Category: Creative Writing

भय और क्रूरता की सांस्कृतिक ठेकेदारी का समकाल: ‘बनास जन’ ( मई-जून 2016) में प्रकाशित नाकोहस की समीक्षा युवा आलोचक शशिभूषण मिश्र द्वारा

भय और क्रूरता की सांस्कृतिक ठेकेदारी का समकाल

                                     

                                                                          शशिभूषण मिश्र

कालजयी रचनाकार की यह खासियत होती है कि वह न केवल अपने समय और परिवेश की बारीक से बारीक हरकतों पर नजर रखते हुए संभाव्य परिवर्तनों को सजगता से पहचानने की कोशिश करता है बल्कि उस समय की अचीन्हीं प्रतिगामी शक्तियों की निशानदेही भी करता है | इस प्रक्रिया में वह व्यथा और पीड़ा से लथपथ मूक विवशताओं को दर्ज करता उन कारणों तक पहुँचता है जिनके फलस्वरूप प्रतिरोध पस्त पड़ चुका है | कई बार रचनाकार को समय की दुरभिसंधियों और जटिलताओं की बहुआयामिता को प्रश्नांकित करने के लिए विधाओं और शैली की बनी बनायी हदबंदियों का अतिक्रमण करते हुए सृजन करना पड़ता है | हिंदी आलोचना में स्थापित हो चुके पुरुषोत्तम अग्रवाल का पहला उपन्यास ‘नाकोहस’ हमारे समय की ऐसी ही निर्मम सचाइयों का संश्लिष्ट विश्लेषण करता एक बहसतलब हस्तक्षेप है | कुछ रचनाएं ऐसी होती हैं जो अपने खोल से बाहर निकलकर हमारे जिए भोगे का हिस्सा बन जाती हैं | ‘नाकोहस’ एक ऐसा ही उपन्यास है जो समय-समाज की नब्ज टटोलता अपने आयतन में न सिर्फ समकाल की भयावहता को समेटे हुए है बल्कि भविष्य के संकटों का संकेतायन भी करता है |

जे.एन.यू.की पूरी घटना ने सबको झकझोर कर रख दिया है | हाल के दिनों में वहाँ जो कुछ भी घटा है वह उसी सुनियोजित राजनीति का दुष्चक्र है जिसे ‘नाकोहस’ में गहरी अर्थव्यंजनाओं के साथ व्यक्त किया गया है | इसे संयोग कहा जा सकता है कि रचना में जिन दुरभिसंधियों की ओर लेखक ने संकेत किया है ;  वह इसके  प्रकाशन के महज कुछ ही समय बाद जे.एन.यू. में घटित होती हैं किन्तु इसे केवल संयोग मान लेने से यह सच नहीं झुठलाया जा सकता कि एक अंतर्दृष्टिपरक लेखक भविष्यद्रष्टा की तरह आगामी संकटों की अनुगूंजों को महसूस कर हमें पहले से ही आगाह कर देता है | उपन्यास के पूरे विमर्श को जे.एन.यू.के घटनाक्रम से वाबस्ता करने पर हम देख पाते हैं कि कुकुरमुत्ते की तरह उग आए बौनैसर (बौद्धिक-नैतिक समाज रक्षक) तबके ने सांस्थानिक प्रगतिशीलता को अपनी जद में लेने की मुहिम शुरू कर दी है | जे.एन.यू. एक विश्वविद्यालय भर नहीं है वह  इस पूरे राष्ट्र के सम्मान का प्रतीक भी है और निश्चित तौर पर विचारों की स्वतंत्रता को यहाँ हमेशा तरजीह दी जाती रही है | उपन्यास के तीन मुख्य किरदारों –सुकेत,रघु और शम्स को भी इसी विचार स्वातंत्र्य की कीमत चुकानी पड़ती है | जब स्वयं व्यवस्था द्वारा ही इस साजिश को  सुनियोजित ढंग से संचालित किया जा रहा हो ,ऐसे में किसी भी प्रकार के न्याय की उम्मीद करना बेमानी है |

यह समय ही आभासी है ; जो जैसा हमें दिखता है असल में वह वैसा होता नहीं और जो है वह दिख नहीं रहा है | छद्म और चकाचौंध के बीच असलियत छितरा गई है ,रौंद दी गयी है | पूंजी के सूत्रधारों द्वारा छेड़े गए इस भूमंडलीय अभियान में ऐसी मिथ्या निर्मितियां तैयार की गईं हैं जहां सब कुछ गड्ड-म-गड्ड नजर आता है | रचना के शैल्पिक गठन में जो जादुई-सा यथार्थ दिखता है वह केवल एक कलात्मक प्रयास नहीं है बल्कि आभासी सा दिखता इस जगत का प्रतिरूप है | यह बाजार के फैलाए जादू (मिथ्याभाष) का प्रतिपक्ष है जो बहुवचनात्मकता में व्यक्त होता है | सर्ररियलिज्म के प्रतिनिधि चित्रकार के रूप में ख्याति अर्जित करने वाले साल्वेडार डाली के व्याख्याकार आंद्रे ब्रेंतां की महत्वपूर्ण स्थापना को यहाँ रेखांकित करना चाहूंगा-“चेतना का एक स्तर वह भी होता है जहां जीवन और मृत्यु ,वास्तविकता और काल्पनिकता,अतीत और भविष्य के अंतर्विरोध समाप्त हो जाते हैं |” इस रचना को इस सन्दर्भ में भी देखे जाने की जरूरत है | बाजारवादी शक्तियों,सत्ताधारियों और धर्म के महाप्रभुओं की कदमताल की ठोकर से जो ध्वंश हुआ है उसके कारण जीवन के बुनियादी सवाल हाशिए पर चले गए हैं | धर्म ,नस्ल और जाति की अगम्य संरचना का बाहरी खोल कमजोर पड़ने के बजाए और मजबूत हुआ है | रचना की समूची घटनात्मकता में पसरा अँधेरा हमें मुक्तिबोध की कविता ‘अँधेरे में’ की  याद दिलाता है , जिसमें चहुँओर  घुप्प अन्धकार की भयावहता का चित्र हमें अन्दर तक हिला देता है |

उपन्यास भय के वातावरण से शुरू होकर लोकतान्त्रिक राष्ट्र के विचारशील नागरिकों की असुरक्षा और विवशता का जायजा लेता पाठक के अन्दर मंत्रबिद्ध बेचैनी छोड़ जाता है | लेखक ने हिन्दू धर्म के एक पौराणिक मिथक का रूपक लिया है जिसमें मगरमच्छ द्वारा हाथी पर प्राणघाती हमला किए जाने पर हाथी की पुकार सुन स्वयं नारायण अवतरित होकर मगरमच्छ का अंत करते हैं | समकालीन सन्दर्भों में इस मिथक का प्रयोग करते हुए लेखक ने सर्वग्रासी शक्तियों के प्रतीक मगरमच्छ के रूप में यह दिखाने की कोशिश की है कि किस तरह  सरेआम गलियों में घुसकर वह अपनी ताकत का बेजा  प्रदर्शन कर रहा है |  राष्ट्र,राज्य, समाज,व्यक्ति सब उसकी शक्ति से डरे हुए हैं | मगरमच्छ उस सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक प्रतिक्रियावाद  के गर्भ से उपजी सोच का प्रतीक है जिसने अपना सुरसा विस्तार किर लिया  है | यह बर्बरता, भय और असीमित शक्ति का प्रतीक है जिसने नागरिक जीवन के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर दिया है – “सुरक्षा की छांव तक ले जाने वाली उसी गली से एक मगरमच्छ आ रहा है –दुम इत्मीनान से मटकाता हुआ ,गली की छाती पर मठलता हुआ…| ”(पृष्ठ-09) भाषा की टोन में यहाँ उस तनाव को महसूस किया जा सकता है जो सपने के दौरान  सुकेत के अन्दर पैदा हुआ है | हाथी की एक टांग मगरमच्छ चबाता जा रहा है और  हाथी चीख रहा है,छटपटा रहा है किन्तु उसकी चीख सुनने के बाद भी भीड़ उसे अनसुना कर देती है | हाथी को बुद्धिजीवी-विवेकशील व्यक्ति का प्रतीक माना जा सकता है | इस रूपक के माध्यम से उपन्यास  उत्तर-आधुनिक व्यक्ति-समाज की प्रवृत्ति को लक्षित करता अपनी बढ़त में कई सवालों से मुठभेड़ करता है | मसलन  जिसे हम ‘समाज’ कहते हैं क्या वह अपना अस्तित्व खोता जा रहा है ! क्या मूकदर्शक भीड़ ने समाज को प्रतिस्थापित कर दिया है ! विडंबना यह कि इतना सब होने के बावजूद  सुरुचिसम्पन्न होने का ढोंग करते थकता नहीं |

रचना  का प्रारंभ  सुकेत के इसी डरावने स्वप्न से होता है और नींद खुलने के बाद भी सपने का वह भय  उसका पीछा नहीं छोड़ता | जगने पर वह पाता है कि भीड़ उसके घर को घेरे हुए कभी एंटी नेशनल प्रोफेसर के नारे लगा रही है तो कभी उनके बीच से कोई चीखती आवाज में कहता है- जला दो,मिटा दो | हम कैसे भूल सकते हैं कुछ ही वर्ष पहले उज्जैन में हुई प्रोफेसर सभरवाल की हत्या का वीभत्स खेल | दरअसल सुकेत का दोष यह है कि उसके लेख से लोगों की भावना आहत हुई  है और  इसी की प्रतिक्रिया में उसे सबक सिखाने के इरादे से बौनैसरों की फ़ौज इकट्ठी हुई  है | उपन्यास की  केन्द्रीय समस्या है- अभिव्यक्ति की आजादी और उससे  आहत बौनैसरों का प्रतिशोध | इसी प्रक्रिया का  रणनीतिक हिस्सा है ‘नाकोहस’ यानी  नेशनल कमीशन आफ हर्ट सेंटीमेंट्स का गठन | सुकेत के साथ उसके ईसाई मित्र रघु और मुस्लिम मित्र शम्स भी उसी  युनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं जिन्हें भी  अभिव्यक्ति की आजादी के कारण कई शारीरिक और मानसिक यातनाओं से गुजरना पड़ता है | सुकेत,रघु और शम्स लोकतांत्रिक राष्ट्र की प्रगतिशील सोच का प्रतीक हैं | आलोचना की फार्मूलाबद्ध एप्रोच यहाँ रघु  और शम्स की धार्मिक पहचान पर सवाल उठा सकती है किन्तु यहाँ स्पष्ट कर देना जरूरी है कि ये तीनो चेहरे बाहरी तौर पर धर्म या सम्प्रदाय के रूप में अलग-अलग होते हुए भी एक ही चेतना के हिस्से हैं, तीनो के डी.एन.ए.का रसायन एक-दूसरे से इस कदर घुला-मिला है कि उसे अलगाकर नहीं देखा जा सकता | उपन्यास अपनी बढ़त में दिखाता चलता है कि किस तरह शोध संस्थानों पर हमले हो रहे हैं , बहुमूल्य पांडुलिपियाँ जलाई जा रही हैं | शब्दों से आहत हो जाने वाली भावनाओं के डर से फिल्मों के नाम बदले जा रहे हैं और उनसे गीत हटाए जा रहे हैं , फिल्म रिलीज होने से पहले धर्मगुरुओं से अनुमति ली जा रही है | भावनाओं के आहत होने का विस्फोट सा हो गया है जिधर देखो उधर ही कोई परंपरा के नाम पर तो कोई धर्म या संस्कृति के नाम पर आहत है | सुकेत प्रश्न करता है कि- “ परंपरा,संस्कृति और धर्म के नाम पर चल रही हिंसक राजनीति के विरुद्ध पालिटिकल आर्ग्यूमेंट में हर्ट सेंटीमेंट्स का क्या सवाल है ?” (पृष्ठ-13)

  

सुकेत का भीड़ द्वारा विरोध एक सोची समझी रणनीति की अतिरेकी कार्रवाई का हिस्सा था | इस घटना के साथ हम उसी विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले कई शिक्षकों के माध्यम से यह देख पाते हैं कि सांस्थानिक प्रगतिशीलता के क्षरण के मूल में कौन से कारण विद्यमान हैं | लेखक मारे जा रहे हैं ; पत्रकारों पर हमले हो रहे हैं ; कार्टून बनाए जाने पर तूफ़ान खड़ा हो जाता है ; पेंटिंग बनाने वाले कलाकारों के खिलाफ प्रदर्शन हो रहा है ; आगजनी की घटनाएं हो रहीं है ; और न जाने क्या क्या ! उपन्यास के इन दृश्यों से गुजरते हुए सहसा बाबुषा कोहली की कविता ‘हुसैन की निर्वासित देवी के लिए’  स्मृति में कौंध जाती है,जिसमें वह लिखती हैं –“संसार भर के शब्दकोष उलट पलट दो /तब भी न समझ आएगा नग्नता और नंगई का अंतर /उंगलियाँ कट गिरें या गले रेत दिए जाएं / फिकिर किसे ? / माँ / एक बात बताओ न / सभ्यता के बुनकरों ने कपड़े लत्तों के सिवाय और क्या बुना है ?”  सभ्यता के यही तथाकथित  बुनकर हैं जिन्हें लेखक बौनैसर के रूप में रेखांकित करता है जो हमारे चारो ओर बेतरह उग आए हैं- भारतीय संस्कृति की रक्षा का बीड़ा उठाए | संस्कृति-रक्षा के इस अभियान में शामिल ये आहत बौनैसर लोगों को जिन्दा जलाने में भी संकोच नहीं करते | उपन्यास ऐसी विकृत मानसिकताओं की निर्मितियों की पहचान करने के क्रम में हमें वैश्विक चिंताओं से भी रू-ब-रू कराता है | विचारों के दमन की अतिवादी सोच से उपजा नफ़रत का गारा भौगोलिक सीमाओं को पार कर पूरी दुनिया में फैला हुआ है | यदि हम गत दशक में आस्ट्रेलिया,इटली,इंग्लैण्ड,जर्मनी और यू.एस.ए.में  दूसरे मुल्कों  के लोगों पर हुए हमलों, हत्याओं और मानसिक यातनाओं के मूल में जाएं तो पाएंगे कि मूकदर्शक बना वहाँ का पूरा तंत्र इसी मानसिकता का शिकार है | लेखक प्रश्न करता है – “ क्या कभी ऐसी कोई व्यवस्था बन पाएगी जिसके निर्माण में किसी इंसानी पहचान से नफ़रत का गारा न इस्तेमाल किया गया हो ?” (पृष्ठ-99)

उपन्यास के कथानक का विस्तार इन तीनों मित्रों की आपसी बातचीत और चिंताओं की आवाजाही में होता है | यहाँ प्रेम,आलिंगन,धोखा सिगरेट-शराब और  मस्ती की  स्मृतियों के बीच दलित अत्याचार,हिंसा,मारपीट,धर्म की दुकानदारी,बाबाओं का पाखण्ड,ग्लोबल विलेज की अनुगूंजों को सुना जा सकता है | इन गंभीर चर्चाओं के बीच तीनों ही मित्रों के मन के कोनों में गहराते भय की देह को महसूस किया जा सकता है | नाकोहस की अगली रणनीति  है – अभिव्यक्ति की आजादी  से दूसरों की भावनाओं को आहत करने वाली इस तिकड़ी को जड़ से  उखाड़ फेकना | इसी के मद्देनजर इस तिकड़ी को बौनेसरों द्वारा जबरन उठा लिया जाता है और तब हमारा सामना उस ‘गिरगिट’ से होता है जिसके पास फ़रेब,तिकड़म,गुंडागर्दी,चालाकी, साम्प्रदायिकता के सारे हुनरों  का लम्बा अनुभव है | सुकेत,रघु और शम्स को गिरगिट द्वारा अपने कारिंदों से जबरन घर से उठवाकर इस यातनापूर्ण और घुटन से भरी सुरंग में लाया जाता है | ‘नाकोहस’ के इस ‘नियंता’ गिरगिट द्वारा चेतावनी भरा फैसला सुनाया गया, जिसका सार है – वक्त रहते सुधर जाओ…इंटेलेक्चुअल छोड़ टेक्नेक्चुअल बनने की कोशिश करें…बौनैसरों की सुनें…सदा सुखी रहें…आदि-आदि | तो यही है ‘नाकोहस’ रूपी समकाल-कथा का पाठ जो इस रचना से निकलकर दबे पाँव हमारे भीतर उतर जाता है और ताबड़तोड़ रंग बदलते इस गिरगिट की बेरहम आँखों से टपकती निर्लज्जता और घृणा, फुफकारते थूथन से निकलती हिंसा ,लपलपाती जीभ से बाहर आता जहर और उसकी निर्मम मुस्कान हमें बेचैन कर देती है |

‘नाकोहस’ हमारे समय का संकट है जिसे लेखकीय विकलता के रूप में हम इस उपन्यास की संरचना में विन्यस्त पाते हैं | यहाँ भाषा की अनेकानेक भंगिमाओं में पूरा दृश्य एक दु:स्वप्न–कथा की तरह उभरता है, जहाँ केवल आभास होता है और वह आभास भी उलट-पुलट, अचकचाया-सा है | इस संकट ने समय के सवालों को निरस्त कर नेपथ्य की खूंटी में टंगा दिया है , उलझा दिया है | नाटकीय दृश्यों और शिल्प के बहुविध प्रयोगों में यहाँ तर्क-वितर्क के पल पल बदलते दृश्य हैं | उपन्यास का ढांचा कथा के बने बनाए ढब को तोड़ता है | इसे यथार्थ का जादू कहें या जादुई यथार्थ की उलटबासी या फिर अतियथार्थवाद ! इसका लगभग समस्त  उत्तरार्ध विमर्शपरक और संश्लिष्ट है जिसमें पूरे समकाल का हौलनाक यथार्थ समाया है | यहाँ उपन्यासकार का आलोचकीय नजरिया ज्यादा हावी दिखाई देता है जिसके चलते पाठक कई बार सहज पाठ-बोध से विच्छिन्न  महसूस करता  है |

दूसरी पहचान के लोगों का खून बहाना,उन्हें अपना घर-गाँव छोड़ने पर मजबूर करना,शरणार्थी कैम्प की निर्ममताएं और बेचारगी की मर्माहत स्थितियां रचना की अंतर्वस्तु में पैबस्त हैं | यहाँ धर्म पर,तंत्र पर और उसकी विचार-सरणि पर सवाल करने की सख्त मनाही है | सत्यनारायण पटेल की कहानी ‘काफ़िर बिजूका उर्फ़ इब्लीस’ की चर्चा यहाँ बेहद प्रासंगिक होगी, जिसमें फिल्म क्लब के माध्यम से बिजूका मनुष्यता के बीच बढ़ती धार्मिक कड़वाहट को पराजित करने की जद्दोजहद में डटा है किन्तु बौनैसरों की तरह यहाँ भी धर्म की दुकानदारी करने वाले उसे काफिर ठहरा देते हैं | प्रोफेसर हमज़ा कुरैशी बौनैसरों की सेना के ‘बौ’ का  प्रतिनिधि चरित्र हैं | वह  धिक्कार भरी भाषा  में बिजूका से सवाल करते हैं –“आप कौन होते हैं धर्म के नियम कानून पर बात करने वाले ?” रेखांकित किया जाना चाहिए कि उन्हीं प्रोफेसर के इशारों पर उनके प्रिय शागिर्द बाबा द्वारा  फातिमा के चेहरे पर तेज़ाब फेंका जाता है | सांप्रदायिक सोच से पनपी विचलित कर देने वाली तमाम स्थितियां-घटनाएं इसी तरह ‘नाकोहस’ में भी दर्ज हैं | एक बेहद संजीदा सवाल लेखक यहाँ उठाता है जिसकी नोटिस ली जानी चाहिए – “ खून में नहला दी  गयी वह स्त्री रघु की चेतना में सवाल बनकर अटक गयी थी , रहम…दया…मर्सी…हर धर्म गुण गाता है, हर परंपरा इसके गीत गाती  है…हकीकत इतनी बेरहम…अपने-अपने भगवान को करुणानिधान सब कहते हैं…हकीकत में कहाँ घुस जाती है करुणा ?” (पृष्ठ 93)

  

गौर किया जाना चाहिए कि भूमंडलीय पूँजी की लोभी संस्कृति ने विकास के नाम पर जिस तरह लूट मचाई है उसमें जनकल्याण का मुखौटा पहने हमारी सरकारों की भी मिलीभगत है | सब कुछ जल्दी से भकोस लेने वाले हप्पू विकास की असल नीयत को बेनकाब करना हमारा दायित्व है | गिरगिट के रूप में हम  धर्म,संस्कृति,सत्ता और विकास को अपनी मुट्ठी में रखने वाले इसी तंत्र को पाते हैं जिससे हम चारो ओर से  घिरे हुए हैं | ‘नाकोहस’ इनकी नुमाइंदगी करता है और सभ्य नागरिक समाज के लोगों को सुधर जाने की कड़ी हिदायद देता है  -“खैर, होगा इस बीमारी का इलाज भी होगा | काम चल ही रहा है | राष्ट्रीय चरित्र निर्माण आयोग ,राष्ट्रीय अनुशासन संस्थान ,विवेक पुनर्निर्माण समिति का गठन किया गया है | नाकोहस  यानी आहत भावना आयोग है ही…टारगेट यह कि –कोई भी नागरिक किसी भी हालत में अपने चरित्र को और दूसरों की भावनाओं को चोट न पहुंचा पाए,एकांत और फिजूल सोच-विचार की खतरनाक जकड़ में न आने पाए…| ”(पृष्ठ-123)

उपन्यास का ऊपर से अंतर्विरोधी लगता यथार्थ हमारी कारस्तानियों का ही अक्स है जिसे इतनी तलस्पर्शी साफगोई से कह पाना लेखकीय उपलब्धि है | समय-समाज के  भीतर उतरते जाने की इस यात्रा में रचनाकार धर्म-संस्कृति के तथाकथित ठेकेदारों और लम्पट ताकतों की हठधर्मिता और घेरेबंदी से मुठभेड़ करता , हमसे  इनके प्रतिपक्ष में खड़े होने की गुहार लगाता है |

नाकोहस(उपन्यास),पुरुषोत्तम अग्रवाल,राजकमल प्रकाशन, दिल्ली,प्रथम संस्करण,2016,पृष्ठ-164,मूल्य-150 रु.

समीक्षक-डॉ०शशिभूषण मिश्र,सहायक प्रोफेसर-हिंदी,राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,बाँदा (उ.प्र.)                    मोबा.-9457815024,ई-मेल-sbmishradu@gmail.com

कट्टरता का प्रत्याख्यान- नाकोहस…’कादम्बिनी’ के सितंबर अंक में युवा आलोचक पल्लव की समीक्षा

कट्टरता का प्रत्याख्यान 
पल्लव 
आज़ादी के सत्तर वर्षों में विकास के साथ जैसा समाज बनता गया है उस समाज में नफरत और हिंसा की जगह बढ़ी ही है। इस नए दौर में जब भावनाएं इतनी कमज़ोर हो गई हैं कि जरा जरा सी बात में आहत हुई जा रही हैं तब यह सोचना अत्यंत कठिन है कि स्वतंत्रता आंदोलन केवल आज़ादी का आंदोलन नहीं था अपितु वह सांस्कृतिक आंदोलन भी था जिसने हमारे लिए आधुनिकता का दरवाज़ा खोला। पुरुषोत्तम अग्रवाल का पहला उपन्यास ‘नाकोहस’ हमारे इस बदरंग और मुश्किल दौर का चित्र बनाने का प्रयास है, जिसमें आधुनिकता के स्थान पर परम्परा और मध्यकालीन बर्बरता को उचित ठहराने की गुंडई की जा रही है । छोटी से कथावस्तु के सहारे भी उपन्यास अपने उद्देश्य में सार्थक यात्रा कर सका है तो इसका कारण यह है कि लेखक बदरंग दृश्यों को आकर्षक बनाने में ऊर्जा लगाने के स्थान पर पाठक को बौद्धिक उन्नयन के लिए तैयार करता है। इस कट्टरताप्रेमी बौनेसर (स्वयंभू बौद्धिक – नैतिक समाज रक्षक) समाज को बौद्धिकता से इतना डर है कि यह डर घृणा और हिंसा में बदल गया है। उपन्यास के तीन पात्रों सुकेत, रघु और शम्स को बौनेसर अगवा कर ले जाते  हैं और यंत्रणाएं देते हैं। ये यंत्रणाएं असल में अभियक्ति को कुंठित करने वाली धौंस और गुंडागर्दी है जो विश्व भर में कट्टरपंथी ताकतों द्वारा उदारता के सनातन विचार के सामने आ खड़ी हो गई हैं। इनका नारा है – इंटेलेक्चुअल होना पाप है, टेकनेक्चुअल सबका बाप है’। उपन्यास का प्रारम्भ एक मगरमच्छ द्वारा निरीह हाथी को भंभोड़ने से हुआ है तो आगे गिरगिट का विशाल और घिनौना बिम्ब है। उपन्यास असल में परमपरा, संस्कृति और धर्म के नाम पर चल रही हिंसा के विरुद्ध बौद्धिक प्रत्याख्यान है।

अकारण नहीं कि उपन्यास में एक स्थान पर सवाल आया है –  ‘क्या कभी ऐसी कोई व्यवस्था बन पाएगी जिसके निर्माण में किसी इंसानी पहचान से नफ़रत का गारा न इस्तेमाल किया गया हो ?’ नाकोहस का आशय है नेशनल कमीशन फॉर हर्ट सेंटिमेंट्स ! यहाँ लाए गए इन तीनों मित्रों को गिरगिट की हिदायत देखिये – ‘उम्मीद तो है कि आप तीनों अब सुधर जाएंगे… नहीं तो… आप जानें… वैसे, यू मस्ट एप्रिशिएट द फैक्ट कि आपके साथ नाकोहस ने कमाल की नरमी बरती है… बस जरा से दस्तखत, दस्तखत भी क्या, इनिशियल्स ही तो किए गए हैं, आप लोगों की बॉडीज पर… डू यू रियलाइज सर… कि जितना वक्त आपने नाकोहस के फ्रेंडली इंटरएक्शन में बिताया, जितना आपको वहां ले जाने, वापस पहुंचाने में लगा, यानी कुल मिलाकर आप तीनों जितनी देर इस किस्सा-ए-नाकोहस में रहे, बस उतने ही अरसे में एक जाने-माने बुजुर्ग इंटेलेक्चुअल भारत में भगवान को प्यारे हो गए, और एक अरब में अल्लाह मियां से मिलने भेज दिए गए…’ उपन्यास केवल बौद्धिक व्यायाम नहीं है और अग्रवाल इसे सचमुच कथा बनाते हैं। यहाँ सुकेत के असफल विवाह और प्रेम की कहानी है तो शम्स की बातें जिस भाषा में आई हैं वह देर तक याद रह जाने की क्षमता रखती हैं। यही नहीं उसका खिलंदड़ापन बौद्धिक समाज की जिजीविषा का प्रतीक बनकर आता है जो मार खाकर भी स्वभाव नहीं छोड़ सकता। प्रो बख्शी जी और पुलिस वाला चौड़ा सिंह जैसे एक बार ज़रा सी देर के लिए आए पात्र भी असर छोड़ने वाले हैं। इस दृश्य में मीडिया कहाँ है, उपन्यास बताता है – ‘तेजी से दौड़ती कर की खिड़कियों पर इस पल बीते कल के अक्स नहीं, आज की ब्रेकिंग न्यूज़ की परछाइयाँ डोल रही थीं, बल्कि टूटी पड़ रही थीं।’ विडम्बनाओं और त्रास के मध्य नष्ट हो रही सामाजिकता को उपन्यास एक झन्नाटेदार टिप्पणी बनकर ही दिखा सकता है।

नाकोहस(उपन्यास) – पुरुषोत्तम अग्रवाल,
राजकमल प्रकाशन, दिल्ली,प्रथम संस्करण,2016
पृष्ठ-164,मूल्य-150 रु.

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कुछ शब्द एक सिलसिले में

कितना भव्य शोर भयानक

एकान्त अकेला विवश

 

चहुंदिसि शोर
कविता में खोज
भीतर सन्नाटा

उदासी का कोना

यह कहानी आउटलुक में छपी थी, पिछले साल, मई 2015 में….यहाँ लेट लतीफी में एक साल से भी ज््यादा अरसे  के बाद….

 

उदासी का कोना।

 

उमेश शोक-सभा में आ तो  गया था, लेकिन बेमन से। उसे कवि का ना कवित्व पसंद था, ना व्यक्तित्व; ना परिवार पसंद था, ना परिधान। उमेश भी साहित्य की दुनिया का नागरिक था; लेकिन स्वर्गीय कवि और उमेश के नागरिकता-कार्डों के रंग जुदा-जुदा थे।

कवि को उमेश ने साहित्य से परिचय के शुरुआती दिनों में पढ़ा था। वे दिन प्रेम से परिचय के भी शुरुआती दिन थे। वे दिन बचपन और किशोरावस्था के मध्यांतर के दिन थे। ऐसे दिनों में पढ़े गये कवियों के साथ पाठकीय संबंध सूख जाने के बाद भी, कुछ नमी तो छोड़ ही जाता है।  लेकिन, यहाँ आने के पीछे वह नमी नहीं, सामाजिक मजबूरी थी। बाबूजी कहते थे ना, ‘किसी के अच्छे-बुरे में नहीं जाओगे तो तुम्हारे यहाँ कौन आएगा? समाज ऐसे घरघुसरेपन से नहीं चलता…’

सच्ची बात। घरघुसरे बने रहे तो तुम्हारे संग्रह के लोकार्पण और तुम्हारे जीवन के शोकार्पण में कौन आएगा?

शोक-सभा वैसी ही थी, जैसी होती है। क्षति भाषण देने वालों के लिए भी अपूरणीय थी, लेने वालों के लिए भी। हालाँकि उपस्थितों की संख्या से लग रहा था कि कुछ ही दिन बाद खुद साहित्य की शोक-सभा होने वाली है। कवि का कवित्व और व्यक्तित्व वैसे ही अद्वितीय था, जैसे पिछले दिनों स्वर्गीय हुए लेखक का था; जैसे अगले दिनों स्वर्गीय होने वाले आलोचक का होने वाला था। जैसे कुछ बरस बाद खुद उमेश का होने वाला था।

‘बशर्ते कोई अकादमी या लेखक संघ या हिन्दी विभाग अपन को शोक-सभा लायक माने…’

उमेश शोक-मग्न मुद्रा अपनाने के बहाने, कलाई माथे के पास लाकर दो-तीन बार घड़ी देख चुका था। यह अनुभवसिद्ध निष्कर्ष था कि एक घंटा शोक-मग्न रहने के बाद सभा से पलायन कर जाएँ तो आपकी लोक-प्रतिष्ठा पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता। इससे कम समय में चल देना लोकाचार का उल्लंघन है।

भाषणों से ऊबी  घड़ी की सुइयाँ भी सुस्त ढंग से घिसट रहीं थीं। उस वक्त तो एक-एक पल एक-एक युग जैसा लगने लगा जब एक भाषणकर्ता ने कवि की निहायत छद्म-आध्यात्मिक कविताएँ ताबड़तोड़ उद्धृत करना शुरु कर दिया। भाषणकर्ता उन कविताओं में मनुष्य की आध्यात्मिक प्यास बुझाने वाली रस-धार देख रहा था; उमेश की चेतना ऊब के रेगिस्तान में भटक रही थी…

एकाएक रेत की खुरदुरी जलन के बीच स्मृतियों का सोता फूट पड़ा। स्टैंडिंग-लैंप की हल्की पीली रोशनी के नीचे, उमेश की जिज्ञासु आँखों के सामने बैठी वह इन्हीं कविताओं को पढ़ रही थी। उमेश को छद्म-अध्यात्म नहीं, अपनी बेचैनियाँ सुनाई पड़ रही थीं। लैंप की पीली रोशनी के नीचे बिताईं कृतज्ञता की शामें शोक-सभा से ऊबी  शाम को हौले से परे करतीं, उमेश की स्मृति में बहने लगीं। अभी तक बनावटी लग रही काव्य-पंक्तियों में जीवन के सच्चे अनुभव और पंक्तियों के बीच की खाली जगह में स्मृति की व्याप्तियाँ गूंजने लगीं।

उसी ने पढ़वाया था इस तथा अन्य कई कवियों को। उस प्रेम में जितनी दमित कामनाएं थीं, उतनी ही जिज्ञासा भी। उमेश के साथ उसके संबंध में जितनी चाहत वर्जित फल चखने की थी, उतनी ही साहित्य, कला, संगीत में साझेदारी करने की। उमेश के बचपन और किशोरावस्था के मध्यांतर के वे दिन ऐसे थे जिनमें उमेश नदी का द्वीप था, और वह उसे आकार देने वाली स्रोतस्विनी।

नदी द्वीपों को आकार देती आगे बढ़ जाती है, द्वीप पीछे छूट जाता है।

‘नदी नहीं, आगे बढ़ता है नदी का पानी। जो पानी पीछे से आ रहा है, वह भी तो नदी ही है ना? नदी कहाँ बढ़ी आगे? वह तो वहीं है, द्वीप के साथ; उसे सहलाती, उसे आकार देती’। कहती थी वह, ढाढस बँधाती हुई, जब उमेश संबंध की परिणति की कल्पना कर घबराता था।

पूरे पंद्रह बरस बड़ी थी वह उमेश से।

वे दिन चालीस बरस पहले थे। नदी भी आगे बढ़ गयी, द्वीप भी। दिशाएं भी बदल गयीं, गंतव्य भी। स्मृतियों की कौंध फीकी पड़ती गयी। जिन लकीरों के बारे में विश्वास था कि अंत तक जस की तस खिंची रहेंगी, वे अंत की ओर बढ़ती यात्रा में धुंधलाती-धुंधलाती अदृश्य सी होती गयीं। हम कैसी कैसी कामनाओं, कल्पनाओं का बोझ स्मृति पर डालना आरंभ कर देते हैं कि अंत तक सँभाल कर रखे। क्यों रखे, भई?

  कहाँ होगी वह? उसी नगर में? किसी और नगर, देश में? या…

अब शोक-सभा में बैठे रहना असंभव था, एक घंटा पूरा हुआ हो, ना हुआ हो। उमेश यों फुर्ती से उठा कि बाहर निकलेगा और वह मिल जाएगी; या आधा मील चल कर उसके घर पहुँचा जा सकेगा। चालीस साल का फासला सड़क पर चलकर नहीं, केवल यादों में चलकर ही तय होता है …जानता था, उमेश। इस वक्त बस वह एकांत चाहिए जो स्मृति का अभयारण्य बन सके। बैठूँ कहीं जाकर एकदम अकेला। छू लूँ  कृतज्ञता की शामों की, आवेश भरे आलिंगनों की, अप्राप्ति के विषम सुखों की, विफल कामनाओं और निष्फल प्रार्थनाओं की, पंद्रह बरस बड़ी स्त्री से प्रेम पाने-करने के रोमांच और अटपटेपन की स्मृतियों की नदी को—जो फिर से द्वीप को सहलाने, आकार देने चली आई है।

सीढ़ी तक भी नहीं पहुँच पाया था कि टीं..ईं…ईं। यह कोई मैसेज था, सीढ़ी उतरते उमेश का हाथ अपने आप जेब तक पहुँच गया; फोन हाथ में। मैसेज में आश्वासन था, स्मार्ट सब-सिटी में बढ़िया फ्लैट कौड़ियों के मोल दिलाने का। उमेश इस वक्त उदास स्मृतियों के नगर जाना चाहता था, स्मार्ट सिटी की तरफ नहीं। उसने इतनी जोर से डिलीट बटन दबाया जैसे आश्वासन-दाता का गला घोंट रहा हो। फोन जेब में रखा ही था कि टिड़िंग…टिड़िंग…यह फेसबुक पर किसी ने कुछ किया था। उमेश से रहा नहीं गया, आखिर आज दोपहर में ही तो उसने अपनी ताजा कविताएं फेसबुक पर जारी की थीं, पाठकीय प्रतिक्रिया की उपेक्षा कैसे कर दे? लेकिन, यह तो किसी जलकुकड़े की बकवास थी—‘क्या मुसीबत है, यार, आदमी सलीके से उदास तक नहीं हो सकता…’ फेसबुक से बाहर निकलते उमेश ने सोचा… ‘कुछ देर के लिए आभासी संसार से बाहर ही चला जाए’।

‘ लेकिन अगर उस फेलोशिप एप्लीकेशन के बारे में ईमेल आ गयी तो…?’

टिंग..टिंग…यह आवाज ईमेल की ही सूचना दे रही थी। उमेश से रहा नहीं गया। देखा, एप्लीकेशन के बारे में नहीं, यह तो हिन्दू भारत के लिए तड़पते-तड़पते अमेरिका में जा बसे किसी देशभक्त की ईमेल थी, ‘तुम जैसे स्यूडो-सिकुलरों के कारण ही तो भारत देश और सनातन धर्म की यह हालत हो गयी है…’

धत्तेरे की…फोन बंद किये बिना उदासी में जाना असंभव है। उमेश अभी इमारत के लॉन तक ही पहुँचा था। यह शाम वैसी नहीं थी जैसी उसे याद आ रही थी। यह बदले वक्त की, बदले मौसम की शाम थी। आज दिन भर जरा धूप क्या चमकी, बादलों ने शाम को घेर लिया था। बेमौसम बारिश की मार से फसल मर रही थी; संभ्रांत लोग मौसम के सुहावनेपन पर रीझ कर, सोशल मीडिया पर ‘आओ थोड़ा रोमांटिक हो जाएं’ के आव्हान कर रहे थे। हद है असंवेदनशीलता की। फोन बंद ही करना होगा, तभी उन शामों तक लौटा जा सकता है जो अगस्त में अगस्त की शाम थीं, और अप्रैल में अप्रैल की। लौटना ही है उन शामों की ओर, पाना ही है अपना उदास एकांत।

बाहर आते ही—सामने कावेरी…’हाय..उमेश…’,

‘ अरे, कावेरी, इतने दिनों बाद…’।

लिपट गये दोनों। इतनी अच्छी दोस्त…इतनी प्यारी स्त्री।

‘कॉफी पियें?’

‘ हाँ, हाँ, क्यों नहीं…’कहते कहते उमेश को  झटका सा लगा…नहीं, इस वक्त नहीं। इस वक्त वह एकांत जो बरसों से नहीं नसीब हुआ है…वे यादें जो इसरार कर रहीं हैं।

‘ फिर कभी, कावेरी। कल ही। फोन करता हूँ, अभी कहीं जाना है…’

‘ऐज यू विश, बॉस…इंतजार करूंगी…’

कावेरी—कितनी प्यारी, कितनी बिंदास। लेकिन आज तो बस उन मासूस दिनों की यादों का दिन है। कविगण कहते आए हैं ‘लरिकाई कौ प्रेम’ भुलाए नहीं भूलता…आज इस कविसमय को सिद्ध करने का दिन है। पीली रोशनी के उस नीम-अंधेरे कोने में प्रवेश करने का दिन, उसके स्वर में इन्हीं ‘छद्म-आध्यात्मिक’ कविताओं को सुनने का दिन…

अपने प्रिय बार के अलावा कहाँ वैसा कोना? चंद कदम की दूरी ही तो है उदासी के नीम-अंधेरे कोने और बैमौसम अंधेरे से सने सड़क के टुकड़े के बीच…

उस कोने तक पहुँचने के पहले ही वह कृपादृष्टि उस पर पड़ी जिसकी प्रतीक्षा बरसों से थी, ‘आइये, उमेशजी, आइये… क्या कविताएँ लिखी हैं इधर आपने…अगला लेख आप पर ही लिखना है…’

‘विश्वास नहीं हो रहा…’ उमेश का मन था उस नीम-अंधेरे कोने की तरफ…दिमाग था, इस कोने में । उस कोने में एक नीची कुर्सी पर स्मृति बैठी थी, इस कोने में ऊँचे बार-स्टूल पर आलोचना विराजमान थी। उस कोने में लरिकाई के प्रेम का शोक-गीत था, इस कोने में शानदार शोक-सभा  की संभावना थी।

‘मैंने मैसेज करके तारीफ की है, अभी कुछ ही देर पहले तो… मैसेज मिला नहीं क्या?’

‘मैसेज?’ फोन तो मैंने बंद कर रखा है, कभी नहीं करता…आज इस उदासी के चक्कर में…बाद में देखेंगे उदासी…आलोचक की कृपादृष्टि हो गयी तो अपनी उदासी में और न जाने कितनी उदासियाँ गूँज उठेंगी…बैठा जाए। स्मृति के उदास कोने का क्या? वह तो अपने हाथ है, कभी भी जा बैठेंगे उदासी के कोने में’।   

स्मृति का नीम-अंधेरा कोना विस्मरण के अंधेरे में चल दिया है, लरिकाई का प्रेम हमेशा की तरह इंतजार में ठिठक गया है। उमेश ने बार-स्टूल खिसकाया है, फोन ऑन कर लिया है, आलोचक की ओर कृतज्ञ मुस्कान रवाना करते हुए ड्रिंक ऑर्डर कर दिया है।   

  

   

 

नाकोहस..

नाकोहस नावल की पहली प्रति दिसंबर 2015 के पहले दिन हाथ में आई थी, अगले ही दिन अलीगढ़ मुस््लिम यूनिवर्सिटी में इसके कुछ हिस््सों का पाठ किया था…और पिछले सप््ताह सूचना मिली कि राजकमल इसके दूसरे संस््करण की तैयारी कर रहा है…पाठकों का आभार। नाकोहस जब कहानी के रूप में आया था, इस  बार काफी बहस हुई थी, कुछ लोगों को बहुत अच््छी लगी थी कहानी तो कुछ को इस लायक भी नहीं कि कहानी कहला सके। खैर, अपनी अपनी राय। 

इतना जाहिर है कि समाज में नाकोहस किस््म का मानस तो बनाया गया है, बनता जा रहा है, हम में से कुछ लोग इसे देखना ना चाहें, उनकी मर्जी, आहत भावनाओं के नाम पर समाज को एक डरावने अंधेरे में ठेलने की कोशिशें जारी तो हैं। उपन्यास के रूप में नाकोहस को बहुत सराहा गया है, कुछ मित्रों ने विस््तृत तो कुछ ने संक्षिप््त टिप््पणियों के जरिए इसका विश््लेषण भी किया है। इन टिप््पणियों को यहाँ आपसे साझा कर रहा हूँ, एक एक करके…

इस तरह, यह इस बेवसाइट की फिर से शुरुआत भी है, जिसे पिछले कई महीनों में मैंने अपडेट ही नहीं किया था। 

तो, सबसे पहले, श्रेष््ठ कवि, प्रखर आलोचक और समर्पित समाज-कर्मी अशोक कुमार पांडेय का आलोचनात्मक लेख। यह पाखी के मई 2016 अंक में छपा है, और जनपक्ष ब्लॉग पर भी है। 

नाकोहस पढ़ते हुए कुछ फुटकर नोट्स

मगर चिराग़ ने लौ को संभाल रखा है[1]

  • ·        अशोक कुमार पाण्डेय

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नाकोहस जब कहानी के रूप में आई थी तब इस पर टिप्पणी करते लिखा था – “समय का बदलना अक्सर महसूस नहीं होता. उसे कुछ प्रतीकों के सहारे पढ़ना होता है. और यह “पाठ” भी क्या होता है? दरअसल यह जितना पढ़ी जाने वाली चीज़ में होता है उतना ही उस ज़मीन में भी जिस पर खड़ा हो के उसे पढ़ा जा रहा है. यानी हमारी अपनी “नज़र” पर. बकौल साहिर “ले दे के अपने पास फ़क़त एक नज़र तो है/ क्यूं देखें ज़िन्दगी को किसी की नज़र से हम.” यू आर अनंतमूर्ति की मृत्यु के बाद के उल्लास और पटाखों को कोई गौर से देखे तो यह किताब जालाये जाने, लेखकों पर हमलों, मक़बूल फ़िदा हुसैन की पेंटिंग्स फाड़े जाने के क्रम में तो थे लेकिन अपनी अभिव्यक्ति और सार में यह एक “गुणात्मक छलांग” थी. महात्मा गांधी की मृत्यु पर बंटी मिठाइयों के बाद यह पहला सार्वजनिक गिद्धभोज था, याद कीजिए हुसैन के मरने पर भी यह दृश्य नहीं देखा गया था. इस तरह यह एक पुख्ता प्रतीक था, हमारी ज़मीन से देखें तो फासिज्म के विजय उद्घोष का और उनकी ज़मीन से देखें तो अच्छे दिनों का.  “नाकोहस” इसी नई हकीक़त का एक आख्यान है.”

और देखिये इन कुछ महीनों में कितना कुछ बदल गया. अपने देश मे दादरी से जे एन यू तक, रोहित वेमुला से ऋचा सिंह तक, पटियाला कोर्ट परिसर से बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी और ग्वालियर तक फ़ासीवाद अपनी विजय का उन्मुक्त उद्घोष करता विचर रहा है तो अमेरिका जैसे मुक्त बाज़ार वाले देश मे डोनाल्ड ट्रम्प खुलेआम अपनी घोर दक्षिणपंथी नीतियों के साथ ताल ठोंक कर भूमंडलीय नेता बनने की रेस मे है. अम्प्टन सिंक्लेयर ने फासीवाद को“पूंजीवाद + हत्या” कहा था और आज चार सू जो मंज़र है वह इसकी सख्त ताक़ीद करता नज़र आता है. ऐसे में नाकोहस अब जब उपन्यास के रूप में आया है और अपने फलक को और व्यापक करता हुआ वक़्त की तस्वीर और उसके पाठ, दोनों को और अधिक स्पष्ट करता है, तो इस पर ज़रा तफ़सील से बात करना ज़रूरी हो जाता है.

देखें तो नाकोहस की कहानी मुख़्तसर सी है. एक कॉलेज के अलग अलग धर्मों के तीन प्रोफ़ेसर दोस्त जो धर्मनिरपेक्ष हैं, मुखर हैं और लगातार साम्प्रदायिक ताक़तों के ख़िलाफ़ हैं, सत्ता के एक गोपनीय संगठन नाकोहस यानी  नेशनल कमीशन फॉर हर्ट सेंटीमेंट्स द्वारा गिरफ़्तार किये जाते हैं, उनका उत्पीड़न होता है और फिर उन्हीं हालात में चेतावनी के साथ उन्हें वापस छोड़ दिया जाता है. तीन लाइनों की इस कहानी के कोई एक सौ साठ पन्नों में आप किसी ‘औपन्यासिक’ उतार चढ़ाव और रहस्य रोमांच की उम्मीद करते हों तो निराश होने की पूरी संभावना है. नाकोहस की कथा इसके विषय वस्तु सी खुरदुरी है, जिसमें घटनाएँ नहीं एक मुसलसल बहस और जद्दोजेहद है. यह पूरा उपन्यास हमारे सामाजिक-राजनीतिक जीवन की इस विडंबना को आहिस्ता आहिस्ता दर्ज़ करता जाता है और उसकी भयावहता को पाठक के दिल-ओ-दिमाग में पैबस्त करता जाता है. पन्ना दर पन्ना यह देश के लोकतांत्रिक ढाँचे में लगती दीमकों और उसके ढहते कंगूरों की शिनाख्त करता चलता है. असहमतियों को देशद्रोह में तब्दील कर देने वाले समय के तमाम बिम्ब असुन्दर होने के लिए अभिशप्त हैं तो यह उपन्यास अपने खुरदुरे शिल्प के साथ, जो न क्लासिकल अर्थों में फैंटसी या जादूई यथार्थवाद जैसी तकनीकों से परिभाषित किया जा सकता है, न ही सपाटबयानी कहा जा सकता है, एक प्रतिरोध की तरह, एक प्रतिआख्यान की तरह उपस्थित है जहाँ बहसें कथा का स्थान लेती जाती हैं, क्रूरताएं और उनसे उपजी आशंकायें रोमांच का. अपनी पूरी संरचना में यह शिल्प नया भले न हो लेकिन इस समय की भयावहता को उसकी सूक्ष्म पदचापों के साथ पहचानने और पाठकों तक संप्रेषित करने में काफी हद तक सफल है. उपन्यास की भाषा पर थोड़ी बात आगे की जायेगी.

नाकोहस का कोई अर्थ नहीं बनता. अर्थ बनाने की कोई सचेत कोशिश भी नहीं दिखती. इसके कारिंदों के लिए उपयोग किया गया पदबंध “बौनेसर” भी क्लबों में अनियंत्रित होने वाले अतिथियों को नियंत्रित करने वाले समानधर्मी“बाउंसर” से ध्वनि साम्य के बावजूद कोई अर्थ नहीं देता.  पर कहानी में ये अपनी उपस्थिति से, अपने नाम मात्र से जैसे रीढ़ की हड्डियों में एक सिहरन पैदा कर देते हैं, इसके विपरीत ये वस्तुतः अर्थहीन पदबंध हैं. यही इसकी व्यंजना है. दक्षिणपंथ के अपने तंत्र में उपस्थित ऐसी संरचनाएं, जो बाहर से दिखती ही नहीं, जिनका अस्तित्व एक सभ्य समाज में निरर्थक है, पूरे समाज को इतने गहरे प्रभावित करती हैं. आप देखिये प्रशांत भूषण पर आक्रमण करने वालों के हाथ में भगत सिंह सेना का बैनर था. भगत सिंह और साम्प्रदायिक ताक़तों का बैनर! मनसे को याद कीजिए. तर्कबुद्धि कहेगी,एकदम निरर्थक, एकदम बकवास. अनुभव कहेगा, हिंसक, भयानक, हत्यारे! यहाँ कथा की अनुपस्थिति  इस नए समय की उपस्थिति है. जहाँ सब कुछ इतना आवेगहीन, ठंढा और पूर्वनिर्धारित है कि कोई कुतूहल नहीं जगाता,कोई कथानक, कोई उतार चढ़ाव नहीं, एक सीधी सपाट रेखा पर चलता हुआ वह स्वाभाविक सा लगता चला जाता है. धीरे धीरे फासिज्म का दर्शन सहज स्वीकार्य होता चला जाता है. हम मान कर चलते हैं कि “भड़काऊ भाषणों” या“दंगों” या “स्नूपिंग” के कितने भी सबूत आ जाएँ, केस हो जाएँ लेकिन कुछ होना नहीं है. हम न पुलिस की कार्यवाही की प्रतीक्षा करते हैं न अदालत के आदेश का. अब फैसले टीवी बहसों और सड़क की गुंडागर्दी से होते हैं जहाँ संत-साध्वी-महंत-मौलवी अपने विषाक्त धर्मादेश बेखटके देते रहते हैं. गोएबल्स की ज़रुरत तक ख़त्म होती जाती है और लोग पहली बार ही आत्मविश्वास से बोला गया झूठ स्वीकार कर लेते हैं, भले ही सच की तरह नहीं. चंद टीवी चैनल और अखबार पूरे विश्वास से झूठ को लगातार दिखाते हैं और एक भीड़ सड़कों पर नारे लगाते उतर आती है जो किसी पर कहीं भी हमला कर सकती है, उनके लिए क़ानून और पुलिस उपस्थित होकर भी अनुपस्थित हैं या यह कहें कि उनके द्वारा छोड़ा गया स्पेस जिन्होंने साधिकार कब्ज़ा कर लिया है. वे सत्ता के बगलगीर हैं और न्याय के स्थानापन्न. उनके पास तर्क नहीं हैं परन्तु निष्कर्ष हैं- अप्रश्नेय निष्कर्ष. इस उपन्यास पुरुषोत्तम अग्रवाल ने बहुत गंभीरता से संचार माध्यमों के हमारे मानस और स्पेस पर कब्ज़े को रेखांकित किया है, जिस पर आगे विस्तार से बात की जाएगी. ज़ाहिर है, इस आख्यान को भी ऐसा ही होना था. यह न उतार चढ़ाव और किस्सागोई की शक्ल में आ सकता था, न ही किसी एकालाप की शक्ल में. चेखव की एक कहानी एक क्लर्क की मौत याद आती है. कोई मार्केज की क्रानिकल भी याद कर सकता है और कामू की द स्ट्रेंजर भी. नाकोहस का निरर्थक होना और उसका इस क़दर वर्चस्व अपने आप में एक व्यंजना रचता है.

नाओमी क्लेन अपनी किताब द शॉक थेरापी में अर्जेंटीना के यातना शिविर में चार महीने गुज़ारने वाले मारियो बिलानी को उद्धृत करती हैं. वह कहते हैं, “मेरा सिर्फ़ एक लक्ष्य था – अगले दिन तक ज़िंदा रहना. लेकिन सिर्फ़ ज़िंदा रहना नहीं, बल्कि जैसा हूँ वैसे बने रहना. जैसा हैं वैसा बने रहना – यह चुनौती सुकेत की भी है, रघु की भी और शम्स की भी. नाकोहस के यातना शिविर मे गुज़ारे कुछ घंटों मे ही नहीं बल्कि अपने सुरक्षित घरों के हर झरोखे मे आँख लगाए बौनेसर आँखों के बीच रहते भी।  यह यातना शिविर  किसी एक जगह तक महदूद नहीं है बल्कि हमारे पूरे पब्लिक और प्राइवेट स्पेस मे पसर गया है। नाकोहस सिर्फ़ शरीर को चोटिल नहीं करता. वह दिमाग और दिल पर भी कब्ज़ा करता जाता है. लोकतंत्र के भ्रम के भीतर चेतनाओं पर नियंत्रण का हिंसक उपक्रम करती दक्षिणपंथी राजनीति सुनहले लबादों, पवित्र शब्दों और ख़ूबसूरत प्रतीकों की आड़ में आती है. उपन्यास के शुरू में ही शम्स कहता है, “जो भी आमादा है, वह गले में कुत्तोंवाला पट्टा पहनाने पर आमादा है…हिल डुल पर कोई रोक नहीं, बशर्ते दुम साथ में हिलती रही…भौंकने की भी इजाज़त, बशर्ते चेन मज़बूती से उसके हाथ में थमी रहे…’ उसके बाद आये रघु के “लेकिन” के बाद के वाक्य को पूरा करने वाले शब्द कहीं नहीं थे. यह जो निःशब्दता है, जो बेबसी और बेचैनी है, यह उपन्यास उस बेबसी और बेचैनी का ज़िंदा दस्तावेज़ है तो उसके बाद का जो हँसी मजाक है वह इस अमानवीय वातावरण में मुखालिफ़त करते लोगों की लाचारी भी है और हिम्मत भी.  नियंत्रण की ये कोशिशें कई कई स्तरों पर चलती हैं. घर घर में पहुँचे टी वी चैनल और हर हाथ को काम की जगह मिले मोबाइल सेट चौबीसों घंटे आपकी चेतना के चोर दरवाज़े तलाशते रहते हैं, रिमोट के सहारे नियंत्रण का आपका भ्रम टूट जाता है. याद कीजिये जे एन यू की हालिया घटना जब फ़र्ज़ी वीडियोज और चयनित रिपोर्टिंग के सहारे टीवी चैनल्स ने उन्माद का ऐसा माहौल बना दिया है कि जे एन यू के लिए ऑटो करने पर ऑटो वाला कहता है सीधे पाकिस्तान क्यों नहीं जाते? याद कीजिये मेरठ के पास बनाई जा रही हिन्दू सेना से जुडी कोई बीस साल की लड़की का वह बयान जिसमें सेकंड्स में व्हाट्सेप के ज़रिये कई लाख लोगों तक अपने ज़हरीले सन्देश पहुँचा देने की गर्वोक्ति है. मुजफ्फरपुर दंगों के समय पकिस्तान के एक वीडियो के सहारे रातोरात दंगों की आग लगा देने की घटना याद कीजिये. सुकेत जब कोशिशों के बावज़ूद टीवी चैनल नहीं बंद कर पाता है या मोबाइल की स्क्रीन पर नाकोहस का कब्ज़ा कुछ ऐसा होता है कि वह उसके मन की बात भी जान लेता है तो याद कीजिये फेसबुक की टाइमलाइन पर दर्ज वह सवाल : आपके दिमाग में क्या है? अस्सी के दशक में लिखी नोम चोमस्की की विश्वप्रसिद्ध किताब “मैन्यूफेक्चरिंग कंसेंट” इस अवधारणा को बहुत विस्तार से बता चुकी है. वियतनाम युद्ध सहित तमाम घटनाओं के दौरान जनता की अवधारणा को कैसे मिथ्या या अर्ध सत्यों और दुष्प्रचारों  के सहारे सत्ता के पक्ष में निर्मित किया जाता है इसे तबसे आज तक दुनिया भर में लगातार देखा गया है. अभिव्यक्ति की आज़ादी के नारे के  साथ अस्तित्व में आये “मुक्त” संचार माध्यम मुक्त बाज़ार की तरह ही अपने मालिक के ग़ुलाम होते हैं और उसकी विचारधारा को लगातार इकलौती सही विचारधारा तथा बाक़ी सबके विरोधी नहीं शत्रु होने का जो द्वैत रचते हैं वह अंततः समाज में स्वतंत्र सोच और प्रतिरोध की सारी संभावनाओं के दमन के लिए आवश्यक जनमत निर्मित करता है. यही वह जनमत होता है जो खुलेआम पटियाला कोर्ट में कन्हैया की पिटाई से लेकर कलबुर्गी की हत्या तक को नज़रंदाज़ करता है. यह खाना, पहनना, बोलना, लिखना सब नियंत्रित करने की हिंसक हठ लिए संस्कृति के उद्धारक के वेश मे आई सांस्कृतिक सेना को न्यायसंगत सिद्ध करने वाला जनमत है, और उसे सही न मानते हुए भी चुप रह जाने वाला भी।

कमाने, खाने और आनंद मनाने को नाकोहस मनुष्य के लिए ज़रूरी और पर्याप्त काम घोषित करता है तो सुखवाद के इस दर्शन की मुक्त बाज़ार अर्थव्यवस्था में विन्यस्त जड़ें साफ़ दिखती हैं. आखिर मुसोलिनी ने खुद कहा था – “फ़ासीवाद को बेहतर तरीके से कारपोरेटवाद कहा जा सकता है. क्योंकि वह राज्य और कार्पोरेट शक्ति का सम्पूर्ण विलयन है.” यहाँ निकोलस लामेर साउटे का उपन्यास ‘द वाटर थीफ़’ याद आना स्वाभाविक है. तो यह सुखवाद नाकोहस के लिए सबसे मुफ़ीद दर्शन है जो एक तरफ़ जनता को चौबीसों घंटे कमाने और खर्च करने के चक्र में उलझा देता है तो दूसरी तरह परम्परा,इतिहास और दर्शन की जड़ों से पूरी तरह काटकर ज्ञान की जगह सूचना पर निर्भर एक संवेदनहीन मनुष्य में तब्दील कर देता है. उपन्यास की एकदम शुरुआत देखिये . सुकेत स्वप्न में गजग्राह के मिथक का नया रूप देख रहा है. इसमें नया क्या है? नया है गज की हत्या के इर्द गिर्द ज़िन्दगी का हस्ब मामूल चलते रहना.” कुछ भी हो जाये ज़िन्दगी हस्ब मामूल चलती रहती है. आहत भावनाओं के पोषण के लिए सुकेत के घर आई गुंडा छात्रों की भीड़ शिक्षकों की उस कॉलोनी में बाक़ी लोगों के लिए सिर्फ़ एक व्यवधान है, खाए अघाए संपन्न लोगों के जीवन में एक अवांछित व्यवधान. टीचर्स असोसिएशन की बैठक में वबाल से दूर रहने की सलाहें आम शिक्षकों की हैं तो प्रगतिशील बख्शी जी के लिए अभिव्यक्ति की आज़ादी नहीं भावनाओं का आहत होना बड़ा मुद्दा है. कॉलेज से लेकर मध्यवर्गीय सोसायटी और सड़क तक सब अपने अपने समझौतों में मशरूफ़.  आपस मे बतियाते जब ये दोस्त कहते हैं कि यह अब वह देश नहीं रहा जिसकी आदत पड़ चुकी थी हमें, तो इस बदले हुए देश मे नाकोहस के लिए इससे अच्छा माहौल क्या हो सकता है? और इस माहौल में सबसे बड़ा ख़लल है – स्वतन्त्र सोच. दुनिया भर में ऐसी ताक़तों ने सबसे पहले स्वतन्त्र सोच पर हमला किया है और दुनिया भर के लेखकों ने इसे दर्ज किया है. ओरहान पामुक के उपन्यास ‘स्नो’ में एक प्रसंग है। देश में सर उठा रहे दक्षिणपंथ के दौर में एक छोटे से कस्बे में ‘हिज़ाब पहनने वाली लड़कियों को कालेज में प्रतिबंधित करने’ वाले सरकारी आदेश का सख़्ती से पालन करने वाले कालेज के निदेशक की हत्या के इरादे से आया एक धर्मांध युवा उनसे पूछता है – ‘क्या संविधान के बनाये नियम ख़ुदा के बनाये नियम से ऊपर हैं?’ निदेशक के तमाम तर्कों का उस पर कोई असर नहीं पड़ता और वह उसकी हत्या कर देता है। हिटलर या मुसोलिनी के मॉडल ही नहीं अमेरिका में ओवरमैंन कमिटी या हाउस कमिटी ऑन अन-अमेरिकन एक्टिविटीज़ जैसी संस्थाएं नाकोहस की पूर्वपीठिका हैं. अगर वामपंथी मित्र अति संवेदनशील न हों तो स्टालिन की सत्ता संरचना भी. सन चौरासी से बयानबे तक हमारा समाज लगातार और बीमार और संवेदनहीन होता चला गया है और प्रत्यक्ष सत्ता में आने से पहले ही फासीवाद जनमानस में अपना वर्चस्व विभिन्न रूपों में स्थापित कर चुका है. इस उपन्यास मे ही नेल्ली के नरसंहार का ज़िक्र है। फरवरी, 1983 मे असम मे हुए इन दंगों मे 2000 से ज़्यादा मुसलमानों को मार दिया गया था (यह आधिकारिक संख्या है, स्वतंत्र रिपोर्टों मे यह संख्या दस हज़ार तक बताई गयी थी)। चौदह से अधिक गांवों मे एक तरह का नस्ली सफाया। सरकारें आती जाती रहीं लेकिन जांच के लिए बनी तिवारी समिति की रिपोर्ट आज तक सार्वजनिक नहीं की गयी। कोई सात सौ केस दर्ज़ हुए थे लेकिन आधे से अधिक सबूतों के अभाव मे रद्द हो गए। जीवन हस्बे मामूल चलता रहा। जातीय नरसंहारों की तो एक लंबी सूची है। बाबरी मस्जिद विवादित ढाँचा बनती गयी और अब तो मुख्यधारा के तमाम माध्यम इसे विवादित ढांचा कहने लगे हैं। सुकेत के लेख मे जिन बातों से भावनाएं आहत हुई हैं उनमें से एक यह भी थी।

यहाँ सुकेत को गिरफ्तार करने आये चौड़ा सिंह के चरित्र को अगर थोड़ा सा विवेचित कर लें तो चीज़ें और साफ़ होंगी. संवेदना से पूरी तरह से खाली वह साक्षर लेकिन अनपढ़ नौजवान जब एक क्षण के लिए द्रवित होता है तो उसका साथी उसे तुरंत सावधान करता है. और उसकी संवेदना को हरने वाले टूल्स क्या हैं?बेरोज़गारी, इतिहास-दर्शन-साहित्यहीन शिक्षा, चारों तरफ़ बजता निरर्थक संगीत. एरिक हाब्स्बाम एज ऑफ़ एक्स्ट्रीम्स में बताते हैं – ’फासीवादी और ग़ैरफासीवादी दक्षिणपंथ में असली अंतर यह है कि फासीवाद निचले तबके की भीड़ को आंदोलित करके अस्तित्वमान होता है। यह निश्चित तौर पर लोकतांत्रिक और लोकलुभावन राजनीति के युग से जुड़ा हुआ है। पारंपरिक प्रतिक्रियावादी इन राजनैतिक व्यवस्थाओं का फ़ायदा उठाते हैं और ‘जैविक राज्य’ के समर्थक इनके अतिक्रमण का प्रयास करते हैं। फासीवाद अपने पीछे जनता को भारी संख्या में ले आने में गौरवान्वित महसूस करता है’… ये‘पीले बीमार चेहरे’ ही हिटलरी फरमानों को पूरी आस्था से कोई सवाल किये बिना पालित करने वाले लोग होते हैं. कला, विद्या, ज्ञान आदि से काट दिए गए पुच्छ विषाण हीन पशु में तब्दील कर दिए गए ये युवा आज हमें हर सड़क पर नहीं दिखाई देते? और इनके नेतृत्व मे दिखते हैं गिरगिट। वह अपढ़ नहीं है। खूब पढ़ा लिखा है।  पर तीनों उसे छेड़ते हैं और शम्स कहता है, “ऐन मुमकिन है, शे’र अभी भी फरमाते हों”  इस पर उसकी प्रतिक्रिया “” आई एब्हार एवरीथिंग ऑफ माई पास्ट…बीत चुके वक्त के एक एक पल से नफरत है मुझे…” इस बौद्धिक कौम का एक सिरा है भावनाओं केआहत होने को लेकर संवेदित प्रगतिशील बख्शी जी तो दूसरा सिरा है अपने अतीत मे अर्जित सारे लोकतान्त्रिक संस्कारों और ज्ञान को पूरी तरह सत्ता के पक्ष मे उपयोग करने वाला गिरगिट। बक़ौल रसूल हमजातोव अतीत पर पिस्तौलें दागते समय पर भविष्य की तोपों के गोले गिरने लाज़िम हैं, लेकिन उनकी जद मे जाने क्या क्या नष्ट होगा।टीवी की बहसों से अखबारों के पन्नों मे फासीवाद का वैचारिक आधार पुख्ता करते और उसकी कार्यवाहियों को अपने (कु) तर्कों का वैचारिक कवर देते तमाम बुद्धिजीवियों और उनके अतीत को देखते इन “गिरगिटों” की एकदम भौतिक उपस्थिति हाल के दिनों मे और मुखर होकर सामने आई है।

तो अगर एक उपन्यास वर्तमान और भविष्य की घटनाओं की इस क़दर भविष्यवाणी करने लगे तो यह लेखक की सफलता भले हो, समाज की भयावह असफलता भी है.

इन सब कथाओं के बीच सुकेतु के टूटे विवाह और एक प्रेम का किस्सा है. दोस्तों के हँसी मजाक हैं. नशा है. स्त्रियाँ हैं. उनकी अपनी महत्त्वाकांक्षाएं और रुमान हैं. ये सहज मानवीय कमज़ोरियाँ जो यह बताती हैं कि सच के पक्ष में खडा मनुष्य कोई परफेक्ट मनुष्य नहीं होता रेमंड के विज्ञापन की तरह, वह हमारे आपके ही तरह एक आम मनुष्य होता है बस उसने तर्क से दुनिया को देखना सीख लिया है. चरित्र को जिस तरह से प्रगतिशील ताक़तों पर हमला करने के लिए हथियार बना लिया जाता है उसे हमने नेहरू और गांधी ही नहीं हमारे अपने समय में खुर्शीद अनवर से कन्हैया तक देखा है. तर्कों का जवाब तर्कों से देने की जगह चारित्रिक हत्याएं,अफवाहें, झूठ और दुष्प्रचार सबसे बड़े औज़ार होते हैं प्रतिक्रियावादी ताक़तों के.

मार्क्स ने कहा था कि किसी भी समय की संस्कृति उस समय के वर्चस्वशाली वर्ग की संस्कृति होती है. व्यवस्था अपने सहजबोध (कॉमन सेन्स) निर्मित करती है और उसे हर तरह से स्थापित करती है. भाषा से लेकर नाम तक उस सहजबोध का हिस्सा होते चले जाते हैं. ऑन लिटरेचर में अपने लेख ‘फंक्शन्स ऑफ़ लिट्रेचर” में अम्बर्तो इको इटली के फासीवादी समय में भाषा के साथ हुए व्यवहार का विस्तार से विवेचन करते हैं. हमारे समय में भी यह सहज बोध लगभग स्थापित सा ही है. उर्दू यानी मुसलमान, संस्कृतनिष्ठ हिंदी यानी द्विज, लोकभाषा यानी गँवार (देहाती को लगभग गँवार के पर्यायवाची की तरह उपयोग किया जाता है). फ़िल्में इस सहज बोध को स्थापित करने का एक सशक्त माध्यम हैं तो पाठ्य पुस्तकों से लेकर कथित लोकप्रिय संचार माध्यम इसे बहुत बारीक़ी से स्थापित करते हैं और यह आम जीवन में जितनी स्वीकार्य होती जाती है, वर्चस्वशाली वर्ग की जकड़न उतनी मज़बूत होती जाती है. अभी एकदम हाल की घटना है कि मेट्रो में एक आयोजन का उर्दू ब्रोशर पढ़ती महिलाओं को पाकिस्तानी कहकर लगभग धमकाया गया. पुरुषोत्तम अग्रवाल इस उपन्यास में भाषा के इस सहजबोध का दो स्तरों पर प्रतिवाद करते हैं. पहला इस उपन्यास की अपनी भाषा और दूसरा इसके कथ्य में विन्यस्त भाषा और संस्कृति का सवाल. यहाँ रघु एक ईसाई पिता की संतान है,सेना में ब्रिगेडियर रहा पिता, योग और ध्यान का अभ्यासी पिता, नैष्ठिक ईसाई और रामायण-महाभारत का जानकार पिता जिसने पुत्र का नाम राम के पितामह राजा रघु से प्रभावित होकर रखा था. कहानी के रूप में पाखी में प्रकाशित होने पर एक आलोचक मित्र ने इसे हिन्दू साम्प्रदायिकता से जोड़ कर देखा था. यह आरोप मुझे वैसे है जैसे कोई कहे कि शरद जोशी रिवर्स लव जिहाद के संघी नारे से प्रभावित होकर इरफाना जी से विवाह को उद्धत हुए थे. अव्वल तो क्या किसी ईसाई का रघु या ऐसा कोई नाम होना सचमुच इतना अस्वाभाविक है? खुशवंत सिंह के उपन्यास अ ट्रेन टू पाकिस्तान में एक पात्र है इक़बाल. वह गाँव के भाई जी को इक़बाल सिंह, एक मोना सिख लगता है लेकिन सब इन्स्पेक्टर को इक़बाल खान. क्यों लगता है, प्रबुद्ध पाठकों को यह बताना मुझे ज़रूरी नहीं लगता. कबीर खान और दीपक कबीर और कबीर राजोरिया और कबीर बेदी हमारे समाज में जाने कितने हैं. अब किसी रसखान की कृष्णभक्ति या रघुपति सहाय के फ़िराक हो जाने या किसी ब्राह्मण शायर के शीन काफ़ निज़ाम हो जाने का क़िस्सा क्या सुनाना? मेरी गुजरात पोस्टिंग के दौरान मेरी सहकर्मी थी मनीषाबेन क्रिश्चियन. दिल्ली में मेरे एक सहकर्मी हैं विजय दीप मसीह. मेरी अपनी बेटी वेरा के नाम से ही अधिक जानी जाती है. हिन्दू मिथकों से प्रभावित ईसाइयों/मुसलमानों या इसके उलट के किस्से भी हमारे समाज में इतने अनुपस्थित तो नहीं तो रघु मसीह या रघु क्रिश्चियन नाम से इस क़दर चौंका जाए? यह चौंकना दरअसल नाकोहस के उस गिरगिट की याद दिलाता है जो कहानी में एक जगह कहता है, “एक आरोप तुम पर अपनी पहचान छिपाने का है.” गुलजार की काफी पहले लिखी कहानी धुंआ में मुसलमान चौधरी चाहता है कि मरने के बाद दफनाने की जगह उसे जला दिया जाय. यह किन्हें नागवार गुजरता है?  गरबा नवरात्रों में देवी दुर्गा की पूजा अर्चना है. उसमें बुतपरस्ती से इंकार करने वाले मुसलमानों का शामिल होना जिन्हें आपत्तिजनक लगता है वे कौन लोग हैं?  कम्युनिस्ट उमर खालिद की जो पहचान इसे स्वीकार्य है वह मुसलमान की है. पहचानों के नशे में इस क़दर मदहोश हो जाना कि उनमें किसी अंतरण, किसी व्यतिक्रम के होने को अस्वीकार कर देना या संदेह की नज़र से देखना तो नाकोहस का ही नज़रिया है!  असल में उसके लिए सामने यह पहचान ओढ़े लोग होना ज़रूरी है जिससे वह “हम” और “वे” की बाइनरी पैदा कर सके. तरल पहचानें उसके लिए एक संकट की तरह हैं. इसके उलट यह होना और इस होने को रेखांकित करना उस खाई के अस्तित्व का अस्वीकार और प्रश्नांकन है जिसकी उपस्थिति दक्षिणपंथ की उपस्थिति के लिए प्राण तत्व है. ईसाई होकर अपनी कविता में रघु का महाभारत के चरित्र के सहारे बात करना प्रगतिशील उमानाथजी को भी नहीं पच पाता. इसलिए जब पंडित शुक्ल जी रघु नाम जानने पर उपहास करने के लिए पूछते हैं कि “नाम ही नाम के रघु हैं, या कुछ ज्ञान भी है महाराज रघु के बारे में’ तो वह इस सहजबोध के वाहकों के प्रतिनिधि बन जाते हैं और रघु जब अपनी ईसाई पहचान को साफ़ करते हुए उन्हें शास्त्रार्थ में धाराशायी करता है तो यह उस साम्प्रदायिक सहजबोध का एक प्रतिपक्ष रचता है. इसी तरह जब खुर्शीद कहता है, “मेरे नाम को लेके उर्दूआइये मत” या जब सुकेत अपने सपनों में मिथकों के सहारे दुहस्वप्नों से गुजरते हुए देखता है कि मनुष्यों की ज़िन्दगी तो हस्ब मामूल चल ही रही है, देवताओं को भी उस गज को बचाने की कोई फ़िक्र नहीं तो यह एक तरफ़ उन पार्थक्य के उन बाड़ों को तोड़ते हैं जिनके बिना दक्षिणपंथ का कोई अस्तित्व ही नहीं तो दूसरी तरफ़ उस संवेदनहीन हो चुके समाज को रेखांकित  करते हैं जिसके लिए एक लेखक की मृत्यु पर हो रहे नृत्य में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं.  दूसरे स्तर पर यह काम लेखक ने उपन्यास की भाषा से किया है. जैसा कि मैंने शुरू में ही ज़िक्र किया, बेहद गंभीर विषय पर लिखे इस उपन्यास में एक पात्रों के बीच के लम्बे लम्बे संवादों में भी एक बेफ़िक्री है. शम्श ख़ासतौर बेहद मजाहिया है. हालांकि कई बार यह भाषा को हलके स्तर पर और फूहड़ मजाकों तक भी ले जाता है. मेरे लिए इसकी एक अपनी व्यंजना है. यह शत्रु को हलके में लेना नहीं है बल्कि प्रतिरोध को किसी उदास आख्यान की जगह एक ज़िंदादिल संघर्ष की तरह ज़िंदा रखना है. लोकभाषा से लेकर सोशल मीडिया और टीवी पर निर्मित हुई “नई वाली हिंदी” तक का बखूबी प्रयोग साजिशों की व्याप्ति के बरक्स उन स्पेसेज पर प्रतिरोध की आवश्यकता को बड़े सटल तरीके से इंगित करता है. और इन सबके साथ हर खंड की शुरुआत जिस तरह के काव्यात्मक वाक्यों या कहें कविता की दो पंक्तियों से हुई है वह संवेदना की आतंरिक तहों तक दस्तक देती है. लम्बी बहसें कई जगह ऊबाऊ हुई हैं, कई जगह इनमें उपन्यासकार पर आलोचक हावी होता दिखा है लेकिन अपनी सम्पूर्ण निर्मिति में भाषा प्रतिरोध के एक आदमक़द आख्यान के निर्माण के ज़रूरी टूल की तरह सामने आई है.

एक आखिरी उल्लेखनीय बात यह कि इस उपन्यास में कोई कृत्रिम उम्मीद नहीं. हाल में मुक्तिबोध को पढ़ते यह लगा है कि उनकी निराशा कितनी ईमानदार थी और उसी दौर में दस साल में क्रान्ति हो जाने की आशाएं कितनी निरर्थक. एक तरह का क्रांतिकारी नियतिवाद भी होता है जो अतिउत्साहों की जड़ में होता है. पामुक के उपन्यास ‘अ स्ट्रेंजनेस इन माई माइंड’ में वामपंथी युवा फ़रहत भीतर भीतर आसन्न संकट और हार को जानता है लेकिन प्रत्यक्ष में कहता है हम जीतेंगे. एक राजनीतिक कार्यकर्ता के लिए यह ज़रूरी हो सकता है लेकिन एक लेखक के लिए यह असल में बेईमानी है. उसे निराशाओं को भी उनकी पूरी भयावहता के साथ दर्ज़ करना होता है जैसे अम्पटन सिंक्लेयर ‘जंगल’ में करते हैं या मुक्तिबोध ‘अँधेरे में’ जैसी कविता में. इस निराशा और नाउम्मीदी का स्वीकार ही सामने खड़ी चुनौती का असली आकार देखने को मजबूर करता है और उसके बरक्स ज़रूरी लड़ाइयों की हदें भी।‘नाकोहस’ में जो अँधेरा है उसमें उम्मीद की इकलौती मद्धम रौशनी तीन दोस्तों की बेफ़िक्र हँसी में है, ज़िद में है, पागलपन में है, बेबसी में है, उदासी में है.इसलिए यह उपन्यास महान उपन्यास हो न हो आज एक बेहद ज़रूरी उपन्यास है. अपने समय का एक ज़िंदा दस्तावेज़ जो जितनी जल्दी अप्रासंगिक हो जाए, समाज के लिए उतना ही प्रासंगिक होगा.

[1] अगरचे ज़ोर हवाओं ने डाल रखा है /मगर चिराग़ ने लौ को संभाल रखा है (अहमद फ़राज़)

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पाखी के मई अंक से साभार

प्रस्तुतकर्ता Ashok Kumar Pandey पर 9:14 pm

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लेबल: नाकोहस, पुरुषोत्तम अग्रवाल, समीक्षा, साम्प्रदायिकता

 

न.प्र. कमल आ रहे हैं, न.प्र. कमल जा रहे हैं….

फेसबुक के लिए लिखा गया नोट – https://www.facebook.com/notes/purushottam-agrawal/नप्र-कमल-आ-रहे-हैं-नप्र-कमल-जा-रहे-हैं/953161794707747

न.प्र. कमल नगर के प्रसिद्ध व्यक्तियों में से थे, कवि, पत्रकार और राजनीतिक कार्यकर्ता। अपना महत्व भी बखूबी पहचानते थे। गल्ला-मंडी के जिस बाड़े में रहते थे, उसके दरवाजे के ऊपर पाँच बाई तीन फुट का काला बोर्ड टँगवा दिया था, जिस पर चमकीले सफेद अक्षरों में लिखा था- न.प्र.कमल।

आप बाड़े के विशाल दरवाजे से अंदर घुसे, दस कदम चलने पर एक पेड़ के तने पर तख्ती देखेंगे- बाँई तरफ इशारा करते तीर के साथ- न.प्र. कमल। थोड़े फासले पर एक और तख्ती दीवार पर दिखेगी- दाँई तरफ बढ़ने का इशारा करती हुई- न.प्र.कमल। दाँई तरफ कुछ कदम चलिए, निश्चिंत रहिए, भटकने की कोई गुंजाइश नहीं, इस बार बाँई तरफ जाना है, तख्ती बता रही है—न. प्र. कमल। चंद कदम चले और एक दुमंजिले मकान के दरवाजे पर तख्ती है—न.प्र. कमल। मकान के आँगन में पहुँचे तो सीढियाँ हैं और तख्ती ऊपर की तरफ इशारा कर रही है—न.प्र. कमल। सीढ़ियाँ चढ़ कर पहुँचे तो बस पहुँच ही गये, सामने दरवाजा है, और वही—न.प्र. कमल।

न.प्र. कमल के इतने सारे बोर्ड और तीर चर्चा का विषय रहते ही थे। कमलजी गोधाजी की कैंटीन पर कभी-कभार ही आते थे, गंभीर आदमी ठहरे, कहाँ रोज-रोज अड्डेबाजी में पड़ते।

उस दिन प्रकाशजी तरंग में थे।  न.प्र. कमल जैसे ही गोधाजी की कैंटीन पर अवतरित हुए, प्रकाशजी चहक उठे। कमलजी ठीक से स्थापित भी ना हो पाये थे कि प्रकाशजी बोले, ‘कमलजी एक सुझाव है…’

‘हाँ, बोलो प्रकाश, बोलो…’

‘जनता की सुविधा के लिए इतने सारे बोर्ड तो आपने लगवा ही रखे हैं…’

‘हाँ भई, लोग इधर-उधर भटकते रहें, अच्छा नहीं लगता …’

‘जी, वही तो, आखिरकार आप का तो जन्म ही  राष्ट्र को सही रास्ता दिखाने के लिए  हुआ है।  बस दो बोर्ड और बनवा लें तो किसी कन्फ्यूजन की गुंजाइश ही न रहे, एक छाती पर लटकाने के लिए- न.प्र. कमल आ रहे है, एक पीठ के  लिए– न.प्र. कमल जा रहे हैं…’

 

मेरी नयी कहानी, ‘नाकोहस’…( प्रेम भारद्वाज द्वारा संपादित ‘पाखी’ के अगस्त 2014 अंक में प्रकाशित)

सपने में वह गली थी, जहाँ बचपन बीता था। सड़क से शुरु हो कर गली, चंद कदम  चलने के बाद चौक पर पहुँचती थी, जहाँ मोहल्ले का घूरा था और जहाँ होली जला करती  थी। यहाँ से तीन दिशाओं की ओर सँकरी गलियाँ जाती थीं। सामने की ओर जाने वाली गली में आगे चल कर एक और चौक आता था, जहाँ मंदिर और मजार का वह संयुक्त संस्करण था, जिससे वह गली अपना नाम अर्जित करती थी। सुकेत ने देखा, उस गली से एक मगरमच्छ आ रहा है,  रेंगता हुआ, दुम इत्मीनान से मटकाता हुआ, गली की छाती पर मठलता हुआ, आता है घूरे वाले चौक तक। अरे, सुकेत पहली बार देखता है कि यहाँ एक हाथी लेटा हुआ है, मगरमच्छ हाथी की एक टाँग चबाना शुरु कर देता है,  हाथी छटपटाता है, लेकिन जैसे जमीन से चिपका दिया गया है, केवल चीख सकता है, अपनी जगह से हिल नहीं सकता। इसी बीच दूसरी गली से एक और मगरमच्छ आता है, हाथी की दूसरी टाँग पर शुरु हो जाता है। हाथी की दर्द और दुख से भरी चीखें जारी हैं, वह शायद वैकुंठवासी नारायण को ही पुकार रहा है, जैसे पुराण-कथा में पुकार रहा था, किंतु या तो चीखें वैकुंठ तक पहुँच नहीं रहीं, या नारायण को अब फुर्सत नहीं रही।

जिंदगी हस्ब-मामूल चल रही है। वाटरकर साहब काली टोपी,लाल टाई लगाए साइकिल पर दफ्तर रवाना…त्रिवेदीजी अपनी मोटर-साइकिल पर। सब्जी वाला ठेला लेकर आया है, उसने हाथी और उसे भंभोड़ते मगरमच्छों से बस जरा सा बचाकर ठेला लगा दिया है, आवाज लगा रहा है…‘कद्दू ले लो, भिंडी ले लो, लाल-लाल टमाटर…’ गृहणियाँ ठेले की तरफ बढ़ रही हैं, मगरमच्छ हाथी को चबा रहे हैं….हाथी की चिंघाड़ें करुण रुदन में बदल रही हैं, धीमी हो रही हैं, जमीन पर चिपकी देह में जो थोड़ी-बहुत हलचल थी, वह कम से कमतर होती जा रही है…आँखें आसमान बैकुंठ की ओर तकते तकते अब  अपनी जगह से लुढ़कती जा रही हैं…कहीं नहीं दिख रहे गरुड़ासीन, चतुर्भुज नारायण…सुकेत खुद हाथी की ओर से प्रार्थना कर रहा है कि गरुड़ासीन नारायण नहीं तो महिषासीन यम ही आ जाएँ…दोनों में से कोई न हाथी पर कान दे रहा है, और न सुकेत पर…हाथी की चिंघाड़-चीत्कारें बस शून्य में जा रही हैं, वापस आकर दर्द की लहरों का रूप लेती उसी की देह में व्याप रही हैं, उन्हें न वैकुंठ लोक के नारायण सुन रहे हैं , ना यमलोक के देवता और ना भूलोक के नर-नारी…

सपने के अक्स पसीने की बूंदों में ढलकर जगार तक चले आये थे, स्मृति में बस गये थे। स्मृति ताकत भी थी, कमजोरी भी। बचपन में उसे पींपनी-फुग्गे वाले के खिलौनों में सबसे ज्यादा चाव चूड़ियों के टुकड़ों से बनाए गये कैलिडोस्कोप का था। वह न जाने कितनी-कितनी देर गत्ते के उस छोटे से सिलेंडर को आँख से चिपका कर घुमाता, दूसरे सिरे पर बनते, पल-पल शक्ल बदलते, रंग-बिरंगे  आकारों को निहारता रहता था। बचपन से इतनी दूर, आज भी मन में एक दूसरे से जुड़ी-अनजुड़ी हजारों यादें चूड़ियों के उन टुकड़ों जैसी अनगिनत शक्लें बनाती रहती थीं। फर्क यह था कि गत्ते के कैलिडोस्कोप में चूड़ियों के टुकड़े मनमोहक आकारों में ढलते थे, यादों के कैलिडोस्कोप में बनने वाले ज्यादातर आकार या तो भरमाते थे, या डराते थे। मगरमच्छों द्वारा भंभोड़े जा रहे हाथी का अक्स आज भी  देह को पसीने से भर देता था। वह नहीं भूल पाया था कि परंपरा में हाथी शरीर-बल के साथ बुद्धि-बल के लिए भी अभिनंदित प्राणी है। वह नहीं भूल पाया था, गजोद्धार की, तथा दीगर कथाएँ। यह कथा-स्मृति सपने के हाथी की बेबसी को, उसकी दुचली-कुचली हालत को, नर- नारायण और यम की बेरुखी को और गाढ़े दुख में रंग देती थी। हालाँकि, सुकेत जानता था कि हमेशा यादों में डूबे रहना व्यक्ति और समाज के बचपने का लक्षण है, कहता भी था ‘यार, बहुत ज्यादा अतीत घुसा हुआ है हमारी चेतना में…वी हैव टू मच ऑफ हिस्ट्री…संतुलन होना चाहिए…’

संतुलन? इस समय, कुछ लोग वर्तमान को अतीत के हिसाब-किताब बराबर करने वाला अखाड़ा समझ रहे थे, तो कुछ वर्तमान के जादुई गलीचे पर सवार ऐयाशी  की हवा में उड़ानें भर रहे थे। जिन्दगी की चाल भी बहुत  तेज-रफ्तार थी, क्या घर में, क्या सड़क पर, हर जगह हर आदमी न जाने कहाँ फौरन से पेश्तर पहुँच जाने की जल्दी में था। तेज-रफ्तार वक्त में सुकेत और उसके जैसे लोग बीते वक्त में कहीं जमे रह गये फॉसिल थे, ऐसे  पुरालेख थे, जिन्हें हर कोई कोसता था कि दफ्तरों में, गलियारों, दुनिया में खामखाह जगह घेरे हुए हैं।

यह मगरमच्छों द्वारा भंभोड़े जा रहे हाथी की करुण चिंघाड़ के  साथ टूटी नींद की आधी रात थी, देह को पसीने से भिगोती जगार के साथ शुरु हुई आधी रात….

‘चलो’….

अरे, ये तो वही बलिष्ठ गण हैं, जो कभी मोहल्ले में दिखते हैं, कभी टीवी के परदे पर। कभी किसी फिल्म-शो में पत्थर फेंकते नजर आते हैं, कभी पार्क में बैठे नौजवान जोड़ों को सताते…कभी किसी साहित्योत्सव में किसी लेखक के आने की  संभावना भर से वहाँ नमाज पढ़ कर अपनी ताकत दिखाते, कभी किसी पेंटर के देशनिकाले का उत्सव मनाते…कभी लड़कियों को रेस्त्राँ से मार-पीट कर भगाते, कभी माथे पर सिन्दूर लगा लेने वाली लड़कियों के विरुध्द मुहिम चलाते, कभी किसी फिल्म पर रोक लगाने को सामाजिक न्याय का प्रमाण बताते, कभी किसी लेखिका को धर्मगुरुओं के सामने घुटने टेकने का आदेश देकर अपनी धर्मनिरपेक्षता साबित करते…हर तरफ आहत भावनाओं का बोल-बाला था…

एक बार खुर्शीद ने कहा भी था, “अमाँ, यह ससुरी धर्मनिरपेक्षता तो अपने देश में आहत भावनाओं की एंबुलेंस बनती जा रही है…”

“और अक्ल की बात करने वालों की मुर्दागाड़ी…” रघु ने टुकड़ा जड़ा था। रघु  तो अपने नाम से ही भावनाएं आहत करने का अपराधी था, क्योंकि “ यह दुष्ट ईसाई होकर भी हिन्दू नाम धारण करता है, सो भी भगवान राम के पूर्वपुरुष का”। रघु क्या  बताता  कि उसके ईसाई पिता को हिन्दू परंपराओं की कितनी भावपूर्ण जानकारी थी, रघु के चरित्र से वे कितने प्रभावित थे, अपने बेटे का नाम रघु रख कर कितना सुख अनुभव करते थे….बताने से होना भी क्या था?

सुकेत को याद था कि बचपन के दिनों में उस उनींदे नगर में भी ऐसे नमूने थे, लेकिन उपेक्षित…आजकल के मुहाविरे में, ‘हाशिए पर’। लोग उनकी नैतिक चिंतावली सुन भी लेते थे, और हँस कर टाल भी देते थे। लेकिन, टीवी की ब्रेकिंग न्यूज के इन दिनों में ये सारे देश में ग्राउंड-ब्रेकिंग रफ्तार से बढ़ते ही चले जा रहे थे। टीवी चैनल ऐसे नमूनों को जन्म देने वाली जच्चाओं की भूमिका निभा रहे थे, और सुधी विमर्शकार दाइयों की। लेकिन, अपनी जच्चाओं और दाइयों को छोड़ ये नैतिक नौनिहाल  मेरे घर में कैसे घुस आए? कौन हैं ये लोग, गुंडे या यमदूत? ले कहाँ जा रहे हैं? यमलोक?

यमदूत आत्मा को पता नहीं किस वाहन में ले जाते हैं। सुकेत को तो कार में उन्हीं जानी-पहचानी सड़कों से सशरीर ले जाया रहा था। बड़े-बड़े होर्डिंगों पर, फ्लाई-ओवरों और अंडर-पासों की दीवारों पर अजीब से नारे, अजीब से ऐलान चमकते दिख रहे थे। रास्ते में पड़ने वाले अंधेरे टुकड़ों में भी ये ऐलान फ्लोरसेंट रंगों से लिखे हुए थे—‘नाश हो इतिहास का’,  ‘दस्तावेजों को जला दो, मिटा दो’, ‘कला वही जो दिल बहलाए’, ‘साहित्य वही जो हम लिखवाएँ’…

हर ऐलान के नीचे एक लाइन ज़रूर लिखी थी, कहीं-कहीं वह लाइन ही मुख्य ऐलान थी—‘ हर सच बस गप है, सबसे सच्ची हमारी गप है’…यह लाइन हर जगह अंग्रेजी में भी लिखी थी। आखिर मूल लाइन तो इस वक्त, यहीं क्यों, हर जगह अंग्रेजी से ही आ रही थी, इंग्लैंड वाली नहीं, अमेरिका वाली अंग्रेजी से—‘ऑल ट्रूथ इज़ फिक्शन, अवर फिक्शन इज़ दि ट्रूएस्ट वन’…

इतनी चमक थी सड़क पर कि अँधेरे टुकड़े भी स्याह चमक में नहाए से लग रहे थे। इतनी रफ्तार थी कि सुकेत को ले जा रही कार के साथ सड़क भी तेजी से दौड़ती लग रही थी। तेज-रफ्तार ट्रैफिक के साथ ही ताल दे रही थी कार के भीतर और बाहर हर तरफ गूँजते गाने की रफ्तार। उसी तेज-तर्रार अंदाज का था गाना जैसे सुकेत ने दो-एक बार मॉल्स में या नौजवानों के पसंदीदा हैंग-आउट्स में सुने थे–

‘ अक्कड़-बक्कड़ बंबे बौ, अस्सी नब्बे, पूरे सौ

सौ में लगा धागा/ विकास निकल कर भागा/

इसके संग-संग तू भी दौड़/ बाकी सबको पीछे छोड़

बुद्धि को तू रख पकड़/ मुट्ठी में कसके जकड़

जो न माने तेरी बात, खुपड़िया उसकी फौरन फोड़

बाकी सबको पीछे छोड़

बम चिक बम चिक बम चिक…’

सुकेत के आस-पास बैठे दोनों बलिष्ठ उसके कंधों पर हथेलियाँ ठोकते हुए टेक में टेक मिला रहे थे—‘खुपड़िया उसकी फौरन फोड़/ बाकी सबको पीछे छोड़…बम चिक बम चिक बम चिक’। सुकेत की चिढ़ भरी निगाहों या अपने शरीर को सिकोड़ने का उन पर कतई कोई असर नहीं पड़ रहा था।

जहाँ सुकेत को लाया गया, वह कोई थाना नहीं, कई मंजिलों वाली एपार्टमेंट टावर थी। जिस फ्लैट में उसे ले गये, उसे देख कर लगता नहीं था कि अंदर इतनी ऊंची दीवारों वाला, इतना बड़ा गोल कमरा भी हो सकता है। सामान्य सा घर, सामान्य सा दरवाजा…कदम रखने के पल तक सुकेत किसी सामान्य ड्राइंग-रूम में ही घुसने की उम्मीद कर रहा था, लेकिन दरवाजा खुला डरावनी विशालता से भरे इस इस गोल, नीम-अंधेरे कमरे में।

रघु और खुर्शीद कमरे में पहले से मौजूद थे, या शायद उसी पल वे भी कमरे में लाए गये, जिस पल सुकेत…लेकिन किस दरवाजे से? सुकेत ने पूछना चाहा, असंभव…उसने सुनना चाहा नामुमकिन…तीनों दोस्त एक साथ एक छत के तले…लेकिन बोलने-सुनने से वंचित… उस चिकनी दीवारों, चिकने फर्श वाले गोलाकार के अलग अलग बिंदुओं पर ये तीन दोस्त अनबोले, अनसुने खड़े हैं, जिस सर्वव्यापी बम-चिक शोर से गुजर कर सुकेत यहाँ आया था, उसने यहाँ दीवारों से उधार लेकर चिकना सन्नाटा पहन लिया था। तीनों अपनी अपनी जगह इंतजार कर रहे थे, ना जाने किस बात का, किस घटना का, किस इंसान का…

सुकेत को एकाएक लगा जैसे कोई लंबा गलियारा साँप की सी कुंडली मार कर गोलाकार हो गया है। यह अहसास होते ही वह चिकनी दीवार से कुछ इंच आगे सरक गया, दीवार उसे साँप की देह जैसी लगने लगी थी, सुकेत ने कभी साँप की देह छुई नहीं थी, उस छुअन की कल्पना तक उसे डरावनी भी लगती था, घिनौनी भी…वह सर्प-देह के चंगुल में खड़ा है, यह अहसास ही सुकेत की आत्मा के रेशे रेशे में डर और बेबसी भरे दे रहा था…मन को समझाने के लिए वह बताने लगा खुद को—नहीं यह साँप की देह नहीं, कोई बहुत लंबी, बल्कि अनंत में चली जा रही सुरंग है जो गोल गोल घूम रही है, घूमते घूमते थक-थक गयी है, गोल कमरे का रूप लेकर सुस्ता रही है…

कमरे के बीचों-बीच यह मंच एकाएक कहाँ से आ गया? शायद मैंने ही ध्यान नहीं दिया…मंच भी है, उस पर मेज भी…मेज के पीछे कुर्सी और कुर्सी पर सिर्फ एक आवाज…

‘वेलकम, सुस्वागतम…नाकोहस के इस फ्रेंडली इंटरएक्शन—मित्रतापूर्ण वार्त्ता-सत्र—में आप तीनों बुद्धिजीवियों का स्वागत है…’

शब्द स्वागत के, लेकिन ‘बुद्धिजीवी’ कहते समय स्वर में खिल्ली…तीनों को इस पाखंड पर चिढ़ हुई। ‘मैत्रीपूर्ण वार्तासत्र’ के लिए किसी को आधी रात उठवा नहीं लिया जाता। डरावनी सर्प-देह की कुंडली में फँसा कर नहीं रखा जाता। और, यह नाकोहस है क्या बला?

‘चिंता न करें, आप लोगों को यहाँ आने का कष्ट इसीलिए दिया गया है कि आपके सारे सवालों के आखिरी जबाव दिये जा सकें, आप लोग सवाल-जबाव की बेवकूफी से आखिरी बार छुट्टी पाकर भले लोगों की तरह जीवन के आखिरी दिन तक चैन से जी सकें…’

‘अंतर्यामी का दरबार है क्या यार’….सुकेत ने सोचा, अंतर्यामी आवाज फिर से बोल पड़े इसके पहले ही उसने सवाल दाग दिया, “ चक्कर क्या है…क्या जुर्म है हम लोगों का- जो पुलिस, नहीं पुलिस नहीं, गुंडों  के जरिए…”

“इतनी हड़बड़ी से कैसे काम चलेगा?” आवाज एक चेहरे में बदल रही थी। ‘आश्चर्य लोक में एलिस’  के चेशायर बिल्ले की तरह धीरे-धीरे चेहरे का  आकार खुल रहा था, लेकिन बिल्ले की नहीं, गिरगिट की शक्ल। उस चेहरे को खुलते देख, सुकेत को अपने सपने के मगरमच्छ याद आने लगे। वैसी ही लंबी सी थूथन खुल रही थी, लेकिन डरावने दाँतों की कतार की जगह लपलपाती जीभ । देह शायद इंसान की ही थी, थूथन बिल्कुल गिरगिट की, जिस पर चेशायर बिल्ले जैसी दोस्ताना शरारत नहीं, सारे सवालों का हल हासिल कर चुकी चेतना की चिकनी कठोरता थी, अटूट आत्मविश्वास की चमक थी, और आवाज में ताकत का ठहराव, ‘आप लोगों को यहाँ पुलिस नहीं लेकर आई है, और गुंडे कह  कर, आप जिनकी भावनाएं आहत कर रहे हैं,  वे असल में बौनैसर हैं…’

‘बौने सर या बाउंसर ? जो सर लोग हमें यहाँ लेकर आए हैं, देह से तो बौने के बजाय बाउंसर ही लग रहे थे,  हाँ, बुद्धि से…’

‘इतना अहंकार उचित नहीं, मान्यवर। अहसान मानिए कि आपकी लद्धड़ बुद्धि फास्ट डेवलपमेंट के इस तेज-रफ्तार जमाने में अब तक बर्दाश्त की गयी है…बाउंसर नहीं, बौनैसर माने बौद्धिक नैतिक समाज रक्षक, संक्षेप में बौनैसर…यू सी, हम कोई बुद्धि-विरोधी नहीं, बल्कि बुद्धि के रक्षक हैं…लेकिन यह अब नहीं चलेगा कि स्वयं को बुद्धिजीवी कहने वाले  भावनाओं को ठेस पहुँचाने वाली समाजद्रोही, राष्ट्रविरोधी हरकतें करते रहें…बुद्धि की मनमानी बहुत हो ली, बुद्धिजीवियों के सम्मान का तमाशा बहुत हो चुका, अब जरूरत है, अनुशासन की… भावनाओं की रक्षा की, इसीलिए बौद्धिक नैतिक समाज रक्षक—बौनैसर—समाज की रक्षा तो करते ही हैं, यह ध्यान भी रखते हैं कि बौद्धिक कर्म अनुशासन-हीनता का रास्ता न पकड़ ले…याद रहे, इन समाज-रक्षकों के बारे में बकवास करना दंडनीय अपराध है…वैसे, यह अपमानजनक टिप्पणी भी तो आपने ही की थी ना सुकेत सर…कुछ ही दिन पहले कि इन दिनों इमारतें ऊंची होती जा रही हैं, और मनुष्य बौने…’

‘इसमें अपमानजनक क्या है? किसका अपमान किया मैंने?’

‘सारे मनुष्यों को बौने कहा, और पूछ रहे हैं कि अपमान किसका किया…’

‘यों तो मैंने अपना भी अपमान किया…’

“आप अपना अपमान नहीं कर सकते, जैसे आत्महत्या नहीं कर सकते”, अधिकारी की आवाज का ठंडापन बर्फ का सा था, हाँ थूथन लाल हो गयी थी, “आत्म- हत्या हो या आत्म-अपमान…आप ही कर लेंगे तो हम क्या करेंगे? हमारा काम हमें करने दीजिए….”

सुकेत को एकाएक याद आया, बचपन में, घर में फ्रिज नहीं था; गर्मी में मुन्ना बर्फ वाले से किलो-दो-किलो बर्फ लाने आम तौर से वही जाता था। मुन्ना सुए और हथौड़े की सहायता से बड़ी सी सिल्ली में से बर्फ का टुकड़ा तोड़ कर तराजू पर रखता था। क्या होगा सुए और हथौड़े की चोट का नतीजा… बर्फीली आवाज की सिल्ली में धकेले जा रहे सुकेत की हिम्मत नहीं हुई, कल्पना करने की।

‘तो फिर हमारा काम क्या है?’ सुकेत चौंका, यह रघु की आवाज थी, अभी कुछ ही देर पहले तो हम एक दूसरे की आवाज नहीं  सुन पा रहे थे, अब…

अंतर्यामी फिर से बोल पड़े, ‘ यह एक छोटा सा डिमांस्ट्रेशन था, सुकेतजी, आप लोगों को समझाने के लिए कि आपकी बोली-बानी, आपके कान-जबान कितने आपके रह गये हैं, और  कितने हमारे हो गये हैं…’,सुकेत को लगा कि वह उस आवाज को छू सकता है, यह छुअन भी ऐन वैसी ही, जैसी दीवार की छुअन लग रही थी…सर्पदेह की सी। सुकेत को अपने चेहरे पर, सारी देह पर नीले-काले धब्बे उभरते लगे। उसने हड़बड़ा कर हथेलियों, कलाइयों पर निगाह डाली। कोई धब्बे नहीं थे, लेकिन उसी पल सुकेत अपनी रगों में किसी को दुम मटकाता, मठलता हुआ महसूस कर रहा था….उसकी चीख निकल गयी, ‘मेरे भीतर यह मगरमच्छ…’

अंतर्यामी ने ध्यान नहीं दिया, रघु और खुर्शीद ने भी नहीं। चीख गले से निकली भी थी, या भीतर ही?  अधिकारी रघु से मुखातिब था…‘ आपका काम है कमाना, खाना, सोना, रोना और मस्त रहना। यार, कितने तो तरीके   हैं इन्फोटेनमेंट के…मन करे तो दूसरों के रोने का रस लो, मन करे तो खुद ही टीवी पर रो कर दिखा दो, भगवान के नाम पर रो लो, देश के नाम पर रो लो…टीवी पर रोने पर कोई रोक नहीं, हाँ, एकांत में रोने के चक्कर में मत पड़ना। एकांत  जैसी समाजद्रोही हरकतों को काफी हद तक तो टीवी ने कम कर ही दिया है…बाकी काम जारी है…लोगों को सिखाने के लिए, उनके सीखने को ‘मॉनिटर’ करने के लिए राष्ट्रीय चरित्र-निर्माण आयोग, राष्ट्रीय अनुशासन संस्थान, विवेक-पुनर्निर्माण समिति आदि का गठन किया गया ही है….हम नाकोहस वालों का अपना मैंडेट है…कुल मिला कर टारगेट यह—कोई भी नागरिक किसी भी हालत में अपने चरित्र को, दूसरों की भावनाओं को चोट ना पहुँचा पाए। एकांत खतरनाक है, एकांत  में सवाल पैदा होते हैं, सवालों से निजी दुख और सामाजिक उत्पात जन्म लेते हैं, सो….क्या कहते हैं आप इंटेलेक्चुअल लोग उसे…हाँ, कैथारसिस, विरेचन….मानसिक स्वास्थ्य के लिए जरूरी…सारे समाज के लिए रंग-बिरंगा, सुंदर कैथार्सिस मुहैया कराने के लिए तो छोटे से शुक्रिया के  मुस्तहक तो हम हैं ही….क्या ख्याल है ज़नाब खुर्शीद साहब….’

‘ मेरे नाम की वजह से उर्दुआने की ज़रूरत तो नहीं थी, बहरहाल शुक्रिया’ खुर्शीद ने अपने जाने-पहचाने अंदाज में कहा, ‘किंतु मेरा निवेदन भी यही है, कृपया बताएँ…हम यदि अपना स्वयं का अपमान तक  नहीं कर सकते तो मनुष्य योनि का करें क्या?’

अंतर्यामी गिरगिट एकाएक सोच में डूबा लगने लगा। क्या उसे याद आ गया था कि शक्ल गिरगिट की हो, ड्यूटी मगरमच्छ की, लेकिन वह स्वयं भी अंतत: मनुष्य था…

कमरे में जाने कितनी देर सन्नाटा गूँजता रहा। इन तीनों की आवाज और हरकत फिर से स्थगित कर दी गयी थी। वे अपनी जगह जरा सा हिल लेने के सिवाय कुछ नहीं कर सकते थे। हाँ, चुपचाप साझा ढंग से मुस्कराना मुमकिन था…रघु और खुर्शीद की मुस्कान बता रही है कि वे भी वही सोच रहे हैं, जो सुकेत खुद सोच रहा है—यह एक सपना है, जो मैं देख रहा हूँ, बाकी दोनों मेरे सपने में हैं, बस। कुछ ही देर की बात है, नींद खुलेगी, सपना टूटेगा, और मैं बाकी दोनों को छका-छका कर बताऊंगा कि सपने में मेरे साथ उन दोनों की भी क्या दुर्गति हुई। मजे मजे में बुलाऊंगा भी कि आज रात फिर दोनों साथ-साथ चले आना मेरे सपने में…

‘ वैसे तो, जैसा कि आप जानते हैं, जगत ही ब्रह्म का सपना है…’ गिरगिट चेहरे के रंग लाल, हरे, नीले हुए जा रहे थे, चिकनी आवाज अब लपलपाती जबान से  नहीं, उस गोल कमरे का रूप ले चुकी सुरंग के, उस साँप की कुंडली के कोने कोने  से आ रही थी, ‘ लेकिन, आप यह भी तो जानते हैं कि सपना था, यह अहसास सपने में नहीं, उसके खत्म हो जाने के बाद ही होता है…इस वक्त आप किसी सपने में नहीं, नाकोहस के मैत्रीपूर्ण वार्तासत्र में है…नाकोहस याने नेशनल कमीशन ऑफ हर्ट सेंटिमेंट्स—संक्षेप में नाकोहस, आप आहत भावना आयोग भी कह सकते हैं… ग़ौर करें, ‘नाकोहस’- इस एब्रिविएशन  से यह भी मतलब  निकलता है कि आप  जैसे लोगों द्वारा फैलाया गया कुहासा दूर करना ही इस कमीशन का मैंडेट है… हिन्दी में भी, ‘आभाआ’ याने बकवास के अंधकार को दूर कर, आनंद और विकास की आभा को बुलाना…आभा आ…आभा को हाँ, कुहासे को ना…नाकोहस…

‘नाकोहस? आभाआ?’ रघु, सुकेत और खुर्शीद ने एक दूसरे की आँखों में झाँका। आँखों के तीनों जोड़ों में एक सा अचंभा था, ‘ यह बक क्या रहा है, यार…ढेर सारे कमीशन हैं, रोजाना दो-चार बन जाते हैं, लेकिन ये कौन-कौन से कमीशन बखान रहा है, चरित्र-निर्माण आयोग, आहत भावना आयोग, नेशनल कमीशन ऑफ हर्ट सेंटीमेंट्स…हमें पता तक नहीं चला…’

अंतर्यामी गिरगिट-शक्ल ने फिर से जल्दी-जल्दी रंग बदले, शायद यह इन लोगों के बिगूचन पर खुशी जाहिर करने का उसका तरीका था, ‘नाकोहस आपके ऊपर-नीचे-दायें-बायें हर तरफ है…नाकोहस आपका पर्यावरण है। समझदार लोग समझ भी गये हैं, आप जैसों को समझाने की कोशिशें भी बौनेसरों ने की तो हैं…’

बात एक तरह से सही थी, तीनों दोस्त अलग-अलग भी, और साथ-साथ भी भावनाएं आहत करने के आरोप में गालियाँ भी झेल चुके थे, पिटाई भी। आईपीसी 153 ए और आईटी एक्ट 66 ए के केस भी तीनों पर चल ही रहे थे, लेकिन वे सब तो गुंडागर्दी और राजनैतिक बदमाशी की घटनाएँ थीं…यह बाकायदा कमीशन—नाकोहस—आभाआ….

‘फैसला किया गया है कि नाकोहस को हवा में घोल दिया जाए, आभाआ की आभा को हर नागरिक के भीतर-बाहर फैला दिया जाए…. मेरे प्यारे बुद्धुओ,नाकोहस तुम्हारी जानकारी में हो ना हो, इसे तुम्हारी नींद में, तुम्हारी साँस में होने की जरूरत है, तुम्हारे घर में, तुम्हारी सड़क पर होने की जरूरत है। मुझे विश्वास है कि इस मैत्रीपूर्ण वार्तासत्र के बाद, तुम तीनों में जरूरी सुधार आ जाएगा, नाकोहस को तुम भी अपने भीतर पाओगे और भावनाएँ आहत करने वाली पापबुद्धि को सदा के लिए  बाहर निकाल फेंकोगे’।

रघु चुप नहीं रह सकता था, सुकेत को मालूम था कि वह बोलेगा जरूर। जब वह दमदमी टकसाल में, गोद में एके 47 को लाड़ से बिठाए, खालिस्तान समझा रहे खाड़कुओं के सामने चुप नहीं रहा था, तो इस इस सपने में, इस गिरगिट के सामने उसके चुप रहने की बात तो सपने में भी नहीं सोची जा सकती । लेकिन वह बोला, और अपन सुन ही नहीं पाए तो?

सुकेत की आँखें जीभ लपलपाते गिरगिट की ओर अनुरोध के साथ देखने लगीं। वह जिससे  घृणा कर रहा था, उसी से अनुरोध कर रहा था कि रघु की आवाज सुनने दी जाए।  रघु इस गिरगिट की ऐसी-तैसी करेगा, यह तय था, लेकिन उस ऐसी-तैसी का  मजा ले पाने के लिए सुकेत निर्भर था उसी गिरगिट की मर्जी पर। उसकी मर्जी के बिना वह सुन नहीं सकता था, रघु की  आवाज, जैसे कुछ देर पहले रघु और खुर्शीद सुकेत की आवाज नहीं सुन पा रहे थे…

सुकेत के मन में ऐसी घृणा और निर्भरता एक साथ होने की स्मृति अब तक नहीं थी…क्या कभी बाहर आ पाएगा वह विवशता की इस स्मृति से कि अपने रघु की नाकोहस की ऐसी-तैसी करती आवाज सुनने के लिए वह नाकोहस  के ही निहौरे कर रहा है…

गिरगिट मुस्कराया, अंतर्यामी ठहरा…सुकेत और खुर्शीद सुन पा रहे थे, रघु की आवाज, ‘सुनिए भाई साहब, ऐसे जादू-तमाशे हमने बचपन से देखे हैं। बड़े होकर तो हालत यह हो गयी है कि…’

‘होता है शबो-रोज़ तमाशा मेरे आगे’…खुर्शीद ने गिरह लगाई, जैसे पचीस बरस पहले दमदमी टकसाल में लस्सी छकते, उपदेश सुनते अपन हँस-हँस कर  खुद के डर को छका पा रहे थे, वैसे ही इस अजूबे को भी जिन्दादिली से ही निबटा रहे हैं…

‘लेकिन इस अजूबे की अपनी इज़ाज़त से…’ मगरमच्छों द्वारा भंभोड़ा जा रहा हाथी  सुकेत के समूचे अस्त्तित्व में चिंघाड़ उठा। बल-बुद्धि से महिमामंडित वह विशाल प्राणी बेबस और लाचार था, मगरमच्छों की क्रूरता के सामने…उसकी पुकारें नारायण  से दया की भीख माँग रही थीं, या देह चबाते मगरमच्छों से…मैंने तो नारायण के बारे में सोचा तक नहीं, बल्कि इस गिरगिट की ओर ही टिकाई निहौरा करती निगाह, उफ…क्या हो गया है मुझे….क्या हो रहा है हम तीनों को…मैं अकेला ही नहीं, बाकी दोनों की निगाहें भी तो मेरी ही तरह निहौरे कर रहीं हैं इस गिरगिट के…न करें तो आवाज नहीं सुन सकते, कौन जाने अगले पल देख भी न सकें एक दूसरे को…

स्मृति जा रही है पंचतंत्र की कहानी की ओर। मगरमच्छ की क्रूर मूर्खता की, बंदर की चतुराई की उस कहानी में तो बंदर बच गया था, मगरमच्छ को यकीन दिला कर कि वह अपना कलेजा पेड़ पर छुपा कर रखता है। हम उस बंदर की चतुराई से ही तो सीख रहे हैं, रणनीति के तहत निहौरे कर रहे हैं, इस घिनौने गिरगिट से, कोई बात नहीं…

मगरमच्छ मूर्ख मान गया था कि बंदर अपना स्वादिष्ट कलेजा शरीर में नहीं पेड़ की खोखल में छिपा कर रखता है, हम भी इस गिरगिट को मूर्ख बनाकर निकल जाएंगे कि, ‘जी, हम तो अब भावनाएं आहत करने वाली शरारतें घर पर छोड़ कर ही निकला करेंगे…’

गिरगिट ने नारंगी रंग लेते हुए सुकेत की ओर तिरस्कार भरी निगाह डाली, ‘मेरी ही मेहरबानी से अपने दोस्त की बकवास सुन पा रहे हो, मन ही मन फिर भी हीरोपंथी झाड़ रहे हो, चाहूँ तो सुनना-बोलना तो क्या हिलना-डुलना तक इसी पल रोक सकता हूँ, याद कर रहे हो उस बदमाश बंदर को, उस बेवकूफ मगरमच्छ को…भूल जाओ यह बकवास, बस अपना सपना याद रखो, सच वही है…’

हाथी हिल नहीं सकता। नारायण को परवाह नहीं, यम को जल्दी नहीं। मगरमच्छ आश्वस्त—जीभ को गोश्त का स्वाद, कानों को क्रंदन का सुख मिलने में कोई बाधा नहीं। हाथी की विवशता,  मगरमच्छों की आश्वस्ति का  सच  सुकेत की चेतना में बर्फ तोड़ने वाला सुआ बन कर चुभा…अंदर ही अंदर सारा खून निचुड़ सा गया, चेहरा शर्म और दर्द  से बैंगनी  होने लगा, गिरगिट ने तृप्ति से जीभ लपलपाई, और खुद भी बैंगनी रंग अख्तियार करते हुए सुकेत की ओर आँख मारी, ‘मेरे बैंगनीपन का कारण अलग है, समझे…’

सुकेत को अपने नाम पर शर्म आने लगी, कैसा सुकेत—सूर्य— हूँ मैं कि…

‘थैंक्यू खुर्शीद’ रघु कह रहा था, ‘मैं आपकी कोमल भावनाएँ आहत  नहीं करना चाहता, लेकिन सरजी इतना तो जानते ही होंगे कि किसी भी वक्त में चालू मान्यताओं और उनसे जुड़ी भावनाओं से ही चिपका रहता तो इंसान आज भी नरबलि चढ़ा रहा होता। बात को समझिए नाकोहस साहब, कहीं न कहीं सत्य तो है ना, कुछ तो है उसकी शकल, हालाँकि उसको पूरा जान पाना किसी के लिए भी संभव नहीं है, इसीलिए तो उस पर सतत पुनर्विचार जरूरी है…दैट इज ब्लासफेमी फॉर यू…जिसके बिना इंसान आगे बढ़ ही नहीं सकता…’

‘मिस्टर रघु मैं जानता हूं कि ब्लासफेमी क्या चीज है…आपकी तरह ईसाई भले…’

‘मैं ईसाई घर में जन्मा जरूर, लेकिन ईसाई हूँ नहीं…’

‘आप स्वयं को ईसाई कहलाना पसंद नहीं करते, लेकिन पसंद का जमाना गया, यह पहचान का जमाना है, आप चाहें ना चाहें आपकी पहचान तो ईसाई की है, मरते दम तक रहेगी, मरने के बाद तक रहेगी…बाई दि वे, आप पर एक चार्ज यह भी है कि आप  अपनी पहचान छुपाने की कोशिश करते हैं, खैर, न जाने किस जमाने की बात आप कर रहे हैं, सत्य होता है एब्साल्यूट सत्य होता है भले ही पूरी शकल न दिखाता हो, पढ़े-लिखे हो कर ऐसी बेवकूफी की बातें…’ आवाज में वह लाड़ भरी सख्ती आने लगी थी जिसका इस्तेमाल पालतू जानवरों से बात करने में किया जाता है,  ‘मेरे प्यारे बेवकूफो, सत्य वत्य कुछ होता नहीं, वजूद केवल ताकत का है, इतिहास में पहली बार इस व्यावहारिक सत्य को दार्शनिक रूप मिला है, अब पीछे नहीं जा सकते हम…कोई जरूरत नहीं ब्लासफेमी की, सत्य की खोज, माई फुट… सत्य है क्या?  प्याज की गाँठ– छीलते जाओ, छीलते जाओ, हर परत के नीचे एक और परत, और आँखों में पनीली

जलन…बहुत डेमोक्रेसी-वेमोक्रेसी बघारते हो, तुम लोग, जनता को पनीली जलन से बचाना सरकार का कर्तव्य है या नहीं …सत्य-वत्य बहुत हो लिया अब जो भी खोज होनी है एटीएम में होनी है…एटीएम समझते हो ना?’

‘यार, यह हमें इतना घामड़ समझता है…एटीएम माने ऑटोमेटिक टेलर मशीन, पॉपुलर मुहावरे में एनीटाइम मनी…’

‘मैं जानता था’ गिरगिट की देह ने खुशी के मारे इस बार रंग ही नहीं बदला, फुरहरी भी ली, ‘ जानता था मैं, पुराना इडियम घुसा पड़ा है इडियट किस्म की खोपड़ियों में, एटीएम का नया मतलब है—ऑल टेक्नॉलॉजी ऐंड मैनेजमेंट—साइंस ऐंड टेक्नालॉजी में कन्फ्यूजन की गुंजाइश है, कुछ बेवकूफ हवाई किस्म की थ्योरिटिकल रिसर्च में राष्ट्रीय संसाधन नष्ट करने लगते हैं…मैनेज करना है कि साइंटिस्ट अपने काम से काम रखें, फिजूल के पचड़ों में ना पड़ें… पॉलिसी डिसीजन स्टैटिक्स के आधार पर लिए जाने चाहिएं…तुम्ही बताओ तुम्हारा महान साहित्य, महान संगीत विचार समाज के कितने फीसदी लोगों के काम का है? इन सारी चीजों को मैनेज  करना है, इसलिए एटीएम—ऑल टेक्नॉलॉजी ऐंड मैनेजमेंट—इसी में रिसर्च, इसी में विकास… बंद करनी है  बाकी हर बकवास…ऐंड दैट इज़ दि फाइनल ट्रूथ, कभी मत भूलना यह सबक़—सत्य वही जो हम बतलाएँ…’

रघु , खुर्शीद और सुकेत गिरगिट की लंबी स्पीच सुनते ही रह गये, बीच में बोलना संभव  कहाँ था? गिरगिट अपने मुँह का माइक ऑन करने के साथ ही इन तीनों की जबान पर ताला लगाना भूला कहाँ था? वे केवल ठंडी आवाज सुन सकते थे— ‘मुझे पता है, आप लोग सोच रहे हैं कि…’, पहली बार उस मेज से आती आवाज में बर्फ की सिल्ली की ठंडक के बजाय इंसानी शरारत सुनाई दी, ‘ईसा मसीह का उदाहरण दें या नचिकेता का, उद्धरण नैयायिक उदयन का दें या इब्ने सिन्ना इज्तिहादी का, या  वाल्टेयर का, या लाओत्जे का…कबीर और मीरां के नाम तो बस आपके मुँह से अब निकले कि तब निकले…आपको लगता है कि नाकोहस अनपढ़ों का जमावड़ा है? सब मालूम है हमें…आप तीनों का लेख, ‘राइट टू ब्लासफेमी’ भी ध्यान से बांचा गया है नाकोहस द्वारा, “ ब्लासफेमी याने धर्म और भगवान तक की शान में गुस्ताखी करना इंसान का अधिकार तो है ही, मानव-समाज की प्रगति की शर्त भी है…” यही फरमाते हैं ना आप लोग उस निहायत कन्फ्यूजिंग हेंस मॉरली रिपगनेंट ऐंड सोशली डेंजरेस लेख में….उस लेख के बाद हमारी कार्यवाही का कोई असर आप पर नहीं पड़ा, इसीलिए तो आपको इस खास इंटर-एक्शन में आने की जहमत दी गयी है…

उस लेख के बाद नाकोहस की कार्यवाही? तीनों ने एक दूसरे की आँखों से सवाल पूछा, ‘यार, यह हो क्या रहा है? जिस नाकोहस का नाम तक नहीं सुना, उसने अपने खिलाफ कार्यवाही भी कर डाली?’’

‘ कानून की जानकारी ना होना लीगल डिफेंस नहीं  होता, यह तो आप लोग नाकोहस बनने के पहले भी जानते-मानते ही आए हैं ना….’ नाकोहस के गिरगिट का अंतर्यामीपन सहज लगने लगा था, जो मन में सोचते थे, उस पर गिरगिट की टिप्पणी अब तीनों में से किसी को जरा भी नहीं चौंका रही थी। गिरगिट कह रहा था, ‘ नाकोहस के होने से आप नावाकिफ हैं, तो नाकोहस का काम रुक थोड़े ही जाएगा…हाँ, हमारे तरीके कुछ अलग हैं, पुलिस-वुलिस से ज्यादा, हम बौद्धिक नैतिक समाज रक्षकों याने बौनेसरों पर या फिर लोगों की अपनी सद्बुद्धि पर भरोसा करते हैं… खुद दुखी, आहत और उत्पीड़ित होने का दावा करते हुए किसी की ठुकाई करना कितना मादक सुख देता है, आप क्या जानें…मैं तो…मुझे तो.. आ..ह…’ गिरगिट को कोई रोमांचक पल याद आ रहा था, ‘मेरी भावनाओं को ठेस पहुँचाने वाले, तुझे तो मैं…ओह…आ…तेरी तो मैं आह…अरे बेवकूफों तुम क्या जानो, कितना मजा है इसमें…हाय…आह ओह…’

गिरगिट उस सुख को याद  कर रहा था, जो वह भावनाएँ  आहत  करने वालों की देहों को क्षत-विक्षत करते समय पाता था, मुँह से निकलती सीत्कारें, लंबोतरे चेहरे पर छा रही खुमारी, लपलपाती जीभ पर चमक रही तृप्ति ऐसी थी मानो वह किसी परम काम्या नारी के साथ सेक्स का सुख ले रहा हो।

सुकेत को याद आ रहा था, ब्लासफेमी वाले लेख के पहले भी, बहुत तीखी गाली-गलौज, बहुत जहरीले कटाक्ष झेले थे उसने, और रघु, खुर्शीद जैसे उसके कई दोस्तों ने। उसे अपनी वह प्रेमिका भी याद आयी जो मोहब्बत की बातें ऐसे करती थी कि पचास के दशक की फिल्मों की घोर सेंटिमेंटल नायिका तक पस्त हो जाए; और कटाक्ष ऐसे करती थी, जैसे कोई तीखी छुरी त्वचा से माँस तक पहुँचाए, उसे गोल-गोल घुमाए, फिर ताजे घाव पर नमक-मिर्च बुरके…

जैसे यह गिरगिट कह रहा है, वैसे ही वह भी दावा करती थी—दोष उसी का है जिसके माँस में छुरी गपाई जा रही है, जिसके घावों पर नमक-मिर्च बुरका जा रहा है…वह तो बेचारी स्वयं अपनी भावनाओं के आहत होने से पीड़ित है…यह सब करते समय उसे सुख भी वैसा ही मिलता था, जैसे सुख की यादें इस गिरगिट के मुँह से सीत्कारें निकलवा रही हैं, इसके चेहरे पर खुमारी ला रही हैं…प्रेमिका की यह कटाक्ष-कला सुकेत ने झेली थी, उसके लिए अनुपयोगी हो जाने के बाद। सुकेत के लिए बहुत भारी और अबूझ थे वे दिन। समझ नहीं आता था कि ऐसा क्यों? आज एकाएक कौंध—कहीं वह इस गिरगिट द्वारा या इसके गिनाये अजीबोगरीब कमीशनों में से किसी के द्वारा तो तैनात नहीं की गयी थी? कौन कर रहा है निजी रिश्तों और निजी पलों में ऐसी तैनाती? कौन चला रहा है आहत भावनाओं का कारोबार ? किस इरादे से चला रहा है? वह स्त्री उसके जीवन में जैसे अधिकार के साथ घुसी थी, उसने सुकेत को जैसे लुभाया था… क्या किसी  योजना के तहत ? किसकी थी योजना?  क्या अब रिश्ते भी नाकोहस जैसे कमीशनों की देखरेख में बन-बिगड़ रहे हैं?

सुकेत भीतर बीते दिनों को देख रहा था, और बाहर..

…नाकोहस हमारे सामने गिरगिट की शक्ल में खास संदेश लेकर आया है…रंग ओढ़ लो स्वयं आहत होने का, भंभोड़ डालो मगरमच्छी निर्ममता से…तीखी दंत-पंक्ति से, जहरीली जीभ-छुरी से, लोहे की छुरी से भी, भावनाओं को आहत करने वाला अपना हर अधिकार खो चुका, मारो-पीटो, जो चाहो करो… घर फूँक दो उसका, मत देखो कि साथ में तुम्हारा घर भी जला जा रहा है…पल-पल रंग बदलते रहो…अपनी भावनाओं का खेल हो तो हर पिटाई जायज, किसी और की भावनाओं का मामला या तो प्रतिक्रियावाद या राष्ट्रद्रोह…गिरगिट-भाव और मगरमच्छ-ताव दिन-दूने रात चौगुने ढंग से समाज में न पसरा तो नाकोहस के होने का मतलब ही क्या?

ब्लासफेमी वाले लेख के बाद तीनों को कई बार पिटाई झेलनी पड़ी थी, घरों के दरवाजों पर अश्लील गालियों और भद्दे चित्रों का प्रसाद भी  मिला था। अपने-अपने धर्म के नरकों में जाने के सुझाव, और स्वयं नहीं गये तो भेजने की व्यवस्था के आश्वासन भी तीनों को मिले थे…उस वक्त, समझ रहे थे कि लोग पगला गये हैं, आज मालूम पड़ रहा है कि पागलपन में पद्धति थी—मेथड इन मैडनेस। नाकोहस, आभाआ की पद्धति।

डर लगता था, साथ होते थे तो हँसी की ढाल डर के आगे अड़ा देते थे, अकेले में खुद को याद दिलाते थे, डरना इंसानी फितरत है, डर कर घर बैठ जाना, मोर्चे से भाग जाना कमजोरी। कोशिश करते थे साथ-साथ भी, अपने अपने एकांत में भी कि डर इंसानी फितरत ही रहे, भगोड़ी कायरता न बन जाए…आज जो डर सुकेत को लगने लगा था, वह और तरह का था, अपनों से कटाक्ष, गैरों से पिटाई का नहीं, नाकोहस की व्यापकता का डर…मेथड इन मैडनेस का डर…गिरगिट अधिकारी का चेहरा गायब था, मेज के ऊपर अधभर में टँगी लपलपाती जीभ ही दिखी सुकेत को… आवाज सुनाई दी, ‘हम हवा में हैं, हम आवाजों में हैं, हम मुस्कानों में हैं, हम रिश्तों में हैं…कहाँ तक जानोगे कौन कौन है हमारा एजेंट—भद्दा शब्द है एजेंट—सही  नाम है, बौनेसर— बौद्धिक नैतिक समाज रक्षक…वह गाना था ना तुम्हारे बचपन की किसी फिल्म में, ‘जहाँ जाइएगा, हमें पाइएगा…’

याने…याने…शायद रघु भी, शायद खुर्शीद भी…क्यों नहीं…क्यों नहीं…मैं खुद क्यों नहीं…कुछ ही देर पहले मैं निहौरे करती निगाह से निहार नहीं रहा था, इस घिनौने गिरगिट को? कुछ देर पहले लग रहा था, मेरी देह पर नीले धब्बे आ रहे हैं, कहीं इस वक्त मेरी देह का रंग पीला, नारंगी या हरा तो नहीं हो रहा? सुकेत की हिम्मत नहीं हुई अपनी हथेलियों, कलाइयों पर निगाह डालने की…सर्पदेह की जकड़ में तो वह यहाँ आते ही ले लिया गया था, अब उसे जलते तवे पर खड़े होने का भी अहसास हो रहा था…हर तरफ से तपिश की लपटें लपक रहीं थीं, कमरे की जो दीवारें उसे कुछ ही देर पहले बहुत ऊंची लगी थीं, सिकुड़ रही थी, छत धीरे-धीरे, जैसे मजा लेते हुए  नीचे आ रही थी, सुकेत को गोया जिन्दा चिना जा रहा था, वह चीख रहा था, पता नहीं रघु और खुर्शीद तक उसकी आवाज पहुँच रही थी या नहीं…उसने पूरी ताकत से चीख लगाई, ‘छोड़ो हमें, जबाव दो, मुक्ति दो…’ वाकई चीख पाया क्या वह? उसे खुद तो अपनी आवाज सुनाई दी नहीं, औरों ने क्या सुनी होगी…

यह क्या दिख रहा है मुझे…खुर्शीद अपनी जगह से हिल पा रहा है, रघु भी, अरे, मैं खुद भी…हममें से कोई भी एक-दूसरे की तरफ नहीं बढ़ रहा, हम तीनों की गति नाकोहस के गिरगिट की ओर है, हम में से हरेक उस तक बाकी दोनों से पहले पहुँचा जाना चाहता है…क्यों? आखिर क्यों? यकीनन उस की दुम पकड़ कर झटका देने के लिए, उसकी कुर्सी खींच लेने के लिए….या…या…या…इस या के आगे सोचने की हिम्मत नहीं हो रही थी, सुकेत की…ना अपने बारे में, ना बाकी दोनों के बारे में…

तीनों जोड़ी आँखों में डर का घुमावदार गलियारा था, आशंका की  सुरंग थी, जो सामने खड़े इंसान को भेदती जाने कहाँ चली जा रही थी…वे तीनों एक दूसरे को देखना चाह रहे थे, देख रहे थे गिरगिट को, जो पल-पल रंग बदलता बेहद खुश लग रहा था…‘इस मैत्रीपूर्ण वार्तासत्र में आने के लिए आप तीनों का धन्यवाद, विदाई-भेंट के रूप में सलाह है, आप तीनों कुछ दिन आराम करेंगे, चाहें तो घर पर ही, बात ना समझ पाएँ तो शायद किसी नर्सिंग होम में….बट रेस्ट इज ए मस्ट फॉर यौर हैल्थ’, मेज से उठता  गिरगिट मुस्करा रहा था…

सुकेत को यकीन हो चला कि या तो सपना है या हैल्यूसिनेशन, वरना कैसे हो सकता है कि कोई सचमुच का गिरगिट सचमुच की मेज पर सचमुच का सूट पहने बैठा हो और सचमुच की हिन्दी बोल रहा हो… लगता है, आज पीने- खाने में कुछ गड़बड़ की है, इसीलिए इतना डिस्टर्बिंग सपना आया है…जो गालियाँ, पिटाई खाईं, खाते ही रहते हैं, उससे इस घिनौने गिरगिट का, इसके नाकोहस का क्या लेना-देना है…मैं रौब में आ गया हूँ, बाजीगरी तो देखो  बेहूदे की, बंबइया फिल्मों के भाई लोगों की तरह स्टाइलिश धमकियाँ दे रहा है…

‘सुकेतजी, बात हैल्यूसिनेशन की नहीं, भावनाओं के एसेसिनेशन की है, जो आप आगे से ना करें तो अच्छा है…बाई दि वे, कभी घाव पर चलती चींटियाँ महसूस की हैं, आपने?’

अच्छा तो धमकी का स्टैंडर्ड कुछ रचनात्मक हो  रहा है…सुकेत ने रघु और खुर्शीद की ओर ताका, लेकिन उनके चेहरे सपाट थे…याने गिरगिट ने फिर उनके सुनने पर रोक लगा दी है…गिरगिट मेज से उठ खड़ा हुआ, इंसान की तरह चलने के बजाय रेंगने का फैसला किया, दरवाजे तक पहुँच कर उसने ताबड़तोड़ रंग बदले, गर्दन घुमाई, बोला, ‘जिस वक्त आप मुन्ना बर्फ वाले के सुए को याद करके डर रहे थे ना, ऐन उसी वक्त आपके दोस्तों को लग रहा था, उनके घावों पर चींटियाँ चल रही हैं, पूछ लीजिएगा, नाकोहस से बाहर…माफ कीजिएगा…नाकोहस से बाहर तो अब क्या निकलेंगे…इस इमारत से बाहर निकल कर…’

पूछने की जरूरत नहीं थी, रघु और खुर्शीद के चेहरे ही गिरगिट की बात की ताईद  कर रहे थे…जिस वक्त मुझे सुए का डर था, उसी वक्त इन लोगों को घाव पर चलती चींटियों का अहसास…

‘ऐसी की तैसी तेरी,  तेरे नाकोहस की’ आतंक के भँवर में फँसते सुकेत ने प्रतिवाद में पूरी की पूरी ताकत झोंक दी, जोर से चिल्लाया, ‘ऐसी की तैसी तेरी, घिनौना गिरगिट कहीं का, नाकोहस की दुम…’

इस ताकतवर चीख के साथ उसकी  आवाज वापस आ गयी, सुनने की ताकत भी, उस लेख के बाद जो हुआ था, उसे याद करने की कूवत भी…सुकेत को अपनी आवाज सुनते ही उम्मीद बँधी, बस बहुत हुआ, अब आँख खुली जाती है, पसीना जरूर भरा होगा बदन में, लेकिन इस दु:स्वप्न से मुक्ति तो मिल ही जाएगी…

बिस्तर से उतरना चाहा सुकेत ने…यह क्या? टाँगें साथ नहीं दे रहीं, घुटने मुड़ नही रहे, जैसे लॉक कर दिये गये हैं…ओ….कितना दर्द…क्यों? कैसे? हे भगवान…किसी तरह उठ कर, चलने के नाम पर घिसटते हुए वह बाथरूम गया, हिम्मत बाँध कर, वैसे ही घिसटता सा किचन में पहुँचा,चाय बनाने के लिए खड़े रहना जैसे उम्र भर खड़े रहना हो गया, अकेला इंसान…करना तो सब कुछ खुद ही था, आदत भी थी, लेकिन आज जैसा दर्द…पहले कभी नहीं, तब भी नहीं जब पिटाई झेलनी पड़ी थी…किसी तरह वह हाथ में मोबाइल लिये बालकनी तक पहुँचा…सब कुछ सामान्य ही तो है यार…घुटनों में कुछ समस्या है तो चलते हैं ना डाक्टर के पास, किसी दोस्त के साथ, सबसे पहले तो रघु और खुर्शीद को ही बुला लेते हैं…मोबाइल पर नंबर डायल कर ही रहा था कि मैसेजों पर निगाह गयी, कई मैसेज थे, आम तौर से जितने होते थे, उनसे बहुत ज्यादा…आशंकित सुकेत ने मैसेज बाक्स खोला, दर्जनों मैसेज, भेजने वाले वही चंद दोस्त…सूचना एक ही ‘ तुम्हारा फोन मिल ही नहीं रहा है, कहाँ गायब हो तुम, सुकेत, कल रात किसी ने खुर्शीद को सीढ़ियों से धकेल दिया है, रघु का मोटर-साइकिल एक्सीडेंट हो गया है, दोनों हस्पताल में हैं…आपरेशन दोनों के होने हैं, जैसे ही मैसेज देखो, फौरन पहुँचो…’

टाँगे ही नहीं, सुकेत की समूची देह अकड़ गयी, पता नहीं रोमों से पसीना बह रहा है, या गुम घावों पर चींटियाँ चल रही हैं…टाँगों में दर्द जकड़न का है, या मगरमच्छों के चबाने का…चिड़ियों की चहचहाट कानों में गूँज रही है, या गिरगिट की ठंडी आवाज…रीढ़ की हड्डी पर  किसी ने बर्फ की सिल्ली चिपका दी है…सारा शरीर सुन्न…उसके हाथ से मोबाइल फिसल गया, झुक कर उठाना असंभव, झुकने की तो बात क्या, कुर्सी पर बैठना नामुमकिन…घुटने सीधे ही रह सकते थे, वह खड़ा ही रह सकता था या लेटा।  भयानक दर्द पर अब आतंक के नमक-मिर्च की बुरकी भी थी…सुकेत तड़प रहा था, लेकिन तड़प की चीख इंसानी आवाज के बजाय हाथी की चिंघाड़ सी क्यों…सुकेत ने थर-थर काँपते हुए देखा, बालकनी से नजर आती सड़क की ओर, सब कुछ बादस्तूर चल रहा था, धीरे-धीरे बढ़ता ट्रैफिक, तेजरफ्तारी, आवा-जाही, सब कुछ वैसे का वैसा..बस, वहाँ बीचोंबीच… मगरमच्छ इतमीनान से हाथी की टाँगें चबा रहे हैं… हाथी बस चीख सकता है, अपनी जगह से हिल नहीं सकता…

टूट रहे घुटनों पर किसी तरह देह को ढोता सुकेत खड़ा है—महानगरीय फ्लैट की बालकनी में नहीं..किसी पहाड़ी कगार के छोर पर…गिरा तो न जाने कहाँ जाकर गिरेगा… हड्डडियों का भी पता जाने चलेगा या नहीं…

हाथी की चिंघाड़ें करुण रुदन में बदल रही हैं, धीमी हो रही हैं, जमीन पर चिपकी देह में जो थोड़ी-बहुत हलचल थी, वह कम से कमतर होती जा रही है…आँखें आसमान बैकुंठ की ओर तकते तकते अब  अपनी जगह से लुढ़कती जा रही हैं…

पान पत्ते की गोठ

 

‘पाखी’ के फरवरी अंक में प्रकाशित कहानी।

पान-पत्ते की गोठ

पुरुषोत्तम अग्रवाल

 

पलकें बंद हैं, आँखों में आकाश खुला हुआ है… उसका साँवला विस्तार फैलता जा रहा है….दृश्य निरंतर बदल रहा है…जो दीख रहा है,  वह अब तक देखा आकाश ही है, या बंद आँखें अपना आकाश खुद रच रही हैं…

यह जो आवाज गूँज उठी इस आकाश में… अहीर भैरव गाते मधुप मुद्गल, ‘राम, राम, रोम-रोम, मन चित्त राम; राम की दुहाई है…अंतकाल कोई ना सहाई है….’ जब भी सुना है यह भजन, आँखें भर आईं हैं। कैसा तो गाया है मधुप ने…एक एक सुर छू लो,  सुरों में बँधा एक-एक बोल जैसे मन में खुल रहा हो, मेरा अपना स्वर बन कर….आँखें भर ना आएं तो करें क्या; लेकिन, इन सुरों के ऊपर तिरती, ‘अंतकाल कोई न सहाई है’ को पीछे ठेलती यह दूसरी आवाज…? अरे,यह तो अम्माँ की आवाज है, ‘ गोपू रे, तेरे जैसा साधु आया ही क्यों इस कलजुग में रे…’

क्या मैं मर चुका हूँ? अपने आपसे पूछा गोपाल चौरसिया ने।

बेकार की बात….’अतंकाल कोई न सहाई है’ का अहसास  जीवितों को ही होता है, मर चुकों को नहीं। जो मर चुके हैं वे न सवाल पूछते हैं कि मर चुके हैं या नहीं…न मौत के गीत गाते हैं। मृत्यु-विलास तो बस  जीवितों का ही मनो-विनोद है। मृतक अपने आपसे बात नहीं करते, जो जीवित छूट गये हैं, उनसे भले ही कर लेते हों…

कहते हैं, मौत से ठीक पहले के पल में सारी जिन्दगी मन के परदे पर फास्ट मोशन में चलने लगती है… मैं तो यह फास्ट मोशन फिल्म तकरीबन हर रात देखता हूँ, तो क्या मैं हर रात मरता हूँ? कभी-कभी यह फिल्म जागती आँखों भी देखता हूँ…सिर्फ एकांत में ही नहीं, किसी मीटिंग के दौरान, कोई किताब पढ़ते हुए, किसी से बात करते हुए, चलते हुए…तो क्या हर पल मौत से ठीक पहले का ही पल होता है?

वह पल…साइकिल के पैडल तेजी से मारते हुए… यादें अपनी मन-मर्जी से आ-जा रही हैं। बंद आँखों के खुले आकाश में सिलसिलेवार कहानी कहती फिल्म नहीं, प्रयोगवादी, कोलाज की सी फिल्म चल रही है…. पैडलों पर तेजी से चल रहे पाँव केवल साइकिल को आगे नहीं धकेल रहे, उन धोखों, उन उपहासों को पीछे धकेलने की भी कोशिश कर रहे थे, जो बरसों से आत्मा पर गिजगिजे कीड़ों की तरह रेंगते रहे थे….साइकिल तेजी से भागी जा रही थी….फासले पीछे छूट रहे थे, लेकिन  कीड़े थे कि हटने का नाम नहीं लेते थे…कब से चिपके, कितने सारे कीड़े…दिनोंदिन तादाद में बढ़ते कीड़े….छल, इस्तेमाल, विश्वासघात, उपहास के कीड़े…मेरा चेहरा कैसा दिख रहा होगा उस वक्त?  शायद मुर्दे सा, शायद सुलगती चिता सा…

एकाएक वह धक्का….पीछे से आती कार…गिरते-गिरते सुनाई पडीं…हा हा हा की आवाजें…जो अभी भी माँ के डकराने-रोने की आवाज को मुँह चिढ़ाती मेरे कानों में पैठ रही हैं..हा..हा…ही..ही…कैसी रही…अबे निकल…कहीं देख ना ले साला…’ ‘तेरे जैसा साधु रे…’ ‘ अंतकाल कोई न सहाई है…’

‘कहीं देख न ले साला’…हुआ क्या था? कब हुआ था? कुछ ही देर पहले? दिन-दो-दिन पहले? महीनों या बरसों पहले?

 

प्रो. गोपाल चौरसिया कुलपति बन गये थे, अजब -गजब किस्म के कुलपति। वेश-भूषा के प्रति लापरवाही तो चलिए बुद्धिजीवी सुलभ स्टाइल-स्टेटमेंट के खाते में आती थी, लेकिन बाकी हरकतें? किसी भी विभाग में, कभी भी, पहुँच जाना…किसी होस्टल में नाश्ते के वक्त, किसी में लंच के वक्त पहुँच जाना…पहली आदत उन अध्यापकों को परेशान करने लगी थी जो यूनिवर्सिटी को क्लासलेस सोसाइटी बनाने के काम में लगे थे, क्लास में पढ़ाना जिन्हें निहायत उबाऊ और फालतू काम लगता था। दूसरी आदत से वे साँसत में थे जिन पर होस्टलों की जिम्मेवारी थी। शुरु-शुरु में लोगों ने यही समझा कि नया मुल्ला है, ज्यादा प्याज खा रहा है…लेकिन जल्दी ही बात साफ हो गयी कि ईमानदारी से काम करना, चीजों पर निगाह रखना गोपाल चौरसिया का सहज स्वभाव था, नये मुल्ले का प्याज-प्रेम नहीं।

अपने सहज स्वभाव से गोपाल चौरसिया तरह-तरह की ताकतों को असहज किये दे रहे थे। किताबों की खरीद से लेकर इमारतों के निर्माण तक में हुए घपलों की जाँच शुरु हो गयी थी। कोचिंग सेंटरों में पढ़ाने वालों से चौरसिया ने जबाव-तलब कर लिया था। कोढ़ में खाज यह कि नितांत अकेला इंसान था यह, अपने अकेलेपन में पूरी तरह मगन । उस तक कोई समझदारी की बात पहुँचाने का कोई रास्ता कहीं से भी खुलता दिखता ही नहीं था। ना किसी से मिलना ना जुलना, बस दफ्तर, लाइब्रेरी, लैबोरेट्री; और शाम के समय साइकिल-सवारी…वीसी साहब को पता ही नहीं लगता था कि उनकी साइकिल कितने लोगों को ट्रक की तरह कुचलती चली जा रही थी। सामान्य छात्र-जन गोपाल चौरसिया से जितने प्रसन्न, भाँति-भाँति के नेतागण उतने ही दुखी। अध्यापक हो या छात्र, गोपाल चौरसिया किसी से जरूरी काम से ज्यादा का वास्ता नहीं रखते थे। उनसे भी नहीं जो चौरसिया की जाति के ‘पिछड़ेपन’ के  कारण उन्हें ‘अपना आदमी’ मानते थे। उन्हें भी समझते देर नहीं लगी थी, अपनी जाति का भले ही हो, वीसी अपने किसी काम का तो नहीं है।

ताकतवर लोगों के बीच जाति-धर्म निरपेक्ष आम राय बनने लगी थी कि इस वीसी को सबक सिखाना  विश्वविद्यालय के सुचारू संचालन के लिए परमावश्यक है।

सबक सिखाया जाए तो कैसे? जिस आदमी की जीवन-पुस्तिका में किसी पन्ने पर चील-बिलौंटा ना बना हो, किसी पन्ने को छुपा कर रखने की जिसे जरूरत ना पड़ी हो, उसे सबक सिखाएं तो कैसे? जो आदमी कपड़े-लत्तों के मामले में जितना लापरवाह दिखता हो, काम-काज और नियम-कायदे के मामले में उतना ही चाक-चौबंद हो, उसे फँसाएं तो कैसे फँसाएं, कहाँ फँसाएं?

एक तरीका हो सकता था…सूझ प्रो. गोपीनाथ की थी। अपनी मेधा के लिए विख्यात सिंह साहब ने एक रसरंजन-गोष्ठी में गोपीनाथजी का आकलन यों किया था- ‘प्रोफेसर गोपीनाथ बुद्धि-विकास के अवसरों की कमी या सत्संग के अभाव  के कारण बन गये मूर्ख नहीं,  जेनेटिकली डिफाइंड मूर्ख हैं,  गोपीनाथजी की जीवन-संगिनी सरस्वती, श्वसुर ब्रह्मा, गुरु बृहस्पति और सखा वेदव्यास होते तब भी वे मूर्ख ही रहते…’ छात्रों और प्रोफेसरों के बीच, इस आकलन पर आम सहमति बनते देर नहीं लगी थी।

गोपीनाथजी का सुझाव वीसी साहब की साइकिल से जुड़ा था। साइकिलिंग गोपाल चौरसिया का पसंदीदा व्यायाम था। शाम को ही नहीं कई बार रात के समय भी साइकिल पर तेजी से पैडल मारते, कैंपस के चक्कर लगाते वाइस-चांसलर साहब कई लोगों के लिए कौतूहल और प्रेरणा के विषय थे, कई लोगों के लिए जायके के। कुछ लोगों को उनकी इस आदत पर सैद्धांतिक एतराज भी था।  देर शाम, या शुरु होती रात लड़के-लड़कियों के ऐसे मधुर क्षणों की वेला होती थी, जिन क्षणों के बिना यूनिवर्सिटी में आना ना आना बराबर ही कहा जा सकता था। अब बताइये, आपने प्रेमिका का हाथ थामा ही, कमर-बहियाँ डाली ही कि सामने से साइकिल-सवार वीसी साहब प्रकट….कोई बात हुई भला। कार में आएं-जाएं, खुद मस्त रहें, हमें मस्त रहने दें…ये तो साइकिल पर खलीफा हारूँ अल रशीद बने अपने बगदाद के चक्कर काट रहे हैं। यह नैतिक दारोगागीरी नहीं तो और क्या है? नौजवानों की प्राइवेसी का हनन नहीं तो और क्या है? वह भी, इस क्रांतिकारी कैंपस में, जहाँ छात्र-संघ के चुनाव मेस के खाने की गुणवत्ता के सवाल पर नहीं, मार्क्स बनाम गाँधी बनाम आंबेडकर की बहसों  पर जीते और हारे जाते थे…

वीसी साहब की बेवक्ती साइकिलिंग को छात्रों के बीच मुद्दा बनाया जा सकता है, गोपीनाथजी की इस सूझ का सैद्धांतिक प्रतिपादन किया प्रोफेसर पांडे ने, ‘एभरीबडी हैज ए राइट टू प्राइभेसी जी…हाउ कैन ए भीसी…मने…मतलब…’ पांडेजी की अंग्रेजी आगे चल नहीं पा रही थी, सो मिसिरजी ने कुमुक पहुँचाई, ‘ ट्रैम्पल अपॉन डेमोक्रेटिक राइट्स ऑफ यंग जेनरेशन…’

‘वही..वही…’ पांडे जी सप्तम स्वर में चहक उठे, ‘वही तो मैं कह रहा हूँ डॉक सा’ब….युवा पीढ़ी के लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन भला कैसे सहन किया जा सकता है….’

‘मजाक के लिए ठीक है, पांडेजी…’ सिंह साहब गोपीनाथ के बारे में अपना आकलन मन ही मन दोहराते हुए, धीर-गंभीर स्वर में मुखरित हुए, ‘सीरियसली इशू बनाने के चक्कर में मत पड़ जाइएगा….चौरसिया और हीरो बन जाएगा….वह साइकिल पर ही तो घूमता है, किसी लड़के-लड़की को खामखाह टोका है उसने कभी?’

पांडेजी कुनमुनाए जरूर लेकिन कहते क्या? सिंह साहब की बात में दम था। अपनी साइकिल-सैर से लड़के-लड़कियों को होने वाली असुविधा गोपाल चौरसिया समझते थे, जल्दी ही उन्होंने जता भी दिया था कि किसी की निजी जिंदगी में ताक-झाँक करने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं। छात्रों को भी अपने अजब-गजब वीसी के अच्छे कामों की रोशनी में उनकी अजब-गजब हरकतों पर गुस्से की बजाय प्यार आने लगा था। गोपाल चौरसिया छात्रों के बीच वीसी के बजाय  सीवीसी के नाम से लोकप्रिय होने लगे।

सीवीसी याने साइकिल वाला वीसी….

लेकिन पांडेजी, मिसिरजी, गोपीनाथजी जैसी आत्माएँ वीसी के पहले लगने वाले ‘सी’ अक्षर का विस्तार साइकिल शब्द में नहीं, एक ठेठ देशज शब्द में करती थीं…वही शब्द जिसे गोपाल चौरसिया पर स्थायी रूप से चिपका दिया गया था। अपनी छात्रावस्था में वे चूतिया चौरसिया थे, और यहाँ चूतिया वाइस-चासंलर…सीवीसी….

साइकिल वाले वाइस-चांसलर साहब कभी-कभी आधी रात को भी साइकिल लेकर निकल पड़ते थे। देर तक कैंपस में चक्कर लगाते रहते थे। इस वक्त देखने वालों को उनका पैडल मारने का अंदाज अजीब  लगता था। पैडल पर दीवानावर तेजी से चलते पाँव, बदन में अजब सी अकड़ाहट, कंधों के झुकाव में सख्ती, आँखें सड़क से कहीं आगे, दूर निहारती हुईं, चेहरे पर बेबस गुस्सा….आम तौर से बहुत भद्र, बल्कि बेचारे से दीखने वाले गोपाल चौरसिया आधी रात को साइकिल चलाते समय अपने अतीत के न जाने किन प्रेतों से लड़ते थे कि खुद प्रेत जैसे दीखने लगते थे।

‘जरूर कोई प्रेम-प्रसंग है…’ सिंह साहब का अनुमान था, लेकिन इतने चुप्पे आदमी के प्रेम-प्रसंग की खबर निकालें तो कैसे? कहाँ से? कहीं कोई निशान रहा भी हो तो उसे पाना आसान नहीं, और स्वयं चौरसिया को कुरेदना असंभव। सिंह साहब ने बस एक बार संकेत किया था, ‘कोई बता रहा था, डॉक सा’ब कि कल रात आप काफी टेंस थे, साइकिलिंग करते हुए…’

गोपाल चौरसिया की जबावी निगाहें सिंह साहब को भीतर तक चीर गयी थीं। वे आँखें बलि के लिए सजाए जा रहे पशु की थीं, या अपनी पराजय का बोझ ढोते योद्धा की? वे निगाहें तिरस्कृत प्रेमी की थीं, या छले गये मित्र की? उन आँखों के पीछे खुद से हारा हुआ आदमी था, या हर हार को जीत में बदलने पर आमादा इंसान?

बोले कुछ नहीं थे गोपाल चौरसिया…बस हल्की सी मुस्कान, खुद का मजाक बनाता लहजा, ‘ सूरत ही ऐसी दी है भगवान ने…क्या करूँ…’

उस दिन पहली बार सिंह साहब को सीवीसी-चूतिया वाइस-चांसलर- के प्रति करुणा हुई थी…कितना अकेला है यह इंसान…ना कोई भाई-बहन, ना यार-दोस्त…जोरू ना जाता….कोई मधुर प्रसंग जीवन में रहा भी हो…तो अब क्या जासूसी करना उसकी…

यह बात किसी को नहीं बताई, सिंह साहब ने। उनके मन में चौरसिया के प्रति उपहास की जो  विशाल इमारत थी, उसमें कहीं एक छोटा सा कमरा हमदर्दी का बनने लगा था, जिसके बारे में मिसिर, पांडे और गोपीनाथ को बताने का कोई मतलब ही नहीं था।

पांडेजी को सीवीसी के औचक निरीक्षणों से कोई परेशानी नहीं थी। वे तो कहते थे कि सीवीसी चूतिया वाइस-चांसलर से सेंट्रल विजिलेंस कमीशनर ही बन जाएँ तो भी हमारा क्या उखाड़ लेंगे? बात सही थी क्योंकि पांडेजी क्लासलेस सोसाइटी बनाने के लिए नहीं, क्लास को ध्रुपद की तरह खींच देने के लिए विख्यात थे। पांडेजी की कठिनाई यह थी कि वीसी साहब का विषय तो विज्ञान था, लेकिन हिन्दी, अंग्रेजी साहित्य में रुचि रखते थे, सो कभी औपचारिक ढंग से, कभी योंही अनौपचारिक तरीके से छात्रों से बात करने लगते थे। आदत से मजबूर थे, सो शुरु भले ही हिन्दी में हों, बीच में अंग्रेजी में प्रविष्ट जरूर हो जाते थे। पांडेजी का अधिकांश मौलिक लेखन अंग्रेजी में पढ़ी किताबों के ही बूते जिन्दा था, वीसी के साथ दो-चार बार बतिया चुके बटुकों के मन में पांडेजी की तेजस्वी मौलिकता के प्रति अश्रद्धा का उदय होने लगा था।

इस अश्रद्धा के हमलों का मुकाबिला पांडेजी निन्दा की गोलाबारी से कर रहे थे…‘ अंग्रेजी में गोलेबाजी करते रहते हैं …कुछ समझ आता है तुम लोगों को? खाली अंग्रेजी का गोला फेंकने से होता है कुछ?’

कहते कहते पांडेजी ने अंग्रेजी गोले का मुँहतोड़ जबाव देता गोला पार्श्व भाग से दाग ही दिया था। काफी देर से हठयोग सा साध रहे थे, लेकिन उत्साह और हास की अभिव्यक्ति में देह-बल लगा, उसका कुछ प्रभाव अधोप्रदेश तक भी जा पहुँचा और गोला दग गया। कमरा पांडे-गंध से सुवासित और पांडे-ध्वनि से गुंजरित हो उठा। बटुकगण आह्लादित हो उठे; अंग्रेजी के साम्राज्यवाद के विरुद्ध ऐसी वीर-रसपूर्ण और सुवासित ध्वनियाँ इतिहास में कम ही अवसरों पर सुनी गयीं हैं, और फिर यह ध्वनि तो उन आचार्य की देह का प्रसाद थी, जो पिछले अनेक दशकों से अंग्रेजी लेखों और पुस्तकों के अनुवाद को अपना मौलिक योगदान बता कर,  शब्द और कर्म दोनों के जगत को सुवासित किये हुए थे।

पांडेजी ने सिंह साहब, गोपीनाथजी, सुकुलजी आदि समानधर्माओं के बीच ही नहीं, एकाध और जगह भी अपना मूल विषाद प्रकट कर ही दिया  –‘अब लीजिए, ये साले बनिये बक्काल, तेली तंबोली भी भीसी बनेंगे, यह तो टू मच हो गया है जी…’

पांडेजी के विषाद में सारे भद्रपुरुषों के विषाद का योग था। यह विषाद-योग ही वह दार्शनिक आधार था, जिस पर सारे मतभेदों के बावजूद पांडेजी, सुकुलजी, गोपीनाथजी ही नहीं, धीर-गंभीर सिंह साहब भी साथ खड़े थे। इस दार्शनिक आधार को प्रचंड अभिव्यक्ति पांडेजी के गगनभेदी चिंचियाते स्वर में ही मिलती थी—‘चौरसिया…बताइए भला, चौरसिया…तंबोली-तेली; बनिए-बक्काल…सामाजिक न्याय वगैरह ठीक है, हम भी समर्थक ही हैं, मने सोशल जस्टिसवा के… लेकिन भीसी….यह तो सचमुच टू मच है, डॉक सा’ब….’

बात सही थी, फिर भी, विषाद-योग की गुह्यता के उल्लंघन पर सिंह साहब को गुस्सा आया था… ‘यह गोपीनाथ तो अपनी मूर्खता का खोम्चा सजाए घूमता ही रहता है, लेकिन पांडेजी को क्या हो रहा है… गोपीनाथ पर विद्वानों के सत्संग का असर भले ही न पड़ा हो, लेकिन उसके कुसंग में पांडेजी जरूर अपनी जन्मजात चतुराई खोते जा रहे हैं…किसी भी जगह चिंचियाने लगते हैं। बनिये-बक्ककालों, तेली-तंबोलियों को ठिकाने लगाने के लिए धीरज और गंभीरता चाहिए…मुँह से या न जाने कहाँ कहाँ से गोला फेंक देने  से काम नहीं चलता…’

सिंह साहब ने पांडेजी को कई बार समझाया— दिखने में ही भोंदू है, वाइस-चांसलर; पक्का घुन्ना है, सारी खबर रखता है, जानता है, आप लोग क्या क्या कहते हैं, उसके बारे में, यह भी जानता है कि बात-बेबात खड़े होने वाले झंझटों का स्रोत आप ही लोग हैं…सँभल कर रहिए…

 

इस समय आईसीयू के बाहर खड़े पांडेजी का चेहरा पीला है, और सिंह साहब का लाल। मिसिरजी और गोपीनाथजी तो आए ही नहीं कि हस्पताल में जमा बौखलाए लड़के-लड़कियों का झुंड कहीं कुछ कर न बैठे। पांडेजी सिंह साहब के साथ आए थे, वीसी साहब पर हुए कायराना हमले की निंदा की, उनके प्रति मतभेदों के बावजूद अपना प्रेम रेखांकित किया, और किसी के कुछ पूछने या कहने के पहले ही अंदर लपक लिये। सिंह साहब सब-कुछ के बावजूद सम्मान सबका पाते थे, उन्होंने भी दो शब्द कहे, अपराधियों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही की माँग की, गोपाल चौरसिया के प्रति अपने ही नहीं, पांडेजी के भी आदर को रेखांकित किया…और अंदर पहुँचे…

पांडेजी का चेहरा पीलिया के मरीज का सा हो रहा था, चिंघाड़ती आवाज चूं-चूं में बदल रही थी, ‘मने डॉक सा’ब…अब…अब क्या होगा….’

‘घंटा होगा…’ सिंह साहब अपना प्रसिद्ध धीर-गंभीर भाव बनाए नहीं रख पा रहे थे, ‘ लौंडो को लगाते वक्त  पूछा था आपने? क्या होगा…?’

‘अब…डॉक सा’ब…किसी को क्या पता था कि टक्कर इतनी जोर की लग जाएगी, मैंने तो कहा था कि बस जरा सी गाड़ी छुआ देना….पवनकुमार को खासकर समझाया था।’

सिंह साहब आईसीयू की सफेद टाइल जड़ी दीवार निहार रहे थे। एकाएक उनके मन में वीभत्स  विचार आया–इस बेवकूफ पांडे की खोपड़ी दीवार पर दे मारी जाए…तो टाइल का रंग लाल होगा या इसके चेहरे की तरह पीला—बोले सिर्फ इतना, ‘आप धन्य हैं महाराज….भेजा भी तो पवनकुमार को, चौरसिया अच्छी तरह जानता है आपके पवन-प्रेम को…कुछ अंदाजा है, होश में आने पर उसे बस पवन का नाम लेना है, बाकी काम पुलिस ही पवन-वेग से कर लेगी …

 

 

पांडेजी की वामपंथी नास्तिकता पवनगामी हो चली थी, संस्कार-गत स्मृति मन ही मन धारा-प्रवाह बह निकली थी, होंठों की हलचल से सिंह साहब समझ गये, हनुमान-चालीसा का पाठ चल रहा है, ‘रामदूत अतुलित बल-धामा; अंजनि-पुत्र पवन-सुत नामा…’ इस हाल में भी सिंह साहब को हँसी आ गयी, ‘ वाह, क्या बात है पांडेजी, करतूत करवाई भी तो पवनकुमार से, गुहार भी लगा रहे हैं तो पवन-सुत से…’

‘डॉक सा’ब…पलीज…अभी नहीं…’ अब जाहिर हो ही गया था तो पांडेजी थोड़े खुले स्वर में जारी हो गये … ‘महावीर विक्रम बजरंगी; कुमति निवार सुमति के संगी…’

सिंह साहब चुटकी लेने की आदत से मजबूर थे, ‘महाराज, पवनकुमार को अपना बजरंग बनाए घूमते थे, अब बजरंग बली से कुमति-निवारण की अपील कर रहे हैं…’

‘पलीज, डॉक सा’ब’…पांडेजी लगभग रो दिये, ‘दिस ईज़ भेरी बेड…इस मुसीबत…’

सिंह साहब को रहम आ गया, ‘ अब जो हुआ सो हुआ, पांडेजी… पवनकुमार और दूसरे गणों की एलीबाई तैयार करवाइये, गाड़ी इधर-उधर करवाइए… वैसे भगवान की माया कौन जाने…शायद चौरसिया ही बात आगे ना बढ़ाए…आखिरकार भला आदमी है बेचारा…हिम्मत रखिए…और हाँ, रुक क्यों गये…पाठ जारी रखिए, ‘दुर्गम काज जगत के जेते; सुगम अनुग्रह तुमरे तेते’… जारी रखिए…’

 

… इस पल जो याद आया चला जा रहा है, वह मेरा अतीत है, या किसी और का, फिल्म जो चल रही है, वह मेरे जीवन की है या किसी और के जीवन की…या अनेक किन्हीं औरों की…..

माँ की सूरत ऐसे दिखे, डकराहट ऐसे सुनाई पड़े तो समझो अंत…माँ खुद चली जाती है, संतान आए, कभी नहीं चाहती…हालाँकि जानती है कि आना तो हरेक को है…लेकिन फिर भी। अब यहीं देखो कैसे बिगूचन में है, अम्माँ, देख रही है मेरी हालत, लाड़ से गोद में ले लेना चाहती है मुझे…मैं स्वयं भी तो फिर से वही छोटा सा छौना हो गया हूँ, उसका ‘लल्ला’  जिसे अम्माँ हँस कर गोद में ले लेती है…‘आजा बेटा, बहुत दर्द है ना, आ जा मेरी गोद में…ओले मेला छौना…ताता हो गयी….आजा अभी ठीक कर देगी अम्माँ…’ और अगले ही पल रो रही है। जहाँ वह है वहाँ मुझे गोद में लेने की बात भी मन में ला सकी, यह सोचते ही खुद को कोस रही  है…’ना, ना रे…जबान जले मेरी… गोपू तू क्यों यहाँ आए… तू वहीं रह बेटा अभी देखा ही क्या है तूने?’

बहुत देख लिया अम्माँ, बहुत देख लिया…विद्वानों की विद्वता देख ली, क्रांतिकारियों की हकीकत देख ली, सुबह शाम मनुवाद को कोसने वाले पांडों, मिसिरों, गोपीनाथों का सच देख लिया…देख ना तेरा बेटा…यहाँ पट्टियों में लिपटा पड़ा है… बाहर अभिनेता जमा हैं, तेरे दिलीपकुमार, देवानंद और रहमान पानी भरें, इनके आगे…ये सब देख क्या बढ़िया सीनरी रच रहे हैं, दुखी होने की…

… अभी चमकीली आतिशबाजी थी, तेज चलती साइकिल की सनसनाहट थी, सड़क पर धप से गिरने की आवाज थी…सफलता के मद में डूबे शिकारियों के ठहाके थे…और. अभी-अभी अम्माँ की यह डकराहट…अम्माँ तो कब की चल बसी…हाँ, तो याद ही आ रही है ना…

नही…अम्माँ मेरी यादों में नहीं बोल रही, अम्माँ इस आकाश में, पल-पल रंग बदलती यादों की, चोटों की, दर्दों की इस चमकीली आतिशबाजी के बीच बोल रही है, मुझे गोद में बुला रही है…

अम्माँ किताबें ठीक कर रही है, बाबूजी से झगड़ रही है कि दुकान जाएगा, तो गोपू पढ़ेगा कब…‘अरे, तो पढ़ के कौन सी स्वर्ग में सीढ़ी लगानी है तेरे बेटे को री…चल खैर तेरी मर्जी…जब तक देह चल रही है तब तक तो चल ही रही है…’ दुकान भेजने का आग्रह करके बाबूजी परंपरा निभाते थे, और अम्माँ के जरा से प्रतिवाद के सामने समर्पण करके बेटे की संभावनाओं में झाँकते भविष्य की ताईद करते थे…गोपाल को संकोच होता था, दुकान पर इतना काम…बाबूजी अकेले…

दुकान सूरजनारायण के मंदिर के सामने हुजरात रोड के कोने पर थी । छोटी सी, लेकिन बेहतरीन पान-पत्ते बाजिव दाम पर बेचने के लिए मशहूर। ग्राहकों में पनवाड़ियों से ज्यादा थे पान के शौकीन आम गृहस्थ। देसी बिलौआ, कलकतिया, बनारसी, मगही सभी तरह के पत्तों की दर्जनों गड्डियाँ रोजाना इस दुकान से निजी पानदानों तक का सफर करतीं थीं। पनवाड़ी ग्राहक  ‘दाम कम पत्ते ज्यादा’ की चाल पर चलना चाहते थे; स्वाद का क्या है, वह तो बीड़ा बनाने के पहले मसालेबाजी करके सँभाल ही लिया जाएगा….बाबूजी को यह बात सुहाती नहीं थी। चीज़ बढ़िया बेचनी है, दाम ज्यादा होने के कारण कम बिक्री की परवाह वे करते नहीं थे। नतीजा—प्रतिष्ठा देवी की कृपा बनी हुई थी, लेकिन श्रीलक्ष्मीजी सदासहाय का भंडार सदा भरा रहने की बस कामचलाऊ  रहता था।

उसी कामचलाऊ भंडार में कतर-ब्योंत करके बाबूजी ने अम्माँ के लाड़ले, साधु-स्वभाव बेटे को ऊंची पढ़ाई के लिए घर से दूर, शहर से दूर भेजा था। अम्माँ बड़ी शान से कहती थी, पड़ोसिनों, सहेलियों से—‘मेरा गोपू दसवीं-बारहवीं पास करके दुकान पे नहीं बैठने वाला, वो तो सोलह जमात पढ़ेगा….उसके बाद विलायत भी जाएगा…’

पढ़ने के लिए तो गोपाल चौरसिया विलायत नही जा सके, हाँ, पढ़ाने के लिए कई बार गये। खुद की पढ़ाई के लिए यही क्या कम था कि पान-पत्ते की गोठ से निकल कर देश की राजधानी के जाने-माने शिक्षा-संस्थान तक पहुँच पाए…

उस शिक्षा-संस्थान में पहला दिन…पान-पत्ते की गोठ के रहवासी का ताकत-कुर्सी, चमक-दमक की गोठ के निवासियों से पहला वास्ता…

‘नाम?’

‘जी, गोपाल चौरसिया…’

पीछे से सर पर धप्पा… ‘जी-वी नहीं, बेटा, सर…सर बोलते हैं, सीनियर्स को…’

एक और धप्पा… ‘ और सीनियर की जगह सामने सीनियरनी हो तो सर नहीं, मै’म…समझे कुछ सर गोपाल चौरसिया?’

सामने से अगला सवाल, ‘एड्रेस  क्या है सर गोपाल चौरसिया का?’

‘ जी…मतलब…सर…पान-पत्ते की गोठ…’

वाक्य पूरा होने के पहले ही आश्चर्य भरा ‘ऐं?’

‘अबे चूतिया….’ ऐं का समाधान करती एक आवाज बगल से, किसकी, नहीं पता क्योंकि जिस फ्रेशर की धुलाई की जा रही हो, उसका आँख उठाकर इधर-उधर देखना वर्जित था, केवल आवाज सुनी जा सकती थी, जो सामने वाले प्रश्नकर्ता के लाभार्थ अवतरित हुई थी, ‘…इंजीनियर कहीं के, कुछ लिट-फिट पढ़ा कर; खासकर राष्ट्रभाषा का; तो समझ पाएगा कि हिज हाइनेस तंबोली खानदान से ताल्लुक रखते हैं, और पान पत्ते की गोठ आपकी खानदानी रियासत का नाम है, गोठ माने गली दैट इज़ एली फॉर कल्चरल इललिटरेट्स लाइक यू…हिज हाइनेस सर गोपाल चौरसिया माँ-बाबूजी ऑर मे बी, अम्माँ-दादा के महान  सपनों को पूरा करने के इरादे से इस तुच्छ संस्थान को धन्य करने पधारे हैं…’

‘ सर गोपाल चौरसिया बहुत लंबा है यार, हिज हाइनेस के लिए छंगा सर विल बी मच मोर एप्रोप्रिएट…देख क्या सैंपल है पान-पत्ते की गोठ का…मेरे हाथों में छह छह उंगलियाँ हैं, समझो बलम मजबूरियाँ हैं….’

रोक नहीं पाया था, अपनी तड़प को गोपाल, लेकिन क्या तड़प…बस आँख ही तो उठी थी कि तीन-चार थप्पड़….’ आँख नीचे, आँख नीचे…आँख लाल नहीं करने का, वरना साले रात को होस्टल में पूरे का पूरा लाल हो जाएगा, छंगे से छक्का बन जाएगा, एक ही रात में…पूरी टीम बैटिंग करेगी….जिंदगी भर टाँगें चौड़ी की चौड़ी रहेंगी…’

यह विज्ञान की उच्च शिक्षा के लिए बना इलीट संस्थान था, जल्द से जल्द अमेरिका प्रस्थान कर जाने की राह देख रहे भारत-भविष्यों के लिए बनाई गयी सराय थी। भारतीय दरिद्रनारायण के मत्थे कम खर्च में बेहद महंगी शिक्षा हासिल कर रंग-बिरंगे भारत-भविष्य यहाँ से पश्चिमोन्मुखी हो जाते थे, वहाँ पहुँच कर भरे गले से घोषणाएँ करते थे—आई लव माय इंडिया…। ठीक ही है, प्रेम विरह में  पनपता है, तो क्यों न खुद ही विरह-दशा की रचना करके विरह-गीत गाया जाए—आई लव माय इंडिया…

संस्थान से निकलने के बाद भी, यहाँ उन्हें दे दी गयी पहचान ने गोपाल चौरसिया का पीछा कभी नहीं छोड़ा….पीठ पीछे तो अनिवार्य रूप से, कभी-कभी मुँह पर भी, तिर्यक भाव से उन्हें याद दिलाया जाता रहा था कि वे सबसे पहले और सबसे बाद हैं –छंगा तंबोली, चूतिया चौरसिया— ही…

उपकुलपति प्रो. गोपाल चौरसिया…अस्पताल के बिस्तर पर इस पल…कोई ना कोई आवाज आती है… कह जाती है—छंगा तंबोली..छंगा तंबोली…चूतिया चौरसिया…चूतिया चौरसिया…

इन्हीं आवाजों के बीच गूँज रही हैं, पान पत्ते की गोठ की आवाजें। महानगर में रहते रहते खुद गोपाल चौरसिया को पान-पत्ते की गोठ अजनबी लगने लगी थी….पान पत्ते की गोठ…क्या बेतुका नाम है…क्यों नहीं मेरी गली का नाम महारानी लक्ष्मीबाई वीथिका हो सकता था, या कम  से कम पटेलनगर या नेहरूनगर जैसा कुछ…पान पत्ते की गोठ…किसी को बताते ही अटपटी हँसी झेलने को तैयार रहो….

लेकिन इस पल वे छिप जाना चाहते थे उसी पान पत्ते की गोठ की गोद में। अम्माँ तो रही नहीं, लेकिन गोठ सारे बदलावों के बावजूद है वहीं की वहीं…कुछ लोग जरूर चाहते थे कि उसे कोई  सुसंस्कृत नाम दे दिया जाए। एक प्रस्ताव तो यह भी था कि गोठ को यहीं के सपूत, विश्व-विख्यात वैज्ञानिक गोपाल चौरसिया का ही नाम दे दिया जाए, गोपाल चौरसिया ने सख्ती से मना कर दिया था। बीच-बीच में पान-पत्ते की गोठ से ही नहीं, अपने शहर भर से गोपाल चौरसिया को  चिढ़ होने लगती थी, अजीब था इस शहर का मिजाज, अपने रूखड़ेपन पर गर्व करता, अपने हैंकड़पन पर इतराता…

इस पल, चिढ़ नहीं, केवल दर्द है…अपनी देह का ही दर्द नहीं, अपने रूखड़े, हैंकड़ शहर का भी दर्द…उस शहर के लिए तड़प रहे हैं, गोपाल चौरसिया… अपनी खुद की पान पत्ते की गोठ रच रहे हैं गोपाल चौरसिया…उसी में विचर रहे हैं गोपाल चौरसिया….

‘चौरसिया’— इस शब्द पर ही तो अपनी विद्वता और विट के लिए देश-देशांतर में मशहूर सिंह साहब ने जुमला जड़ा था, ‘भई इस चौरसिया में चार ही रस हैं ना, गायब कौन से कौन पाँच हैं….मौजूद कौन से चार हैं…किन चार रसों से बने हैं चौरसियाजी…रसराज श्रृंगार का तो अता-पता नहीं, हास्य के आलंबन हैं…उत्साह से भरपूर हैं, यह हुआ वीर-रस, और पांडेजी, बुरा मत मानिएगा, आप सज्जनों के मन में भय का संचार तो किया ही है चौरसिया ने, सो तीसरा हुआ भयानक…अब चौथा…’

‘ हें हें…डॉक साब’, भयभीत होने की सचाई पर खिसियाई हँसी का आवरण डालते हुए पांडेजी ने ही चौथा रस बताया था…’अद्भुत…बल्कि वही मुख्य रस  है….कैसे कैसे अद्भुत नमूने हैं मेरे भंडार में, यही प्रमाणित करने को उतारा है धरती पर परमेश्वर ने अपने भीसी साहब को…सो, चौरसिया के चार रस हुए…, हास्य, वीर,  भयानक और अद्भुत…’

‘ बाकी पाँच भी धीरे धीरे खुलेंगे…चौरसिया तो वीसी बनने के पहले थे ना, कुछ ही दिनों में नौरसिया हो ही जाएंगे….वीभत्स और करुण समेत…’

सिंह साहब की बात आज सच ही लग रही है। सिंहों, पांडों, मिसिरों, गोपीनाथों की वीभत्सता ने चौरसिया को करुण दशा में पहुँचा दिया है….चौरसिया से नौरसिया….

अपनी नियति पर मुस्कराहट रोकते नहीं बनी गोपाल से…पिटा हुआ इंसान इतना तो कर ही सकता है…चार रस वाला चौरसिया मुस्करा रहा है, ‘सिंह साहब, रसराज भी था मेरे जीवन में, सो पँचरसिया कहिए मुझे, कोरा चौरसिया नहीं…’

 

…उसकी हथेलियाँ मगही सी थीं, नन्हीं-नन्हीं चिकनी और कोमल…और मेरे हाथ बिलौआ से, बड़े-बड़े, जरा कड़क से। बिलौआ गाँव के पान-पत्ते की विशेषता ही यह कि कत्था-चूना लगा  कर जब बीड़ा बनाया जाए तो मुड़ने के कारण कड़क पत्ते की देह दरकने लगे…. और मगही ऐसा कि बीड़ा बनाने वाले को भी लगे कि कितनी कोमल देह उसकी अंगुलियों का स्पर्श पा रही है….

उसके हाथ मगही से, मेरे बिलौआ से…यह बात बस पल भर को,  मन के आकाश में  कौंध कर ही वहीं लुप्त हो गयी थी। कह तो खुद से ही नहीं पाया गोपाल…उससे क्या कहता…मन का सेंसर धमकाने लगा था, ‘साले,  इस पल भी तंबोलीपन से बाज नहीं आ पा रहे हो…’ खुद पर झेंप होने लगी थी। पान पत्ते की कौंध दबा कर कवि की उधार पंक्ति से काम चलाया था, ‘उसका हाथ हाथ में लेते हुए मैंने सोचा, दुनिया को हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए…’

दुनिया को मगही पत्ते की तरह नर्म, सुंदर और सुडौल क्यों नहीं होना चाहिए?

दुनिया की कड़क-दरक को बिलौआ की तरह क्यों नहीं कहा जाना चाहिए?

उसके हाथ को मगही और अपने हाथ को बिलौआ की तरह क्यों नहीं देख पाया मैं?

इस वक्त गोपाल चौरसिया के मन में दर्द इस बात का कि सारिका के मन के कत्थे में बुरादे की मिलावट क्यों नहीं देख पाया मैं…

मेरे अस्तित्व के तने पर कठफोड़वा की तरह अपने कटाक्षों  से, तानों से जो खोखल उसने रचे, उन्हें वक्त रहते क्यों नहीं देख पाया मैं? जिससे भरोसा पाने का भरोसा था, उसके, सारिका के ताबड़तोड़ लांछनों का जबाव देते क्यों नहीं बना मुझसे… मन में कौंधा जरूर, लेकिन मुँह से  क्यों नहीं निकला था…क्यों नहीं कह पाया कि कुछ दिन के लिए यह लगने की देर थी कि मैं किसी बड़े पद पर नहीं पहुँच पाऊँगा और तुम्हें पिंड छुड़ाने की हड़बड़ी पड़ गयी थी, सारिका….

दर्द गोपाल को कोई आज ही नहीं हो रहा था….आधी रात को पागलों की तरह साइकिल चलाता गोपाल बेबस क्रोध, तन-मन को निचोड़ते दर्द और परास्त प्रेम के प्रेतों से ही तो लड़ता था… मन से उठती चीख को चुप्पी में बदलने की कोशिश ही तो उसके चेहरे को मुर्दे की तरह ठंडा या जलती चिता की तरह सुलगता बना देती थी….

ऐसा ही था वह पल भी… साइकिल के पैडल तेजी से मारते हुए, अपने आपको कोसते हुए, सन्नाटे को चीरती चीत्कार मन के आकाश में सुनते हुए, लगा था कि साइकिल की सीट की जगह बदन के नीचे आकाश का खालीपन आ गया है…वह पल नहीं, बस पल का छोटा सा टुकड़ा था, जब सड़क से टकराते बदन ने अजीब सी थप की आवाज सुनी थी…सन्नाटे की आवाज…

 

सिंह साहब डॉक्टर की अनुमति लेकर कमरे के भीतर आ चुके थे। बिस्तर के पास खड़े देख रहे थे, उन्हें दया आ रही थी, इस अभागे पर; जाने जिएगा या मरेगा…कितना बदमाश है पांडे…मजाकबाजी अपनी जगह, उखाड़-पछाड़ अपनी जगह…चलता है यह सब…लेकिन शुद्ध गुंडई…ऊपर से कहता है,  ‘बस गाड़ी जरा सी छुआ देने भर को कहा था…ताकि वीसी साहब छंगे तो हैं ही कुछ दिन लंगड़े रहने का भी सुख उठा लें…हें…हें…हें….’ अब साला हनुमानजी को मक्खन लगा रहा है…कुमति का संग खुद करें, सुमति इन्हें हनुमानजी दिलवाएँ…बेहूदे कहीं के…लेकिन वीसी ठीक हो जाएँ तो अनुरोध तो करूँगा कि  माफ कर दें, पुलिस को नाम ना दें…जेल जाना पड़ा तो झेलना तो पांडे के परिवार को पड़ेगा, पूरी कम्युनिटी की दुनिया भर में भद्द उड़ेगी, सो अलग….

 

… ‘राम, राम, रोम-रोम, मन चित्त राम; राम की दुहाई है…अंतकाल कोई ना सहाई है….’जब भी सुना है यह भजन, आँखें भर आईं हैं। कैसा तो गाया है मधुप ने…एक एक सुर छू लो,  सुरों में बँधा एक-एक बोल जैसे मन में खुल रहा हो, मेरा अपना स्वर बन कर….आँखें भर ना आएं तो करें क्या….

नहीं चाहिए ऐसी कातरता का वितान…नहीं चाहिए राम का नाम, कबीर का गान, मधुप का स्वर….नहीं चाहिए मुझे….बंद करो यह भजन… चुप रहो, मुझे कुछ कहना है, मेरी सुनो…

गोपाल चौरसिया कुछ कहना चाहते थे… बचपन से अब तक की चुप्पियाँ, अब तक झेले गये अपमानों और षड़यंत्रों की स्मृतियाँ, छंगा तंबोली, चूतिया चौरसिया होने के सुलगते विरदगान…तेली-तंबोली के वीसी बन जाने पर भद्र पुरुषों की पीड़ा, उस कार के धक्के से साइकिल की सीट से एकाएक शून्य में पहुँच जाने के अहसास का शॉक, तन के तने पर कठफोड़वा की चोंच के लगातार प्रहार से बने खोखल पर अपना खोखला गुस्सा…अम्माँ की लोरियाँ, बाबूजी के कँधे पर सवार होने की स्मृतियाँ…सारिका की मीठी आवाज के सुर…इस्तेमाल किये जाने के दर्द, बेबसियाँ, बेवकूफियाँ…सब कुछ…पान पत्ते की गोठ की गंधें-दुर्गंधें, उस गोठ के अंधेरे मकान से लेकर विशाल वीसी निवास तक की स्मृतियाँ ,सब उनके कंठ तक आ रही थीं, सारी ताकत अपने वजूद की लगा कर वे संजो रहे थे यह सब…उन्हें कहना था कुछ…कैसे कहें, किससे कहें…शुभ पाने का सुख, सुख देने वालों को शुक्रिया….दुख पाने की चोट…दुख देने वालों को माफी…

‘पांडेजी…’ बहुत धीमे स्वर में नाम उच्चारा, प्रो. गोपाल चौरसिया ने….

पास ही खड़े सिंह साहब ने झुक कर ध्यान से सुनने का जतन किया, बेशक, गोपाल चौरसिया पांडेजी को ही याद कर रहे थे। अच्छा लगा सिंह साहब को। बच जाए तो अच्छा है…आखिरकार सहयोगियों के बीच उपहास का पात्र यह छंगा तंबोली स्टूडेंट्स के बीच तो काफी लोकप्रिय था…

था नहीं…सिंह साहब ने खुद को दुरुस्त किया…है…और भगवान करे कि ‘है’ के ‘था’ में बदलने की नौबत ना आए…गोपाल चौरसिया इस हाल में पांडेजी को याद कर रहे हैं…वैर नहीं रहना चाहिए…हो सकता है, भगवत्कृपा से बच ही जाएं वीसी साहब…और यदि वक्त आ ही गया है…तब भी, दोनों ही हाल में मन में वैर का रहना ठीक नहीं, पांडेजी को भी कुछ पछतावा तो है ही…इस वक्त जता दें…बात खत्म हो, बाद की बाद में देखी जाएगी। वीसी साहब चल बसे तो, और चलते रहे तो भी… आखिरकार हानि-लाभ जीवन-मरण, जस-अपजस विधि हाथ…देखा जाएगा…अभी तो किसी तरह कुछ सँभाल हो…

दरवाजे के पास पहुँच कर, बाहर झाँका सिंह साहब ने, ‘पांडेजी, जरा आइए…’

पांडेजी हनुमान-चालीसा का मौन पाठ जारी रखे हुए अंदर आ गये, सिंह साहब से आँखों-आँखों में ही पूछा ‘क्या बात है?’ सिंह साहब ने धीरे से कहा, ‘ पास जाइए,  चुप रहिएगा, आपका नाम ले रहे हैं, शायद माफ करने जैसी बात करेंगे, बेचारे भले आदमी ठहरे…’

पांडेजी हनुमानजी से निस्तार की अपील करते-करते ही, बिस्तर की ओर बढ़े, पास पहुँच कर झुके, गोपाल चौरसिया के मुँह से फिर आवाज निकली, आँख एक पल को खुली, ‘पांडेजी…’

जी..जी मैं ही हूँ….

पांडेजी झुके…

पांडेजी झुके हुए हैं, सोच रहे हैं क्यों बुलाया मुझीको इसने, कहना क्या चाहता है मुझसे…

मुँह में कुछ हरकत हुई, जो कुछ गोपाल चौरसिया ने जिन्दगी भर एकत्र किया था, निकला… कोई शब्द नहीं, सिर्फ एक आवाज– बलिपशु की आखिरी चीख सी, मरते योद्धा की अंतिम ललकार सी… अस्पष्ट लेकिन दमदार…और साथ में था, ना जाने कबसे बाहर आने का रास्ता तलाशता, अपने वजूद में सारे आस-पास को समोता गुस्सा….सारे तिरस्कारों का जबाव देता पान पत्ते की गोठ के रहवासी का तड़पता धिक्कार, पांडेजी के सारे चेहरे को  लथेड़ता, बेबसी में सुलगता थूक का थक्का…

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

‘पैरघंटी’–‘नया ज्ञानोदय’ जून 2013 में प्रकाशित

पैरघंटी

सत्यजितजी का स्वरूप बड़ी तेजी से बदल रहा था। अधीनस्थों, खासकर निचले तबकों से संबंधित अधीनस्थों की चमड़ी कोड़े की तरह उधेड़ने वाली उनकी जबान पुचकार पाने को व्याकुल, लप-लप करती जीभ में बदलती जा रही थी। जिस कंठ-स्वर को सिंह-गर्जना का मानव-संस्करण मान, वे अपनी वंशावली पर गर्व करते थे, वह स्वर कूं-कूं की निरीहता पहले ही ओढ़ चुका था। देह दो पैरों की मुद्रा त्याग कर चारों पैरों पर आ चुकी थी। शरीर के पार्श्व भाग में, बढ़िया कपड़े के पैंट में से दुम धीरे-धीरे निकल रही थी, और तेज-तेज हिल रही थी।

उच्चकुलोद्भव, उच्चाधिकारी श्री सत्यजित इस समय मंत्रीजी के गुस्से को पुचकार में बदलने की साधना कर रहे थे। इस गुह्य साधना का साक्षी कोई नहीं था, सिवा साधक और साध्य के। हाँ, गगनविहारी देवता अवश्य यह दृश्य देख रहे थे। देख रहे थे, और बोर हो रहे थे। वे ऐसे दृश्य अनादि काल से देखते आ रहे थे, और चट चले थे। जिन्हें देवयोनि प्राप्त किये बहुत समय हो गया था, ऐसे देवताओं की बोरियत तो अब फटीग में बदलती जा रही थी। वे सब कुछ दिखाने वाली दिव्य-दृष्टि को कोसने लगे थे, मनुष्यों से ईर्षा करने लगे थे जो दिव्य-दृष्टि से वंचित होने के कारण, सब कुछ देखने से तो बचे ही रहते हैं, और जो देख सकते हैं, वह भी आम तौर से या तो देखते ही नहीं, या देख कर भी अनदेखा कर देते हैं।

इस समय श्वान-आसन साध रहे सत्यजितजी को उनके वैकुंठवासी पिताश्री प्यार से ‘राजन’ कहा करते थे। सत्यजितजी से जिनका वास्ता पड़ता था, वे सब जानते थे कि उनकी कृपा-दृष्टि उपलब्ध कराने वाला जंतर यही संबोधन था- ‘राजन’। उधर, मंत्रीजी के कैलासवासी पिताश्री उन कोई साढ़े-पाँच सौ श्रेष्ठ जनों में से थे, जिन्हें हर मैजेस्टी की कृपावंत हुकूमत ने ‘आलीजाह-बहादुर’, ‘दरबार’, ‘श्रीमंत’ आदि बनाए रखा था, और जिन्हें अपने जीवन-काल में कलि-काल का यह पातक देखना पड़ा कि देखते-देखते ही वे सल्तनते-बरतानिया के फर्जन्द-ए-खवास से भारत माता की संतान बनने को बाध्य हुए।

मंत्रीजी के स्वर्गवासी पिताश्री उनकी कुर्सी के ठीक सामने एक शानदार तस्वीर में मौजूद रहते थे। आबनूस के रोबीले फ्रेम में मढ़ी इस तस्वीर में स्वर्गवासी महाराजा के साथ स्वयं हिज एक्सीलेंसी वायसराय मौजूद थे। कुछ दरबारी मौजूद थे, पृष्ठभूमि में चंद जी-हजूरे भी मौजूद थे, हिज एक्सीलेंसी, महाराजा और दरबारियों के हाथों में राइफलें मौजूद थीं, जी-हजूरों के हाथों में तोड़ेदार बंदूकें मौजूद थीं, और नीचे की तरफ…

नीचे की तरफ वह शेर मौजूद था, जिसे सौ-पचास हाँके वालों की मेहनत के जरिए, पेशेवर शिकारियों की दक्षता के जरिए मारकर हिज एक्सीलेंसी और महाराजा ने ‘लाजबाव’ बहादुरी से शिकार करने का गौरव प्राप्त किया था। अपनी मौत में भी रोबीले दिख रहे शेर के सिरहाने हिज एक्सीलेंसी दि वायसराय खड़े थे, पाँव उसके सर पर और राइफल जमीन पर टिकाए। सल्तनत-ए-बर्तानिया के फर्जन्द-ए-खास महाराजा की भी राइफल जमीन पर टिकी थी, लेकिन पाँव शेर के सर पर नहीं दुम पर था।

कहाँ वह ज़माना कहाँ यह गया-गुजरा वक्त कि एक दिन तो यह शानदार तस्वीर कुछ देर के लिए ही सही, दीवार से हटानी पड़ गयी थी। मंत्रीजी नोट करते थे कि उनके कमरे में आने वालों में से कई लोगों को यह तस्वीर विभिन्न कारणों से खटकती थी…खटकती रहे…ब्लू ब्लड जिनकी शिराओं में बह रहा था, रायल खानदान के रोशन चिराग़ वे मंत्रीजी नसों में लाल खून लिए घूमने वाले ऐं-वें टाइप्स की परवाह क्यों करें? बल्कि इन लाल खून वाले हकीर इंसानों में से कुछ का तो खून लाल से सफेद हो गया था, इतने गुस्ताख़ हो गये  थे ये बेहूदे कि मंत्री जी को ‘महाराजा’, ‘श्रीमंत’ जैसे उचित संबोधनों की बजाय बस श्री या जी लगा कर या सर या महोदय कह कर संबोधित करते थे…ब्लडी इडियट्स, डर्टी फिल्द…

ऐसे मूर्खों की तो उपेक्षा ही उचित थी, लेकिन जब वर्ल्ड वाइल्ड-लाइफ फंड का एक शिष्ट-मंडल प्रोजेक्ट टाइगर की फंडिंग डिसकस करने के लिए आया था, तो इसी सत्यजित ने जान हथेली पर रख कर श्रीमंत को सलाह दी थी कि कुछ देर के लिए शेर के शानदार शिकार की यह जानदार तस्वीर कमरे से हटा दी जाए। सलाह सही थी, यह तब जाहिर हो गया जबकि शिष्ट-मंडल के एक सदस्य ने यह सुझाव दे डाला कि निजी संग्रहों से नहीं, तो कम से कम सरकारी और अर्द्ध-सरकारी संग्रहालयों से ऐसी सभी ‘ऑब्सीन’ तस्वीरें, पेंटिंग्स आदि हटा दी जाएं जिनमें अंग्रेज अफसर और उनके ‘नेटिव’ चापलूस शिकार किये हुए शेरों के साथ ‘वल्गर’ पोज दे रहे हैं। सुझाव देने वाला गोरी चमड़ी में न मढ़ा होता, तो अपने स्वर्गीय पिताश्री का अप्रत्यक्ष ही सही, इस गये गुजरे जमाने की वजह से ऐसा घोर अपमान करने वाले की चमड़ी खींच कर उसमें,  भुस भले न भर पाएं, श्रीमंत किसी और ढंग से हरामजादे को ठीक तो कर ही देते। लेकिन, एक तो गोरा, ऊपर से फंड का मामला, मंत्रीजी अपने ब्लू बल्ड का घूँट पी कर रह गये थे। मन ही मन सत्यजित की दूरंदेशी की तारीफ भी की।

उस दिन के बाद से,मंत्रीजी सत्यजित को अपना खास मुसाहिब मानने लगे थे, इस मान्यता के कारण सत्यजितजी का आलम सातों दिन चौबीसों घंटे यह रहने लगा कि ‘आजकल पाँव जमीं पर नहीं पड़ते मेरे…’

यह तस्वीर मंत्रीजी की मेज के ठीक सामने थी, और उसी मेज के नीचे थी वह पैरघंटी—फुटबेल—जिसके कारण सत्यजितजी इस समय श्वान-नृत्य कर मंत्रीजी को रिझाने की साधना कर रहे थे।

बात यह थी कि मंत्रीजी चपरासी को बुलाने के लिए हाथघंटी और पीए को बुलाने के लिए इंटरकाम का उपयोग नहीं करते थे। उन्हें अपनी मेज पर घंटी रखना सुहाता नहीं था, और इंटरकाम पर वे केवल अपने जूनियर मिनिस्टर से बात करते थे, सो भी बेमन से। घंटियों को मंत्रीजी मेज के ऊपर नहीं, मेज के नीचे, पाँव की पहुँच में रखते थे, एक चपरासी के लिए, एक पीए के लिए…

यहाँ तक तो सत्यजितजी के हिसाब से भी बात ठीक ही थी। चपरासी हो या  क्लर्क ग्रेड का पीए, ये सब इसी लायक हैं कि इन्हें हाथ के इशारे पर नहीं, पैर की ठोकर पर रखा जाए…लेकिन अब यह तो ठीक नहीं ना कि…क्या कहें, कैसे कहें…

मंत्रीजी अपने पीए को ही नहीं, पीएस याने श्री सत्यजित आईएएस को भी पैरघंटी से ही बुलाते थे। चपरासी और आईएएस को बुलाने का ढंग एक ही हो, यह तो प्रथम दृष्ट्या ही गलत था, ऊपर से घंटी भी हाथ से बजने वाली नहीं, पैरघंटी…इजंट इट टू मच, यार…

सत्यजितजी को बेहद बुरा लगता था मंत्री महाराजा का यह अविवेक; लेकिन आईएएस ट्रेनिंग की औपचारिक शिक्षा याद रही हो न रही हो, सार की बात अन्य बंधु-बांधवों की तरह उन्होंने भी मन में गोया फेविकोल से चिपका ली थी- निचले पायदान वाले के सर पर पाँव, और उपरले पायदान वाले के पाँव पर सर रखे रहना ही तरक्की की सीढ़ियाँ चढ़ते चले जाने का असली मंतर है। सो, पैरघंटी से बुलाए जाने को लेकर अपनी असुविधा उन्होंने मंत्रीजी के सामने जाहिर कभी नहीं होने दी थी। फायदा क्या था? कितनी भी खिसिया ले, बिल्ली खंभे का नोच क्या सकती है, उखाड़ क्या सकती है?

गुस्सा तो आता ही था, सो उसे  झेलने के लिए थे ना बहुतेरे तुच्छ प्राणी, जिनके अस्तित्व पर सत्यजित की जबान गुलामों के मालिक के हंटर की तरह चलती थी, जिनके कानों की तरफ सत्यजित के शब्द ताजा फटे ज्वालामुखी के खौलते लावे की तरह लपकते थे। इन्हीं तुच्छ प्राणियों में से एक इस वक्त सूली चढ़ी बैठी थी सत्यजितजी के कमरे में जबकि पैरघंटी की बुलाहट सुन कर उन्हें मंत्रीजी के चैंबर की ओर लपकना पड़ा था, उस हरामजादी काली-कलूटी ओबीसी को वार्न करके ही निकले थे सत्यजितजी कि जब तक वापस ना आएं, खबरदार, हिलना मत, यहाँ से। मंत्रीजी के कमरे की ओर लपकते हुए सत्यजित की भुनभुनाहट जारी थी…’सर ही चढ़ते चले जा रहे हैं, यार ये लोग तो, इस को तो यह गुमान भी  है ना कि बिना रिजर्वेशन के सर्विस में आई है, आई होगी, रहेगी तो ओबीसी ही ना, रिजर्वेशन नो रिजर्वेशन….खानदान थोड़े ही बदल जाएगा, औकात थोड़े ही बदल जाएगी…बैठी रहना, अभी वापस आकर बताता हूँ तेरी औकात, बेहूदी चिरकुट, जबसे दफ्तर में आई है, मेरे बनाए नोट में गलतियाँ निकालती रही…और अब चली है स्टडी लीव माँगने…’

खिसियाहट इस वजह से कई गुनी हो गयी थी कि पैरघंटी उस कलूटी के सामने ही बज उठी और सत्यजितजी का तन-मन बेकाबू होकर रिफ्लेक्स एक्शन करने लगा था। घंटी बजते ही वे उछले, दरवाजे की ओर लपके, हड़बड़ाए शरीर का धक्का खा कर कुछ फाइलें मेज से धराशायी हुईं, संभलने के चक्कर में खुद गिरते-गिरते बचे। अपने आपको बचपन में सुने मुहावरे-लजवन पचाने- पर अमल करते पाया, कलूटी को सुनाते हुए बोले, “काम करना पड़ता है, इंपोर्टेंट पोजीशन पर…आपकी तरह नहीं….”

हिम्मत…हिम्मत देखो नालायक की, चट से बोली, ‘काम सब करते हैं…’

दरवाजे तक पहुँच चुके सत्यजित पलटे थे, ‘ सब पता है, सूरत देख कर ही जान गया था कि जिन्दगी भर हराम की खाई है, कभी काम नहीं किया है…मस्ती की है बस…और अब मस्ती के लिए ही यह स्टडी लीव का नाटक…’

‘भगवान से डरिए, सर…’

हद है, यार कितनी चलती है जबान इस हेहर की। ठीक है कि इस ऑफिस में नयी आई है, मेरे रोब-दाब से वाकिफ नहीं, लेकिन यह तो हद ही है, ऐसी की तैसी इसकी…

‘स्टडी लीव तो आप भूल ही जाइए, मैडम…और अगर किसी तरह ले भी ली, तो लौट कर तो यहीं आना है, देखना कैरियर की ऐसी-तैसी न कर दी तो मैं भी राजन…आई मीन सत्यजित नहीं…’

उठ खड़ी हुई थी , वह,सो भी लुंज-पुंज नहीं, आँखों में आँसू भर कर नहीं। सीधी रीढ़ के साथ, सचाई भरी, सहज ही चमकती आँखों के साथ…इसे तो ठीक करके ही रहूँगा…एकाएक सत्यजितजी ने मन ही मन अरसा पहले वैकुंठवासी हुए पिताश्री के साथ-साथ कुछ ही महीने पहले ब्रह्मलीन हुए मुखियाजी की भी कसम खाई, और साथ ही वे अपनी धरती से भी जुड़ गये, यह बदतमीज औरत भी तो उसी धरती की थी… ‘चलतानी कहुँवा, बइठल रहीं, रउआ से त अभी ठीक से बात करि के बा.., रिमैन सीटेड, मिनिस्टर साहब से मिल कर आता हूँ फिर बताता हूँ तुम्हें कि कैसे बात की जाती है, सीनियर अफसर से…भगवान से डरिए…यू ऐंड यौर भगवान…माई फुट…’

कहते कहते सत्यजितजी अपने भगवान के मंदिर की ओर लपक लिए थे। प्रवेश करते ही पाया कि उनके भगवान इस समय वरदहस्त मुद्रा में नहीं, खड्गहस्त मुद्रा में थे। छूटते ही बोले  ‘सुना है आपको पैरघंटी से कुछ परेशानी है, यू आर वेरी अपसेट विद दि  फुटबेल एरैंजमेंट..’

फुटबेल का जिक्र अपने भगवान के मुख से इस प्रकार सुनते ही, तुच्छ प्राणियों के वे ही भगवान जिनकी शान में अभी-अभी ‘माई फुट’ की घोषणा करके आए थे, सत्यजितजी को याद आने लगे।

‘नो सर, नो सर…आई मीन…’ मन ही मन बूझ रहे थे कि चुगलखोर कौन है, चुगलखोर भी क्या साला आदत से मजबूर…यह सिंह कमीना…खाने में तो हरामजादा पत्थर भी पचा जाए लेकिन बात जरा सी नहीं पचा सकता…मैं भी तो चूतिया हूँ, उसके सामने मुँह से निकल कैसे गयी इस साली फुटबेल की बात…

मंत्री भगवान जारी थे, ‘ सुना है कि आपको इतनी बुरी लगती है हमारी फुट-बेल कि केब-सेक से बात करने जा रहे हैं…सीधे पीएम से ही मिल लीजिए ना…हमीं एपाइंटमेंट फिक्स करवा देते हैं आपका, फिर आराम से शिकायत कीजिएगा, हमारी नौकरी ही ले लेंगे आप तो, भई हम लोग तो वैसे ही आने-जाने, कौन सा चुनाव हार जाएं क्या पता, आप ठहरे परमानेंट सरकार, गवर्नमेंट के स्टील-फ्रेम… चुनाव हार गये तो आप लोगों की  इस बिल्डिंग में हम तो घुस भी न पाएं…’

मंत्रीजी की आवाज जरा भी ऊंची नहीं थी, एकदम संतुलित स्वर में बात कर रहे थे।

सत्यजित के पाँवों तले चिकना वुडेन फ्लोर नहीं था, हड्डियों  से भरी ऊबड़-खाबड़ जमीन थी। दीवारों पर उम्दा लकड़ी की चमकीली मढ़ावट नहीं थी, जंगल की पहाड़िया का चितकबरापन था। आँखों की पुतलियों पर खुद निगाहों से ओझल रह कर, दूधिया रोशनी फैलातीं बत्तियों की चमक नहीं थी, घनघोर अंधेरा था। उनके आस-पास रूम-फ्रेशनर की भीनी-भीनी सुगंध नहीं थी, मृत देहों की आदिम दुर्गंध थी…

शिकार वाली तस्वीर का शेर जैसे जिन्दा हो गया था… सत्यजित को इतमीनान से निहार रहा था, खिला-खिला कर चबाने के मूड में लग रहा था।

‘ जाहिर है कि…’ मंत्रीजी जारी थे, ‘ आपके जैसे कंपीटेंट ऑफिसर की जरूरत तो आपके होम-काडर को भी होगी ही…’

हे भगवान, अब दिल्ली से रवानगी…वापस महाराष्ट्र…चलो ग़नीमत है…

लेकिन शेर ने अभी तो अंगड़ाई ही ली थी… ‘ हम खास रिक्वेस्ट करेंगे सीएम से कि आपकी कंपीटेंस और तजुर्बे का, आपकी इंटिग्रिटी का सही इस्तेमाल करें, गड़चिरोली में नक्सल चैलेंज के सामने आपके जैसा बहादुर और खानदानी अफसर ही टिक सकता है…’

पहली बार शेर हल्के से दहाड़ा, पहली बार मंत्रीजी के मुँह से आप की जगह तुम निकला ‘ आई विल पर्सनली एन्स्योर कि तुम्हें गडचिरोली में ही पोस्ट किया जाए…’

आवाज में फिर वही स्थिरता… ‘ऑफ कोर्स सीनियरिटी तो कंसीडर होगी ही, देयरफोर यू ऑट बी देयर इन ए सुपरवाइजरी कैपेसिटी, स्पेशल पोस्टिंग पर…बट गडचिरोली टु बी श्योर…’

इस भयानक दशा में भी सत्यजित को वह चुटकुला याद आ गया, ‘पिताजी शेर के सामने पड़ गये थे…अच्छा तो फिर क्या किया उन्होंने…उन्हें क्या करना था…जो कुछ किया शेर ने ही किया…’

लेकिन यहाँ तो कुछ करना ही पड़ेगा…वरना गड़चिरोली…नक्सल…

लेकिन, कैसे? क्या?

शेर खिलकौटी के मूड में ही बना हुआ था, ‘होम-काडर वापस भेज रहे हैं आपको…थैंक्यू सर भी नहीं कहेंगे क्या आप मिस्टर सत्यजित आईएएस?’

मिल गया, डूबते को जिस तिनके की तलाश थी, मिल गया, चुटकुले वाले पिताजी की नियति से निकलने का जरिया मिल गया…

‘गलती तो सेवक से हुई है, श्रीमंत, लेकिन इतना अनसिविल तो आपका यह सर्वेट सपने में भी नहीं हो सकता कि महाराज को सर कहे, आप जो कहें मंजूर है, लेकिन यह गुस्ताखी तो मुझसे मरते दम तक नहीं होगी कि श्रीमंत या महाराज के अलावा कोई संबोधन दूँ, आपके पीठ-पीछे भी ध्यान रहता है मुझे…’

मंत्रीजी जरा सा मुस्कराए, सेवक की हिम्मत बढ़ी, ‘मैं तो  सपने में भी आपको हिज हाइनेस कह कर ही याद करता हूँ, यौर हाइनेस…’

मंत्रीजी की मुस्कान थोड़ी और चौड़ी हुई, सर्वेंट की सिविलिटी कुछ और मुखर हुई, ‘ प्लीज पनिश मी इन वाटएवर वे…लेकिन श्रीमंत अपने श्रीचरणों से दूर न करें मुझे…गुस्ताखी तो हुई है, लेकिन बस एक लास्ट चांस…’

मंत्रीजी के मुस्कराते मौन के संकेत ग्रहण कर, सत्यजितजी का स्वरूप परिवर्तित हो रहा था। उनकी जबान पुचकार पाने को व्याकुल, लप-लप करती जीभ में बदलती जा रही थी, कंठ-स्वर कूं-कूं की निरीहता  ओढ़ चुका था। देह दो पैरों की मुद्रा त्याग कर चारों पैरों पर आ चुकी थी। शरीर के पार्श्व भाग में, बढ़िया कपड़े के पैंट में से दुम धीरे-धीरे निकल रही थी, और तेज-तेज हिल रही थी।

अब उनके पाँवों के नीचे हड्डियों से भरी ऊबड़-खाबड़ जमीन नहीं, चिकना वुडेन फ्लोर था। जंगल की पहाड़िया के चितकबरेपन की जगह दीवारों पर उम्दा लकड़ी की चमकीली मढ़ावट थी । आँखों की पुतलियों पर घनघोर अंधेरे की जगह, खुद निगाहों से ओझल रह कर, दूधिया रोशनी फैलातीं बत्तियों की चमक थी। आस-पास मृत देहों की आदिम दुर्गंध की जगह रूम-फ्रेशनर की भीनी-भीनी सुगंध थी।

मंत्रीजी देख रहे थे, सुन रहे थे। सत्यजित दुम हिलाते हुए अगली दोनों टाँगें उठाए, नृत्य कर उन्हें रिझा रहे थे, उनकी वंश-विरुदावली गाने में पेशेवर चारणों को पीछे छोड़ रहे थे। स्वयं मंत्रीजी का ऐसा गुणानुवाद कर रहे थे कि उनका क्रोध लाड़ में बदलता जा रहा था, वे मन ही मन कुछ अनौपचारिक भी हो रहे थे, उसी अनौपचारिक मुद्रा में उनके मुँह से लाड़ भरे शब्द निकले, ‘ क्यों ऐसी चापलूसी कर रहे हो, यार कि मेरे पेशाब की गंध को मलयानिल बनाए दे रहे हो, और कुछ नहीं तो अपने नाम का ही लिहाज करो…सत्यजित…’

इन लाड़ भरे शब्दों ने सत्यजितजी को आश्वस्त भी कर दिया और प्रगल्भ भी। कूं-कूं करते आए और श्रीमंत के श्रीचरणों में थूथन रगड़ने लगे। आश्वस्त प्रगल्भता की तरंग में उनके मुँह से जो शब्द निकल रहे थे, उन्हें सुन कर यह दृश्य, बोरियत या दिलचस्पी से देख रहे देवता उलझन में थे कि सत्यजित की स्पष्टोक्ति पर पुष्प-वर्षा करें या उनकी निर्लज्जता पर प्रस्तर-वर्षा। देवताओं की उलझन से बेखबर सत्यजित कुंकुंआए जा रहे थे— ‘ नाम के इन एकार्डेस ही तो चल रहा हूँ, यौर हाइनेस!  मेरा नाम न तो सत्यकाम है कि सत्य की कामना करूँ, न सत्यप्रिय कि इसे प्यार करूँ। मैं तो सत्यजित हूँ। जीत लिया है मैंने सत्य को, ऐसा जीता है कि इसका जो चाहूँ मैं, यार करूँ, प्राण ले लूँ या बलात्कार करूँ… आपका पेशाब क्या, शिट भी साफ करवाऊं…मजाल है सत्य की कि चूँ भी कर जाए…सत्य को जीत लेना काम है मेरा, सत्यजित नाम है मेरा…सत्यजित रा…’

वक्त रहते सँभल गये, सत्यजित। ‘राजन’ कहने वाले स्वर्गीय पिताश्री का लाड़ इस पल याद करना अभी-अभी, मुश्किल से कमाए गये महाराजश्री के लाड़ का कबाड़ कर सकता था। बात फौरन पटरी पर लाए, ‘सत्यजित…रा…मतलब, आप का, राजकुलदीपक आपश्री का चाकर…आपका सदा वफादार सेवक हूँ मैं श्रीमंत, सत्यजित हूँ मैं…विजेता सत्य का, अब इसका जो चाहे मैं यार करूँ, प्राण ले लूँ या बलात्कार करूँ…’

मंत्री-महाराज का लाड़ और उमड़ा, पैरों पड़े सत्यजित का सर सहलाया, बोले, ‘उठो, ठीक है, बहुत हुआ, दुम अंदर करो, आगे से ख्याल रखना, जाओ अब…’

‘जो हुकुम दरबार का..’ कहते कहते सत्यजितजी ने दुम पैंट के अंदर की, और लटकती जीभ मुँह के अंदर…कमरे से निकले, और जंगल में टहलते शेर की अदा से अपनी गुफा की ओर चले, जहाँ उस हेहर औरत को छोड़ आए थे। ऊपर वाले के पांव पर सर रगड़ आने के बाद, अब ट्रेनिंग-सार के दूसरे हिस्से पर अमल करने का समय था। अब नीचे वाले के सर पर पांव रगड़ने का समय था। अपने असली भगवान को तुष्ट कर चुकने के बाद ‘भगवान से डरिए’ कहने वाली इस हेहर को और उसके भगवान को ठीक कर देने का समय था। अब कुकुरावतार से शेरावतार में संतरण का समय था। अब इस कुतिया को चींथ कर फेंक देने का समय था।

‘ऐसा सबक सिखाऊंगा, कुतिया को कि सारी हैन-तैन सदा के लिए भूल जाएगी…’ कमरे में घुसते ही गुर्राए, ‘ यस, वेल…मैडम सिंसियर…’

लेकिन कुर्सी तो खाली थी, गुर्राहट मन ही मन दहाड़ में बदल गयी, यह मजाल, यह गुस्ताखी…अब तो साली को सस्पेंड करके ही दम लूंगा, ऐसा इनसबार्डिनेशन….यह हुकुम-उदूली…कह कर गया था कि यहीं मरी रहना…और उठ कर चल दी…’

अपनी कुर्सी पर बैठ, पीए को बुलाने के लिए इंटर-काम उठाया सत्यजितजी ने कि सस्पेंशन लेटर डिक्टेट करें कि सामने रखे कागज पर निगाह गयी…अरे यह तो वही है…इस कागज में मुँह चिढ़ाती, नाक पर अंगूठा रख कर लिल्ली-टिल्ली करती…यह तो मेरी मेज पर, बल्कि मुँह पर इस्तीफा मार कर चल दी…चल कहाँ दी… इस्तीफे के इस सड़े से कागज में से झाँक तो रही है…उन्हीं चमकीली, साफ आँखों से…टिल्ली-लिल्ली कर रही है, उसी काली-कलूटी रंगत में चमक रही है, चिढ़ा रही है मुझे…लिल्लली—टिल्लली…

गगनविहारी देवताओं को मजा आ गया। ऐसे दृश्य कहाँ रोज-रोज देखने को मिलते थे। ऊब और फटीग के शिकार बुजुर्ग देवता पुष्प-वर्षा की तैयारी में लग गये। युवतर देवगण तो उस कलूटी की जय-जयकार करते हुए उसकी चिढ़ोक्ति में अपना भी योगदान करने लगे…लिल्लली-टिल्लली..

शिकार जिसके पंजे से निकल गया, उस शेर की दहाड़ से गूंज उठा कमरा…लेकिन जिसे सत्यजित दहाड़ समझ रहे थे, वह देवताओं को भौं-भौं सुनाई दे रही थी…बेबस भौं-भौं जो बीच-बीच में तो कूँ-कूँ की तरफ भी बढ़ उठती थी…

सत्यजित मन भर कर दहाड़ या भौंक भी नहीं पाए थे कि एकाएक मेज पर रखी पैरघंटी बज उठी और अभी-अभी सबक सीख कर आए श्री सत्यजित तेजी से स्वरूपांतरण की प्रक्रिया में लग गये… भौं-भौं को उन्होंने तुरंत ही उचित स्वर-ताल वाली कूं-कूं में बदला। कुछ ही देर पहले जो अंदर की थी, वह दुम फिर से पैंट के बाहर धीरे-धीरे निकलने और तेज-तेज हिलने लगी।

सत्यजितजी श्रीमंत के कमरे की ओर लपक लिये।

 

 

 

 

 

 

 

चौराहे पर पुतला ( ‘नया ज्ञानोदय’ फरवरी में प्रकाशित कहानी)

चौराहे पर पुतला।

मुख्यमंत्री सिंह साहब और पंडित गंगाधर के कदम एकदम मिले हुए थे। दोनों महानुभावों का ताल्लुक परस्पर विरोधी राजनैतिक पार्टियों से था, लेकिन यहाँ दोनों नेता राजनैतिक मतभेदों से उसी तरह कोई छह इंच ऊपर उठ कर चल रहे थे जैसे कि ‘अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो वा’ वाली हरकत करने के पहले युधिष्ठिर का रथ चला करता था। दोनों के नेतृत्व में चलते जन-समूह में भी राजनैतिक जुलूसों वाला छिछोरा जोश नहीं, धार्मिक चल-समारोह सरीखा भावपूर्ण उत्सव था। दृश्य भी ऐन वैसा ही– सबसे आगे शहनाई बजाने वाले अपनी चमकीली अचकनों में, फिर बैंड वाले अपनी दमकीली पोशाकों में, रास्ते पर पुष्प-वर्षा करते युवक-युवतियाँ,मुख्यमंत्रीजी और गंगाधरजी साथ-साथ। फौजी लोग क्या कदम मिलाएंगे, जिस तरह गंगाधरजी मुख्यमंत्री से कदम मिलाए हुए थे। मामला संस्कृति का था, और गंगाधरजी की पार्टी तो जानी ही सांस्कृतिकता के लिए जाती थी। जिस विवाद का हल करने आज जा रहे थे, उसके प्रसंग में भी इन मुख्यमंत्री ने,जो विवाद आरंभ होने के समय विधायक ही थे, और इनकी पार्टी ने तो शुरु में दुष्ट तत्वों का ही साथ दिया था, और आज देखो, ऐसा जता रहे हैं, जेसे जन-भावनाओं का सारा बोध इन्हीं को है…याने, मेहनत गंगाधरजी और उनकी पार्टी के लोग करें, विवाद की आँच सुलगाएँ, भावनाओं के आटे को हौले-हौले भून-भून कर, उपयुक्त मात्रा में शब्दों की शर्करा और चतुराई का घृत मिला कर; सुनहरी, स्वादिष्ट पंजीरी बनाएँ और जब प्रसाद बँटने का समय आए तो मुख्यमंत्री ही बाँटने वाले भी बन जाएँ और पाने वाले भी—यह भला कैसे हो सकता है। इसीलिए उम्र में मुख्यमंत्री से आगे होते हुए भी, गंगाधरजी कटिबद्ध थे कि संस्कृति के इस प्रसाद-वितरण समारोह में मुख्यमंत्री को आगे न होने देंगे।

प्रोफेसर रवि सक्सेना भी कोशिश तो जी-तोड़  कर रहे थे, दोनों नेताओं के साथ कदम मिला कर चलने की, लेकिन कामयाबी की राह में रोड़े बहुत थे। बरसों पहले वे इस नगर में लेक्चरर होकर आए थे। नौकरी तो एमए करते ही पा गये थे, लेकिन पीएचडी करने में बीस साल लगा दिये थे, सो भी वाइस-चांसलर के धमकाने पर ही की थी। पीएचडी के लिए समय निकालना मुश्किल यों था कि रविजी का अधिकांश समय पढ़ने-लिखने जैसे तुच्छ कामों में नहीं, छात्रों को क्रांति के लिए तैयार करने में गुजरता था या फिर साथी अध्यापकों को अपने ज्ञान से कायल करने और अपने प्रिय छात्रों से घायल करवाने में। दीगर सामाजिक दायित्व भी थे। मसलन, जो आज होने जा रहा था, उसे ही प्रगितशील शास्त्रसम्मता प्रदान करने में सक्सेनाजी ने पिछले कई साल लगा दिये थे। खूबी यह थी कि ऐसा करते समय वे मुख्यमंत्री और गंगाधरजी दोनों की पार्टियों की निंदा करके अपनी सत्ता-विरोधी छवि भी बनाए रखते थे। वे तथा उनके मौसेरे भाई अरुण काँख ढँकी रखते हुए ही मुट्ठी तनी दिखाने की कला में माहिर थे। अरुण तो मुख्यमंत्रीजी की पार्टी को भर मुँह गालियाँ देते देते ही, उन्हीं की कृपा से पिछले कई वर्षों से यूरोप में हिन्दी-सेवा कर रहे थे, दोनों बेटियाँ आईटी प्राफेशनल्स का पति-रूप में वरण कर आनंदपूर्वक अमेरिका में निवास कर रही थीं। रवि इस लिहाज से थोड़े पिछड़ गये थे, अभी तक यहीं इसी पिछड़े देश में पड़े थे। कलेजा फुँकता था, अपने इस पिछड़ेपन पर…करें क्या, यह नालायक जया…लाइफ वर्स करके रख दी है, अपने बेटर हाफ ने…अब इसी प्रसंग को लो…

खैर, जया का उपचार तो बस कुछ देर में हुआ ही चाहता है, अभी तो यहाँ ध्यान लगाएं, चल-समारोह में। इसमें शामिल होने को लेकर काफी पशोपेश से गुजरे थे प्रोफेसर साहब, अब तक तो रणनीति एकांत में मुख्यमंत्री की मुसाहिबी करने और खुले में उनकी खिल्ली उड़ाने की ही रही थी, मैनेज भी बखूबी कर लेते थे। लेकिन पिछले कुछ दिन से मुख्यमंत्री कामना करने लगे थे कि जो सुखद अहसास रवि उन्हें एकांत में प्रदान करते हैं, उसकी सार्वजनिक प्रस्तुति भी हो ही जाए। अब रवि क्या करें? ‘कोई बात नहीं, अपना लक्ष्य महत्वपूर्ण है, और रणनीति स्पष्ट। अरुण की ही तरह का चक्कर चलाना है। अब मुख्यमंत्री चाहते हैं तो यही सही, एकांत-सेवा की सार्वजनिक प्रस्तुति ही सही। वैसे भी, जहाँ तक आज के आयोजन का सवाल  है, आइडिया तो अपना ही था। बौद्धिक समर्थन देते ही रहे हैं, चलो, शामिल भी हो जाते हैं। काँख जरा सी और उघड़ेगी जरूर, कोई बात नहीं, मौका मिलते ही, फिर से ढाँप लेंगे। और फिर, चल-समारोह में मुख्यमंत्री के साथ चलते-चलते खिंचवाए गए फोटो काम तो आएंगे ही, थानेदार से ले कर वाइस-चासंलर तक’।

लेकिन आज, जब रवि मुख्यमंत्री और गंगाधरजी के कदमों से कदम मिला कर, कैमरों के जरिए आमो-खास के आकलन में वीआईपी स्टेटस हासिल करने के चक्कर में थे, तब…मुख्यमंत्री की कनखियों की भाषा समझने वाले सुरक्षाकर्मियों ने प्रोफेसर साहब को उनकी उचित जगह पहुँचा दिया था, याने चल-समारोह के दोनों नेताओं से कोई बीस कदम पीछे।

रवि सक्सेना को प्रेमचंद का अमर कथन बड़ी शिद्दत से याद आ रहा था, ‘साहित्य राजनीति के पीछे नहीं, आगे चलने वाली सचाई है…’ और उनका मन उपन्यास-सम्राट को जबाव भी दे रहा था,  ‘होगी आपके ख्याल में जनाब, हकीकत हम तो जानते ही हैं, आप भी देख लीजिए’। प्रेमचंद पर खीझ के साथ, रविजी को जया पर भी एक बार फिर से गुस्सा आने लगा था—‘उसी की वजह से पिछले बीस साल तबाह हो गये…बनती है इंटेलेक्चुअल की औलाद…मुझ सरीखे फर्स्ट क्लास, लेफ्टिस्ट इंटेलेक्चुअल की अंडरस्टैंडिंग कामरेड होने तक की सांस्कृतिक जिम्मेवारी तो ठीक से निभा नहीं पाई… पुतला छाया रहता था देवीजी के ऊपर, ‘क्या होगा पुतले का? लोग क्यों पीछे पड़ गये हैं बेचारे के?’

पुतला…पुतला…काश कोई इस हरामजादे पुतले को बम से ही उड़ा देता, कलात्मकता के नाम पर पतनशील सामंती संस्कृति को चौराहे पर परोसता, बेहूदा, लुगाई-लुभावन कमीना पुतला…पति साले के सारे मूड का, उन प्रेम-पलों से लेकर जीवन के सारे  पलों तक के लिए पटरा हो जाए, हमारी देवीजी तो अपनी कामना के पटरे पर पुतले को ही पधराए रहेंगी…कुछ कह दो तो समता-स्वाधीनता बखानने लगेंगी, स्टुपिड कहीं की.. मैं कब तक झेलता ऐन निजी पलों में होने वाला यह अनाचार; प्रगतिशीलता के चक्कर में कब तक उस हरामी पुतले को इजाजत देता कि वह मेरी लुगाई को लुभाता रहे.. प्रगतिशील हूँ, वामपंथी हूँ, नामर्द तो नहीं…’

‘धत्तेरे की, क्या हो रहा है यार मुझे, यह साला मेल शाविनिज्म मेरी चेतना में क्यों घुसा जा रहा है…नहीं, नहीं, नहीं… मर्द-नामर्द की बात नहीं, मैंने तो सार्वजनिक नैतिकता की रक्षा करने के जनवादी कर्तव्य का निर्वाह किया है। डिक्लास, वर्गच्युत तो अपने आप को न जाने कितने लोग करते आए हैं, इस साले पब्लिक एनेमी नंबर वन पुतले का उपचार करने के लिए, अपने ही नहीं न जाने कितनों के दांपत्य-जीवन की रक्षा करने के लिए मैंने तो स्वयं को विचारच्युत किया है। इतिहास-देवता मेरे इस बलिदान पर कितने खुश होंगे…’ इतिहास-देवता के भव्य दरबार में खुद को खिलअत पहनाए जाने  की कल्पना करते ही रवि रोमांचित और पुलकित हो उठे, लेकिन इतिहास–देवता के सामने पेशी जब होगी तब होगी, अभी तो यहाँ फोटो खिंचाने तक के रास्ते में मुख्यमंत्री के दुष्ट सुरक्षा-कर्मी आ अड़े थे, लेकिन, कोई बात नहीं…जैसे अपन पब्लिक में मुख्यमंत्री से दूरी बरतने को मजबूर हैं, वैसे ही मुख्यमंत्री भी तो…

मुख्यमंत्री  की मजबूरी समझते ही प्रोफेसर रवि सक्सेना पूरमपूर क्षणजीवी हो गये। वर्तमान क्षण का सत्य तो  यही है कि पुतले की बदमाशी का उपचार होने में बस कुछ ही पल की देर है। जया पड़ी दिखाती रहे, पुतले के प्रति करुणा, सराहना, चाहना और ना जाने क्या, क्या…विजय ने तो मेरा वरण कर ही लिया है। इस विजय-वरण के मनमोहक, मादक स्वरूप पर मोहित होते रविजी रोक नहीं सके खुद को जयकारा उछालने से, ‘सिंह साहब की जय हो, गंगाधरजी की जय हो…’

दोनों जयकारे एक साथ लगाए जाएं यह उस अलिखित समझौते का केंद्रीय प्रावधान था, जिसके तहत सिंह साहब और गंगाधरजी के कदम मिल कर उठ रहे  थे। विवाद का अंत करने की सद्भावना का ही प्रमाण यह फैसला भी था कि कोई राजनैतिक नारे इस जुलूस में नहीं लगेंगे सिवा सर्वमान्य नारे ‘भारत माता की जय’  के। और,मुख्यमंत्रीजी की जय या गंगाधरजी की जय को तो राजनैतिक नारा कहा नहीं जा सकता। आखिरकार, जिस विवाद के अंत का आज उत्सव मनाया जा रहा था, उसकी समाप्ति भारत माता की जय की सूचना तो देती ही थी; साथ ही दोनों महानुभावों की जय की भी। सो, चल-समारोह में शामिल भाव-विह्वल लोग बारंबार जयकारे कर रहे थे। तीनों स्वीकृत जयकारों–भारत माता की जय, मुख्यमंत्री सिंह साहब की जय और गंगाधरजी की जय—की बारंबारता के तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट हो जाता था कि जयकारे के  असली पात्र सिंह साहब और पंडितजी ही थे, भारत माता तो बेचारी राजनीति और संस्कृति के गुरु-गंभीर पाठ के पन्ने पर छोटा सा फुटनोट थी। रवि सक्सेना तो भारत-माता की अवधारणा को सिद्धांतत: ही दक्षिणपंथी भ्रम मानते थे, सो उन्होंने पूरे चल-समारोह में यह फुटनोट एक बार भी नहीं लगाया; गले की सारी ताकत असली जय पर ही केंद्रित रखी।

दोनों नेताओं के कानों में रवि सक्सेना के उछाले असली जयकारे सुख ढाल रहे थे। दोनों ने लगभग एक ही साथ पुचकारती निगाहों से रवि सक्सेना को देखा, लेकिन रविजी को बीस कदम का प्रोमोशन देकर अपने साथ चलने की अनुमति देने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।

यह सचमुच उत्सव का दिन था। पिछले बीस सालों से नगर ही नहीं, सारा देश जो संताप झेलता  रहा था, आखिरकार उसके अंत का दिन। हालाँकि कुछ लोग अभी तक संतप्त थे, संताप का अंत वे भी चाहते ही थे, हालाँकि किसी और विधि से। लेकिन विधि के विधान के बारे में तो बात वही पुरानी, ‘मेरे मन कछु और है विधना के कछु और’…। वक्त अपनी राह बढ़ता गया था; किसी और विधि की तलाश में लगे संतप्तों की तादाद घटती चली गयी थी। बचे-खुचे जो रह गये थे, वे और अधिक संतप्त थे, क्योंकि इन्होंने मुख्यमंत्री से उम्मीद बाँध रखी थी कि विवाद का अंत गंगाधर जैसे लोगों के दबाव में आए बिना, अच्छी तरह सोच-विचार कर किया जाएगा। बीस साल के अरसे में, गंगाधर तो वहीं के वहीं थे, लेकिन मुख्यमंत्री ये पाँचवें थे, और गंगाधर के विरोधियों को इन्हीं से सबसे ज्यादा उम्मीदें थीं। उम्मीद इन लोगों को विवाद पर विचार करने के लिए बनाए गये जस्टिस लेबयान आयोग से भी थी। लेकिन न्यायमूर्ति लेबयान ने भी फैसला अंत-पंत गंगाधरजी के मन-माफिक ही दिया था, और बचे-खुचे संतप्त ‘कोई उम्मीद बर नहीं आती,कोई सूरत नजर नहीं आती’ की मनोदशा  को प्राप्त हो गये थे। उनकी निराशा का आलम यह था कि अपना बचा-खुचा संताप किसी सार्वजनिक कार्यक्रम के जरिए व्यक्त करने की भी न उनके पास हिम्मत बची थी, ना ख्वाहिश। जो भी ख्वाहिशें बची थीं, वे फेसबुक और ट्वीटर के जरिए निंदा, कुंठा, संत्रास आदि की सर्जनात्मक अभिव्यक्तियों तक सिमट गयी थीं। असली दुनिया के हाशिए पर धकेल दिये गये संतप्त आभासी दुनिया में अपना कल्पनालोक सँवार रहे थे, सारे घटनाक्रम को नींदते, मुख्य-धारा को दूषते पुण्य-श्लोक उच्चार रहे थे। आभासी दुनिया के भीतर भी जोखिम कम नहीं थे, क्या जाने किसको कौन सी बात किस कारण खटक जाए; और आभासी दुनिया में की गयी आभासी टीका-टिप्पणी पर बिल्र्कुल ठोस टिप्पणी करने इलाके का थानेदार, आईटी एक्ट की धारा 66-ए से लैस आपके सर आ धमके। लेकिन फिर भी…

लेबयान आयोग की रिपोर्ट आने के बाद गंगाधरजी ने विजय-दर्प की हुंकार छोड़ी थी, और मुख्यमंत्रीजी ने पिंड छूटा वाली राहत की साँस। वे रिपोर्ट पर फौरन अमल करना चाहते थे। धनतेरस के दिन पुष्य-नक्षत्र का योग सोने की खरीदारी के लिए तो श्रेष्ठतम जाना ही  जाता है, वैसे भी परम शुभ योगों में इसकी गणना होती है। मुख्यमंत्रीजी ने तय किया था कि यह शुभ काम पुष्य नक्षत्र में,  धनतेरस के शुभ दिन ही संपन्न होगा। दुष्ट लोग भले ही सोने की खरीदारी से वोटों की खरीदारी की तुक मिलाते रहें, मुख्यमंत्री ऐसे तुक्क्ड़ों की परवाह करें तो हो चुका राज-काज। बीस सालों से चले आ रहे विवाद का निपटारा धन-तेरस के दिन होने का राजनैतिक संदेश यह था कि मुख्यमंत्री दिवाली का तोहफा दे रहे हैं।  इसीलिए बाकी आयोगों की रपटों के लिए भले ही सचिवालय गुमनामी का कब्रिस्तान साबित होता हो, लेबयान आयोग की रपट पर अमल करने में सरकार ने एक महीना भी नहीं लगाया। मुख्यमंत्री ने राजधानी से घोषणा कर दी थी कि वे धनतेरस को नगर पधारेंगे और इस विवाद का अंत हो जाएगा।

मुख्यमंत्रीजी और गंगाधरजी कदम से कदम मिलाते हुए, विवाद के अंत की ओर बढ़ रहे थे। सड़क किनारे खड़े और नाखड़े लोगों की ओर करबद्ध नमस्ते उछालने में भी दोनों के बीच पूरा तालमेल था। लग रहा था, दो सगे भाई इकलौती बहन को भात पहनाने जा रहे हैं। सुरक्षा-कर्मियों द्वारा अपनी सही जगह पर पहुँचा दिये जाने के बावजूद रवि सक्सेना मौका देखते ही मुख्यमंत्री और गंगाधर से चिपकने के गुंताड़े में पड़ जाते थे, हालाँकि जरा सी सफलता मिलते ही सुरक्षाकर्मी उन्हें फिर से पीछे धकेलने में पल भर की भी देर नहीं करते थे। लेकिन रवि क्या कम थे, समारोह के आगे-आगे उल्टे चल रहे फोटोग्राफरों के कैमरों में कम से कम दो-तीन बार तो मुख्यमंत्रीजी और गंगाधरजी के साथ दर्ज होने में कामयाबी उन्होंने पा ही ली थी। अपनी गुंताड़ेबाजी में रवि सक्सेना भात पहनाने जा रहे संपन्न सगे भाइयों के दरिद्र, दूर के रिश्ते के भाई जैसे लग रहे थे। सुरक्षा-कर्मियों को रवि की गुंताड़ेबाजी पर कभी खुंदक आती थी, कभी हँसी। इस तरह की हँसियों, खुंदकों, गुंताड़ों और बैंड-बाजों को साथ लिए हुए, यह जनसमूह वैसे ही जा रहा था जैसे भात पहनाने वाला भाई बहन को आश्वासन देने जाता है कि ब्याह की खुशी में भी बहन के साथ है  और जोखिम में भी। मुख्यमंत्रीजी और देशप्रेमीजी चौराहे पर खड़े पुतले को आज बताने जा रहे थे कि उसके अकेलेपन और निर्वासन के दिन दूर करने में, तमाम राजनैतिक मतभेदों के बावजूद दोनों नेता साथ हैं। जैसे भात के चल-समारोह में सबसे आगे भात का सामान थालों में  सजा कर ले जाया जाता है, वैसे ही इस चल-समारोह में मुख्यमंत्री और गंगाधरजी के ठीक पीछे-पीछे दो युवक विवाद-समाधान की सामग्री के थाल श्रद्धा और प्रेमपूर्वक हाथों में लिए चल रहे थे।

विवाद-ग्रस्त पुतला संगमरमर का था, सो निर्जीव ही कहलाएगा। लेकिन इंसान की शक्ल में ढलते ही पत्थर में भी कुछ तो इंसानियत आ ही जानी चाहिए, और इंसान अकेलापन कितनी देर सह सकता है? एकांत के बड़े से बड़े साधक को भी किसी न किसी पल दूसरे की जरूरत पड़ती है। अकेलेपन की महिमा साधने वाले साधक और पैगंबर भी अनुयायियों की तलाश में निकलते हैं। इंसान तो इंसान, भई आखिर जब परब्रह्म को भी कहना पड़ा कि एकोहं बहुस्याम-अकेला हूँ, बहुतों में बदल जाऊँ—तो हमारी आपकी क्या औकात।

खुशी या ग़म या गुस्से के पलों में तो इंसान को दूसरों की जरूरत और भी ज्यादा महसूस होती है। इस विवाद में भी कोई इंसान अकेला नहीं था, विवाद में वह इस तरफ हो या उस तरफ। मौका खुशी का हो या ग़म का, जीत का हो या हार का…हरेक के साथ कोई ना कोई था, हरेक किसी ना किसी के साथ था। अकेला था तो वह पुतला था, जिसको लेकर सारा विवाद था। संगमरमर में ढला वह इंसान पिछले बीस साल से अकेला था। फैन-क्लब बनाने के चक्कर में, सुंदरी-सहानुभूति बटोरने के चक्कर में अकेलेपन के गीत अलापते कवियों-कलाकारों के विपरीत, यह संगमरमरी पुतला सचमुच अकेला था। दुनिया के सारे मजे लूटते, साल के अधिकांश दिन यूरोप के एग्जाटिक स्थानों में बिताते, फिर भी स्वयं को उत्पीड़ित, निर्वासित बताते; करुण की सृष्टि करने की कोशिशों में वीभत्स का संचार करते कथाकारों-लेखकों के आत्म-घोषित निर्वासन के विपरीत, यह पुतला सचमुच निर्वासित था। विवाद के केंद्र में वह जरूर था, लेकिन विचार के केंद्र तो क्या,  हाशिए तक पर उसे कोई जगह हासिल ना थी।

उसकी जगह थी, बरसों से चले आ रहे अकेलेपन और निर्वासन में। चौराहे पर कहा जाने वाला संगमरमरी पुतला, अपने निर्वासन में चौराहे के एक कोने पर खड़ा था, कुछ दिन उसने भी चौराहे की रौनक देखी भी, उसमें कुछ अपना योगदान भी किया। बनाने वाले कलाकार का ही था यह विचार कि पुतले को चौराहे के हरियाले गोलंबर में नहीं, बल्कि उसके बाहर जहाँ दो सड़कें मिल रही हैं, वहाँ खड़ा किया जाए; इस तरह पुतला लोगों के आने-जाने के बीच पड़ता नहीं, उनके साथ होता लगेगा। कुछ दिन तक सब ठीक-ठाक रहा, लोग पुतले को देख मुस्कराते थे, पुतला भी उन्हें मुस्कराते देख खुश हो लेता था। लेकिन, जल्दी ही विवाद शुरु हो गया और फिर उसे वहीं खड़े-खड़े निर्वासित कर दिया गया था। उसके खड़े होने की जगह को ईंटों की गोल दीवार से घरे दिया गया। इस दीवार में एक दरवाजा भी था, लेकिन ताला-जड़ा।

पिछले बीस बरस से वह गोल दीवार के भीतर था, यहाँ तक कि उसके सर पर भी सीमेंट का चंदोवा तान दिया गया था, लक्ष्य यह था कि कोई उसे देख ना पाए—ना सड़क से, ना आस-पास के छज्जों और छतों से। पुतले का निर्वासन काला पानी भेज दिए गये बंदी का निर्वासन नहीं, अपने ही घर में नजरबंद कर दिये गये मनुष्य का निर्वासन था। उसका अकेलापन दीवार में जिन्दा चुनवा दिए गए इंसान का अकेलापन था। वह इस अकेलेपन को झेलते-झेलते थक चुका था, कभी-कभी  तो वह स्वयं ही टूट जाना चाहता था, लेकिन विवाद का एक पक्ष कहता था, हम तुझे मरने नहीं देंगे; और दूसरा ताल ठोंकता था कि हम तुझे जीने नहीं देंगे।

आज का दिन, विवाद की समाप्ति का ही नहीं  गोल दीवारों में कैद, चंदोवे में कैद पुतले की यंत्रणा की समाप्ति का दिन भी था। विवाद समाप्त होने से लोग बेहद खुश थे, उम्मीद करनी चाहिए कि पुतला भी खुश ही रहा होगा। दीवार के बाहर आकर, खुला आसमान फिर से देखने का मौका पाकर भला कौन खुश नहीं होगा, इन्सान हो या जानवर या फिर पुतला।

 

पुतले के अकेलेपन, संस्कृति के विलाप और नगर से देश तक फैलते  संताप की यह कथा आरंभ होती है, बीस बरस पहले।

पुतले का इस चौराहे के कोने पर खड़ा होना ऐसी कोई बड़ी बात नहीं थी। नगरपालिका ने अभियान चलाया था, नगर के सुंदरीकरण का; इसलिए किसी चौराहे पर पत्थर के मोर जड़े गये ताकि नयी पीढ़ी  ‘एक जानवर ऐसा जिसके सिर पर पैसा’ वाली पहेली को बूझने के क्लू सड़क चलते-चलते हासिल कर सके; कहीं नर्तक-नर्तकी प्रतिमाएं खड़ी कर दी गयीं कि आते-जाते लोग स्वयं नृत्य करें ना करें, उनके मन-मयूर तो नृत्य कर ही लें। यह सब पुतले-प्रतिमाएं बनवाए गये बड़े-बड़े कलाकारों से, उन्हें कला-कल्पना की छूट भी दी गयी ताकि नगरपालिका को कलाप्रेमी और महापौर को संवेदनशील होने की प्रतिष्ठा हासिल हो सके। कुछ कलाकारों ने यह छूट इतनी लंबी भी खींच ली कि खुद बनाए, खुदा समझे। ऐसी एक कलाकृति थी काले ग्रेनाइट की वह आकृति जिसे साधारण जन तो खैर क्या खा कर  समझते, अमूर्त कला के पारंगत पारखी भी जिसकी व्याख्या करने में चीं बोल जाते थे। किसी को यह ग्रेनाइट सीधा खड़ा प्रश्नचिन्ह लगता था तो किसी को उल्टा खड़ा मनुष्य। कलाकार से पूछा गया तो उन्होंने तिरस्कार और करुणा के समन्वित स्वर में आर्ट एप्रीशिएन कोर्स शुरु करने की सलाह नगरपालिका को नि:शुल्क दे डाली थी।

अपने कथा-नायक पुतले के निर्माता ने ऐसी कोई अमूर्त कलाबाजी नहीं की थी। उन्होंने तो साँवले संगमरमर का यह पुतला बनाया था, कोई पाँच साल के बच्चे का वह साँवला पुतला वहाँ खड़ा नहा रहा था, सर पर लोटे से पानी ढालता हुआ। लोटे से पानी लगातार गिरता रहे, इसकी व्यवस्था कर ही ली गयी थी। पानी लोटे से गिर, पुतले के सर और शरीर से गुजरता हुआ नाली से निकल जाता था। पुतले के चेहरे पर, मम्मी की मदद के बिना खुद नहाने का आत्म-गौरव, नहाने से आ रहा ताजापन, सहज भोलापन तो साफ पढा ही जा सकता था; लेकिन कहीं वह शरारत भी थी उसके चेहरे में, खड़े होने के अंदाज में, जो अपनी शारीरिक उम्र से कुछ ज्यादा मानसिक उम्र से संपन्न बच्चों में आ जाती है।

बच्चा नहा रहा था, लेकिन शरारती अंदाज में। हालाँकि सभी समझदार लोग मानते हैं कि बच्चा हो या जवान या बूढ़ा, औरत हो या मर्द, स्वास्थ्य के लिहाज से नहाना उसी तरह चाहिए जैसे कि पुतला नहा रहा था। शायद कलात्मकता के साथ-साथ यह स्वास्थ्य-परक सामाजिक संदेश भी देना कलाकार का मंतव्य ही था।

सांवले संगमरमर का बना, निहायत भोला दिखता यह पुतला नंगा नहा रहा था, उसकी कमर में चड्डी या कच्छा या अंगोछा पहनाने की जरूरत कलाकार ने नहीं समझी थी।

पुतले के पक्ष में यह जरूर कहा जाना चाहिए कि उसकी मुद्रा जान-बूझ कर कुछ दिखाने की नहीं थी, लेकिन फिर भी दुनिया देख तो रही ही थी, और दुनिया के कुछ सदस्य जो देख रहे थे उसके आकार-प्रकार; विश्वसनीयता-प्रामाणिकता आदि पर विमर्श भी कर रहे थे। आकार-प्रकार की प्रामाणिकता पर विमर्श के क्रम में यह प्रश्न भी उठा था कि पुतला पाँच वर्ष के बच्चे का है, या आठ-दस वर्ष के बच्चे का। कलाकार से पूछे जाने पर, वे प्रश्न की संवेदनहीनता और प्रश्नकर्ता की बुद्धिहीनता पर उखड़ गये थे, और स्वयं उत्तरहीन रहने का चुनाव कर लिया था। बहरहाल, पुतले की उम्र जो भी रही हो, यह तो था कि जो दुनिया पुतले को देख रही थी, उस दुनिया के कुछ सदस्यों को पुतला चुनौती देता प्रतीत हो रहा था, तो कुछ को आमंत्रण देता।

पुतले की यह बहुलार्थक स्नान-भंगिमा आगे चल कर कविता और अन्य सर्जनात्मक तथा वैचारिक उपक्रमों की भी विषय-वस्तु बनी। लेकिन, पुतले के नग्न-नहान के छींटे उस चौराहे से शुरु हो कर, सारे देश पर पड़ती विवाद की बौछारों में तो कुछ ही दिन में बदल चुके थे।

शुरु के दो-तीन सप्ताह तो खैरियत से ही गुजरे थे। पुतला नहाता रहा, पानी बहाता रहा, लोग आते-जाते, देखते-मुस्कराते रहे। धीरे-धीरे नगर के अश्लीलता-संवेदी राडारों ने अनुभव किया कि साइकिलों, मोटर-साइकिलों पर कालेज जाते लड़के पुतले के पास उतर न भी जाएं, तो रफ्तार जरूर कम कर लेते हैं। यह भी नोट किया गया कि पुतले के पास की पान-दुकानों का बिजनेस एकाएक वृद्धि को प्राप्त होने लगा है। सबसे ज्यादा चिंता की बात यह नोट की गयी कि कालेज जाती लड़कियों के झुंडों के कदमों की रफ्तार उस चौराहे पर ध्यातव्य ढंग से घटने लगी थी, और उनकी खी-खी का वाल्यूम बढ़ने लगा था। लड़के-लड़कियों की ही नहीं, अच्छे खासे सद्गृहस्थों की चाल में भी उस चौराहे पर धीमापन आने लगा था, वाहन चलाने वाले आपस में टकराने लगे थे। चाल पर पड़ने वाले ये कुप्रभाव चाल-चलन पर पड़ रहे कुप्रभाव के परिणाम भी थे और प्रमाण भी। नगर के गंभीर संस्कृति-प्रेमी लोग इस निष्कर्ष को प्रकाशित करने पर बाध्य हुए कि पुतले के कारण बहन-बेटियों के चरित्र पर चिंतनीय प्रभाव पड़ रहा है। अधिक सच्चे निष्कर्ष को अप्रकाशित रखने में ही बुद्धिमत्ता समझी गयी थी– पुतले के कारण बहन-बेटियों के चरित्र पर चिंतनीय प्रभाव पड़ रहा हो या न पड़ रहा हो, भाई-बापों के आत्म-विश्वास पर शोचनीय प्रभाव निस्संदेह पड़ रहा था।

बात गंगाधरजी के नोटिस में लाई गयी। वे अपनी पार्टी के कदरन समझदार नेताओं में गिने जाते थे, उन्होंने बात का बतंगड़ बनाने में पहले तो कोई रुचि नहीं ली; लेकिन जब उन्हीं की पार्टी के घनश्याम महाराज को पुतले के नग्न-नहान में राजनैतिक तीर्थ-लाभ की संभावनाएं नजर आने लगीं, तो गंगाधरजी गंभीर होने पर विवश हुए। उन्होंने पुतले द्वारा फैलाई जा रही अश्लीलता की निंदा करते हुए एक बयान तो जारी कर ही दिया, अपनी पार्टी के पार्षदों को निर्देश भी दे दिया कि नगर-पालिका में पुतले को हटाने का प्रस्ताव फौरन पेश कर दें।

तुरंत ही नगर के लेखकों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों, कला-प्रेमियों, ललित-कला महाविद्यालय के छात्रों-अध्यापकों ने प्रतिक्रिया की। बयान जारी करके गंगाधरजी और उनकी पार्टी की इस माँग को फूहड़ और संस्कृति-द्रोही निरूपित किया, नगर-पालिका को ऐसे तत्वों के दबाव में ना आने की चेतावनी भी दे डाली। प्रोफेसर रवि सक्सेना भी इन लोगों में शामिल थे, बल्कि इस बयान की पहलकदमी करने वाले दो-तीन लोगों में से एक थे।

नगर-पालिका में प्रस्ताव लाया गया। गंगाधरजी की पार्टी अल्पमत में थी, अधिसंख्य पार्षद और महापौर मुख्यमंत्री की पार्टी के थे, उसी पार्टी की सरकार दिल्ली में थी। गंगाधरजी को फिर भी विश्वास था कि उनके पार्षदों का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हो ही जाएगा, एक नाकुछ से पुतले की ही तो बात है। महापौर ने उन्हें आश्वस्त ही नहीं कर दिया, बल्कि उस शाम नगर-पालिका से निकलते-निकलते अखबार वालों से कह भी दिया कि पुतला हटाने का प्रस्ताव कल पारित हो जाएगा।

वह रात महापौर पर प्रेत-बाधा से भी ज्यादा भारी गुजरी। उन दिनों, अखबारों के दफ्तरों में टेलीप्रिंटर नामक जंतु पाया जाता था। उसी ने खबर महापौर के अपने निवास पहुंचने के पहले ही प्रदेश की राजधानी तक, मुख्यमंत्री के कार्यालय तक पहुँचा दी थी। महापौर घर में ठीक से घुस भी नहीं पाए कि पत्नी की बेहद खुश और किलकती आवाज कान में पड़ी थी, ‘सीएम ऑफिस से कई बार फोन आ चुका है, लगता है, अब महापौरी छोड़ राजधानी के बंगले में रहने के दिन आ ही गये, हे नहर वाली मैया चाँदी का सिंहासन, सोने का छतर चढ़ाऊंगी’…महापौर महोदय गद्-गद् हुए, लेकिन व्यक्तित्व की गंभीरता के तकाजे से महापौरनी को बस लाड़ भरी निगाह से देख कर, जरा सा मुस्करा कर ही रह गये, ‘ देखते हैं, कौन सा विभाग देते हैं, ऐरा-गैरा विभाग तो मैं लेने से रहा…’

अपने महत्वपूर्ण विभाग के मद में अभी ठीक से प्रवेश कर भी नहीं पाए थे कि फोन फिर से घनघना उठा, महापौर स्वयं ही लपके, महापौरनी ने इशारा किया कि स्पीकर स्विच ऑन कर दें, महापौर ने आँखों-आँखों में ही ऐसे बचकानेपन से उन्हें बरजा, और रिसीवर कान से लगाया, ‘जी बोल रहा हूँ…’

महापौर जिन बुद्धिमत्ताओं के लिए, उस पल के बाद ताउम्र खुद को बधाई देते रहे, उनमें से एक यह भी थी कि उन्होंने स्पीकर स्विच ऑन नहीं किया था। अब तक उन्होंने दूसरों से ही सुना था कि मुख्यमंत्री का गुस्सा बहुत खराब है, और यह भी कि गुस्से में आ जाएं तो कहनी-अनकहनी का कोई विवेक मुख्यमंत्री को नहीं रहता। आज फोन पर अपने कानों से उन्होंने जो सुना, उसके बाद मुख्यमंत्री के गुस्से के ही नहीं, वे मुख्यमंत्री की सर्जनात्मक गाली-क्षमता के भी जीवन भर के लिए कायल हो गये। गोपन-क्षणों की जो गतिविधियां उनकी कल्पना के भी परे थीं वे मुख्यमंत्री के मुख से नि:सृत गालियों में पूर्णतया संभाव्य बल्कि इतनी यथार्थ-परक लग रही थीं कि अब संपन्न हुईं कि तब हुईं। गोपन गतिविधियों को फौरन अंजाम देने की घोषणा करती इस कल्पना-सृष्टि के कर्ता पात्र मुख्यमंत्री स्वयं थे और भोक्ता की भूमिका उन्होंने गंगाधरजी के साथ-साथ महापौर को भी सौंप रखी थी। महापौर ने देवी-देवताओं को धन्यवाद दिया कि वे मुख्यमंत्री के साथ फोन-लाइन पर ही हैं, उनके शयन-कक्ष के एकांत में नहीं।

फोन रख कर जब पलटे तो महापौरनी नहर वाली माता के पक्ष में की गयी सिंहासन-छत्र घोषणा तो वापस ले ही चुकी थीं, आशंका से काँप भी रही थीं, उन्होंने महापौरजी को फोन हाथ में लिए काँपते देखा जो था। कुछ पूछने की ना जरूरत थी, ना हिम्मत।

महापौर बाहर वाले कमरे में आए, सचिव को बुलाया और बयान  डिक्टेट करने लगे।

अगले दिन महापौर की पार्टी ने नगर-निगम में पुतले को हटाने के प्रस्ताव का घोर विरोध किया, गंगाधरजी के पार्षद चीखे-चिल्लाए जरूर लेकिन न महपौर का कुछ बिगाड़ सके, न पुतले का।

महापौर अब तक उस भयानक दु:स्वप्न का कारण जान चुके थे, जिससे वे कल शाम जागती आँखों ही गुजरे थे। इतनी सर्जनात्मक गालियाँ संभव कराने वाला गुस्सा मुख्यमंत्री को पुतले के प्रति प्रेम के कारण नहीं, इस कारण आया था कि उस नंगे, बेहूदे पुतले को बनाने वाला कलाकार कोई ऐरा-गैरा नहीं, प्रधानमंत्री का खास-उल-खास था, उनके पारिवारिक मित्रों में से था। उनसे जो झाड़ मुख्यमंत्री ने खाई थी, उसी का पृथुल विस्तार मय गालियों के उन्होंने महापौर तक पहुँचाया था।

हंगामाखेज मीटिंग के बाद नगर-पालिका भवन की सीढ़ियाँ उतरते महापौर देख पा रहे थे कि अगले कुछ दिन झंझट में ही बीतने हैं।

महापौर जहाँ तक  देख पा रहे थे, झंझट की व्याप्ति उससे कहीं बहुत अधिक होने जा रही थी, यह दो ही दिन में साफ हो गया। उन दिनों चौबीसें घंटे खबरें  तोड़ते रहने वाले चैनल और सर्वव्यापी सोशल मीडिया भले ना रहे हों, अखबार तो थे ही। प्रधानमंत्री और कलाकार की मित्रता के समाचार को  लोक-वृत्त में स्थापित होने में कोई खास वक्त नहीं लगा। अब, मामला  पुतले का कम, सरकारी काम में निजी संबंधों के कारण प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप का बनने लगा, ऊपर से, खोंचड़ यह  कि नंगा पुतला बनाने वाले कलाकार का ताल्लुक गलत मजहब से था।

गंगाधरजी की पार्टी के लिए मामला अब स्थानीय अश्लीलता से बहुत आगे बढ़ कर राष्ट्र भर की सांस्कृतिक अस्मिता का बन गया। कलाकार को प्रेस वाले प्रधानमंत्री की नाक का बाल बता रहे थे, मुख्यमंत्री और महापौर को वह जान का बवाल लग रहा था, लेकिन करते क्या? उधर, गंगाधरजी की पार्टी ने प्रधानमंत्री की नाक के इस बाल की खाल खींच डालने का पूरा मन बना लिया। प्रधानमंत्रीजी की पार्टी भी ताल ठोंक कर मुकाबिले के लिए तैयार हो गयी।

उसके बाद की गर्मा-गर्मी में इतिहास-चक्र बड़ी तेजी से घूमा, जैसे गर्मी की दोपहर में छत का पंखा घूमता है। पुतले के निर्माता कलाकार महोदय प्रधानमंत्री के पारिवारिक मित्र तो थे ही, कलाकारों के जगत में भी उनका बहुत सम्मान था, दुनिया भर में नाम था। उनके बनाए पुतले को हटाए जाने की बात ने देखते-देखते कलात्मक अभिव्यक्ति की स्वाधीनता के प्रशन का ही नहीं, कला और साहित्य के प्रति लोकतांत्रिक राज्य-सत्ता की संवेदनशीलता और जिम्मेवारी के सवाल का भी रूप ले लिया। पुतले की हैसियत स्थानीय, प्रांतीय से बढ़ कर राष्ट्रीय हुई, फिर वैश्विक। गंगाधरजी की पार्टी को नंगा पुतला परंपरा और संस्कृति को अत्यंत अश्लील चुनौती अत्यंत द्रष्टव्य रूप में देता दिखने लगा, तो कलाकार समुदाय गंगाधरजी की पार्टी को नियमित रूप से कोणार्क और खजुराहो के चित्र दिखाने लगा। दोनों पक्षों की ओर से धरने-प्रदर्शन का दौर चलने लगा। जो बात हल्की-फुल्की सी लगती रही थी, धीरे-धीरे राष्ट्रीय ,समस्या का रूप लेने लगी। धरने-प्रदर्शन तनावपूर्ण बल्कि हिंसक होने लगे। कलाकार तो बेचारे क्या हिंसा करते, प्रधानमंत्रीजी की पार्टी भी जो करती थी, सो आधे मन से। हाँ, गंगाधरजी की पार्टी का सांस्कृतिक जोश पूरे उबाल पर था। उनके प्रदर्शनों में अश्लीलता के दुष्ट समर्थकों की शारीरिक समीक्षा करने और पुतला बना कर संस्कृति और शील को हानि पहुँचाने वाले, प्रधानमंत्री के सखा, कलाकार सरीखे परकीय तत्वों की तथाकथित कला-कृतियों का क्रिया-कर्म करने का उत्साह सक्रिय रूप से अभिव्यक्ति पाने लगा। उनके राष्ट्रीय नेता ने तो घोषणा कर दी कि वे देश के एक कोने से दूसरे तक, दूसरे से तीसरे तक पुतला-विरोधी, संस्कृति-रक्षक यात्रा निकालते हुए आएंगे, पुतले को उखाड़ेंगे फिर देश के चौथे कोने तक यात्रा ले जाकर पुतले को समुद्र में फेंक आएंगे। उनकी चुनौती थी कि ‘ हम तो पुतला ले जाएंगे; कोई रोक सके तो रोक ले…’

कलाकार समुदाय तो भला क्या खा कर इस चुनौती को झेलता, लेकिन प्रधानमंत्री की नाक बीच में फँसी होने के कारण उनकी पार्टी को जरूर स्टैंड लेना पड़ा कि दुनिया इधर की उधर हो जाए, पुतला जहाँ है वहीं रहेगा, जैसा है वैसा ही रहेगा। पुतले की सुरक्षा के लिए केंद्रीय सुरक्षा बल तैनात कर दिये गये।

रवि पुतले के घोर समर्थक थे, नंगे नहाने के उसके लोकतांत्रिक अधिकार के पक्ष में पहला बयान जारी करने वालों में तो उनका नाम था ही, बाद में भी वे पुतले के पक्ष में लिखते-बोलते रहे थे। उधर, मामले के स्थानीय से राष्ट्रीय बनने के अनुपात में ही अश्लीलता-संवेदी राडारों और संस्कृति-प्रेमियों की चिंता भी बढ़ती जा रही थी, हिंसा भी। पुतला समर्थक होने के नाते एक दो बार गालियाँ तो रवि को भी खानी पड़ीं थीं, लेकिन हिंसा से साफ बच गये क्योंकि उस पार्टी में भी उनके अपने लोगों की कोई कमी नहीं थी। उन्हें गालियाँ देने वाले लौंडों को भी शुक्लाजी ने विभाग में रवि के सामने ही डाँटा, और निर्देश दिया था कि दुनिया भर मे आग भले ही लगा देना, लेकिन खबरदार, जो हमारे प्रो. रवि सक्सेनाजी की तरफ आँख उठा कर देखा। शुक्लाजी रवि के सहकर्मी थे, और उन्हीं की तरह लौंडों से जिस-तिस को पिटवा देने की प्रेरणादायक क्षमता में माहिर भी। रवि के प्रति उनके नरम रवैए का कारण था। रवि प्रगतिवाद-मार्क्सवाद आदि दिव्य अमूर्तनों का सार्वजनिक नाम-जाप एवं पूजा-पाठ करते हुए, असली साधना जातिवाद, क्षेत्रवाद और सर्वोपरि, समान-स्वार्थवाद जैसे मूर्त देवताओं की करते थे। इसी साधना की एक विधि यह थी कि हिन्दी के जातीय रूप के तौर पर खड़ी बोली के प्रचंड समर्थक रवि अपने क्षेत्र के किसी भी मनुष्य को देखते ही क्षेत्रीय बोली में शुरु हो जाते थे।

शुक्लाजी भी रवि के क्षेत्र के निवासी  थे। उनसे रवि का निन्यानबे फीसदी संवाद खड़ी बोली हिन्दी के बजाय क्षेत्रीय भाषा में ही होता था।  दोनों विद्वानों की परस्पर विरोधी विचार-धाराओं के अंदर-अंदर बहती व्यवहारिकता की धारा के बीच  समान स्वार्थों का वह द्वीप भी था जहाँ हृदय का हृदय से गोपन, प्रिय संभाषण हुआ करता था। ऐसे गहन हार्दिक संबंध के चलते शुक्लाजी को करनी ही थी रवि सक्सेनाजी की सहायता। उस दिन के बाद से, नगर के न जाने कितने पुतला-समर्थकों की सांस्कृतिक ठुकाई हुई, लेकिन रवि का बाल तक नहीं बाँका नहीं हुआ। शुक्लाजी से प्राप्त हार्दिक सहायता पुतला समर्थक क्रांति करते करते प्रतिक्रियावादी ताकतों से सुरक्षित रहने में रवि के बहुत काम आई। काँख भी दबी रही, मुट्ठी भी तनी रही। दूसरी तरफ यही स्थिति मुख्यमंत्री की पार्टी के प्रसंग में थी। शुक्लाजी के जरिए रवि की पहुँच गंगाधरजी तक थी, तो जैन साहब के जरिए मुख्यमंत्री तक। सब कुछ आनंद से चल रहा था, प्रगतिशील बुद्धिजीवी का जीवन इस पिछड़े देश के सुख-भोग के साथ ही, अमेरिका में टीचिंग असाइनमेंट, और फिर ग्रीन-कार्ड प्राप्ति जैसे महत्तर सुखों के भोग की दिशा में भी निरंतर प्रगति कर रहा था। रवि मन ही मन पुतले के आभारी थे कि नंगे ने मुख्यमंत्री से चिपकने का बहाना दिया, लोक-परलोक सुधारने का अवसर दिया।

इस बीच इंटरनेट, मोबाइल फोन और प्राइवेट टीवी चैनलों के जरिए इन्फोटेनमेंट क्रांति के युग का श्रीगणेश होने लगा था। अब, पुतले का नंगापन भी चौराहे तक ही न रह कर घर-घर पहुँचने लगा, और यहीं से रवि शुरु हुआ की आनंद-कथा में बिगूचन-तत्व का प्रवेश। उनके अपने ड्राइंग-रूम में बजरिए टीवी, पुतला जब पहली बार नजर आया तो उन्हें कुछ अजीब सा अहसास हुआ। टीवी पर चलती रिपोर्ट में रिपोर्टर सारे विवाद का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य दे रही थी, कैमरामैन विभिन्न कोणों से पुतले को दिखा रहा था…रवि की नजर पुतले के कोणों पर क्या होती, वह तो रिपोर्टर-सुंदरी की देह के कोणों पर ही थी। लेकिन, उसी पल,  रवि को यह क्यों दिख रहा था कि जया पुतले की ओर कुछ ज्यादा ही देख रही है…

उस वक्त तो उन्होंने कुछ नहीं कहा, लेकिन रात में जया के अनमनेपन  से उनका माथा ठनका, इतना ठंडापन…इतनी उदासीनता जैसे कि बस बेमन से पत्नी-धर्म निभा रही हो…मामला क्या है…

किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के पहले उचित पड़ताल करना वैज्ञानिक मनोवृत्ति की माँग थी। रवि ने उन पलों को किसी तरह निबटाया, जया के ठंडेपन से आधे ठंडे तो वे हो ही गये थे, बाकी की खानापूरी किसी तरह कर, पीठ फेर कर सो गये…सो क्या गये, वैज्ञानिक मनोवृत्ति की माँग पर विचार करते रहे। अगले दिन, घूमने के लिए रवि जया को  लेकर पुतले वाले चौराहे से ही गुजरे, जया की कनखियों, नजरों और चेष्टाओं पर वैज्ञानिक दृष्टि रखते हुए। रवि का शक यकीन में बदलने लगा… कहीं कुछ गड़बड़ है जरूर…लेकिन अभी धीरज से काम लेना ही बेहतर है, रात में देखते हैं…

यह रात भी वैसी ही थी, जैसी कि पिछली रात…फर्क यह था कि इस रात, जया के ठंडे, निपटाऊ तरीके से बाहर निकल कर रवि मुँहफेरी नींद के हवाले होने की बजाय छज्जे पर आ गये, सिगरेट सुलगाई और सोचने लगे…

शाम को पुतले पर पड़ी जया की नजर उचटती नजर थी, या कसकती? उचट कर वह नजर पुतले के चेहरे तक ही रुकी रह गयी थी या सरक कर कमर के नीचे तक भी गयी थी? और क्या फिर वहाँ से चुप सी चतुराई के साथ फिसलती हुई मेरी कमर के नीचे तक नहीं आई थी? पुतले की कमर पर जो नजर उमंग के साथ घूम रही थी, वह मेरी कमर तक आते-आते क्या उदासी को छुपाती सी नहीं लग रही थी ?

और, अभी कुछ ही देर पहले, उन पलों में, वहाँ हाथ फेरते समय, क्या जया की हथेली ऐसी नहीं लग रही थी कि फिर वहाँ रही है, छू कुछ और रही है…चल वहाँ रही है, जा कहीं और रही है…आम तौर से बिटर-बिटर आँखें  खोले रहने वाली जया पिछले कुछ दिनों से आँखें मूँद क्यों लेती है? मूँद भर लेती है, या मुँदी आँखों किसी और को देखती रहती है…

और, वह हरामी पुतला…जया की नजरों के  सफर को देखते-देखते क्या उसने मुझे आँख नहीं मारी थी?

क्या बेहूदा बात करते हो यार, पत्थर का पुतला…

बेहूदा बात का मतलब? जो बेहूदा खुलेआम सबको दिखा सकता है, वह और क्या बेहूदगी नहीं कर सकता?

कैसी बातें कर रहे हो, इररेशनल….सीधे बात करो ना जया से…

बेवकूफ हूँ क्या…बात करूँ…क्या बात करूँ…कौन मान कर देगी ऐसी बात…और फिर अपनी प्रगतिशील छवि में मर्दवादी होने का बट्टा मैं खुद ही लगाऊँ…किसी और तरह से सत्य का अंतिम निर्धारण करना होगा, करना ही होगा…और जल्दी से जल्दी…

अगली रात समस्या और गंभीर हो गयी। साहित्यिक संस्कारों से संपन्न रवि और जया प्रेम करते समय कुछ कविताएँ आदि याद किया करते थे, स्वरचित भी, पररचित भी। जया ने विवाह के कुछ ही दिन बाद एक कविता रची थी—‘ मेरे पुरुष, मेरे अनूठे पुरुष, कितना मादक, मृदुल है तुम्हारा परुष स्पर्श…’ जया के अधरों से होने वाला इस कविता का अस्फुट उच्चार रवि को बहुत भाता और लुभाता था।

लेकिन, उस रात, उन पलों में, वहाँ हाथ फेरते हुए, जया के मुख से जो अस्फुट स्वर निकले थे, उनकी टेक, ‘मेरे पुरुष’ थी या ‘मेरे पुत…’ जोकि समय रहते सँभाल ली गयी थी। जया उस समय रवि को सराह रही थी या पुतले को? आज जया के अनमने होने से पहले ही रवि पूरी तरह ठंडे हो गये। जया को ताज्जुब हुआ। उसकी ताज्जुब भरी, सवाल करती आँखो के जबाव में कहीं अपनी नफरत आँखों में उतर ना आए, इसलिए रवि ने फौरन मुँह फेर लिया।

संदेह की कोई गुंजाइश अब बाकी नहीं बची थी। दोष जया का नहीं, उस हरामजादे पुतले का था, जिसकी नंगई का मैं मूर्खों की तरह समर्थन करता आया हूँ। वे उठे और छज्जे में जाकर सिगरेट के जरिए विचारक मुद्रा में प्रविष्ट हो गये। विचार का मुद्दा यह था कि यार कुछ भी कहो, पुतला है तो बच्चे का ही, तो, फिर…वह, साला प्रतिक्रियावादी, पतनशील आधुनिकतावादी फ्रायड…उसके कहने में कुछ दम भी था क्या? ये साले अपने स्थानीय दक्षिणपंथी…इनका कहना कि ‘बहन-बेटियों के चरित्र पर चिंतनीय प्रभाव…’ इसमें भी कुछ…

रवि को कुछ बरस पहले देखी फिल्म ‘चक्र’ का एक संवाद याद आने लगा, ‘दुनिया की सारी समस्याओं की जड़ में या तो पेट है, या उसके नीचे वाला…’। फिल्म देखने के बाद रविजी ने मार्क्स और फ्रायड के इस प्रतिक्रियावादी घालमेल की, और अपनी प्रगतिशील छवि को धता बता कर, परदे पर यह संवाद बोलने के लिए नसीरुद्दीन शाह की भूरि-भूरि निंदा की थी।  आज भी…वे स्वयं तो पूरी कोशिश कर रहे थे, इस घालमेल से बचने की;  विचार-धारा के प्रति निष्ठा बनाए रखने की…लेकिन सच यही था कि विचारों की धारा भले ही पेट तक जा कर रुक जाए, अनुभव और अनुभूति का रेला पेट से नीचे की ओर ही खिंचा चला जा रहा था।

सवाल फिर से वही कि पुतला है तो आखिरकार बच्चे का…एकाएक रवि के चित्त में गुत्थी का समाधान कौंधा, कहीं ऐसा तो नहीं कि जया की निगाह वर्तमान के बजाय भविष्य पर; यथार्थ के बजाय उसमें निहित संभावना पर रहती हो…?

इस हृदय-विदारक प्रश्न की गहराई ठीक से मापने का एक ही तरीका था। रवि लपक कर कमरे में आए। बत्ती जलाए बिना ही, मेज की दराज से इंचीटेप निकाला, और उत्तेजना से काँपते हाथ लिए, आशंका में धड़कता दिल लिए बाथरूम में जा घुसे, नाप लेने लगे और इस ह्रदयविदारक सत्य से टकराए कि तीस साल की उम्र में भी आकार उस पाँच साल के बताए जा रहे पुतले के आकार से कुछ कम ही था। उनके सामने स्पष्ट हो गया कि वर्तमान के यथार्थ में निहित भविष्य का सत्य यही है कि आज से कुछ साल बाद ही, ‘इन दि मोमेंट ऑफ हीट, हिज थिंग इज बाउंड टु बी स्ट्रांगर, लांगर ऐंड थिकर…’ आगे मन में जो आया वह रवि से शब्दों में ढालते भी नहीं बन रहा था… ‘दैन माइन…’

अर्थशास्त्र के ज्ञाता मित्रों से इकॉनामी ऑफ स्केल के बारे में सुना था। इस वक्त, रवि अपने भीतर फीयर ऑफ स्केल झेल रहे थे। हाथ में पकड़ा इंची-टेप उन्होंने घिन और गुस्से से भर कर एक तरफ उछाल दिया था; लेकिन स्केल, माप, पैमाना जैसे शब्दों और इनसे सूचित होने वाली वस्तुओं  से जो भय, वितृष्णा और घिन वे महसूस कर रहे थे, उसे कैसे फेंकें? कहाँ फेंकें? ये तो अब जीवन भर ढोया जाने वाला बोझा है, पूर्व-जन्म के पापों की तरह…

मैं कोई मूर्ख भाग्यवादी हूँ क्या?

यह रवि के ह्रदय-परिवर्तन का पल था। उनके मन में साफ हो गया कि कलात्मक संवेदनशीलता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर सार्वजनिक जीवन में नग्नता का समर्थन  करना निहायत जन-विरोधी हरकत है, ऐसी हरकत जो कि वस्तुनिष्ठ ऐतिहासिक आकलन की दृष्टि से प्रतिक्रियावादी तत्वों को ही मजबूत करती है। पुतले के नंगेपन का जो समर्थन करते आए थे, वह रवि को अपनी ऐतिहासिक भूल -‘हिस्टारिक ब्लंडर’- लगने लगा।

सवाल यह था कि इस ऐतिहासिक भूल को सुधारने की रणनीति और कार्यनीति क्या हो? जन्मजात रणनीतिकुशलता के कारण, आत्म-साक्षात्कार और भूल-साक्षात्कार के इस मार्मिक पल में भी यह वास्तविकता रवि की आँखों से ओझल नहीं थी कि बात जहाँ तक पहुँच चुकी है, प्रधानमंत्री की नाक जिस तरह पुतले के साथ बिंध चुकी है, उसे देखते हुए पुतले का हटा दिया जाना तो असंभव है। ‘मौजूदगी तो उस कमीने नंगे की झेलनी ही पड़ेगी, बंधु’, रवि ने स्वयं से कहा, ‘व्यावहारिक यही है कि जिस बेहूदगी से हरामजादा दिखा-दिखा कर मुझे चिढ़ाता और जया को लुभाता रहता है, उस बेहूदगी  का इलाज करके ही संतुष्ट हो लिया जाए’।

लेकिन वह इलाज हो कैसे?

सवाल पर थोड़ी ही देर सोचने के फलस्वरूप रवि फिर से एकबार अपनी मौलिकता और सर्जनात्मकता पर मुग्ध होने का अवसर पा गये। इस मुग्धता के साथ वे बाथरूम से भी बाहर आए, और किसी हद तक ‘स्ट्रांगर, लांगर, थिकर’ वाली तुलना की मर्मांतक वेदना से भी। उन्होंने द्वंद्वात्मक पद्धति का सार्थक उपयोग कर, थीसिस-ऐंटी थीसिस के परस्पर अनुप्रवेश से गुजरते हुए सिंथेसिस की खोज कर ली थी। यह खोज भारतीय परंपरा की मूल समन्यवयात्मक जीनियस के भी सर्वथा अनुरूप थी।

बाथरूम में चिंतन के पल बिताने के बाद रवि  पुतले को एकदम  हटा ही देने या उसे नंगा ही रहने देने के अतिरेकों के परे समाधान की दिशा में बढ़ गये थे। इंचीटेप लेकर बाथरूम में घुसने के पहले तक समाज में कला-संवेदना फैलाने की बात करते आए थे, इंचीटेप फेंक, बाथरूम से निकलते समय संवेदना फैलाने की बजाय, रवि पुतले को चड्डी पहनाने के समर्थक हो चुके थे।

यही एकमात्र रास्ता था। नंगेपन की बेहूदगी से स्वस्थ संस्कृति को, विवाद से नगर बल्कि देश को, और पुतले की चिढ़ाऊ चुनौती से स्वंय रवि को राहत देने वाला रास्ता सिर्फ और सिर्फ चड्डी से हो कर जाता था। इसी में सबकी भलाई थी। यही वह पंथ था जिस पर महाजनों को चलना चाहिए। तुच्छ जन तो पीछे-पीछे स्वयं ही आ जाएंगे। सो, कोशिश महाजनों को पटाने की होनी चाहिए। मुख्यमंत्री और गंगाधरजी को मनाया जाना चाहिए कि अपनी-अपनी जिदें छोड़ कर पुतले को चड्डी पहना कर वहीं खड़े रहने देने के मध्य-मार्ग पर चल पड़ें। रवि की आँखें अपनी महानता पर स्वयं गद्-गद् होने के कारण भर आईं…कितना बड़ा काम, कितने घोर विवाद का निबटारा करा रहे हैं प्रभु…आई मीन इतिहास-प्रभु मुझ से…धन्य हो भगवन…आई मीन धन्य हो, इतिहास देवता…भरे कंठ के मौन शब्दों के जरिए रवि इतिहास-देवता को कृतज्ञता के पुष्प अर्पित कर रहे थे…

यह कृतज्ञता का पल था, यह आत्म-साक्षात्कार का पल था, यह इतिहास के मंदिर में आत्मार्पण का पल  था, यह ऐसा कुछ कर जाएं कि यादों में बस जाएं वाले जोश का पल था, यह दूरगामी सामाजिक-सांस्कृतिक योगदान कर पाने के संतोष का पल था, यह ऐतिहासिक भूल को सुधारने के शुभारंभ का पल था।

यह चड्डी-पल रवि सक्सेना के जीवन में लक्ष्य की स्फटिकवत् स्पष्टता का पल था।

इस पल के बाद से, पुतले की नग्नता औरों के लिए जो हो, रवि के लिए नितांत निजी चुनौती थी; चड्डी औरों के लिए जो हो, रवि के लिए जीवन का लक्ष्य थी, शब्द और कर्म की एकता का प्रमाण थी। अब तो, बस, मन में ठान ली थी, सो ठान ली थी–हरामजादे पुतले  को चड्डी ना पहनाई तो,  ‘क्या किया, जीवन क्या जिया…’

अब रणनीति सोचनी थी। पुतले को चड्डी पहनाने के सपने के साथ ही काँख और मुट्टी की नाजुक द्वंद्वात्मकता को  भी तो साधे रखना था, पुतले के उपचार के साथ ही अपने और सपने भी पूरे करने थे। जरूरत थी सतत सावधान साधना की।

रवि के जीवन के पिछले बीस साल इसी साधना के साल थे।

धीरज और चतुराई के साथ रवि ने चड्डी-परियोजना पर अमल आरंभ किया। सबसे पहले तो लेख लिखा विवाद का समाधान संवाद के जरिए करने का आव्हान करते हुए। लोगों को, खासकर कलाकार समुदाय को बात अच्छी भी लगी, लेकिन जब संवाद-सभा में रवि ने बीच का रास्ता सुझाया कि पुतले को चड्डी पहना दी जाए तो कलाकार समुदाय उखड़ गया। इस तरह तो कलाकृति की ऐसी की तैसी हो जाएगी, यह तो वैसा ही है कि ललित कला अकादमी में टंगें न्यूड कैनवासों पर साड़ी पेंट कर दी जाए, या खजुराहो से लेकर आज तक के नग्न शिल्पों को निक्कर पहना दी जाए। यह कैसी बेतुकी और इनसेंसिटिव बात कर रहे हैं, रवि? सभा में मौजूद जया रवि का सुझाव सुन कर सनाका खा गयी। रवि उसकी ओर देख ही नहीं रहे थे कि वह आँखों-आँखों में रवि से इस तरह गुलाँट खाने की वजह दरियाफ्त कर सके।

कलाकारों, बुद्धिजीवियों के बीच रवि संदिग्ध हुए जरूर, लेकिन उन्होंने मुख्यमंत्री और गंगाधर दोनों की तीखी निन्दा करके फिर से कलाकार-बुद्धिजीवी समुदाय को अपनी मूल क्रांतिकारिता का विश्वास दिलाया। उधर, जैन साहब के साथ जा कर मुख्यमंत्रीजी से, और शुक्लाजी के साथ जा कर गंगाधरजी से मिलने में भी देर नहीं लगाई। बात दोनों नेताओं को जम भी गयी, तय हुआ कि यदि सरकार ऐसी कोई पहलकदमी करे तो गंगाधरजी सुनिश्चित कर लेंगे कि उनकी पार्टी भी पुतले को हटाने की जिद छोड़ कर उसे चड्डी पहनाने पर राजी हो जाए।

समस्या थी, बेहूदे कलाकारों की ओर से। वह मोर्चा भी रवि ने ही सँभाला, उन्होंने सामाजिक दायित्व की उपेक्षा करने वाले, नग्नता को कलात्मक मूल्य का दर्जा देने वाले कलावाद के खिलाफ ताबड़तोड़ कड़े से कड़े लेख लिखे, लिखवाए, भाषण दिए, दिलवाए। कुछ बुद्धिजीवियों को मुख्यमंत्री की ओर से आश्वासन और पद-पुरस्कार भी दिलवाए। माहौल धीरे-धीरे चड्डी के पक्ष में बनने लगा। यह सब करते हुए रवि को पुतले पर इन दिनों गुस्से और नफरत का अहसास तो होता ही था, ईमानदारी के पलों में वे उस नंगे के प्रति कृतज्ञ भी होते थे। आखिर यह उस नंगे का ही कमाल था कि मुख्यमंत्री से रवि लगभग हर सप्ताह मिलते थे, यह उस बेहूदे का ही कमाल था कि रवि के लिए मुख्यमंत्री तक पहुँचने के वास्ते जैन साहब और गंगाधरजी तक पहुँचने के वास्ते शुक्लाजी अप्रासंगिक हो चले थे।

लेकिन, चड्डी साधना इतनी आसान फिर भी नहीं थी। मुख्यमंत्री के लिए तो बिल्कुल ही नहीं थी। प्रधानमंत्री की नाक जहाँ फँसी हो, उस मामले में सरकार किसी भी तरह के समझौते का रुख दिखाए तो दिखाए कैसे?

मुख्यमंत्री ने तय किया कि कलाकार से बात करके उन्हें चड्डी पहनने, माफ कीजिएगा, पुतले को चड्ड़ी पहनाने को राजी कर लें, फिर बाकी कलाकार, बुद्धिजीवी आदि तो मान ही जाएंगे। पहले तो, उन्होंने कलाकार महोदय से परवारे ही बात करने की सोची थी, लेकिन लगा कि कहीं पीएम उखड़ गये तो?  उधर पीएम भी अब विवाद से चट चले थे, जिसने उन्हें ना उगलते बने ना निगलते की दशा में ला छोड़ा था। सोचने लगे थे कि पुतला चड्डी पहन ही लेगा तो कौन सा आसमान टूट पड़ेगा? कभी कभी स्वयं को कोसते भी थे कि खामखाह नंगे पुतले को नाक का सवाल बना बैठे। ऐसे में, कलाकार स्वयं मान जाए तो क्या हर्ज है? वैसे भी, बात मुख्यमंत्री करेंगे, अपनी कला-प्रेमी और दृढ़ राजनेता की छवि तो बनी ही रहनी है। उन्होंने मौनं स्वीकृतिलक्षणं वाली मुद्रा अपना ली।

कलाकार से बात करने का अनुभव मुख्यमंत्री के लिए बड़ा दुखदायी सिद्ध हुआ। एक तो, न जाने कितने बरस बाद, उन्हें भाषण देने की बजाय लेना पड़ गया। कलाकार सिद्धहस्त मूर्तिकार होने के साथ ही सिद्धमुख, अनथक बोलक भी थे, और अपने महत्व  से अवगत भी। उन्होंने न मुख्यमंत्री के समय की परवाह की, न मूड की। पूरे पचास-साठ मिनट का क्लास-रूम लेक्चर दे डाला, सो भी कलाकृति की इयत्ता, उसके अस्तित्व की पावन स्वायत्तता, शरीर की समग्रता में हर अंग की अपनी समग्रता की अनुल्लंघनीय पवित्रता, कला में नग्नता की महिमा, स्नान में निर्वस्त्रता का महत्व सरीखी शब्दावली से लिथड़ा हुआ।

कलाकार ने कला के प्रति संवेदनशीलता का मार्मिक उपदेश देते देते मुख्यमंत्री को लोक-कथा के उस पात्र की दशा में पहुँचा दिया था, जिसे प्याजों से बचने के लिए जूते खाने पड़े थे, और जूतों से बचने के लिए प्याज। मुख्यमंत्री के मन में बार-बार आ रहा था कि कलाकार का कुछ उपचार तो स्वयं उसी विधि से कर दें, जिस विधि की दूरभाष पर की गयी घोषणा मात्र ने महापौरजी को प्रेतबाधा की प्रतीति करा दी थी; बाकी के लिए साले को ऐसे उपचारों के लिए विख्यात, अपने विश्वस्त पुलिसकर्मियों के हवाले कर दें।

काश, यह मूर्तिकार पीएम का मुँहलगा न होता… काश इतने सारे टीवी चैनल कुकुरमुत्तों की तरह उग ना रहे होते…काश नौजवानों के बीच इंटरनेट नामक बीमारी का इतना विस्तार ना हो रहा होता…

इतने सारे काशों के आगे कुछ कर पाना मुख्यमंत्रीजी के लिए कठिन था। अब तो प्रधानमंत्री का मार्गदर्शन लेना ही पड़ेगा।

प्रधानमंत्री मन ही मन पुतले से, पुतले के निर्माता कलाकार से, सारे माहौल से कुढ़े बैठे थे, लेकिन मुख्यमंत्री को कुढ़न की हवा तक नहीं लगने दी। उनकी सारी बात ध्यान से सुनी, उनके प्रदेश के और उनके स्वास्थ्य के हाल-चाल पूछे। पुतले के बारे में एक शब्द नहीं बोले। एपाइंटमेंट का समय समाप्त हो चला, मुख्यमंत्री बेचैन हो चले। क्या करें? एकाएक प्रधानमंत्री ही बोले, ‘चुनाव निकट आ रहे हैं, सोचता हूँ, आपकी प्रतिभा और क्षमता  का उपयोग संगठन के लिए किया जाए…’

मुख्यमंत्री को बचपन में पढ़े अनेक मुहावरों का बोधार्थ और भावार्थ एक ही झटके में सिद्ध हो गया। उन्हें मालूम पड़ गया कि पाँव के नीचे से धरती कैसे खिसकती है, रीढ़ की हड्डी में ठंडक कैसे दौड़ती है, सर पर आसमान कैसे टूट पड़ता है, जबान कैसे तालू से चिपक जाती है। उनका चेहरा अपने ही नहीं, प्रधानमंत्री के कुर्ते से भी ज्यादा सफेद हो गया। हे प्रभो…यह क्या…यह क्यों…

प्रधानमंत्री मेज पर रखी फाइलें देखने लगे थे। मुख्यमंत्री ने किसी तरह अपने बिखरते तन-मन को समेटा, और कुर्सी से उठने की तैयारी करने लगे। एकाएक प्रधानमंत्री फाइलों पर निगाह टिकाए टिकाए ही आकाशवाणी सी करते हुए बोले– ‘लोकतंत्र में न्यायिक प्रक्रिया का भी तो महत्व है, आखिर, हम कानून का राज चला रहे हैं, किसी की मनमानी नहीं…’

आकाशवाणी करके प्रधानमंत्री तो अपने मौन में, और फाइल में पुन: प्रविष्ट हो गये। इधर, आकाशवाणी से लाभान्वित मुख्यमंत्री को अब दूसरी तरह के मुहावरों का अर्थ सिद्ध होने लगा। दिखने लगा कि कैसे मन-मयूर नृत्य कर उठता है, कैसे अंधेरी सुरंग के सिरे पर रोशनी की किरण नजर आने लगती है।

अपनी राजधानी वापस पहुँचते ही, मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री के कुशल नेतृत्व के लिए देश की ओर से कृतज्ञता प्रकट की, साथ ही,  पुतला विवाद हल करने के लिए एक आयोग के गठन की घोषणा कर डाली। यह भी स्पष्ट कर दिया कि आयोग की रपट आने तक पुतले जहाँ है, वहीं रहेगा,जैसा है, वैसा ही रहेगा, लेकिन रहेगा लोगों की निगाह से दूर। इस तरह पुतले के एकांतवास और निर्वासन के दिन आरंभ हुए, उसे आनन-फानन में दीवार और चंदोवे में कैद कर दिया गया।

आयोग की नियुक्ति में थोड़ा समय लगा। न्यायमूर्ति लेबयान जब इस एक सदस्यीय  आयोग के अध्यक्ष नियुक्त हुए तो कलाकारों और पुतले के अन्य समर्थकों के बीच हर्ष की लहर दौड़ गयी और गंगाधरजी की पार्टी में अमर्ष की। लेबयान साहब खाँटी लिबरल थे, पुतला-विवाद में भी कला की स्वायत्तता और अभिव्यक्ति की स्वाधीनता आदि की बातें कर चुके थे। गंगाधरजी ने बयान जारी करके चेतावनी दे दी कि आयोग के अध्यक्ष लेबयान हों, या देबयान; नंगई किसी भी दशा में सहन नहीं की जाएगी। देश की सांस्कृतिक परंपराओं और नगर के चरित्र के साथ खिलवाड़ करने की अनुमति कदापि नहीं दी जाएगी। मुख्यमंत्री ने स्पष्ट कर दिया कि न्यायिक प्रक्रिया का सम्मान सबको करना ही होगा। रहे कलाकार, लेखक आदि, सो उनमें से अधिकांश धीरे-धीरे मानने लगे थे कि यार, ‘और भी ग़म हैं, जमाने में पुतले के सिवा’।

जस्टिस लेबयान ने भी बयान जारी किया कि अपनी सिफारिशें वे बहुत सोच-विचार कर, गहन और विशद अध्ययन के बाद ही देंगे। और, उन्होंने अपने इस बयान पर सचमुच ‘लेटर ऐंड स्प्रिट’ में अमल कर दिखाया। मामले की तह तक पहुँचने के लिए समाज, साहित्य, संस्कृति, कला और परंपरा के अंतस्संबंधों को समझना जरूरी था। कलाकारों, लेखकों का मानस समझने के लिए उनके उत्सवों के औपचारिक-अनौपचारिक हिस्सों में हिस्सेदारी भी जरूरी थी। सो, जस्टिस लेबयान अंतर्राष्ट्रीय साहित्य समारोहों से लेकर अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों तक में नियमित रूप से, सरकारी खर्चे पर मौजूद रहने लगे। लेबयान साहब पुतले के भाग्य का फैसला करने का गंभीर दायित्व निभाने अनेक बार बुकर एवार्ड की सेरेमनी में शामिल हुए, अनेक बार एकेडमी एवार्ड्स के फंक्शन में। कान भी गये, स्टाकहोम भी हो आए। देश में भी उन्होंने जयपुर लिटफेस्ट  से लेकर मुंबई में फिल्मफेयर नाइट तक के समारोह खूंद डाले। यही नहीं, समारोह-धर्मिता के बाहर, दैनंदिन जीवन में संस्कृति की उपस्थिति का मर्म समझने के इरादे से जस्टिस लेबयान संसार के कोने-कोने में गये। अफ्रीका महाद्वीप में जरूर ईजिप्ट, मोरक्को, दक्षिण अफ्रीका और मारीशस को छोड़ किसी अन्य देश में कदम रखना लेबयान साहब ने जरूरी नहीं समझा, बाकी तो दुनिया का कोई देश लेबयान आयोग की रिपोर्ट के परिशिष्ट का हिस्सा बनने से बच नहीं पाया।

काम इतना फैला-पसरा हो, तो समय-सीमा का क्या मतलब? जब भी आयोग की घोषित अवधि पूरी होती, लेबयान साहब एक्सटेंशन माँग लेते, जोकि फौरन मिल भी जाता। पुतले के सच्चे समर्थकों को लगने लगा था कि सारा मामला नूरा कुश्ती में बदल गया है। लेबयान आयोग की असली भूमिका विवाद को टालते-टालते ठंडा कर देने की है। लेबयान साहब ऐसी बातें करने वालों को समझाने की कृपा बीच-बीच में कर देते थे।उनका कहना था कि विवाद खड़ा करना आसान है, उसका स्थायी समाधान धीरज से ही खोजा जा सकता है। ऐतिहासिक महत्व की गतिविधियों को समय के अखबारी पैमाने पर मापना बेवकूफी है। आयोग सिफारिश देगा तो ऐसी कि सब मानें, अनंत काल तक के लिए मानें, यह नहीं कि आज सिफारिश दी, कल दूसरे आयोग की नियुक्ति की नौबत आ गयी।

इतनी गंभीरता से लिया लेबयान आयोग ने अपनी संभावित सिफारिशों के स्थायित्व को कि उनका इंतजार करते करते, लेबयान आयोग की नियुक्ति करने वाले मुख्यमंत्री धरा-धाम से ही सिधार गये, सिफारिश नहीं आई। उन्हें आकाशवाणी के जरिए मार्गदर्शन देने वाले प्रधानमंत्री भी पीछे-पीछे चले गये, सिफारिश नहीं आई। पुतले के निर्माता कलाकार वृद्धावस्था को प्राप्त हो कर सिद्धहस्तता और सिद्धमुखता दोनों से वंचित हो चले, सिफारिश नहीं आई। गंगाधरजी अपनी पार्टी में दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करते स्थानीय से राष्ट्रीय नेता बन गये, सिफारिश नहीं आई। नयी पीढ़ी पुतले के बारे में स्थानीय इतिहास और विश्वव्यापी अंतर्जाल के जरिए ही जानने की अवस्था को प्राप्त हो गयी, सिफारिश नहीं आई। कुछ लोग तो यह तक भूल चले कि लेबयान आयोग का गठन हुआ किसलिए था, लेकिन सिफारिश नहीं आई तो नहीं ही आई।

इन बीस सालों में पुतला-विवाद काफी कमजोर पड़ गया था। जस्टिस लेबयान जब इस सिलसिले में किसी नयी विदेश-यात्रा पर जाते या सरकार से एक्सटेंशन की माँग करते या कोई नेता बयान देते तब आ जाने वाली थोड़ी-बहुत गर्माहट को छोड़ दें तो बस ठंडक ही ठंडक थी। सबसे गहरी ठंडक आ गयी थी रवि और जया के संबंधों में, यहाँ तक कि दोनों को इस ठंडक की आदत सी पड़ गयी। पुतले के लोटे से बहता पानी जैसे नाली में बहने की बजाय  बर्फ की नदी के रूप में रवि और जया के बीच जमने लगा था। बरस-दर-बरस मोटी होती जा रही इस बर्फ की परत यदि कभी पल-दो-पल के लिए दरकना भी चाहती तो, उन पलों में भी जया की मुस्कान में रवि को कहीं न कहीं पुतले की शरारती मुस्कान छुपी दिख जाती थी।

जया कभी-कभी सोचती थी कि मुझे तो बस पुतले को देख कर हँसी आई थी, रवि को मेरे गालों पर लाज की लाली कैसे दिख गयी? मैं पुतले को देख कर कम हँसी थी, और रवि के भोले से बुद्धूपन पर अधिक। इस भोलेपन को बेवकूफी में किसने बदला? जिस प्यार से मैं हँसी थी, उसे बेतुकी तुलना में किसने बदला? दोस्ती की जिस जमीन पर खड़ी मैं हँस रही थी, उसमें निराधार ईर्ष्या की बारूदी सुरंग किसने लगाई?

जया इन प्रश्नों के उत्तर भली भाँति जानती थी, लेकिन जानने का फायदा क्या था?

कभी-कभी रवि के सामने भी आते थे इस तरह के सवाल। लेकिन, हमेशा सही होने की गलतफहमी तो उनकी चेतना के पोर-पोर में पैबस्त थी। उनकी चेतना अपने सदा सही होने के जिस अँधेरे कमरे में निवास करती थी, उसमें किसी और के सही होने की संभावना की किरणें कभी कभी ही झाँक पाती थीं। रवि का मन ऐसी झिर्रियों को बंद  करने में देर भी नहीं लगाता था, जिनसे किसी और के सच के किरणें इस अँधेरे कमरे में घुस पाएँ। रवि अपने सतत प्रकाश के अँधकार में थे, और ऐसे अँधकार से निकल पाना…

नामुमकिन नहीं, तो, बहुत, बहुत मुश्किल जरूर था।

 

चौराहे पर नहाने का नाटक करता बदमाश पुतला रवि की जिन्दगी के हर कोने में घुस गया था। शतरंज की बिसात पर जैसे घोड़ा सब मोहरों को फलांगता चलता है, वैसे ही वह हरामी पुतला जब चाहता, ढाई घर की दुलत्ती मारता और रवि को जहाँ जी चाहे दबोच लेता। उसके लिए कोई क्षेत्र वर्जित क्षेत्र नहीं था। क्लास, स्टाफ-रूम, बाजार, सभा-सेमिनार…यहाँ तक कि रवि और जया के ऐन अपने पलों में भी कमीना बीच में आ घुसता। स्ट्रांगर, लांगर, थिकर की भवितव्यता के आंतक में रवि और सिकुड़ जाते, जया और मुरझा जाती।

कभी-कभी रवि झल्लाते अपने आप पर, कभी रोते अपने भाग पर। तर्कशीलता का सहारा लेकर अपनी इस मनो-व्याधि से निकलने का यत्न करते, लेकिन विधिवत सायकाट्रिस्ट से मिलना उन्हें कतई मंजूर नहीं था, जया ने एक बार सुझाव दिया था तो संध्याकालीन सुरा-वंदन करते रवि के मुँह से गालियाँ निकलने लगी थीं। जया के लिए तय करना मुश्किल हो चला था कि वह इस बीमार इंसान पर दया करे या इस कूढ़मगज, जिद्दी पति में एक हाथ जमा दे। दोनों ही विकल्प असंभव से थे, जया ना तो ठीक से रवि नाम के इंसान पर दया कर पाती थी, और रवि नाम के पति का उपचार। जो कर पाती थी, उसे दया और घृणा, कृपा और क्रोध के बीच कहाँ रखा जाए, इस उलझन को जया कभी नहीं सुलझा सकी।

रवि जल्दी ही अपनी झल्लाहट, अपने भाग्य पर रुदन से बाहर निकल कर अपनी मर्दानगी साबित करने पर उतारू मर्द, प्रतिशोध के लिए खड्ग-हस्त पुरुष-पुंगव में बदल जाते। स्वयं को सायास चड्डी-साधना में डुबो देते।

आज इस साधना की सार्थकता का दिन था।

लेबयान  साहब ने रिपोर्ट दे दी थी। इस बीच तीन मुख्यमंत्री और बदल चुके थे, वर्तमान का नंबर पाँचवाँ था। प्रधानमंत्री भी तीसरे चल रहे थे, हालाँकि केंद्र और राज्य में शासक पार्टी वही थी, इसलिए पुतले और लेबयान दोनों के प्रति कमिटमेंट भी ऐन वैसा भले ना हो, तो भी था जरूर।  रिपोर्ट ने कलाकारों को भी निराश किया और पुतले के आम समर्थकों को भी। कुछ दुष्टों ने तो लेबयान आयोग की दीर्घकाय रिपोर्ट को ‘खोदा पहाड़, पाई चुहिया’ की संज्ञा भी दे डाली। दुनिया भर की सभ्यताओं में कला की स्थिति का विस्तृत विवेचन करते हुए; कला, समाज,राज्य और कानून के संबंधों पर गंभीर विमर्श करते हुए लेबयान साहब इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि, यों तो, पुतले की कलात्मक स्वायत्तता और समग्रता, उसकी सहज नग्नता में ही है; किंतु, समाज और कला के संबंधों की नजाकत को देखते हुए; व्यापक जन-भावनाओं को ध्यान में रखते हुए, पुतले को चड्डी पहना देना ही उचित होगा।

लेबयान साहब ने यह सिफारिश भी लगे हाथ कर दी कि पुतले की चड्डी को बेगार की तरह से न लिया जाए। ऐसा नहीं कि गंदी सी रबड़ या प्लास्टिक की चड्डी पहनाई, और छुट्टी पाई। चड्डी रोजाना बदली जानी चाहिए, पर्याप्त संख्या में चड्डियो की व्यवस्था होनी चाहिए, सारी चड्डियाँ एक ही रंग और एक ही डिजाइन की नहीं होनी चाहिएँ। चड्डी पहना दिए जाने के बावजूद पुतले से छलकते ताजगी और नवीनता के अहसास पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए।

आज का चल-समारोह इन सिफारिशों पर अमल का ही समारोह था। आगे-आगे चल रहे नौजवानों के हाथ में जो थाल थे, उनमें पूरी तीस चड्डियाँ थीं। आज पहनाई जाने वाली, शांति और सद्भावना के सफेद रंग की चड्डी एक अलग थाल में अकेली सुसज्जित थी। केयरटेकर की नियुक्ति हो चुकी थी, आज मुख्यमंत्री और गंगाधरजी द्वारा संयुक्त रूप से पहली चड्डी पहनाई जाने के बाद, नियमित रूप से पुतले की चड्डियाँ बदलना, धुलवाना, उनकी सार-सँभाल करना केयरटेकर का ही काम होने वाला था।

सारी व्यवस्थाएँ ठीक थीं, बस पुतले का आवरण हटना था। उसके पहले नेताओं का माल्यार्पण से स्वागत, फिर उनके भाषण और दूसरे रीति-रिवाज हस्बमामूल होने ही थे…इस  सब  के बाद, गोल दीवार के दरवाजे पर बरसों से जड़ा ताला खोला गया…

पुतले का आवरण अंतत: हटा, और हटते ही…

गंगाधरजी को पुराणों का कलि-काल वर्णन याद आने लगा, कभी विष्णुपुराण के श्लोक याद आएं, तो कभी अग्निपुराण के। कलिकाल में वस्तुएँ अपना धर्म त्याग देती हैं, आग जलना बंद कर देती है, पानी बहना…सब कुछ उलटा-पुलटा हो जाता है, यहाँ तक कि मनुष्यों का कद छोटा होने लगता है, लोग बौने होने लगते हैं…चौंक पड़े गंगाधरजी…कलियुग यानी बौना समय, बौनों का समय…याने हमारा समय…लेकिन, गंगाधरजी किसी भी पुराण के कलियुग वर्णन में वैसा कुछ होने का संकेत याद नहीं कर पा रहे थे जैसा उनके सामने इस पल था…

उधर, मुख्यमंत्री का पुराण-बोध तो प्रधानमंत्री के वंश-पुराण तक ही सीमित था, हालांकि उस पुराण में भी चमत्कारों की कोई अभाव नहीं था, लेकिन ऐसी अनहोनी के संकेत तो वहाँ भी नहीं थे।

प्रो. रवि सक्सेना की प्रतिक्रिया दोनों महानुभावों से कुछ कुछ मिलती-जुलती; कुछ-कुछ अलग थी…जो देख रहे थे उसे देख कर मन में अचंभा भी था, क्रोध भी, लेकिन खुद के सही साबित होने के संतोष का बोध भी…मैं तो पहले से ही जानता था कि हरामी कुछ अनहोनी करेगा ही करेगा, जिस दिन साले ने मुझे सताया था, बरसों से चले आ रहे, अच्छे-खासे दांपत्य-जीवन के बावजूद इंचीटेप हाथ में उठवाया था, मैं तो उसी दिन भाँप गया था इस कमीने का हरामीपन….यार लोग मुझे ही पागल समझने लगे थे, परम-प्रिया जया जी तो चोरी-छुपे सायकाट्रिस्ट से कंसल्ट भी कर आई थी, साली गंदी-गंदी फैंटेसी खुद पालती थी, सायकिक केस मुझे बताती थी, अब यहाँ लेके आ अपने उस फ्रायड की नाजायज औलाद सायकाट्रिस्ट को…देख, देख इस साले पुतले की हरकत…

सही साबित होने के संतोष के अजीब से क्रुद्ध बोध के साथ ही रवि हताश भी बहुत थे…चकित तो वे क्या सारा जन-समूह था, टीवी पर लाइव कवरेज देख रहा सारा देश था…

जो लोग पुतले को उसके निर्वासित एकांत में भेज उसकी नियति पर विमर्श, विवाद, संवाद और संग्राम करते रहे थे, आज उनके चकित होने का ही दिन था। नहीं, पुतला गायब नहीं हुआ था, वह अपनी उसी जगह पर था जिसे उसकी जेल में बदल दिया गया था। लेकिन आज पुतले ने जेल को चुपचाप अपनी जगह में फिर से बदल डाला था, अपने निर्वासित एकांत को अपने होने की खामोश मुनादी में बदल डाला था।

पुतला वहीं था, नहा वैसे ही रहा था, लेकिन था वैसा ही नहीं, जैसा कि बीस साल पहले। उसे निर्वासित करने वालों ने सोचा था कि सड़ता रहेगा, विवाद का निपटारा होने तक; पुतला निर्वासन में सड़ने की बजाय एकांत में बड़ा हो गया था। थाल में भात की  सामग्री की तरह  सजा कर लाईं गयीं चड्डियाँ तो पाँच साल के बच्चे के लिए थीं, और यहाँ भतैयों के सामने नहा रहा था–पचीस साल का सजीला, सांवला, संगमरमरी नौजवान…वैसे ही भोले शरारतीपन के साथ, अकेले नहा सकने  के आत्म-विश्वास के साथ, निर्वस्त्र नहा सकने के सुख के साथ…पुतले के भोले शरारतीपन के सामने गंगाधरजी को याद आ रहे पुराणों का कलि-काल-वर्णन उलटा हो गया था। गंगाधरजी को समझ नहीं आ रहा था कि इस उलटबाँसी का क्या अर्थ निकालें कि जीवित होने का दावा करने वाले मनुष्य जिस कलिकाल में बौने होते जा रहे हैं, उसी कलिकाल में पत्थर का यह जड़ पुतला अपने कद में बढ़ता चला गया था।

जो चड्डियाँ पुतले को पहनाने के लिए लाईं गयी थीं, वे उसकी निर्वस्त्रता के आगे छोटी पड़ गयीं थीं, और उसे चडडी पहनाने पर आमादा अक्लें उसकी हिमाकत के सामने बौनी हो गयीं थीं। पथरीले पुतले की खामोशी के आदी लोग खुद पथरीली खामोशी में चले आए थे। कलियुग-वर्णन सटीक उतर रहा था। सभी वस्तुएँ अपना-अपना स्वधर्म त्याग रहीं थीं। बैंड वाले बैंड बजाना भूल गये थे, नारे लगाने वाले नारे लगाना। चीख-चीख कर खबरें तोड़ने वाले, हरेक इंसान से तुके-बेतुके सवाल पूछने वाले और खुद को देश भर की आवाज बताने वाले टीवी एंकर तक हकबका कर चुप हो गये थे।

इस खामोशी में, यह मंजर यह नजारा सीधे या टीवी के जरिए देख रहे अंतर्जालजनित-ज्ञान-संपन्न महानुभवों और देवियों की स्मृतियों में यूरोप के विभिन्न म्यूजियमों में संरक्षित निर्वसन पुतले प्रकट होने लगे थे… स्मृतियाँ तो यूरोप की सैर कर रही थीं, वर्तमान पल में महानुभावों की चेतना में कुंठा और ईर्ष्या सक्रिय हो चली थी और देवियों की चेतना में जिज्ञासा और कामना…

सारा देश स्तब्ध था, मौन था, लेकिन प्रोफेसर रवि सक्सेना के भीतर, संगमरमरी चट्टान के इस दुष्ट टुकड़े, साँवले पुतले को देख कर चट्टानें तोड़ने वाले डायनामाइट के विस्फोट हो रहे थे… अपनी जन्मजात प्रगतिशीलता को साथ लिए दिए ही उन्हें, इस पल धार्मिक अंधविश्वासों पर विश्वास ही नहीं उन्हें जीने की अदम्य कामना भी हो रही थी। वे एक पल अपनी कल्पना किसी राक्षस के रूप में कर रहे थे कि इस दुष्ट को कच्चा ही चबा जाएँ, अगले पल किसी अगियाबैताल ऋषि-मुनि के रूप में कि शाप उच्चारें और पुतला अपने अंग-प्रत्यंग-उपांग सहित खंड-खंड हो जाए। लेकिन पुतला तो खड़ा था, पुतला तो बड़ा था, अपने अंग-प्रत्यंग-उपांग सहित बड़ा। एक पल के लिए ही सही, रवि को इस घोर कुंठा के क्षण में भी अपनी तारीफ करने का मन हो आया, ‘देखा, मेरा सहज कवि-स्वभाव। पुतले की कमीनगी तक कविता बन कर ही, खड़ा और बड़ा के अनुप्रास में ही, दर्ज हो रही है मेरे मन में…’

लेकिन, अगले ही पल उनके क्रोध का लावा जया की ओर बह निकला था—तिरिया चरित्तर, तिरिया चरित्तर साला…

फिर पालिटिकली इनकरेक्ट मुहावरा…

ऐसी की तैसी पालिटिकल करेक्टनेस की…तिरिया-चरित्तर नहीं तो और क्या है कि पहले पुतले के नंगेपन का खुलेआम समर्थन किया, फिर मेरा लिहाज करने का नाटक करके बाहर तो चुप रहने लगी, लेकिन घर में… तिरिया-चरित्तर, तिरिया-चरित्तर…शुद्ध तिरिया-चरित्तर… साजिश थी दोनों की।  यह साला पुतला यहाँ चुपचाप खड़ा-खड़ा बड़ा होता रहा, वहाँ वो कमीनी मेरी धरम की पत्नी सब जानते हुए चुप्पी साधे रही…मेरा कार्टून बनाती रही…मिल कर किया है दोनों ने….इस साले का तो क्या करें, लेकिन इस लुगाई को ठीक नहीं किया तो मैं वाकई…साला और कुछ नहीं, शुद्ध ककोल्ड ही रहा…

कुछ ही देर पहले तक सिंह-गर्जना के अंदाज में उछाले गये  जयकारों के जरिए जया की पराजय का उत्सव मनाते रवि, इस पल कूं-कूं तक ठीक से नहीं कर पा रहे थे। वे इस हृदय-विदारक वेदना को और उसे सारे जीवन झेलने के अभिशाप को ऐन आँखों के सामने देख रहे थे कि  कद-काठी में ही नहीं;  जया के मन में उसके और खुद के बीच चलने वाली जिस तुलना की आशंका में रवि पिछले बीस साल में लगातार कमजोर, बौने और दुबले होते चले गये थे, उस तुलना में भी, पुतला निश्चय ही, स्ट्रांगर, लांगर और थिकर हो गया था।