है, अंदाज़े बयाँ पहले पैराग्राफ में ही साफ हो जाता है—

“ बी.के.सपोत्रा घर बनवा रहे हैं। अच्छा कर रहे हैं। घर बनवाओ, सबाब लो। परिवार वालों को बारिश-लू से पनाह मिले। निजता पले। बच्चे जन्म लें। दरोदीवार ज़िन्दगी की क़शिश से सरोबार हो। मज़ा आ जाए जो घर में एक बगीची भी हो, भले छोटी सी। खाद डाल मामूली सब्ज़ी फूल उगाए जाएँ। भिंडी-बैंगन-टमाटर तो उगाए ही जा सकते हैं। वह भी नहीं तो हरा धनिया और लौकी-करेले की बेल सही। मिट्टी की छुअन और आसमान का नज़ारा इन्सान होने के गुमान को पुख्ता करते हैं। यह तसल्ली भी बनी रहती है कि खुले में सोने की मजबूरी नहीं है। जब चाहो, छत के नीचे पनाह ले सकते हो। मन हो, बाहर बने रहो, न हो तो भीतर जा संग-साथ निभाओ या अकेले क़िताब पढ़ो। बच्चों, बड़े-बूढ़ों को सुरक्षा दे, ऐसा घर बनाना सचमुच सबाब का काम है। ख़ासकर तब,जब घर ऐसी ज़मीन पर बने जिसे बंजर जान खेती में न लगाया गया हो। पेड़ भी न काटने पड़ें और रंग चोखा जमे। ग़लत कह गई। बंजर दरअसल कोई ज़मीन होती नहीं; पानी-खाद दे मशक्कत करो तो और कुछ नहीं, कीकर बबूल तो उगाया ही जा सकता है। बथुआ लोभिया भी बशर्ते पाँव तले ज़मीन हो।

मैं जबर ग़लती कर गई। बी.के.सपोत्रा घर नहीं, मकान बनवा रहे हैं।”

कहन की विडंबना और शिल्प के जादू को बरतरफ करके देखना चाहें तो क़िस्सा बस इतना है कि बी. के. सपोत्रा बनाए जा रहे घर के आस-पास बाड़ नहीं लगा रहे, रात-रात भर काम करा रहे हैं, लोग धूल मिट्टी और शोर से होने वाली परेशानियाँ ही नहीं, नींव के गड्ढे में गिरने के खतरे भी झेल रहे हैं, दमा की मरीज एक झक्की सी औरत —दामिनी—इस बात का विरोध करते-करते एकाएक मर जाती है। उसका वैसा ही अजीब सा ‘मित्र’ राघवन; रत्नाबाई और नजमा के साथ मिलकर उस एनजीओ से जबावतलब करने की कोशिश करता है, जिसने दामिनी के इलाज के नाम पर चंदा किया और वह चंदा गायब हो गया। एनजीओ की कर्ता-धर्ता मीरा राव के जीवन  और उनके एनजीओ का मोटो है—‘वसुधैव कुटुंबकम्’— जो रत्नाबाई के मानीखेज रूप से ‘ग़लत’ उच्चारण में बन जाता है—‘वसु का कुटुम’। दामिनी तो मर गयी, उसके नाम पर चंदे का क्या हुआ—यह सवाल पूछती रत्नाबाई  खुद उस एनजीओ के दफ्तर में, “ श्मशान घाट में तांडव करते शिव” की तरह  नाचती मर जाती है। इसके बाद मामला टीआरपी संभावनायुक्त हो जाता है और टीवी की बहसों में कुछ दिन गर्म रहता है। इन बहसों की नदी कुछ ही दिन में इस खास मामले को छोड़ विदेशों में जमा काले धन को वापस लाने के व्यापक “ कौवा रोर” के सागर में समा जाती है; और क़िस्सा आपको बताता है कि, “ यह पूरी कहानी हम कह तो गए, मगर सभी जानते हैं कि सब कुछ रहेगा वही का वही…तो जब सब जानते हैं तो हम बार-बार उसे क्यों दोहराएँ?”

‘ वसु का कुटुम’ पढ़ते हुए लेबनानी लेखक राबी आलमदीन का उपन्यास ‘हाकावाती’ याद आता है। ‘हाकावाती’—इस शब्द का अर्थ ही होता है—क़िस्सागो। ‘वसु का कुटुम’ उतने विस्तृत फलक को नहीं छूता, लेकिन जितने तक स्वयं को सीमित रखता है, उस फलक पर अनुभव और स्मृति के सधाव को निभाता बखूबी है। इस सधाव में बात को कहने के लिए ‘भाषा को यथार्थवादी’  ढंग से बरतने की बजाय लेखिका का आग्रह पाठक की स्मृति और कल्पना को संबोधित करने का है।

दिल्ली के कुख्यात सामूहिक बलात्कार कांड की शिकार दामिनी ( मीडिया के एक हिस्से के अनुसार निर्भया) जैसे इस उपन्यास की ‘नायिका’  के रूप में ‘अवतरित’ हो गयी है। इस विचित्रता की व्याख्या के लिए वह उस बलात्कार कांड का एक ‘काउंटर फैक्चुअल’ क़िस्म का नैरेटिव भी राघवन को सुना देती है कि वह लड़की असल में जीवित बच गई थी, और “इसी शहर में एक नौकरी लेकर बस गई। और कोई नाम होता तो लोग उसमें दामिनी को ढूंढते, मगर क्योंकि नाम दामिनी था, जो उन्हीं का दिया हुआ था, जो असली नहीं था, जो किसी को नहीं था, इसलिए उन्होंने दामिनी को नहीं ढूंढा।”

याने दामिनी जीवित है, उस भयानक बलात्कार के बावजूद, फिर से लड़ने के हौसले के साथ जीवित है, क्योंकि जैसा कि राघवन और रत्नाबाई की बात में साफ होता है, “ भइया जिसे मार-मूर कर गेर दिया जावे, उसे किसी का डर नहीं रहता और वह बहुत जीवट की हो जाती है।”

बी.के. सपोत्रा के विरुद्ध लड़ाई पूरी नहीं होती कि दामिनी के इलाज के नाम पर लोगों से चंदा वसूलने वाले एन.जी.ओ. की कारगुजारियाँ सामने आने लगती हैं। राघवन ने अपनी बेटी के ब्याह के लिए जो गिन्नी बचा कर रखी थी, उससे दामिनी-फंड की शुरुआत होती है, और फिर वह गिन्नी उसी तरह गायब हो जाती है जैसे नागरिकता का बोध। क़िस्सा अपने ठेठ खिलंदड़े अंदाज़ में कुछ सचाइयाँ याद दिलाता है, जिनके सामने बेबसी इस वक्त की भारतीय नागरिकता की सबसे डरावनी सचाई बनती जा रही है।

‘वसु का कुटुम’ मानवीय संवेदना के छीजने को ही नहीं रेखांकित करता, वह अपने विशिष्ट देशकाल में नागरिकता के बोध और उसके संस्थानों—क़ानून, प्रेस, तथाकथित सिविल सोसाइटी—की सड़ाँध को भी उजागर करता है। वसुधैव कुटुंबकम् के नारे पर चलने वाले ‘बेकायदा’ नामी एन.जी.ओ.को सपोत्रा साहब चंदा देते हैं, वह एन.जी.ओ. उनके बिजनेस में पैसा लगाता है, अंधाधुंध ब्याज के लालच में। मीरा राव का कहना है, “ हो सकता है, वो ग़ैर-क़ानूनी माना जाए। मगर मैं मानती हूँ, क्योंकि यह काम समाजसेवा के लिए हो रहा था, इसलिए उसमें क़ानून को टाँग अड़ाने की ज़रूरत थी नहीं।”

किसी भी तरह अपने लिए कुछ हासिल करने की होड़, बहती गंगा में हाथ धोने की ललक, स्वाभाविक ही है कि समाज के इलीट तक सीमित न रह कर सब तरफ व्याप रही है। दामिनी की समर्थक नजमा अपने लिए स्कूटी का जुगाड़ कर लेती है, और हिन्दीशजी अपने लिए टीआरपी का। स्वयं उनकी चमक फीकी न कर दे, इसलिए वे चपरासी रामलखन को दोबारा पैनल डिस्कसन में बुलाते ही नहीं। इधर सारी बहस चलती रहती है, आरटीआई होती रहती है, रामलखन के सपोत्रा का बेटा होने का दावा किया जाता है; सपोत्रा बनते मकान  से गिर कर मर जाता है… उधर ग़ैर-क़ानूनी ढंग से बन रहा मकान बन भी जाता है, उसके तल्ले  सपोत्रा के बेटे द्वारा अलग-अलग लोगों को बेच भी दिये जाते हैं, अब जिसे जो करना है, कर ले।

क़िस्से की ‘सीख’ पाठक को रामलखन के शब्दों में ही प्राप्त होती है, “ करना यह चाहिए कि चाहे अनुमति-पत्र मिले या न मिले, आप धड़ल्ले से मकान बनवा डालिए। मगर याद रखिए, जब मकान पूरा हो जाएगा तो आपको मरना पड़ेगा। जब आप मर जाएँगे तो आपके उत्तराधिकारी पर आपके अवैध कर्मों का कोई उत्तरदायित्व नहीं होगा।”

क़िस्सा ख़त्म होता है, रत्नाबाई-पुत्र लल्लन की भविष्यवाणी से, “ यही रामलखन हमारे देश का अगला प्रधानमंत्री होगा। और तब? तब बहुत कुछ बदल जाएगा, देश का नक्शा बदल जाएगा!”

क़िस्सा आखिर में यह भी बता देता है कि, “यह लल्लन ने कहा नहीं, सिर्फ सोचा। कहा हमने।”

“ मर गया तेरे वसु का कुटुम। मर गया जालिम सपोत्रा…” इस घोषणा के साथ “ …नाच रही थी महापिशाचिनी, उस सजे-सँवरेस महँगे कमरे के बीचोबीच”——यह सूचना देता क़िस्सा कहता है, “ हम जानते हैं कि जो हम दिखला रहे हैं, वह शोभनीय नहीं है। बहुतों के सौंदर्यबोध को आहत कर सकता है। मगर हम क्या करें, जो कर रही है रत्नाबाई कर रही है, हम नहीं। हो सकता है, वह महाकाली का अवतार हो धरती पर। और आप जानते हैं कि महाकाली तो आपके शोभनीय की छाती पर ही अपना घमासान किया करती हैं। उनके हुँकार में सौन्दर्यबोध नहीं होता। उनके हुँकार में होता है तांडव। उनके हुँकार में होता है, प्रलय।”

पढ़वा तो यह क़िस्सा खुद को लेगा ही। ऐसी ही किताबों के लिए अंग्रेजी में कहते हैं, ‘अनपुटडाउनेबल’। पढ़ने के बाद, आपका मन प्रलय और तांडव का इंतजार करने का होता है, या उसके पहले, बदलाव की दिशा सोचने का…वह आप पर है…

-पुरुषोत्तम अग्रवाल।