क़िस्सा दामिनी की दूसरी मौत और हम सब की बेबसी का….’वसु का कुटुम’….मृदुला गर्ग के उपन्यास की समीक्षा ( ‘हंस’ में प्रकाशित)

 

प्रचलित विधा विभाजन में आप इसे लंबी कहानी कहें या छोटा उपन्यास, ‘बोल कर लिखवाया गया’ ‘वसु का कुटुम’  असल में ठेठ क़िस्सा है, तवील नहीं मुख्तसर सा क़िस्सा। लेकिन यह क़िस्सा बनावट में जितना मुख्तसर है, सरोकार में उतना ही वसीह और बुनावट में उतना ही सघन।

इसे लिखे जाने का क़िस्सा बयान करते हुए मृदुलाजी ने लिखा है, “ प्रतिरोध, परकाया प्रवेश और रसोक्ति (आइरनी)—ये तीन तत्व मेरी सभी रचनाओं के अभिन्न अंग रहे हैं।” लेखिका के इस कथन को यदि कसौटी मान लें, तो बेधड़क कहा जा सकता है कि ‘वसु का कुटुम’ इन तीनों तत्वों को भरपूर धारण करते हुए भी, मृदुला गर्ग की रचनाशीलता के सर्वथा नये, और किसी हद तक अप्रत्याशित प्रस्थान की सूचना देता है। स्त्री-पुरुष संबंधों की विडंबनाओं की मार्मिक, अभावुक पड़ताल के लिए ख्यात लेखिका द्वारा नये विषय का अनुसंधान नयी भंगिमा और नये रूपाकार में करना अनुभवपगी वरिष्ठता के साथ युवाओं सरीखे जोश और एडवेंचर के प्रेरणाप्रद संयोग का रेखांकन भी है।

क़िस्सा मुख्तसर है,  एक पुराने घर की जगह मकान बनवाया जा रहा है। आस-पास के लोगों की समस्याओं की परवाह किये बग़ैर, क़ायदे-क़ानून को ध्वस्त करते हुए मकान का निर्माण हो रहा है। इस निर्माण से शुरु कर यह क़िस्सा बहुत सी चीज़ों के बनने और बिगड़ने की नवैयत का बयान करता है, अंदाज़े बयाँ पहले पैराग्राफ में ही साफ हो जाता है—

“ बी.के.सपोत्रा घर बनवा रहे हैं। अच्छा कर रहे हैं। घर बनवाओ, सबाब लो। परिवार वालों को बारिश-लू से पनाह मिले। निजता पले। बच्चे जन्म लें। दरोदीवार ज़िन्दगी की क़शिश से सरोबार हो। मज़ा आ जाए जो घर में एक बगीची भी हो, भले छोटी सी। खाद डाल मामूली सब्ज़ी फूल उगाए जाएँ। भिंडी-बैंगन-टमाटर तो उगाए ही जा सकते हैं। वह भी नहीं तो हरा धनिया और लौकी-करेले की बेल सही। मिट्टी की छुअन और आसमान का नज़ारा इन्सान होने के गुमान को पुख्ता करते हैं। यह तसल्ली भी बनी रहती है कि खुले में सोने की मजबूरी नहीं है। जब चाहो, छत के नीचे पनाह ले सकते हो। मन हो, बाहर बने रहो, न हो तो भीतर जा संग-साथ निभाओ या अकेले क़िताब पढ़ो। बच्चों, बड़े-बूढ़ों को सुरक्षा दे, ऐसा घर बनाना सचमुच सबाब का काम है। ख़ासकर तब,जब घर ऐसी ज़मीन पर बने जिसे बंजर जान खेती में न लगाया गया हो। पेड़ भी न काटने पड़ें और रंग चोखा जमे। ग़लत कह गई। बंजर दरअसल कोई ज़मीन होती नहीं; पानी-खाद दे मशक्कत करो तो और कुछ नहीं, कीकर बबूल तो उगाया ही जा सकता है। बथुआ लोभिया भी बशर्ते पाँव तले ज़मीन हो।

मैं जबर ग़लती कर गई। बी.के.सपोत्रा घर नहीं, मकान बनवा रहे हैं।”

कहन की विडंबना और शिल्प के जादू को बरतरफ करके देखना चाहें तो क़िस्सा बस इतना है कि बी. के. सपोत्रा बनाए जा रहे घर के आस-पास बाड़ नहीं लगा रहे, रात-रात भर काम करा रहे हैं, लोग धूल मिट्टी और शोर से होने वाली परेशानियाँ ही नहीं, नींव के गड्ढे में गिरने के खतरे भी झेल रहे हैं, दमा की मरीज एक झक्की सी औरत —दामिनी—इस बात का विरोध करते-करते एकाएक मर जाती है। उसका वैसा ही अजीब सा ‘मित्र’ राघवन; रत्नाबाई और नजमा के साथ मिलकर उस एनजीओ से जबावतलब करने की कोशिश करता है, जिसने दामिनी के इलाज के नाम पर चंदा किया और वह चंदा गायब हो गया। एनजीओ की कर्ता-धर्ता मीरा राव के जीवन  और उनके एनजीओ का मोटो है—‘वसुधैव कुटुंबकम्’— जो रत्नाबाई के मानीखेज रूप से ‘ग़लत’ उच्चारण में बन जाता है—‘वसु का कुटुम’। दामिनी तो मर गयी, उसके नाम पर चंदे का क्या हुआ—यह सवाल पूछती रत्नाबाई  खुद उस एनजीओ के दफ्तर में, “ श्मशान घाट में तांडव करते शिव” की तरह  नाचती मर जाती है। इसके बाद मामला टीआरपी संभावनायुक्त हो जाता है और टीवी की बहसों में कुछ दिन गर्म रहता है। इन बहसों की नदी कुछ ही दिन में इस खास मामले को छोड़ विदेशों में जमा काले धन को वापस लाने के व्यापक “ कौवा रोर” के सागर में समा जाती है; और क़िस्सा आपको बताता है कि, “ यह पूरी कहानी हम कह तो गए, मगर सभी जानते हैं कि सब कुछ रहेगा वही का वही…तो जब सब जानते हैं तो हम बार-बार उसे क्यों दोहराएँ?”

‘ वसु का कुटुम’ पढ़ते हुए लेबनानी लेखक राबी आलमदीन का उपन्यास ‘हाकावाती’ याद आता है। ‘हाकावाती’—इस शब्द का अर्थ ही होता है—क़िस्सागो। ‘वसु का कुटुम’ उतने विस्तृत फलक को नहीं छूता, लेकिन जितने तक स्वयं को सीमित रखता है, उस फलक पर अनुभव और स्मृति के सधाव को निभाता बखूबी है। इस सधाव में बात को कहने के लिए ‘भाषा को यथार्थवादी’  ढंग से बरतने की बजाय लेखिका का आग्रह पाठक की स्मृति और कल्पना को संबोधित करने का है।

दिल्ली के कुख्यात सामूहिक बलात्कार कांड की शिकार दामिनी ( मीडिया के एक हिस्से के अनुसार निर्भया) जैसे इस उपन्यास की ‘नायिका’  के रूप में ‘अवतरित’ हो गयी है। इस विचित्रता की व्याख्या के लिए वह उस बलात्कार कांड का एक ‘काउंटर फैक्चुअल’ क़िस्म का नैरेटिव भी राघवन को सुना देती है कि वह लड़की असल में जीवित बच गई थी, और “इसी शहर में एक नौकरी लेकर बस गई। और कोई नाम होता तो लोग उसमें दामिनी को ढूंढते, मगर क्योंकि नाम दामिनी था, जो उन्हीं का दिया हुआ था, जो असली नहीं था, जो किसी को नहीं था, इसलिए उन्होंने दामिनी को नहीं ढूंढा।”

याने दामिनी जीवित है, उस भयानक बलात्कार के बावजूद, फिर से लड़ने के हौसले के साथ जीवित है, क्योंकि जैसा कि राघवन और रत्नाबाई की बात में साफ होता है, “ भइया जिसे मार-मूर कर गेर दिया जावे, उसे किसी का डर नहीं रहता और वह बहुत जीवट की हो जाती है।”

बी.के. सपोत्रा के विरुद्ध लड़ाई पूरी नहीं होती कि दामिनी के इलाज के नाम पर लोगों से चंदा वसूलने वाले एन.जी.ओ. की कारगुजारियाँ सामने आने लगती हैं। राघवन ने अपनी बेटी के ब्याह के लिए जो गिन्नी बचा कर रखी थी, उससे दामिनी-फंड की शुरुआत होती है, और फिर वह गिन्नी उसी तरह गायब हो जाती है जैसे नागरिकता का बोध। क़िस्सा अपने ठेठ खिलंदड़े अंदाज़ में कुछ सचाइयाँ याद दिलाता है, जिनके सामने बेबसी इस वक्त की भारतीय नागरिकता की सबसे डरावनी सचाई बनती जा रही है।

‘वसु का कुटुम’ मानवीय संवेदना के छीजने को ही नहीं रेखांकित करता, वह अपने विशिष्ट देशकाल में नागरिकता के बोध और उसके संस्थानों—क़ानून, प्रेस, तथाकथित सिविल सोसाइटी—की सड़ाँध को भी उजागर करता है। वसुधैव कुटुंबकम् के नारे पर चलने वाले ‘बेकायदा’ नामी एन.जी.ओ.को सपोत्रा साहब चंदा देते हैं, वह एन.जी.ओ. उनके बिजनेस में पैसा लगाता है, अंधाधुंध ब्याज के लालच में। मीरा राव का कहना है, “ हो सकता है, वो ग़ैर-क़ानूनी माना जाए। मगर मैं मानती हूँ, क्योंकि यह काम समाजसेवा के लिए हो रहा था, इसलिए उसमें क़ानून को टाँग अड़ाने की ज़रूरत थी नहीं।”

किसी भी तरह अपने लिए कुछ हासिल करने की होड़, बहती गंगा में हाथ धोने की ललक, स्वाभाविक ही है कि समाज के इलीट तक सीमित न रह कर सब तरफ व्याप रही है। दामिनी की समर्थक नजमा अपने लिए स्कूटी का जुगाड़ कर लेती है, और हिन्दीशजी अपने लिए टीआरपी का। स्वयं उनकी चमक फीकी न कर दे, इसलिए वे चपरासी रामलखन को दोबारा पैनल डिस्कसन में बुलाते ही नहीं। इधर सारी बहस चलती रहती है, आरटीआई होती रहती है, रामलखन के सपोत्रा का बेटा होने का दावा किया जाता है; सपोत्रा बनते मकान  से गिर कर मर जाता है… उधर ग़ैर-क़ानूनी ढंग से बन रहा मकान बन भी जाता है, उसके तल्ले  सपोत्रा के बेटे द्वारा अलग-अलग लोगों को बेच भी दिये जाते हैं, अब जिसे जो करना है, कर ले।

क़िस्से की ‘सीख’ पाठक को रामलखन के शब्दों में ही प्राप्त होती है, “ करना यह चाहिए कि चाहे अनुमति-पत्र मिले या न मिले, आप धड़ल्ले से मकान बनवा डालिए। मगर याद रखिए, जब मकान पूरा हो जाएगा तो आपको मरना पड़ेगा। जब आप मर जाएँगे तो आपके उत्तराधिकारी पर आपके अवैध कर्मों का कोई उत्तरदायित्व नहीं होगा।”

क़िस्सा ख़त्म होता है, रत्नाबाई-पुत्र लल्लन की भविष्यवाणी से, “ यही रामलखन हमारे देश का अगला प्रधानमंत्री होगा। और तब? तब बहुत कुछ बदल जाएगा, देश का नक्शा बदल जाएगा!”

क़िस्सा आखिर में यह भी बता देता है कि, “यह लल्लन ने कहा नहीं, सिर्फ सोचा। कहा हमने।”

“ मर गया तेरे वसु का कुटुम। मर गया जालिम सपोत्रा…” इस घोषणा के साथ “ …नाच रही थी महापिशाचिनी, उस सजे-सँवरेस महँगे कमरे के बीचोबीच”——यह सूचना देता क़िस्सा कहता है, “ हम जानते हैं कि जो हम दिखला रहे हैं, वह शोभनीय नहीं है। बहुतों के सौंदर्यबोध को आहत कर सकता है। मगर हम क्या करें, जो कर रही है रत्नाबाई कर रही है, हम नहीं। हो सकता है, वह महाकाली का अवतार हो धरती पर। और आप जानते हैं कि महाकाली तो आपके शोभनीय की छाती पर ही अपना घमासान किया करती हैं। उनके हुँकार में सौन्दर्यबोध नहीं होता। उनके हुँकार में होता है तांडव। उनके हुँकार में होता है, प्रलय।”

पढ़वा तो यह क़िस्सा खुद को लेगा ही। ऐसी ही किताबों के लिए अंग्रेजी में कहते हैं, ‘अनपुटडाउनेबल’। पढ़ने के बाद, आपका मन प्रलय और तांडव का इंतजार करने का होता है, या उसके पहले, बदलाव की दिशा सोचने का…वह आप पर है…

-पुरुषोत्तम अग्रवाल।

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