शबरी के बेर…प्रियादास का स्मरण

शबरी के बेर…
प्रियादास का स्मरण…

प्रेम और भक्ति में विह्वल होकर राम और लक्ष्मण को ‘जूठे बेर’ खिलाने वाली शबरी हम सबने रामलीला में देखी है, फिल्मों और टेलीविजन धारावाहिकों में देखी है।
वाल्मीकि रामायण में मतंग ऋषि की शिष्या शबरी राम और लक्ष्मण का स्वागत उसके द्वारा संचित ‘विविध वन्य वस्तुओं’ से करती है—“ मया तु विविधं वन्यं संचितं” (अरण्यकांड, 74.17) जूठे-अनजूठे बेरों का उल्लेख तक नहीं है यहाँ।
तो, शबरी के प्रेमानुराग और राम की भक्त-वत्सलता को रेखांकित करने वाली यह मार्मिक कल्पना किसकी है? किसने इस प्रसंग को यह सुंदर मोड़ दिया?
मैं जानता हूँ, आपमें से नब्बे फीसदी के मन में एक ही नाम कौंधेगा—तुलसीदास…
किन्तु ऐसा है नहीं..
रामचरितमानस में भी यह प्रसंग वाल्मीकि की ही तरह आता है,
“ कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि” ( दोहा 34, अरण्यकांड)
रामचरितमानस पर जिसका बहुत प्रभाव है, उस अध्यात्म रामायण में भी यह प्रसंग वाल्मीकि की ही तरह है।

तो शबरी के बेरों की कथा-कल्पना का मूल स्रोत?

मेरी अब तक की जानकारी के अनुसार यह काम सबसे पहले प्रियादास करते हैं। ये चैतन्य महाप्रभु के अनुयायी, गौड़ीय ( बंगाली) संप्रदाय के वैष्णव थे। जरूरी नहीं कि बंगाली ही रहे हों, बहुत करके संभावना यह है कि प्रियादासजी ओड़िया थे। इन्होंने 1712 में नाभादासजी की प्रसिद्ध भक्तमाल (रचनाकाल सोलहवीं सदी) पर ‘भक्तिरसबोधिनी’ टीका लिखी थी।
ऐसे तथ्यों पर ध्यान देने से आरंभिक आधुनिक काल के भक्ति-संप्रदायों के आपसी संबंधों को अधिक प्रामाणिकता से देखा जा सकता है। वरना समकालीन राजनीति में खुद को सही जगह फिट करने के लिए वैसे ही तमाशे होते रहेंगे जैसा विनय धारवाड़कर ने कबीर-बानी के अंग्रेजी अनुवाद की भूमिका में किया है। उन्होंने एक झटके में नाभादास के साथ ही प्रियादास को भी रामानंदी वैष्णव बना दिया है। उनकी समझ से यह संभव ही नहीं कि रामानंदी भक की रचना पर गौड़ीय वैष्णव श्रद्धा और अनुराग के साथ टीका करे।

खैर, नाभादासजी ने अपनी गागर में सागर वाली शैली में, ‘हरिवल्लभ’ ( यानि भगवान को बहुत ही प्रिय) भक्तों में ध्रुव, उद्धव आदि के साथ नौवें छप्पय में ’हनुमान,जांबवंत, सुग्रीव, विभीषण, शबरी’ का उल्लेख किया है।
इसी छप्पय की टीका करते हुए प्रियादास लिखते हैं, “ ल्यावे वन बेर लागी राम की औसेर फल चाखे धरि राखे फेरि मीठे उन्हीं के योग हैं। मारग में रहे जाइ लोचन बिछाइ कभू आवें रघुराई दृग पावें निज भोग हैं।” ( भक्तमाल, खेमराज श्रीकृष्णदास, मुंबई, संस्करण 1989, पृ. 9)
संभव है कि यह बात प्रियादास को बंगाल या ओड़िसा की अलिखित, लोक-प्रचलित रामकथाओं से प्राप्त हुई हो। ध्यान देने की बात यह है कि प्रियादास भी यह नहीं कह रहे कि एक-एक बेर चख-चख कर राम को खिलाया जा रहा है। यह मार्मिक नाटकीयता बहुत करके रामलीला परंपरा की अपनी देन है।

 
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