Category: Caste

“The Naths in Hindi Literature”

My essay “The Naths in Hindi Literature” has appeared in the volume “Yogi Hero and Poets: Histories and Legends of the Naths” edited by David Lorenzen and Adrian Munoz, published by State University of New York Press.

This essay is based on the key-note address I gave to the conference on ” The Nath-Yogis” by the El  Collegio de Mexico, Mexico city in 2007.

The Volume also contains essays by David Lorenzen, Daniel Gold, Daniel Gordon White, Ishita Bannerjee-Dube and others.

For more information click here- http://www.sunypress.edu/p-5272-yogi-heroes-and-poets.aspx

In the context of recent honour killings

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http://timesofindia.indiatimes.com/city/delhi/Samaj-ke-liye-yeh-murder-zaroori-tha-says-girls-uncle/articleshow/6084080.cms

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सुमन केशरी की लंबी कविता-‘राक्षस पदतल पृथ्वी टलमल’ के कुछ अंश। यह कविता ‘याज्ञवल्क्य से बहस’ ( राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2008) में संकलित है।
राक्षस पदतल पृथ्वी टलमल

गाँव के बीचोंबीच
सरपंच के दरवाजे के ऐन सामने
गाँव के सभी जवान और बूढ़े आदमियों की मौजूदगी में
बिरादरी के मुखियों ने वह फैसला सुनाया था…

उस रात शायद ही किसी घर में पूरी रसोई बनी
कइयों के पेट तो निन्दा-रस से भरे थे
तो कोई जीत की खुशी में मगन थे
कुछ छोड़ जाना चाहते थे कदमों के निशान
तो कुछ बन जाना चाहते थे धर्म, मर्यादा,संस्कृति की पहचान

दालान के कोने में लड़की खौफजदा थी
छिटकी सहेलियाँ थीं
और माँ मानो पाप की गठरी
सिर झुकाए खड़ी थी
बीच बीच में घायल शेरनी सी झपटने को तैयार
आँखों से ज्वाला बिखेरती
दाँत पीसती, दोहत्थी छाती पर मारती
सब कुछ बड़ा अजीब था
न तो लड़के ने कोई डाका डाला था
न किया था किसी का बलात्कार
और न लड़की ने किया था कोई झगड़ा
या फिर किसी बड़े का अपमान
बस किया था तो बस प्यार

ऐसे तो जिबह करने वाले जानवर भी नहीं बाँधे जाते माँ
और तुमने बाँध दिया खुद अपनी जाई को अपने हाथों
मानो कोख ही को बाँध दिया हो मर्यादा की रस्सी से
ऐसा क्या तो कर दिया मैंने
बस मन ही तो लग जाने दिया
जहाँ उसने चाहा
कभी जाति की चौहद्दी से बाहर
तो कभी रुतबे की खाई को लांघ
तो कभी धर्म की दीवार के पार।

हमने प्रेम…बस प्रेम को जीया
केवल प्रेम किया
और छोड़ प्रेम को कोई नहीं जानता
कि प्रेम की अपनी ही मर्यादा है
अपने ही नियम हैं
और अपना ही संसार…

लटका दो इन्हें फाँसी पर
ताकि समझ लें अंजाम सभी
प्रेम का, मनमानी का
मर्यादा के नाश का
संस्कारों के ह्रास का

तो सदल-बल सभी लटका आए उन मासूमों को
गाँव के पार
पीपल की डार पर
सभी साथ थे कोलाहल करते
ताकि आत्मा की आवाज सुनाई न पड़े
घेर न ले वह किसी को अकेला पा कर
आखिर संस्कार और मर्यादाएं
बचाए रखती हैं जीव को
अनसुलझे प्रश्नों के दंशों से
दुरुह अकेलेपन से…

तो जयजयकार करता
समूह लौट चला उल्लसित कि
बच गयीं प्रथाएँ
रह गया मान
रक्षित हुई मर्यादा
फिर से खड़ा है धर्म बलपूर्वक
हमारे ही दम पे
जयजयकार, तुमुल निनाद, दमकता दर्प
सब ओर अद्भुत हलचल
लौटता है विजेताओं का दल
राक्षस पदतल पृथ्वी टलमल.

-सुमन केशरी।
sumankeshari@gmail.com