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वाट्सऐप बांच लेवे है…उर्फ बुद्धिहीनता के विश्वविद्यालय…( आउटलुक, 17 जुलाई 2017 में प्रकाशित)

सवाल करके  बवाल ना करे है  वाट्सऐप बांच लेवे है…

-पुरुषोत्तम अग्रवाल.

मध्यप्रदेश में किसानों के आंदोलन पर पुलिस द्वारा गोली चलाए जाने के बाद, स्थिति को काबू में लाने के लिए, अफवाहों पर रोक लगाने के लिए, प्रशासन ने सबसे पहला काम किया—वाट्सऐप पर रोक लगाने का। इंटरनेट की सर्वव्यापकता के इस युग में संप्रेषण बहुत आसान हो गया है, वाट्सऐप इस आसानी का सबसे सुलभ रूप है, बस एक सेलफोन की ही तो दरकार है। और इसीलिए, मंदसौर हो या सहारनपुर या नासिक, अफवाहों पर रोक लगाने के लिए वाट्सऐप पर रोक लगाना जरूरी माना जाता है। कश्मीर की स्थिति तो हम सब जानते ही हैं।

तनाव की स्थिति में वाट्सऐप की ऐसी भूमिका जाहिर है कि चिंताजनक है; अगर ऐसी स्थिति से अलग, सामान्य दिनों में भी वाट्सऐप की दुनिया में झांका जाए तो हालत खासी मनोरंजक भी लगती है। लेकिन, केवल ऊपर ऊपर से। असल में, सामान्य दिनों में सामान्य लोग वाट्सऐप पर क्या कर रहे हैं, क्या दे और पा रहे हैं, उसे समझने से ही मालूम पड़ेगा कि तनाव की स्थिति में वाट्सऐप से प्रशासन को इतना डर क्यों लगता है।

अधिक को तो झेलना असंभव है, मैं कुछ वाट्सऐप ग्रुप्स पर निगाह रखता हूँ। इनमें से एक पर अभी दो ही दिन पहले तुलसीदास और रहीम के बीच का वह संवाद जिसमें दान देने के लिए विख्यात रहीम की विनम्रता रेखांकित होती है, तुलसीदास और राजा हरिशचंद्र के बीच का संवाद बना दिया गया। रहीम के बजाय सतयुग के राजा हरिश्चंद्र कलियुग के तुलसीदास को ब्रजभाषा में दोहा लिख कर भेजते मिले—“लोग भरम हम पै करैं ताते नीचे नैन”। इस ग्रुप में सब ‘पढ़े-लिखे’ लोग हैं। कोई साइंटिस्ट, कोई इंजीनियर, कोई अफसर, और कोई ‘आंतरप्यूनर’— किसी को यह हरिश्चंद्र-तुलसीदास संवाद नहीं खटका, किसी को तुलसीदास और रहीम की मित्रता की किंवदंतियां याद नहीं आईं। शायद हम ऐसे हिन्दूपन के दौर में पहुंच रहे हैं जो तुलसीदास तक की किसी  मुसलमान से मित्रता बर्दाश्त करने को तैयार नहीं। जो यह सोचने को तैयार नहीं कि हरिश्चंद्र तुलसीदासजी की कल्पना या कविता में तो आ सकते हैं लेकिन वे तुलसीदास के साथ चिट्ठी पत्री करें—यह जरा अजीब बात है।  बात केवल खास तरह के हिन्दूपन की भी नहीं, खास तरह की ‘बुद्धि’ की है।

वाटस्ऐप और आभासी दुनिया के दूसरे ‘विश्वविद्यालयों’  में जिस ‘ज्ञान’ का निर्माण और वितरण हो रहा है, वह समाज में तेजी से वाइरल हो रही बुद्धिहीनता का ही प्रमाण है। जो बात किसी भी सामान्य सहजबोध संपन्न व्यक्ति को बेतुकी लगनी चाहिए, वह आजकल के अच्छे-खासे ‘पढ़े-लिखे’  लोगों को सहज ही विश्वसनीय लगने लगी है। यह इस बुद्धिहीनता-विषाणु (वाइरस)  का ही नतीजा है कि कोई लैटिन अमेरिका की वीडियो क्लिप को पश्चिम उत्तरप्रदेश की बता कर लगा देता है और लोग  उस क्लिप में दिख रहे लोगों के चेहरे-मोहरे, पहनावे, आस-पास के माहौल पर ध्यान दिए बिना उस पर भरोसा कर लेते हैं। पश्चिम यूरोप की किसी एक्सप्रेसवे की तस्वीर को गुजरात सरकार की उपलब्धि की तस्वीर मान लिया जाता है।

यह बुद्धिहीनता, बल्कि सहजबोध तक से दुश्मनी वाट्सऐप ज्ञान के प्रचार-प्रसार में सहायक तो है, लेकिन क्या इसका जन्म भी वाट्सऐप के साथ ही हुआ है? 

इस सवाल का जबाव तलाशने के लिए जरूरी  है याद रखऩा कि ऐसा नहीं है कि बुद्धिहीनता के इस समकालीन वाइरस की गिरफ्त में केवल अपना ही समाज हो। तर्कसंगत सोच-विचार की कमी समाज का स्वभाव क्यों बनती जा रही है, नॉम चाम्स्की ने पिछले ही दिनों अमेरिकी पत्रिका ‘दि नेशन’ को दिए एक इंटरव्यू में इस सवाल पर अमेरिका और पश्चिम यूरोप के संदर्भ में विचार किया है। वे याद दिलातें हैं कि  सातवें दशक में अमेरिका और यूरोप के मजदूरों, विद्यार्थियों और कर्मचारियों, स्त्रियों और अश्वेतों के बीच  व्यापक असंतोष फैला था। वियतनाम में अमेरिकी मौजूदगी पर अभूतपूर्व सवाल उठाए गये थे। फ्रांस में दगाल जैसे राष्ट्रपति की सत्ता को चुनौती मिली थी। चॉम्स्की याद दिलाते हैं कि अमेरिकी सत्तातंत्र और बड़े कारपोरेटों ने इस घटनाक्रम से अपने ढंग से सबक सीखे, और तात्कालिक के साथ ही दूरगामी कदम भी उठाए। समस्या यह मानी गयी कि “ नौजवानों का संस्कार निर्माण करने वाली संस्थाएं अपना काम ठीक से नहीं कर रही हैं, इसीलिए ये लोग सवाल बहुत पूछने लगे हैं, जरूरत शिक्षा पद्धति में ऐसे परिवर्तन करने की है, जिनके कारण नौजवान अपने काम से काम रखने की आदत डालें और फालतू सोच-विचार से दूर रहें”।  साथ ही यह भी तय किया गया कि बुनियादी सामाजिक ढांचे पर चोट करने वाले आंदोलनों की उपेक्षा की जाए और सामाजिक वर्गों के स्थान पर सामाजिक पहचानों के स्वरों को ताकत दी जाए।

इन नीतियों पर अमल आठवें दशक के मध्य से शुरु हुआ और हम अमेरिका में देख सकते हैं कि विश्वविद्यालयों के विद्यार्थी “सुधर” गये हैं, वे व्यापक ज्ञान से नहीं, केवल अपने काम की सूचना से वास्ता रखना चाहते हैं। राजनैतिक चेतना का अर्थ तरह तरह की अस्मितावादी राजनीति का समर्थन करने से लेकर नो स्मोकिंग के अभियान चलाने तक सिमट कर रह गया है। चॉम्स्की ने लीविस पॉवेल द्वारा तैयार किये गये जिस दस्तावेज का जिक्र किया है, उसमें दर्ज इच्छा पूरी हो चली है। विश्वविद्यालय में पढ़ने का अर्थ व्यापक ज्ञान की प्राप्ति न रह कर तकनीकी से लेकर मैनेजमेंट तक की “स्किल”  हासिल करना हो गया है।

ऐन इसी तरह के सुझाव अपने देश में उच्च शिक्षा के बारे में मार्गदर्शन करने के लिए बनाई गयी अंबानी-बिड़ला कमेटी ने दिए थे। जाहिर है कि चिंताएं भी यही थीं कि किस तरह विद्यार्थियों को सवाल पूछने और सोचने वाले इंसानों के बजाय चुपचाप अपना काम करने वाली स्किल्ड वर्कफोर्स में बदला जाए। यह कमेटी सन 2000 में वाजपेयी सरकार द्वारा बनायी गयी थी। बाद में, मनमोहनसिंह सरकार ने भी इस कमेटी की सिफारिशों में से दो-एक को इधर-उधर भले किया हो, इन सिफारिशों का जिक्र करना भले ही कम कर दिया हो, सारी शिक्षा-नीति की दिशा पिछले पंद्रह एक बरसों में ऐन वही रही है जो अंबानी-बिड़ला कमेटी ने सुझाई थी। मानविकी के विषयों की पूर्ण उपेक्षा, स्कूलों में भाषा तक को संवेदना के विस्तार के बजाय केवल बिजनेस लेटर के माध्यम में बदल देना, विज्ञान के नाम पर केवल तकनीक का बल, शोध का एजेंडा शोधार्थी की ज्ञान-पिपासा और विषय की अपनी समस्याओं के हिसाब से नहीं, इंडस्ट्री की जरूरतों के हिसाब से तय होना—यह सब बिड़ला-अंबानी कमेटी की इच्छा के अनुसार ही है।  ऐसी शिक्षा-पद्धति से निकले नौजवानों से तर्कबुद्धि की तो क्या, सहजबोध की भी उम्मीद करना बेमानी ही है।   

किसी समाज के बुद्धिविरोधी समाज में बदल जाने का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि ‘बुद्धिजीवी’ शब्द धिक्कार के लिए बरता जाने लगे। संसद में मंत्रीजी ‘बुद्धिजीवी आतंकवाद’  जैसी शब्दावली का प्रयोग करें। यह बात किसी एक राजनैतिक दृष्टि तक सीमित हो, ऐसा भी नहीं है। बुद्धजीवियों को ‘गण-शत्रु’ मानने का इतिहास वामपंथी राजसत्ताओं और विचारधाराओं का भी रहा है। हमारी मौजूदा हालत इसलिए और भी दुखद लगती है क्योंकि  भारतीय समाज और सत्तातंत्र पारंपरिक रूप से इस लिहाज से विलक्षण रहा है कि यहाँ निरक्षर व्यक्ति भी विद्वानों, गुणियों का सम्मान करता रहा है। रावण और अन्य ऐसे राजाओं को  अत्याचारी मानने का एक कारण यह भी रहा है कि वे अपने समय के बुद्धिजीवियों ( अर्थात् ऋषियों) को सताते थे। इसलिए यह और भी दुखद लगता है कि अपनी सांस्कृतिक स्मृतियों के एकदम उलट हम अपनी शिक्षापद्धति तक को एक बुद्धिविरोध की नर्सरी ही बनाए दे रहे हैं। बुद्धि और संवेदना की घोर उपेक्षा करते हुए राजनेता, कारपोरेट और ‘ओपिनियन मेकर्स’—सब के सब ‘स्किल डेवलपमेंट’  के गीत गा रहे हैं, इसी को कसौटी बना कर सरकार  को जाँच रहें हैं।

सोच-विचार की घोर उपेक्षा कर केवल तथाकथित “कौशल—स्किल”  के विकास पर केंद्रित शिक्षापद्धति और जैसा इन दिनों है, वैसा टीवी दोनों मिल कर हाल करेला और नीम चढ़ा वाला कर देते हैं। इसलिए इसमें ताज्जुब की बात नहीं कि वाट्सऐप के जरिए आप लोगों को कुछ भी यकीन दिला सकते हैं, कुछ भी करा सकते हैं। आजसे कुछ ही दशक पहले तो भैंस ने मनुष्य के बच्चे को जन्म दिया टाइप की खबरें कस्बों के कमजोर अखबारों में ही छपा करतीं थी, आज आप राष्ट्रीय चैनलों पर  भी नागिन की प्रेमकहानी भी देख सकते हैं, और भूत का मोबाइल नंबर भी प्राप्त कर सकते हैं, औऱ ऐसे ही चैनलों के  कवरेज के आधार पर देश-दुनिया की दशा के बारे में अपनी राय भी बना सकते हैं।

हमारे बचपन तक अधिकांश मध्यवर्गीय घरों में अच्छी बहू के लायक लड़की का बखान कुछ  यों किया जाता था, “ सुंदर, सुशील, गृहकार्य में दक्ष…चिट्ठी लिख लेवे है, रामायन बाँच लेवे है…”। इस बखान का वाट्सऐप के काल में विस्तार यों किया जा सकता है, “ सुशील है, सवाल करके बवाल न करे है, ऑफिस का करने लायक अंग्रेजी जाने है, जॉब- स्किल बहुतै बढ़िया हैं.. वाट्सऐप  बाँच लेवे है…”

अगर ऐसी “सुशीलता” ही सामाजिक लक्ष्य है, अगर बुद्धि का प्रयोग करना तिरस्कार के ही लायक है, अगर पढ़ने-लिखने का मतलब केवल कामचलाऊ अंग्रेजी सीख लेना और किसी तरह की “स्किल कंपीटेंस”  हासिल कर लेना है, तो “वाट्सऐप यूनिवर्सिटी”  के ज्ञान के साथ जीने की आदत भी समाज को डाल ही लेनी होगी। दंगे के दौरान वाट्सऐप पर रोक लगा कर आप दो-चार दिन के लिए अफवाहों पर रोक लगा भी लें तो उन अफवाहों का क्या करेंगे जो तीन सौ पैंसठ दिन, चौबीस घंटे वाट्सऐप पर प्रसारित की जाती हैं, और बुद्धिविरोध की ओर बढ़ता समाज जिन्हें सच मान कर कुछ लोगों से नफरत करने लगता है, कुछ लोगों से दैवीय चमत्कारों की उम्मीद करने लगता है।

दशहरे के अवसर पर, कादम्बिनी शर्मा के साथ एनडीटीवी प्राइम टाइम में चर्चा..

http://khabar.ndtv.com/video/show/prime-time/prime-time-today-there-are-many-colors-of-evil-434588

नाकोहस…..पीके

‘नाकोहस’ दुख और आशंका के कारण लिखी थी…हर रोज हम उस दु:स्वप्न के निकट सरक रहे हैं जिसने ‘नाकोहस’ लिखवाई….

 

 

“गुंडे कह  कर, आप जिनकी भावनाएं आहत कर रहे हैं,  वे असल में बौनैसर हैं…’ ‘बौने सर या बाउंसर ? जो सर लोग हमें यहाँ लेकर आए हैं, देह से तो बौने के बजाय बाउंसर ही लग रहे थे,  हाँ, बुद्धि से…’‘इतना अहंकार उचित नहीं, मान्यवर। अहसान मानिए कि आपकी लद्धड़ बुद्धि फास्ट डेवलपमेंट के इस तेज-रफ्तार जमाने में अब तक बर्दाश्त की गयी है…बाउंसर नहीं, बौनैसर माने बौद्धिक नैतिक समाज रक्षक, संक्षेप में बौनैसर…यू सी, हम कोई बुद्धि-विरोधी नहीं, बल्कि बुद्धि के रक्षक हैं…लेकिन यह अब नहीं चलेगा कि स्वयं को बुद्धिजीवी कहने वाले  भावनाओं को ठेस पहुँचाने वाली समाजद्रोही, राष्ट्रविरोधी हरकतें करते रहें…बुद्धि की मनमानी बहुत हो ली, बुद्धिजीवियों के सम्मान का तमाशा बहुत हो चुका, अब जरूरत है, अनुशासन की… भावनाओं की रक्षा की, इसीलिए बौद्धिक नैतिक समाज रक्षक—बौनैसर—समाज की रक्षा तो करते ही हैं, यह ध्यान भी रखते हैं कि बौद्धिक कर्म अनुशासन-हीनता का रास्ता न पकड़ ले…याद रहे, इन समाज-रक्षकों के बारे में बकवास करना दंडनीय अपराध है..

 

 

 

“लोगों को सिखाने के लिए, उनके सीखने को ‘मॉनिटर’ करने के लिए राष्ट्रीय चरित्र-निर्माण आयोग, राष्ट्रीय अनुशासन संस्थान, विवेक-पुनर्निर्माण समिति आदि का गठन किया गया ही है….हम नाकोहस वालों का अपना मैंडेट है…कुल मिला कर टारगेट यह—कोई भी नागरिक किसी भी हालत में अपने चरित्र को, दूसरों की भावनाओं को चोट ना पहुँचा पाए। एकांत खतरनाक है, एकांत  में सवाल पैदा होते हैं, सवालों से निजी दुख और सामाजिक उत्पात जन्म लेते हैं, सो….क्या कहते हैं आप इंटेलेक्चुअल लोग उसे…हाँ, कैथारसिस, विरेचन….मानसिक स्वास्थ्य के लिए जरूरी…सारे समाज के लिए रंग-बिरंगा, सुंदर कैथार्सिस मुहैया कराने के लिए तो छोटे से शुक्रिया के  मुस्तहक तो हम हैं ही…

How about a national commission for hurt sentiments? – ( My monthly column in Governance Now)

This 23rd August was a sad day. We lost a great writer who was rooted enough in his tradition to interrogate aspects of it with courage and affection, and who was modern enough to challenge the dominant, Euro-centric conceptions of modernity, even while upholding its universal aspects and values both in his creative writing and in his role as a public intellectual. He was openly sceptical of much of ‘Indian writing in English’; and was one of the few non-English writers to be short-listed for the Man Booker award. His Praneshacharya (the hero of the novel, Samskara) typified the traditional/ modern Indian’s search of the moral core of his/her ‘Indian-ness’.  In his long career, U.R. Anantamurthy performed what the Hindi poet Muktibodh had described as Sabhyta Samiksha – a civilizational critique.

Apart from the loss of one of our finest writers and a noble soul, what makes the 23rd even sadder was that the demise of such a figure was ‘celebrated’ by the bursting of fire-crackers by some who wanted to punish him, even in death, for his forthright criticism of the politics of hatred and violence.

Like any reflective human being, Ananthamurthy’s ideas invite debate and criticism and there is no denying his critics their right of disagreeing with any of his ideas or expressions. The question is, whether this disagreement is to be articulated in the grammar of rational argument or in the rhetoric (and attendant violence) of ‘hurt sentiments’?  The matter assumes larger significance than the case of one individual, as we are fast turning our democracy, which is rooted in humane values, into a virulent mobocracy of hurt sentiments.

Those celebrating the demise of Anantamurthy quite expectedly belong to the ‘Hindutvawadi’ groups. The defence, if any, from the Hindutva forces is likely to be on equally expected lines: there was nothing organised or ordered from above, what happened was just ‘local’ and purely ‘spontaneous’. The point is:  this ‘spontaneity’ is much more ominous than a controlled spectacle. A few days back, I published a short story (in Hindi, the language of my creative expression). The story fantasises about a present wherein the discourse of hurt sentiments is systematically turned into pervasive social common sense under the supervision of NACOHUS (National Commission of Hurt Sentiments). In such a setup, people are perennially afraid and unconcerned about any suffering while society marches on following the glittering path of ‘development.’ Let us face it – Nacohus is not merely a fantasy, but a distinct possibility emerging out of the current depravity of thought and the pervasiveness of the discourse and politics of ‘hurt sentiments’.

Given their world-view, the Hindutva forces are more inclined than most others towards stigmatising their critics and opponents. They are also more persistent and systematic in persecuting chosen targets and victims in myriad ways. One can recall many names in this context from Romila Thapar to Habib Tanvir to M. F.  Hussian, and now having tasted success in their ‘pulp the books’ campaign, the Batras of the world are much emboldened under the present political dispensation.

However, I would like to leave aside the extreme Right for the moment, and focus on the role of those who claim a commitment to liberal democracy and take pride in the legacy of fundamental rights enshrined in the constitution? Is it not true that M. F. Hussain was subjected to well organised, country-wide legal harassment by extremist elements while the Congress was in power, and the ‘Padma-Vibhushan’ painter was forced to go into a self-imposed exile, getting no support from the party of Jawaharlal Nehru, or for that matter the party of Rammanohar Lohia?

‘Taslima must fall to her knees and apologise’- this was not a rant of some Maulana, but a statement from a Congress minister for Information and Broadcasting keen on furnishing his ‘secular’ and ‘progressive’ credentials by pandering to minority communalism. Under the same worthy Minister, the film ‘Da Vinci Code’ was pre-screened for the approval of Church ‘elders’. Such an act of ‘secularism’ did not take place even in Italy, the seat of Roman Catholic Church, or in any other Christian majority country. In this context, it is not surprising that the late Rajiv Gandhi took pride in the fact of India being the ‘first’ to ban the ‘The Satanic Verses’ by Salman Rushdie.

The same Salman Rushdie was supposed to attend the Jaipur Literary festival in 2012. Of course, the state government under the competent and politically smart Congress CM Ashok Gehlot did not ban his participation, but merely ‘advised’ him to not visit. The ‘advice’ was put in practice by informing the organizers that the state police could not guarantee Rushdie’s security. Rushdie was not allowed, because his mere presence at the festival (which incidentally he had attended in an earlier edition) was likely to ‘hurt the sentiments’ of the believers. So particular was the government about its benign advice that some authors were booked for the ‘offence’ of reading excerpts from the undesirable author at the festival, and of course, no action was taken against those who ‘purified’ the venue by offering namaz on the last day of the festival! I can personally vouch for the eager expectation and then despondency among the participants at the abdication of responsibility by the State Government, as I had the privilege to deliver the key-note address to this edition of the festival, which was focussed on the Bhakti and Sufi literature. I wondered and continue to wonder: would the secular-liberal congress have advised Kabir also to keep away from this festival and refrain from hurting the religious sentiments of the people?

The congress can also congratulate itself for adding section 66A to the IT act, and can derive satisfaction that after the Lok-Sabha elections, the Kerala Police under Congress leadership has been Numero Uno in booking those who dare say anything ‘offensive’ to the sensibilities of the admirers of the Prime Minister Modi on social media, and even in college magazines.

All this is not merely ‘appeasement’. These actions were a perversion of the idea of democracy and subversion of its functioning. Democracy is by far the best system of social and political organisation, because it is about choice based on informed debate and deliberation. It is distinct from mob-mentality as it not just about numbers and their manipulation but about division of powers amongst various organs of State. It is about the autonomy of individuals and institutions. It is about rule of law, as well as about the norms of civilised behaviour.

Freedom of expression, an essential pillar of democracy, is not some middle class luxury, but a crucial guarantee of an individual’s right to record his or her will. It is about the right to alternative point of view on any given matter. Far from being a privilege claimed by chattering classes, freedom of expression and social respect for creativity is a pre-condition for a truly humane society. The rhetoric of hurt sentiments and its uses for populist politics is bound to turn nightmares of the NACOHUS kind into reality sooner than we might expect