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नेहरू की छाया बहुत लंबी है….

लंबी छाया नेहरू की

 

वह ऐसी उमस भरी दोपहर थी,  जिसमें मांएं बच्चों को डाँट-डपट कर सुला दिया करती थीं कि  गली में खेलने ना निकल जाएं….वह नींद ऐसी ही डाँट से लाई गयी नींद थी….

सोते-जागते कानों में दूर से अजीब सी आवाजें आ रही थीं—‘जलाओ घी के…मर गया….’। यह दूसरी आवाज तो दूर से नहीं आ रही, यह तो जीजी (मां)  की आवाज है, ये तो जीजी  के हाथ हैं जो झकझोर रहे हैं, ‘उठ परसोतम, जल्दी उठ, सुन तो….नेहरूजी नहीं रहे….’ यह जो गाल पर आँसू टपका है, यह मुश्किल से ही रोने वाली जीजी की आँख में सँजोए हुए आँसुओं में से एक है….

कुछ ही देर बाद बाबूजी दुकान बढ़ा कर वापस आ गये थे….चाभी का झोला खूंटी पर लटका कर, पस्त पड़ गये खाट पर…

घी के (दिए)  जलाने का आव्हान करती आवाज का तर्क तो तभी समझ आ गया था, वह मोहल्ला हिन्दू महासभा का गढ़ ठहरा…लेकिन जीजी-बाबूजी के दुख को समझने की कोशिश आज तक जारी है। वे कांग्रेस के वोटर नहीं, विरोधी ही कहे जाएंगे… नेहरूजी की कई बातों से उन्हें चिढ़ होती थी, चीन से हारने की वजह भी तो नेहरू की नादानी ही थी…फिर भी उस रात घर में चूल्हा नहीं जला….जैसे घर का कोई बुजुर्ग ही चल बसा था…तीन दिन तक पूजा नहीं हुई…सूतक माना गया….

बहुत से लोग भारतीय जन-मानस में गांधीजी की उपस्थिति को तो स्वाभाविक मानते हैं, क्योंकि वे घोषित रूप से धार्मिक, पारंपरिक व्यक्ति थे, लेकिन नेहरू? उनके बारे में बताया जाता है कि उनका सोच-विचार, मन-संस्कार तो विलायती था—क्या लेना-देना उनका भारतीय जन-मानस से…

तो, क्या सत्ताईस मई उन्नीस सौ चौंसठ को क्या वह घर अनोखा था, जहाँ उस रात चूल्हा नहीं जला, तीन दिन तक सूतक माना गया; या वह देश के करोड़ों घरों जैसा साधारण घर ही था…क्या खो दिया था उस दोपहर, इन तमाम घरों ने?

आज,पचास बरस बाद एक बात तो लगती है कि हम में से बहुतेरे मानवीय संवाद की विधि ही नहीं समझते, इसीलिए उस जादू को नहीं समझ पाते जो गांधी और नेहरू जैसे विपरीत ध्रुवों पर खड़े दिखने वाले व्यक्तित्वों के बीच संवाद और विवाद का रिश्ता संभव करता है। औद्योगीकरण से लेकर संगठित धर्म तक के  सवालों पर अपने और जवाहरलाल के बीच मतभेदों से गांधीजी खुद भी नावाकिफ तो नहीं थे, फिर भी क्या कारण था, उनकी इस आश्वस्ति का कि, “स्फटिक की भाँति निर्मल हृदयवाले जवाहरलाल के हाथों देश का भविष्य सुरक्षित है”।

केवल आश्वस्ति नहीं, आग्रह, इस हद तक कि कांग्रेस संगठन में नेहरू की तुलना में पटेल के पक्ष में व्यापकतर समर्थन को जानते हुए भी स्वयं पटेल पर प्रभाव डाला कि नेहरू के नेतृत्व में काम करना स्वीकार करें। याद करें कि ग्राम-स्वराज्य के  सवाल पर  ‘असाध्य मतभेदों’  की बात का सार्वजनिक रेखांकन गांधी ने ही किया था। आज लगता है कि वह बहस चलनी चाहिए थी, उससे कतरा जाने की बजाय, दोनों पक्षों को, खासकर नेहरू को उलझना चाहिए था। ऐसा  होता तो दोनों पक्षों-गांधीजी और जवाहरलालजी- को ही नहीं, सारे समाज को बुनियादी सवालों पर अपनी सोच बेहतर करने में मदद मिलती।

खैर, जनमानस के साथ संवाद की कसौटी पर,एक लिहाज से नेहरू गांधीजी से भी अधिक प्रेरक व्यक्तित्व हैं। उनके मुहाविरे में ‘धार्मिकता’ नहीं थी, रहन-सहन में ‘पारंपरिकता’ नहीं थी, हिन्दी-उर्दू बोलते बखूबी थे, लेकिन गांधीजी की तरह कभी अपनी मातृभाषा में लिखा नहीं। ‘लेखक’ अंग्रेजी के ही थे; और ‘धर्मप्राण’ भारतीय जन-मानस से संवाद इतना गहरा था कि बेखटके बांधों और कारखानों को ‘नये भारत के नये तीर्थस्थल’ कह सकें।

गांधीजी को अपने ‘सत्य के प्रयोगों’ का सार जीवन-तप से मिला, नेहरू ने अपने जीवन-तप में ‘भारत की खोज’ की। यह केवल एक पुस्तक का शीर्षक नहीं, ईमानदार, विनम्र आत्म-स्वीकार था, अपनी न्यूनता का। मुंह में चांदी का चम्मच लेकर जन्मे जोशीले नौजवान को अहसास कैंब्रिज से लौटते ही हो गया था कि उसकी विशेषाधिकार-संपन्न सामाजिक स्थिति ने उसे अपने समाज से कितना काट दिया है, उसे भारत मिल नहीं गया है, उसे खोजना है। ‘भारत की खोज’ नेहरू के लिए अपनी जगह की तलाश भी थी।

‘आत्मकथा’ में कितने चाव और गर्व से लिखा है नेहरू ने, ‘ कांग्रेस के जन-संपर्क कार्यक्रम के तहत, मानव-जाति को ज्ञात हर यातायात-साधन का उपयोग किया’। मीलों पैदल चले, साइकिल चलाई, नाव पर बैठे, घुड़सवारी तो बचपन से करते आए थे, बैलगाड़ी, ऊंटगाड़ी की भी सवारी की….और देखा, ‘उन हताश, पीड़ित किसानों को जिन्होंने सारी तकलीफों और ज्यादतियों के बीच अपनी इंसानियत को बचाए रखने का कमाल कर दिखाया है’;  समझा और आत्मसात किया इस सत्य को कि ‘गांधीजी इन किसानों को उपदेश नहीं देते, वे इनकी तरह सोच पाते हैं, और इसलिए इनसे बातचीत ही नहीं, ऐसा गहरा संवाद कर पाते हैं, जिसके जादू को हम जैसे पार्लर सोशलिस्ट समझ ही नहीं सकते’।

इस जादू को समझने के तप ने ही ‘भारत की खोज’  का रूप लिया, यह खोज केवल वर्तमान की नहीं थी, फिर भी, यह किताब कोई इतिहास-ग्रंथ नहीं, बल्कि लेखक की आत्म-कथा का एक रूप है। यह किताब बेधड़क रूप से आधुनिक एक व्यक्ति द्वारा अपने समाज की परंपरा से संवाद की कोशिश, अपने समाज की आत्मा की खोज है। अपने आत्म में समाज की आत्मा, और उस समाज की परंपरा में अपनी जगह की तलाश है।

इस खोज में ही उन्होंने खुद को यह जानते पाया कि ‘भारत माता की जय’ के नारे में, ‘वंदे मातरम’ के अभिनंदन में जो मां शब्द  है वह संकेतक है वह देश के इतिहास, भूगोल, संस्कृति, विरासत सब कुछ का, लेकिन सर्वोपरि देश के साधारण इंसान का…।  ‘ एक तरह से आप स्वंय हैं भारत-माता’— यही कहते थे नेहरू बारंबार अपने श्रोताओं से। गांधीजी के अद्भुत शब्द-चित्र का ‘आखिरी आदमी’ है भारत-माता, उसकी आँख का आखिरी आँसू पोंछना ही होगा भारत-माता की सच्ची जय…।

‘भारत की खोज’ के ही प्रसंग में नेहरू ने अपनी धर्म-दृष्टि स्पष्ट की थी, “गैर-आलोचनात्मक आस्था और तर्कहीनता पर निर्भर” विश्वासों से वे असुविधा महसूस करते थे, ऐसे विश्वास चाहे ‘हिन्दू’ धर्म के नाम से पेश किये जाएं, चाहे ‘इस्लाम’ या ‘ईसाइयत’ के नाम से। लेकिन वे जानते थे कि, “धर्म मानवीय चेतना की किसी गहरी जरूरत को संतुष्ट करता है…मानवीय अनुभव के उन अज्ञात क्षेत्रों की ओर ले जाता है, जो समयविशेष के विज्ञान और अनुभवपरक ज्ञान के परे हैं”। इसीलिए संगठित धर्म के निजी अरुचि के बावजूद आक्रामक किस्म के धर्म-विरोध में नेहरू की कोई दिलचस्पी नहीं थी।

प्रचलित धार्मिकता का विकल्प वे प्राचीन भारत और प्राचीन यूनान की प्रकृति-पूजक, बहुदेववादी (उनके अपने शब्दों में ‘पैगन’) संवेदना और उसके साथ ही ‘जीवन के प्रति नैतिक दृष्टिकोण’ में पाते थे। उन्होंने गांधीजी का सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान ‘साधन-शुचिता’ पर बल को ही माना। उन्होंने रेखांकित किया कि ‘ सत्य पर एकाधिकार के किसी भी दावे से पैगन अवधारणा का मूलभूत विरोध है”। एक अमेरिकी पत्रकार ने जब उनसे कहा कि ‘ धीरे धीरे मुझे लगने लगा है कि किसी भी न्यूज-स्टोरी के स्याह-सफेद ही नहीं, और भी रंग होते हैं,’  तो नेहरू ने छूटते ही कहा था, ‘ वेलकम टू हिन्दू व्यू ऑफ लाइफ’।

इन सब प्रभावों और संवादों के साथ भारत की, और खुद अपनी खोज करते नेहरू ने और उनके मार्गदर्शक गांधीजी और साथी पटेल तथा दीगर नेताओं ने सेकुलरिज्म के शब्द-कोशीय अर्थ पर नहीं, भारतीय अनुभव से कमाए गये अर्थ पर बल दिया। सार्वजनिक जीवन तथा राजतंत्र में पंथ-निरपेक्षता की वकालत की, सेकुलरिज्म का अर्थ अल्पसंख्यकों के मन में सुरक्षा-बोध भरना माना। संविधान-सभा में अल्पसंख्यक-संरक्षण के बारे में विचार करने के लिए बनी समिति के अध्यक्ष नेहरू नहीं पटेल थे।

नेहरू ने गलतियां भी कीं; बड़े लोगों की गलतियाँ बड़ी भी होती हैं, महंगी भी। लेकिन, उन सारी गलतियों (जिनकी चर्चा होती ही रहती है, होनी ही चाहिए) के बावजूद, सच यही है कि नेहरू द्वारा अपनाई गयी मूल दिशा सही थी। गांधीजी  सच्चे अर्थों में मौलिक चिन्तक थे। नेहरू ने ऐसा कोई दावा परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से नहीं किया कि वे मानवीय स्थिति के प्रसंग में कोई नितांत मौलिक अस्तित्वमीमांसामूलक या ज्ञानमीमांसामूलक प्रस्थान प्रस्तुत कर रहे हैं। गांधीजी सत्य के प्रयोग कर रहे थे, राजनैतिक आंदोलन उनकी आध्यात्मिक खोज का अंग था। नेहरू भारत की और अपनी जगह की खोज कर रहे थे।

स्वाधीनता के बाद, नेहरू, पटेल और उनके साथियों के सामने चुनौती स्वाधीन देश में लोकतांत्रिक न्याय के साथ आर्थिक विकास संभव करने की थी; एक सनातन सभ्यता को आधुनिक राष्ट्र-राज्य का रूप देने की थी। इसके लिए संवैधानिक परंपराओं और संस्थाओं की महत्ता का व्यावहारिक रेखांकन सबसे बुनियादी था, और नेहरू ने यह करने की कोशिश की;  बेशक सफलता और असफलता के साथ। इसी से संबद्ध खोज थी विश्व-रंगमंच पर भारत की प्राचीनता, विविधता, और अंतर्निहित संभावना के अनुकूल भूमिका तलाशने की। यहाँ भी कुछ कामयाबी, कुछ नाकामयाबी— यह स्वाभाविक नहीं क्या?

उनकी नीतियों का मूल प्रस्थान मध्यम-मार्ग था। भगवान बुद्ध द्वारा प्रतिपादित मध्यमा प्रतिपदा। इसीलिए उन्हें समाजवादियों की भी आलोचना का सामना करना पड़ा, और मुक्त-व्यापार वालों की भी। उनकी मिश्रित अर्थव्यवस्था को उस चुटकुले का मूर्त रूप बताया गया कि, ‘ मैडम, अपने मिलन से होने वाली संतान को कहीं रूप मेरा और बुद्धि आपकी मिल गयी तो’?

लेकिन रास्ता तो यही था । सोवियत संघ के विघटन से लेकर पिछले दिनों जब बराक ओबामा को कहना पड़ा कि पूरी छूट तो मार्केट फोर्सेज को नहीं दी जा सकती।

रास्ता तो यही है, एक बार फिर दिख रहा है। चुनाव में शानदार हार के बाद, कांग्रेस के हार्वर्ड-पलट नीतिकार कह रहे हैं कि नेहरू की ओर लौटना होगा— जाहिर है कि जीत हुई होती तो नेहरू की ओर लौटने की बात तक नहीं होती।  खैर, कांगेस की बात तो ठीक है लेकिन…।

मेरे मित्र नीलांजन मुखोपध्याय ने बढ़िया किताब लिखी है नये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर। उन्होंने ठीक ही नरेन्द्र मोदी को भारत का पहला ‘नॉन नेहरूवियन’ प्रधानमंत्री पदाकांक्षी कहा है। लेकिन, इन ‘नॉन नेहरूवियन’ पदाकांक्षी के प्रधानमंत्री मनोनीत हो जाने के बाद तो उनकी भाषा भी नेहरूवियन होने की कोशिश कर रही है, और विदेश-नीति भी, सैनिकों के सर के बदले सर काटने की बातें करने वालों के मन-मयूर शपथ-ग्रहण में ही पाकिस्तान के प्रधान-मंत्री के आने की बात से नृत्य कर रहे हैं।

गांधी-नेहरू की विरासत केवल कांग्रेस तक वाकई सीमित नहीं है, चाहें तो कह लें, वह मजबूती है, चाहें तो कह लें कि मजबूरी है भारत नामके राष्ट्र-राज्य के लिए ।

जवाहरलाल नेहरू की पार्थिव देह तो सत्ताईस मई उन्नीस सौ चौंसठ को शांत हो गयी लेकिन उस देह की छाया बहुत लंबी है, वह भारत के पहले ‘नॉन नेहरूवियन’ प्रधानमंत्री पर भी पड़ ही रही है।

 

 

General Election 2014 and the Challenge of Communal Fascism

General Elections 2014 and the Challenge of Communal Fascism

By Purushottam Agrawal

I made the following observations while addressing a National Convention on Democracy and Secularism on 27 February 2014 in Delhi. This Convention was organized by Dilip Simeon, Harsh Kapoor, Battini Rao and other friends. I am posting these remarks online to invite reflection, interaction and most importantly, action – Purushottam.

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A meeting similar to this was organised ten years ago in the wake of the Gujarat pogrom, but the mood of that convention was one of fire and ‘josh’, unlike the present one characterised by udaasi. May be you are not that udaas or tired, but let me confess, regarding matters of secularism and rights, I feel tired in spirit.

I had had the opportunity of attending the preparatory meeting for that Convention. The chief organiser described me as a minion of Dilip Simeon in the course of discussion. I told the organiser that I was proud of being considered a minion of Simeon. I was there because of Dilip and I am here today because of him.

The organiser of that convention wanted me to address it “as a Hindu”, because of the name I carry. I told him, unlike many of my secular Hindu friends, I don’t disclaim my Hindu identity, but I don’t take political positions as a Hindu. Today, you want me to condemn the Gujarat pogrom, “as a Hindu”, tomorrow, I might, “as a Hindu” feel sympathetic to the idea of Hindusthan Hinduon ka, nahin kisi ke baap ka! I made it clear that I shall speak as a citizen concerned about democratic institutions and norms. Following this, the chief organizer  said that in his opinion it is best if I do not address his Convention.

A secular friend has often castigated me on my ‘hindu-ness’, saying it is because of people like me that the RSS is gaining strength. I have had to remind him that it is precisely because of those Hindus who are religious, but don’t vote for RSS, that RSS has still not succeeded in its designs.

Friends, I find it rather amusing that many of us have no sense of the Hindu tradition, its agonies, its inner conflicts of hegemony and resistance. We have no desire of engaging with it in a serious way, but when the Babri Masjid is demolished, all of a sudden we want to turn to Vivekananda, even the Vedas to find arguments against communal fascism. Such efforts on our part carry no credibility amongst the people who we want to address.

Today, I have been asked to talk about ‘Freedom of thought and life of mind’.  From this podium, Jairus has put the phenomenon of fascism in a theoretical perspective, and Rahul Pandita has done a great job of reminding us of the plight of Kashmiri Pandits.  I claim no scholarship, not even great knowledge. I just want to share my concerns and ideas as a citizen and as a writer.

Let us face the facts. Over the last twenty years, communal forces have succeeded in changing the ‘mindscape’ of our society. Rahul just quoted a very senior communist leader telling Kashmiri Pandits, in the context of their forced exodus from the valley, ‘Aisi baaten hoti rehati hain…’ (“such things happen”). This statement is reflective of the changed mindscape. Even responsible people are falling prey to the ‘chalta hai’ syndrome. More importantly, it is reflective of a very narrow and short-sighted understanding of communal fascism. This reminds me of a related incident which shows the extent to which we have internalised the ideas rooted in the politics of identity. My friend the late Farooque Sheikh had once visited a refugee camp of Pandits in Delhi, and I had to face a hard time convincing a Kashmiri Pandit colleague of mine at JNU that Farooque was a Gujarati, not a Kashmiri. My colleague’s idea was simple- if not a Hindu, Fartuque must certainly be a Kashmiri Muslim, otherwise why would he visit the suffering Kashmiri Pandits? The prejudice that only Dalits can speak for Dalits, women for women and so on has been given huge respectability by our intellectuals. By this argument, someone like me who belongs to the privileged savarna male minority should speak for no oppressed community or individual. We must not forget that in the wake of the 1984 mass murder of Sikhs in Delhi, the only non-Sikh institution to close in mourning was Vidya -Jyoti— a Jesuit theological institute.

To what extent, has the mindscape of our society changed?  Just look around.  It is not a court of law that has passed an order against Wendy Doniger’s book. The publisher decided to pulp it on its own. There was no formal ban on Aamir Khan’s films in Gujarat, it is just that the exhibitors were “not willing” to release them. Similarly there was no formal ban on Salman Rushdie attending the Jaipur Literature Festival in 2012. But the police couldn’t “provide security”. Moreover on the last day of the festival a ‘celebratory’ mass Namaaz was offered at the venue. If next time around the Bajrang Dal feels like organising a Hanuman- Chalisa path at the same venue how will ‘secular’ politics and intelligentsia be in a position to react? It did not happen in a Christian majority country, but here in India, that the film ‘Da Vinci Code’ was  allowed to be released only after the Information and Broadcasting Ministry had  obtained approval of  the Christina clergy by organising a pre-release screening. This was a case of officially sponsored religious censorship of art.

In my youth I had read a story by Harishankar Parsai. In this story, Rama appoints Hanuman as the tax inspector and crafty traders get away with tax-evasion by binding their account-books in a red piece of cloth, as Hanuman wears a red loin-cloth. In so doing, they “prove” their devotion to Hanuman. The story “informs” its readers that this is why traders bind their account books in red till date. This was forty years ago. Tell me honestly- will a writer write such a story today? Will any responsible editor publish it? That is the distance we have travelled. That is the change in mindscape we have undergone.

Only this morning, I came across a rather funny – and sad – bit of news. A truck carrying scrap paper met with a minor accident, with its cargo spilling on the road. In it, there were some copies of a holy book- Hindu or Muslim not known. Subsequently, the driver and cleaner were beaten to a pulp by an irate mob and the police have registered a case against the scrap-dealer who dared ‘hurt’ religious sentiments by treating holy books as scrap.

We have discussed the theoretical aspects of communal fascism in this session, and that is really important. The challenge however is that of acting fast and in a credible manner. Just like Jairus, Kamal and Anu, I studied at JNU, and also taught there. We were given to endless discussions and lengthy meetings – sometimes the general body meeting of the students ran for 36 hours straight! We were confident of revolution being around the corner, but the wretched corner has turned into a corridor and we are still waiting…taking rounds in the corridor…and things have changed beyond recognition. The mindscape of our society has changed fundamentally.

We have to realise that communal fascism is not merely a concern from the standpoint of security of minorities. It poses a threat to the very idea of a democratic and vibrant society. Frankly sometimes I pity the state that Indian Muslims have been reduced to. A political party assuring them of merely basic security against murder, arson and loot can claim itself as secular and can hope to take Muslims along. Should not the Left in Bengal feel ashamed at the plight of Muslims as reflected in the Sachhar Committee report? Do our secular parties realise that Narendra Modi is only speaking their language when he points out that in the last 12 years there have been no riots in Gujarat? The communal and secular parties almost seem to be in connivance for restraining Muslims from being equal citizens of a secular democracy.

People like Dilip and yours truly have been shouting hoarse about the importance of ensuring rule of law, autonomy of institutions and the constitutional rights of citizens qua citizens…but the politics of ‘anti- communalism’ listens, nods and goes on exactly as before.

We are going to have elections in less than two months, and these elections are going to be fraught with unprecedented significance. If Narendra Modi becomes PM, chances are that things in this country will change in a very basic way, and for the worse. Theoretical discussions and disagreements are as important as ever, but we have to think of concrete political choices as well. How do we face the very real danger of India turning into just a formal democracy, without the present churn and vibrancy?  We must remind people and also remind ourselves, that democracy is not just about numbers – it is about democratic norms and institutions. It is about ensuring the free expression of even such views which one may find utterly nonsensical.

Let us never forget, Jesus was crucified as a heretic. ‘Heretics’ provide a society with the opportunity of self-reflection, and democracy is fundamentally about ensuring a non-violent and civilised interface between the orthodox and the heterodox in each and every sphere of life. Communal fascism is a threat to the very idea of such a vibrant and meaningful democracy and hence is a matter of concern not only for religious minorities, but for each and every citizen.

So, we have to look at concrete and credible political possibilities. Some friends refer to AAP as an alternative. I too appreciate its role but with reservations and criticism. Such disagreements are not only normal but also welcome. The point however is to arrive at a practical consensus on defeating communal fascism electorally. Perhaps, in the short term we can proceed with a constituency-wise assessment and in each constituency, help the secular candidate who is most likely to present a challenge to communal politics.  In the long term however, there is no alternative to acting in a manner consistent with human rights, democratic norms, autonomy of institutions and upholding the rule of law. We cannot relax these standards no matter who claims to be ‘hurt’. Unless we act fast to recover our credibility, we will find ourselves even more marginalized and communal fascism will only grow stronger.

Towards an insane society? Reflections on Khurshid Anwar’s suicide and beyond

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A slightly edited version of the following has appeared in today’s Asian Age.

Towards an insane society?

-Purushottam Agrawal

 

So-called ‘media trials’ are only one of the disconcerting aspects of the proliferation of 24X7 news channels in an era where the capacity to reflect calmly is waning fast. Everybody, including intellectuals, seems to be in a hurry “to act” on their chosen causes. The idea that calm reflection must precede any action – individual or collective – seems to have become quite old-fashioned. Even in the response of institutional structures to serious issues, one can discern a mob-mentality under the garb of political correctness. The growing reach and power of electronic media is contributing greatly not only to the creation, but also to the institutionalisation of such a mentality and needs to be balanced with a sense of responsibility and ethics.

Recall how, a couple of years ago, a female school teacher in old Delhi was almost lynched by a furious mob as a news channel had portrayed her as a ‘procuress’ by manipulating audio and visual clips. One doesn’t know if the channel and the reporter were ever legally charged and proceeded against.

Khurshid Anwar, the well-known activist and writer committed suicide on the morning of 18th December last year. The previous night, in a distorted  and sensationalist programme, the Hindutva supporter chief of a news channel and a celebrity feminist turned Narendra Modi enthusiast  had repeatedly described him as a ‘rapist’ and vowed to have him punished.

 

This programme was the culmination of a sustained hate campaign against Anwar. For the preceding three months, he was being charged with rape on the social media. The statement of a girl from a north eastern state was video-recorded by the Hindutva activist, in which Khurshid was charged with raping and sodomizing this girl, and the CD of this recording was distributed to many social activists in various parts of the country. This was done well before any official complaint was lodged with the police or even before an act of rape was established as the complainant has never been subjected to a medical test.

In spite of this, the distribution of this CD and other scurrilous material was condoned and even promoted by ultra-left hate-mongers posing as activists. A vigorous campaign of innuendos was launched against Khurshid on social media websites. The most curious thing in this entire affair was that the accused was acting more transparently than the accusers! Khurshid Anwar kept challenging those charging him to go to the police, to have a medical test of the complainant and proceed formally so that he gets a chance to clear his name. He said this publicly many times over this period, and was thoroughly dispirited at the idea of living with this taint on his reputation as a fierce fighter for gender rights. He filed a defamation case against some of the people whom he knew to be distributing the recording, and reported the matter to the police. No action seems to have been taken to quell the rumours which were damaging Anwar personally and professionally.

It was the wisdom of the well-known activists who knew of the matter and presumably knew of the targeted smear campaign to condone such a course of action. This alliance of the ‘ultras’ of the left and right was probably a result of the uncompromising and sustained stand Anwar had taken against the fanaticism of both Hindu and Islamic variety. His recent series of articles against Wahhabi Islam had particularly angered some ‘comrades’ who refuse to acknowledge the possibility of Islamic fundamentalism.

It is more than two months to the death, but the police have not registered a FIR in the case. The family of Khurshid Anwar lodged a complaint charging the TV channel head, the Modi enthusiast and those who distributed the CD and carried out the social media campaign with conspiracy and abetment to suicide. They have provided documentary evidence which calls for at least a FIR and a thorough inquiry, but the police remain unmoved.

The police seem to be under pressure due to the involvement of ‘big names’ on one hand, and the pressures of identity politics on the other. This is symptomatic of the rot not only in the system but also in the ways the media and intellectuals seek to address systemic short-comings. The rot is characterised by the plethora of laws passed as a result of knee-jerk reactions to situational challenges and under pressures from identity politics of various types. It is also characterised by the fast spreading habit of domain-specific and sometimes frankly opportunistic thinking amongst activists and intellectuals.

To take an example, those well-meaning scholars who are disturbed at Penguin pulping Wendy Doniger’s book due to the fears of harassment under the vague provisions of section 295 of IPC, have been enthusiastically supporting laws which are almost customised for harassment and which compromise on the basic tenets of the rule of law. One mustn’t forget the lampooning of Sharad Yadav by our ‘thinking’ classes for showing the courage of questioning the dangerously vague provisions of the law passed in the wake of the horrendous rape and murder of ‘Nirbhaya’.   Passing stringent and often ill-defined laws has somehow became equivalent with ‘action’ against sexual harassment in the minds of our chattering classes. In this, they forget the duty to protect the rights of the accused. The accused is not guilty just by virtue of accusation.

Such laws are empowering not individual victims but rather ‘representatives’ of identities which have a stake not only  in perpetuation of conservative power structures, but also in creating of an even more oppressive state machinery. The presumption of innocence till proved otherwise has been replaced by the presumption of guilt; instead of state proving the accused guilty, the accused has to prove his/ her innocence under the regime of ‘progressive ‘and ‘empowering’ laws. It is not the victim, but the policeman and his bosses who are becoming more and more powerful.

To take another recent example, the Goa police have charge-sheeted Tarun Tejpal for ‘rape’ under the post-Nirbhaya rape-law. The peculiarly broadened definition of rape under this law can lead to ten years RI for Tejpal. Is it not analogues to legally eradicating the difference between a fist-fight and an attempted murder? Sexual harassment is of course morally repugnant and ought to be treated as a legal offence as well; but can it be put at par with rape? ‘Off with his head’ for each and every offence, may be understandable in the wonderland ruled by the Queen of Hearts; certainly not in a civilized society.  

Khurshid Anwar was driven to desperation due to the psychological pressures created by the troublesome combination of the media cherishing the creation of a moralist mob-mentality and the thinking classes succumbing to the desire of being seen to be politically correct even at the cost of basic tenets of rational thinking. The pressing need of the hour is to resist the temptations of such ‘domain specific’ thinking and move away from knee-jerk reactions.

Gender rights and the rights of other social groups and identities can be ensured only by a system which is genuinely committed to the broad framework of human rights and basic tenets of rule of law. The tragic death of Khurshid Anwar is a stark reminder that the only alternative to such a commitment is to speedily tumble toward an insane society.

Can the Congress re-invent itself?

In the wake of the thrashing received by his party in the just concluded assembly polls, Rahul Gandhi has promised to learn from the Aam Aadmi Party and to involve the youth in a manner which we “cannot imagine” at the moment. It is imperative that the Congress learns its lessons fast. One could speculate on the existence or otherwise of a ‘Modi-wave’, but an anti-congress wave certainly seems to be blowing in the country. Given its already emaciated state in Bihar and U.P., these results have indeed brought the grand old party to a moment of existential crisis. The most telling image of the confusion in the ranks was Ashok Gehlot lamenting on TV, ‘how can the results be so shocking after having done so much of the work for the people?’

Is the Congress willing to ask the right questions and swallow the bitter answers?  The humbling defeat has brought forth the dangers of ad-hoc responses which reflect the top and middle level leadership’s disconnect not only with the ‘aam aadmi’ but also with ground level party workers. Congress has never been a cadre-based party, but it still has a large number of dedicated workers, who have over the years been virtually thrown out of political decision making. The best thing Rahul Gandhi can learn from the unprecedented drubbing is that a political party is structurally very different from an NGO and its culture ought to be different from that of a corporate entity. Sharad Pawar may sound uncharitable and sharp, but there is a lesson in what he says about the impact of ‘jhola-walas’.  Every political leadership does and must have a set of advisors from outside the fold of regular party workers;  she or he must maintain a regular dialogue with intellectuals, academicians and activists, but can any party afford being seen borrowing its political agenda and idiom from those who have no real stake whatsoever in its existence as a political formation?

How can one expect the party-worker to be energised when the top leadership is perceived to be giving more weight to the opinions of those who have earned the status of powerful advisors on the basis of their ‘phoren’ degrees or ‘activism’ and have started ‘suggesting’ policies and ‘reforming’ the party apparatus without having ever worked within it?  Just imagine the plight of the worker who all her life has worked through the dirt and din of the great Indian political scene and upheld the congress ideas and policies, and now has to learn lessons in leadership from thosemyriad MBA and NGO types who have the ear of the ‘high command’ combined with an open disdain for ‘dirty’ party-politics.  Even during the days of Indira Gandhi, when the entire party apparatus was turned into an individual-centric direction, the typical congress worker was not reduced to such helplessness in matters of organisation and policy. Today, the congress worker finds herself in the peculiar and unenviable position of defending an agenda drafted by those who were and are bitterly critical of most of the policies and programmes of her party.

The Congress leadership instead of settling scores in this hour of crisis must ask itself: is there any institutional method of generating frank and free feedback from below? Highly qualified advisors certainly have a role to play, but does the leader have the humility to learn from the humble party-worker as well? A major political party such as the Congress of course has to respond to challenges on a day to day basis, but can such responses be allowed to develop into a full-fledged culture of ad-hocism? What is the message sent out to the worker when  on one day, top ministers are seen laying out the red carpet to a TV yoga-guru and political wannabe, and  just a couple of days later the same person is dismissed as an utter hypocrite.

A lot has been said about drift in the party and policy-paralysis in the government. This drift and paralysis can be addressed only if free and frank feed-back from ground level workers is sought and valued. Leadership is all about finding the right balance between this feedback and the direction in which the leadership wants to take the party. It is also about realising that NGOs have a role to play in the society, but they must not be presumed to replace political parties and their workers. A democratic leadership can be firm and decisive – it can take tough, even un-popular decisions, only if it is willing to lend an ear to the humble and ‘uncouth’ party worker who is usually the most authentic channel to the pulse of the people.

People have not only punished the Congress for failures of governance – they have also implicitly reacted to a political culture wherein serious issues are seen being handled in a careless manner. One wonders how the party leadership got convinced about the shoddy original draft of the ‘Prevention of Communal and Targeted Violence’ bill?How can communal violence be combated by replacing one stereotype (of perpetually aggressive minority) with the equally ridiculous stereotype of a perpetually guilty majority.This is precisely what the drafters of the bill did, quite unmindful of the disastrous implications for the credibility of the Congress party and its government. They also did not appear to have paid adequate attention to sensitive centre-state relations in a federal polity.  Such tunnel-vision is characteristic of NGOs dedicated to some chosen cause, but can this be the approach of any responsible political party and government?

The Congress leadership must reaffirm the party’s uniqueness. Much before the term ‘inclusiveness’ got political currency, the Congress perfected the art of balancing conflicting social interests and political perceptions. In today’s fast changing social and political scenario, Congress will have to explore new horizons of this art of balancing. And the Congress worker has to be in the centre of this exploration.

Kumbh Mela at Jaipur Litfest.

¨ The colonization of mind is the greatest stumbling block in the way to understand the past and present of any non-European society including India. Some people think the pre-British India  was just frozen in time. There was hardly anything there except constant atrocities and deep-rooted irrationality British Raj brought enlightenment, it brought dynamism, it brought unshackling of mind. On the other hand, some people are convinced that India before the British  rule was a vertibale heaven on earth. All our problems have caused by the foreigners. In other words, forget about solutions, we Indians are not even capable of creating our own problems. Both of these contradictory perceptions of India’s past emanate form the same source–Colonial Episteme””

(भारत, बल्कि किसी भी गैर-यूरोपीय समाज के अतीत और वर्तमान को समझने के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा है-  चेतना का उपनिवेशीकरण। कुछ लोगों को लगता है कि अंग्रेजी राज की स्थापना के पहले का भारत धरा पर स्वर्ग समान था। हमारी हर समस्या विदेशियों की देन है। दूसरे शब्दों में, अपनी समस्याएं हल तो हम क्या करेंगे, इतनी भी सामर्थ्य परमात्मा ने भारतीयों को नहीं दी है कि अपने लिए कुछ समस्याएं खुद भी पैदा कर सकें।दूसरी ओर, कुछ लोगों को लगता है कि अंग्रेजी राज आया तो मुक्ति आई, प्रगति आई, आधुनिकता आई, वरना तो भारतीय समाज तो जैसे बर्फ में जमा हुआ था। अंग्रेजी राज के पहले  के भारतीय जन-जीवन में, अत्याचारों और तर्कविहीन परंपराओं के अंधानुगमन के सिवाय, था क्या? परस्पर विरोधी दिखने वाले ये मूल्यांकन असल में एक ही जमीन पर खड़े हैं। वह जमीन है— औपनिवेशिक ज्ञानकांड की जमीन…)

This evening in Jaipur, I was recalling the above-mentioned opening statement of  ‘Akath Kahani Prem ki’ while having a lively chat with Devdutt Patnaik, well-known author and management consultant, and his friend Partho Sengupta. They were very excited about what I said at  the  Kumbh Mela session yesterday at Jaipur Litfest where I had spoken along with Diana Eck and James Mallenson. In this session, I pointed out that Kumbh in our cultural memory and in the idiom of our languages has become a metaphor not of faith alone, but also of celebration of diversity and debate. Any congregation with these qualities is described as Kumbh. In fact, in the opening ceremony, the JLF itself was described as Kumbh Mela of literature and ideas.

To reduce Kumbh to just Shahi Snanas and the Naga Sadhus is to reduce a lively cultural experience to the Exotica Indica created by the colonial gaze. Like any metaphor or word, the significance of Kumbh can be appreciated only if you ‘read’ it as part of a narrative. Kumbh is an opportunity for ‘holy baths’ alright, but it is also an opportunity to reach out to the people. So much so, Swami Dayanada Sarswati who had no sympathy for most of the practices of his contemporary Hinduism, put on a “Pakhand Khanini Pataka” ( the standard challenging the false beliefs) at Haridwar Kumbh  inviting debate and deputations on his interpretation of the Vedas. He was only following the age-old practice of the Kumbh Melas. It was at the Ujjain Kumbh on the 11th may of 1921, that Bhagwadacharya had challenged the Ramanuji Vaishnavs who did not respond, and Bhagwadacharya declared that day as the day of deliverance for Ramanadis. The Fascinating story Of Bhagawadacharya Ramanandi can be read in my essay , ‘In Search of Ramanand’.

James Mallenson, himself a Ramanandi Bhagat could relate with this immediately.

Kumbh a provides an opportunity of deciding the issues of power, hierarchy and heritage. After all, India is not and never was a static, frozen or ”a-historical” society. It was a society having its own material questions along with spiritual quest. Of course, It was and is an unique society, uniqueness, however  lied not in the problems,  but in the solutions it sought. This is something, Raymond Schwab had reminded his European readers in 1950.

I was asked a question about Kumbh, in fact, religiosity in general becoming so popular in this era of  science and rationality. I pointed out that the science as such in itself can not act as an antidote to faith of any kind. In this sense, science and rationality do not necessarily go hand in hand. The fact of the matter is that more empty we become inside, more religious we  turn outside.

It was an interesting session with such a lively audience participation.

 

 

इस माहौल में विवेकानंद

12 जनवरी स्वामी विवेकानंद का जन्मदिन है। विवेकानंद मेरे बाल और किशोर जीवन के हीरो थे, एक हद तक आज भी हैं। आज यह लेख आप लोगों के सामने रख रहा हूँ। यह राजेन्द्र माथुर द्वारा संपादित ‘नवभारत टाइम्स’ में पहले पहले छपा था, शायद 1990 या 1991 की बारह जनवरी के आस-पास।

बाद में यह मेरी पहली प्रकाशित पुस्तक, ‘संस्कृति: वर्चस्व और प्रतिरोध’ ( पहला संस्करण, 1995) में संकलित किया गया।

शायद आपको अच्छा लगे, यह लेख विवेकानंद-जयंती के अवसर पर।

इस माहौल में विवेकानंद

विवेकानंद का नाम सुनते ही औसत हिंदू दिमाग में क्या तस्वीर उभरती है ? गेरुआ वस्त्रधारी, सुदर्शन, तेजस्वी संन्यासी, जिसने सितम्बर, 1893 की शिकागो धर्म-संसद में हिन्दू धर्म की महानता और मनीषा के झंडे गाड़ दिए । हिंदू होने पर शरमाने की बजाय गर्व करना सिखाया और साबित किया कि हम किसी से कम नहीं । यह तस्वीर असत्य नहीं, अर्द्धसत्य है । इसकी व्यापक लोकस्वीकृति का कारण भी असल में इसका अधूरापन ही है । अपने धर्म पर गर्व विवेकानंद अवश्य करते थे । इस गर्व का, राजनीतिक रुप से पराधीन समाज के लिए, अर्थ भी बहुत ज्यादा था । मामला राजनीतिक पराधीनता के बावजूद सांस्कृतिक स्वाभिमान बनाए रखने का था । लेकिन विवेकानंद का स्वाभिमान कूपमंडूकों के आत्मविश्वास से तो भिन्न था ही; उन पक्षियों के आक्रामक गर्व से भी अलग था, जिनकी सभा में दोपहर अँधेरी होती है ।

विवेकानंद की समग्र चिंता और गतिविधि को एक अधूरी तस्वीर तक सीमित भी तो वे ही लोग करना चाहते हैं, जो तीखे सवालों की चिलकती धूप के अस्तित्व तक से इंकार करने के इच्छुक हैं । ऐसे विवेकानंद उनके काम के हैं, जो हिंदुत्व पर गर्व करना सिखाएँ । लेकिन शूद्रराज और समाजवाद की बातें करने वाले विवेकानंद ? कर्मयोगी की नैतिकता का आधार आस्तिकता को नहीं, सामाजिक न्याय के संघर्ष को मानने वाले विवेकानंद ? वे तो झंझट पैदा करेंगे । सो, उनकी अधूरी तस्वीर को ही सब कुछ मानो । सन्यासी की तेजस्विता पर गर्व करो, लेकिन उस आत्म-संघर्ष और आलोचनात्मक विवेक से कोई वास्ता न रखो, जिससे तेजस्विता संभव हुई । विवेक की जीवंत उपस्थिति को जड़ प्रतिमा बना दो और चुनिंदा तारीखों पर फूलमाला अर्पित कर दो । यही नहीं, इस प्रतिमा के जरिए ऐसे सवालों का मुँह बंद कर दो, जिनसे विवेकानंद तब टकराए और सौ बरस बाद आज भी टकराते । परम्परा के अपहरण की इस राजनीति के शिकार विवेकानंद अकेले नहीं हैं । इसीलिए सवाल सिर्फ उनका न होकर सारी सांस्कृतिक विरासत को समझने और उसे मुक्ति की दिशा में विकसित करने का है । स्वयं विवेकानंद के शब्दों में, “ताकत के बूते निर्बल की असमर्थता का फायदा उठाना धनी-मानी वर्गों का विशेषाधिकार रहा है, और इस विशेषाधिकार को ध्वस्त करना ही हर युग की नैतिकता है ।” (स्‍वामी विवेकानंद, ‘कम्‍पलीट वर्क्‍स,’ मायावती संस्‍करण, कलकत्‍ता,1950, खंड-।, पृ.434- 35.)

 

विवेकानंद धार्मिक व्यक्ति थे, राजनीतिक नहीं । राजनीति से उनकी विरक्ति तो “खबरदार, मुझे छूना मत” किस्म की थी । इसीलिए यह और भी ध्यान देने की बात है कि वे नैतिकता की परिभाषा विशेषाधिकार पर आधारित सत्तातंत्र के खिलाफ संघर्ष के रुप में करते   हैं । तो क्या विवेकानंद धर्म का सिर्फ इस्तेमाल कर रहे थे ? जो व्यक्ति यह कहे कि “भूखे के सामने भगवान पेश करना उसका अपमान हैं”,  वह कैसा धार्मिक व्यक्ति था ? जो व्यक्ति यह पूछे कि “ धर्म को सामाजिक नियमों से क्या प्रयोजन ?” और फिर कहे कि “धर्म को कोई हक नहीं कि समाज के नियम गढ़े । उसे चाहिए कि अपनी हद में रहे ।” उसे क्योंकर धार्मिक माना जाए । ख़ास कर आज के माहौल में, जबकि ‘साधु-संत’ खुले आम राजनीतिक उठा-पटक में लगे हुए हैं । आख़िर विवेकानंद के लिए धार्मिक होने का मतबल क्या था ?  उनकी कठोर सामाजिक आलोचना और सक्रियता का धार्मिकता से किस प्रकार का संबंध था ? ऐसे सवालों के संदर्भ में विवेकानंद का अर्थ समझने के लिए रामकृष्ण परमहंस को समझना अनिवार्य है । साथ ही उस परिवेश के बुनियादी सवालों को भी, जिसकी बेचैनी विवेकानंद के धर्म में वाणी पा रही थी । ऊपर से देखें तो गुरु-शिष्य दो विपरीत छोरों पर थे । विवेकानंद सुदर्शन, बलिष्ठ युवक थे, तो परमहंस क्षीणकाय । विवेकानंद अंग्रेज़ी पढ़े-लिखे भद्रलोक थे, तो रामकृष्ण दक्षिणेश्वर मंदिर के साधारण शिक्षित पुजारी । विवेकानंद संशयवादी, बुद्धिवादी थे, तो परमहंस आस्थावान साधक ।

रामकृष्ण की साधारणता ही उनकी असाधारणता थी । वे बहुत सहज रूप से विवेकानंद (जो तब तक नरेंद्र ही थे) के सीधे सवाल का सीधा जवाब दे सकते थे, “हाँ, मैंने ईश्वर को देखा है । ऐसे ही, जैसे इस वक्त तुम्हें देख रहा हूँ ।”  बँधे-तुले धर्म और महीन तर्क के प्रति उदासीन निजी अनुभव पर आधारित यह आत्म-विश्वास रामकृष्ण परमहंस को मध्यकालीन भक्तों की परम्परा से जोड़ता है । रुढ़िवादी शास्त्र-धर्म के विरुद्ध जो लोकधर्म भक्तों की बानी में रचा-बसा है, रामकृष्ण परमहंस का व्यक्तित्व उसी लोकधर्म का मूर्त रुप था । साधना के नितांत निजी धरातल तक परमहंस ने हर धर्म – हिंदू, इस्लाम, ईसाई – को अपनाया था । वे संवादी सबके थे, अन्धानुयायी किसी के नहीं ।

भक्ति-संवेदना की विलक्षणता यही है कि उसने प्रेम को ही आधार माना – भक्त और भगवान का संबंध हो या मनुष्य और मनुष्य का । रामकृष्ण परमहंस के व्यक्तित्व में इस विलक्षणता ने प्रामाणिक और समकालीन अर्थ पाया तथा विवेकानंद के कर्म में व्यावहारिक विस्तार । विवेकानंद जब नारायण को दरिद्र में देखते थे, दरिद्र नारायण की सेवा को ही धर्म का सार कहते थे, तो वे उनके अपने शब्दों में “गुरु के उपदेश को जीवन में उतारने की चेष्टा” ही कर रहे थे । यह उपदेश बहुत गहरे अहसास के रुप में मिला था, युवक नरेंद्र को । जब उन्होंने निर्विकल्प समाधि पाने की साधक-सुलभ इच्छा प्रकट की, तो गुरु ने उन्हें झिड़क दिया,  “धिक्कार है तुम्हें । मैं समझता था, तुम असंख्य आत्माओं के वट वृक्ष बनोगे, तुम केवल अपना स्वार्थ विचार रहे हो ।” (सत्‍येंद्रनाथ मजूमदार, ‘विवेकानंद चरित’, नागपुर, 1967, पृ.161)

परमहंस केवल नरेंद्र को धिक्कार रहे थे या उस समूचे बोध को, जिसके लिए धार्मिक होने का अर्थ था – सामाजिक यथास्थिति का सहायक होना या फिर केवल अपने मोक्ष की चिंता करना । यह धिक्कार नरेंद्र के लिए इस सच्चाई का साक्षात्कार बना कि मुक्ति अकेले को नहीं मिला करती । वे धर्म को किसी राजनीतिक प्रोजेक्ट के लिए इस्तेमाल नहीं कर रहे थे, वे निस्संदेह धर्म को जी रहे थे, लेकिन उसे नया अर्थ देते हुए । जड़ता के स्थान पर संघर्ष से धर्म को परिभाषित करते हुए । विवेकानंद उन भाग्यवानों में से नहीं थे, जिन्हें हर सवाल के तैयार जवाब मिल जाते हैं, वे उन अभागों में से भी नहीं थे, जो ऐसे रेडीमेड जवाबों को जीवन, धर्म और संस्कृति का सार मान बैठते हैं । उन्होंने न तो धर्म की प्रचलित अवधारणा स्वीकारी, न देश का चालू विचार । उन्होंने सचमुच भारत की खोज की – पूरे दो बरस देश के कोने-कोने में घूमकर उन्होंने भारतीय समाज की ताकत और कमजोरी को परखा । इस परख के ही क्रम में ही वे स्वयं को भी परख सके । जो लोग समझते हैं कि विवेकानंद को सारा बोध कन्याकुमारी के तट पर एक ही रात में हासिल हो गया, वे विवेकानंद की आंतरिक-बाह्य खोज के मर्म को समझ ही नहीं सकते ।

सन् 1891 में पैर में चक्कर लेकर निकले तेजस्वी संन्यासी विवेकानंद ने सब कुछ त्याग दिया था । सब कुछ त्याग देने का नुकसान भी होता है । वह यह कि व्यक्ति स्वयं को बहुत ऊपर समझने लगता है । ‘पवित्र’ होने के नाते उसे उन सबसे घृणा का अधिकार प्राप्त हो जाता है, जिन्हें वह स्वयं अपवित्र मानता हो । अप्रैल, 1891 में स्वामी विवेकानंद खेतड़ी नरेश के अतिथि थे । एक दिन ऐसा हुआ कि एक वेश्या को गाना सुनाने के लिए तलब किया गया । पवित्र संन्यासी क्षुब्ध होकर कमरे से चले गए । दुनियादार लोगों की वासना और तिरस्कार की आदी स्त्री को पवित्र सन्यासी का यह तिरस्कारपूर्ण रवैया बहुत गहरे चुभा और यह चुभन उसने व्यक्त की, सूरदास के पद में, “प्रभु मोरे अवगुन चित न धरो ।” यह विवेकानंद के पवित्रतावादी अहंकार के विगलन का क्षण था । ( रोमाँ रोलाँ, ”दि लाइफ ऑफ विवेकानंद एण्‍ड दि यूनिवर्सल गॉस्‍पेल”, कलकत्‍ता,1965,पृ.24-25; तथा मजूमदार, पूर्वोक्‍त, पृ.313-4.) उसके बाद वे कभी लांछितों, वंचितों और दलितों के प्रति सामाजिक तिरस्कार में हिस्सा नहीं बंटा सके । बल्कि इन लोगों के लिए उनकी करुणा समाज के ‘पवित्र’ भद्रलोक की कठोरतम आलोचना में व्यक्त हुई ।

विवेकानंद संभवतः अपने समय के अकेले सवर्ण कुलोत्पन्न विचारक थे, जिन्होंने भारत के उच्च वर्ग और सवर्ण समाज को बतौर सामाजिक समूह के ऐसी लगती हुई बातें कहीं, “शुद्ध आर्य रक्त का दावा करने वालो, दिन-रात प्राचीन भारत की महानता के गीत गाने वालो, जन्‍म से ही स्‍वयं को पूज्‍य बताने वालो, भारत के उच्‍च वर्गो, तुम समझते हो कि तुम जीवित हो ! अरे, तुम तो दस हजार साल पुरानी लोथ हो….तुम चलती-फिरती लाश हो….मायारुपी इस जगत् की असली माया तो तुम हो, तुम्‍हीं हो इस मरुस्‍थल की मृगतृष्‍णा….तुम हो गुजरे भारत के शव, अस्‍थि-पिंजर…..क्‍यों नहीं तुम हवा में विलीन हो जाते, क्‍यों नहीं तुम नये भारत का जन्‍म होने देते ?” (स्‍वामी विवेकानंद, ‘कम्‍पलीट वर्क्‍स’ (खण्‍ड-7), पृ.354.)

 

विवेकानंद समकालीन राजनीति से दूर ही रहते थे, लेकिन उनका धर्म सामाजिक सत्‍ता के सवाल से लगातार टकराता था। यही कारण है कि राजनीति से कोई वास्‍ता न रखने वाले स्‍वामी विवेकानंद बार-बार राजनीतिकर्मियों के प्रेरणास्रोत बने, और यही कारण है कि शोषणकारी समाजसत्‍ता को बनाए रखने के इच्‍छुक लोग विवेकानंद को हथियाने की कोशिश बार-बार करते रहे और अब भी कर रहे हैं, ताकि उनकी प्रखर सामाजिक चेतना को छद्म राष्‍ट्रवाद के हित में इस्‍तेमाल किया जा सके। इस खतरे का अहसास स्‍वयं विवेकानंद को था। इसीलिए उन्‍होंने कहा था, ”लोग देश-भक्‍ति की बातें करते हैं। मैं देश-भक्‍त हूँ, देश-भक्‍ति का मेरा अपना आदर्श है।…..सबसे पहली बात है, हृदय की भावना। क्‍या भावना आती है आपके मन में, यह देखकर कि न जाने कितने समय से देवों और ऋषियों के वंशज पशुओं-सा जीवन बिता रहे हैं ?  देश पर छाया अज्ञान का अंधकार क्‍या आपको सचमुच बेचैन करता है? …..यह बेचैनी ही देश-भक्‍ति का पहला कदम है।” (विनय रॉय द्वारा उद्धृत, ‘सोशियो पॉलिटिकल व्‍यूज़ ऑफ विवेकानंद’-पी.पी.एच., नयी दिल्‍ली, 1983, पृ.54-55.)

 

गरीबी, शोषण और अज्ञान के अहसास से बेचैन होना ही देश-भक्‍ति का पहला प्रमाण है-पिछले सौ साल में इस कसौटी की प्रासंगिकता बढ़ी ही है। इस माहौल में, जबकि सामाजिक न्‍याय और देश-भक्‍ति को अलग-अलग किया जा रहा है, जबकि राष्‍ट्रवाद को आक्रामकता और घृणा का पर्याय बनाया जा रहा है, तब यह कसौटी सच्‍ची देश-भक्‍ति और छद्म-राष्‍ट्रवाद के बीच अंतर करने के लिए बहुत जरुरी है। इन असली सवालों को राजनीतिक एजेंडा से गायब ही कर देने को जो लोग राष्‍ट्रवाद कहते हैं, और फिर विवेकानंद के नाम की माला जपते हैं, वे सचमुच धन्‍य हैं और धन्‍य है पाखंड कर सकने की उनकी क्षमता।

 

विवेकानंद के समय को हम नवजागरण का समय कहते हैं। उनके परिवेश की बुनियादी समस्‍या यही थी। भारतीय समाज का सामाजिक-सांस्‍कृतिक नवजागरण। कैसे यह महादेश अपनी सांस्‍कृतिक पहचान फिर से प्राप्‍त करे?  कैसे यह विराट् जनसमुदाय सामाजिक स्‍पंदन प्राप्‍त  करे ?  कौन-सी बाधाएँ हैं इस संभावना के रास्‍ते में ?  कौन-सा सामाजिक तबका हटा पाएगा इन बाधाओं को ?  हमारे अपने समय में भी ये सवाल अप्रासंगिक नहीं हो गए हैं, बल्‍कि पिछले सौ साल के अनुभवों ने कुछ नए सवाल और खड़े कर दिए हैं। विकास का अर्थ और उसकी कसौटी क्‍या है ? भारतीयता की पहचान क्‍या है ? दलितों, स्‍त्रियों की कोई हिस्‍सेदारी सामाजिक सत्‍तातंत्र में होनी चाहिए या नहीं ? यदि हां, तो कैसे ? यदि नहीं, तो क्‍यों नहीं ? धर्म की मनुष्‍य के अंतर्जगत तथा सामाजिक जीवन में क्‍या भूमिका है ? हम अपने समाज की किस बात पर गर्व करें और किसके खिलाफ़ संघर्ष ? ये सवाल हमारे वर्तमान को गहरे में मथ रहे हैं। इस मंथन के माहौल में हम विवेकानंद की बैचेनी से क्‍या हासिल कर सकते हैं ? उनकी भावनाओं तथा विचारों की हमारे वक्‍त में दिशा कौन-सी हो सकती है ? परम्‍परा को समझने के असली सवाल ये ही हैं, और इन्‍हीं को भुलाने की कोशिश वे लोग करते हैं, जो विवेकानंद जैसी बेचैन मेधा को एक अधूरी तस्‍वीर में बदलने का अनुष्‍ठान कर रहे हैं।

 

‘कर्मयोग का आदर्श’ नामक प्रसिद्ध व्‍याख्‍यान में विवेकानंद ने कर्मयोग की विलक्षण परिभाषा की, “इस प्रकार कर्मयोग नि:स्‍वार्थ सद्कर्मों द्वारा मुक्‍ति प्राप्‍त करने का नैतिक और धार्मिक प्रयत्‍न है । कर्मयोगी के लिए जरुरी नहीं कि वह किसी सिद्धांत विशेष का अनुगमन करे, आत्‍मा आदि के सवालों पर विचार करे। भगवान में विश्‍वास करना तक कर्मयोगी के लिए अपरिहार्य नहीं है।” (‘सेलेक्‍शंस फ्रॉम स्‍वामी विवेकानंद’, कलकत्‍ता, 1957, पृ.30.) यह इस कारण, क्‍योंकि विवेकानंद के अनुसार जीवन का मूल प्रतिमान आस्‍तिकता नहीं, बल्‍कि नैतिकता है, और नैतिकता का सार है – स्‍वतंत्रता के लिए संघर्ष, शोषण को विशेषाधिकार मानने वाली व्‍यवस्‍था के विनाश के लिए संघर्ष।

 

विवेकानंद ने हिंदू समाज के संदर्भ में इन सारे सवालों पर विचार किया। दासता का स्रोत, उनके अनुसार, कूपमंडूकता और जाति प्रथा में निहित था। वे अपने समाज से सच्‍चा प्‍यार करते थे । इसलिए झूठे गर्व के जरिए लोगों को भरमाने की बजाय ताकत और कमजोरी को ठीक-ठीक पहचानने का प्रयत्‍न करते थे। कूपमंडूकता और जाति प्रथा के जरिए समाज की छाती पर सवार उच्‍च वर्ग को धिक्‍कारते हुए विवेकानंद राष्‍ट्रीय पुनर्निर्माण के लिए बने-बनाये राष्‍ट्रवाद की पोटली उठा लाने के लिए नहीं दौड़ पड़ते थे। वे जानते थे कि राष्‍ट्र दरिद्रनारायण में निवास करता है, और उसे “जागना है – हलधर किसान के झोंपड़े से, मछुआरे की कुटिया से, नीची जातियों के बीच से…… राष्‍ट्र को जागना है – कारख़ानों और बाज़ारों से, जंगलों और पहाड़ों के निवासियों के बीच से। इन साधारण लोगों ने हजारों बरस अत्‍याचार सहे हैं, और इसी कारण उन्‍हें रक्‍तबीज जैसी विलक्षण जीवनी-शक्‍ति प्राप्‍त हो गई है ….. उन्‍हें आधी रोटी भी मिल जाए, तो ऐसी ऊर्जा उपजेगी उनके बीच, जो सारी दुनिया को हिलाकर रख देगी। भारत के उच्‍च वर्गों, अतीत के अस्‍थिपिंजरों । ये जनसाधारण ही हैं आने वाले भारत के भाग्‍यविधाता ।”( ‘कम्‍पलीट वर्क्‍स’,  (खण्‍ड-7), पृ.309-10.)

 

इस आने वाले भारत की व्‍यवस्‍था की कल्‍पना विवेकानंद शूद्रराज के रूप में करते थे। शूद्र शब्‍द का प्रयोग भी वे केवल जातिवाचक अर्थ में नहीं, शोषित वर्ग के अर्थ में करते थे। उन्‍होंने उपनिवेशवाद के बारे में कहा था कि “इसके कारण समूचे के समूचे राष्‍ट्र शूद्र दशा में पहुंच गए हैं।” वे इतिहास को ब्राह्मण राज, क्षत्रिय राज, और अपने समकालीन समय को वैश्‍यकाल के रूप में देखते हुए आने वाले समय में शूद्रराज, अर्थात् दलितों, शोषितों के राज को अपरिहार्य मानते थे। विवेकानंद संभवत: पहले भारतीय थे, जिन्‍होने स्‍वयं को सामाजिक-आर्थिक अर्थ में ‘समाजवादी’ कहा, बेशक इस सावधानी के साथ कि “भले                                                                                                                                                                                                                                                                 ही समाजवाद आदर्श व्‍यवस्‍था न हो, लेकिन न कुछ से तो बेहतर ही है।”

 

विवेकानंद का विरोधाभास यह था कि वे जनसाधारण को गैर-राजनीतिक रखना चाहते थे,  जो कि संभव ही नहीं था । सामाजिक-सांस्कृतिक दासता के स्रोत पर चोट ही तो असली राजनीतिक कार्यवाही है। जो यह चोट करना चाहे, वह स्‍वयं राजनीति से कितना ही दूर भागे, राजनीति उसे कहां भागने देगी ?  इस बात को ध्‍यान में रखते हुए सोचना चाहिए कि इस वर्तमान में विवेकानंद के विचारों की दिशा क्‍या हो सकती है ?

 

विवकोनंद कवि भी थे । अपने अंतर्द्द्धों से वे कई बार कविता में ही टकराते थे । वे सच्‍चे धार्मिक व्‍यक्‍ति थे, सो कई बार उनके मन में नितांत वैयक्‍तिक साधना की इच्‍छा बलवती हो उठती थी। दरिद्रनारायण की सेवा के गुरुमंत्र और वैयक्‍तिक साधना के इस द्वंद् से विवेकानंद बार-बार टकराते दीखते हैं – कविताओं में, व्‍यक्‍तिगत पलों में, यहां तक कि सार्वजनिक लेखों, भाषणों तक में। इस सारे आत्‍मसंघर्ष के बाद हम उनके जीवन में अंतत: वही सच्चाई उभरती देखते हैं, जिसे रोमाँ रोलाँ ने ये शब्‍द दिए हैं : ”हां, विवेकानंद जैसा कवि बार-बार इस नर्क में लौटने को बाध्‍य है। यह उसकी नियति ही है, जीने का एकमात्र तर्क ही है- बार-बार जन्‍म लेना, इस नर्क की ज्‍वाला से संघर्ष करना, उससे झुलसते जनों में प्राण फूँकना, उन्‍हें बचाने के लिए स्‍वयं अपनी आहुति दे देना ही उसका धर्म है।” (रोमाँ रोलाँ, ‘विवेकानंद’ लोकभारती, इलाहाबाद, 1993, पृ.105)  ‘धर्म’ की इस समझ के कोण से देखें, तो विवेकानंद वहां नहीं हैं, जहां खोखले, आक्रामक ‘गर्व’ की टकसाल में हिंदू राष्‍ट्र का खोटा सिक्‍का ढाला जा रहा है। बल्‍कि वे वहां हैं, जहां उनकी कल्‍पना के शूद्रराज की संभावनाएँ टटोली जा रही हैं। विवेकानंद उन लोगों के साथ कैसे हो सकते हैं, जो ‘इस नर्क की ज्‍वाला’ में और ईंधन डाल रहे हैं?  कैसे हो सकते हैं वे उनके साथ, जो करोड़ों वंचितों को आपस में लड़ाकर धर्म और देश-भक्‍ति का नाम लेने का दुस्‍साहस करते हैं?  हमारे माहौल में दासता के स्रोत क्‍या हैं ?  उसके नए-नए रुप कौन-से हैं ?  मुक्‍ति की संघर्ष-यात्रा किस रास्‍ते चलेगी ? जो ये सवाल सच्‍चे मन से पूछे, विवेकानंद की परिभाषा पर खरे उतरने वाले देश-भक्‍त और कर्मयोगी वही हैं । ऐसे लोग विवेकानंद के प्रतिमा-पूजक हों या न हों, उनके विचारक्रम में हमराही अवश्‍य हैं। इस माहौल में विवेकानंद के सच्‍चे उत्‍तराधिकारी महंत, मठाधीश और राजमाताएँ नहीं, शंकर गुहा नियोगी और मेधा पाटेकर सरीखे लोग हैं। वे किसान, मजदूर, दलित, स्‍त्रियाँ तथा नौजवान हैं, जो शोषण-मुक्‍त समाज की स्‍थापना और मानवीय गरिमा की प्रतिष्‍ठा के लिए इस नर्क की ज्‍वाला से जूझ रहे हैं।

 

 

 

 

और क्या होंगे अभी…..

‘आउटलुक’ साप्ताहिक की वार्षिकी  में प्रकाशित मेरा लेख….भगवान जाने, संपुादक जी ने इसे छापते समय  शीर्षक क्यों बदल दिया….

 

और क्या होंगे अभी…..

 

‘हम कौन थे, क्या हो गये और क्या होंगे अभी?’ सौ साल पुराना यह सवाल आज के भारत में नये सिरे से गूँज रहा है। ना तो सवाल पूछने वाले वही हैं, ना सवाल पूछे जाने का संदर्भ वही है, लेकिन सवाल वही है। बड़े सवालों के जबाव इतिहास के अलग अलग मोड़ों पर बदलते रहते हैं, लेकिन सवाल फिर भी बने रहते हैं।

मैथिलीशरण गुप्त की ‘भारत-भारती’ द्वारा इस सवाल के पूछे जाने के कोई तीस बरस बाद, जवाहरलाल नेहरू अपनी ‘भारत की खोज’ में नोट कर रहे थे कि उनकी सभाओं में जब भी नारा लगता है, ‘भारत माता की जय’; वे लोगों से पूछते हैं कि ‘कौन है यह भारत माता, जिसकी जय का नारा लगा रहे हैं, जिसकी जय हम सब चाहते हैं?’ और फिर नेहरू लिखते हैं कि वे बताते थे लोगों को, कि ‘आप सब लोग स्वयं है भारत माता, हिन्दुस्तान का एक एक इंसान है भारत माता, भारत माता की जय का असली मतलब यही है कि साधारण हिन्दुस्तानियों की जय हो, उन्हें विदेशी शासन से ही नहीं, आंतरिक शोषण और अन्याय से भी मुक्ति मिले’।

ए. आर. रहमान ने ‘वंदे मातरम’ का बेहद मार्मिक,  निजी स्पर्श वाला रूप तैयार किया है, ‘अम्मां तुझे सलाम’। आप ने देखा-सुना ही होगा। इसे सुनते हुए, भारत माता की जय के किसी भी अन्य रूप को सुनते हुए मन में सवाल आते हैं, शायद आपके मन में भी आते हों कि क्या ऐसा जयकारा छत्तीसगढ़ और ओडिशा के आदिवासियों के मन में भी उतने ही सहज रूप से गूँजता होगा? यह जयकारा क्या उत्तरी मध्य-प्रदेश के उन सहरिया जनों के मन में भी गूँजता होगा, जिन में कुपोषण का स्तर इथियोपिया से भी बदतर पाया गया है, जिन की आबादी में डॉक्टरों की उपलब्धता हर एक लाख पर दस के आस-पास है? भारत अवधारणा के प्रति उन मणिपुरियों का रवैया क्या होगा जिनके प्रांत का महीनों तक चलने वाला घेराव, देश-दुनिया से, जिनके संपर्क का पूरी तरह टूट जाना राष्ट्रीय मीडिया के लिए महत्वपूर्ण समाचार नहीं बन पाता?

ये सवाल कई संदर्भों में, कई अवतारों में दोहराए जा सकते हैं। उन लड़कियों के संदर्भ में जो प्रेम करने के अपराध में ‘अपनों’ द्वारा नाक बचाने के लिए काट डाली गयीं, उन लोगों के संदर्भ में जो अपनी जाति या धर्म के कारण अपमान से ले कर प्राण-हरण तक झेलने को अभिशप्त हैं।

और, चूँकि हम बात कर रहे हैं, आजाद होने के पैंसठ साल बाद, ‘संप्रभु,लोकतांत्रिक गणतंत्र’ बनने के बासठ साल बाद; इसलिए यह सवाल सचमुच बहुत गहरी बेचैनी के साथ गूँजने वाला सवाल है- ‘हम कौन थे, क्या हो गये, और क्या होंगे अभी”।

ध्यान रखना चाहिए कि भारत यूरोपीय तर्ज का राष्ट्र-राज्य भले ही स्वाधीनता आंदोलन के फल-स्वरूप बना हो, लेकिन हिमालय के दक्षिण में, और हिन्द महासागर के उत्तर में स्थित भूखंड के निवासियों की संस्कृति के साझेपन की चेतना, इस भूखंड के एक सभ्यतापरक इकाई होने की चेतना महाभारत, विष्णुपुराण,कालिदास और सम्राट अशोक तक जाती है। विष्णुपुराण के अनुसार, हिमालय के दक्षिण में स्थित भू-भाग का नाम भारत, और इसकी सभी संततियों का नाम भारती है। मार्के की  बात है कि विष्णुपुराण का भारत-बोध  अल्लामा इकबाल के तराना-ए-हिन्दी में जस का तस चला आया है; भूगोल, विविधता और आत्म-गौरव तीनों ही स्तरों पर-

परबत वो सबसे ऊंचा हमसाया आसमां का

वो संतरी हमारा, वो पासबां हमारा

मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना

हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा

यूनान ओ मिस्र ओ रोमां सब मिट गये जहाँ से

अब तक मगर है बाकी नामो निशां हमारा

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी

सदियों रहा है दुश्मन दौरे जमां हमारा।

आगे चल कर भले ही, इकबाल ‘ चीनो अरब हमारा, हिन्दोस्तां हमारा/ मुस्लिम हैं हम वतन है सारा जहाँ हमारा’ के फेर में पड़ गये हों, लेकिन ‘तराना-ए-हिन्दी’ में वे भारत नामक सभ्यतापरक इकाई और उसकी पहचान ‘भारतीयता’ की निरंतरता और विशिष्टता को बिल्कुल ठीक पहचान रहे थे। ऐसी अद्वितीय निरंतरता का कारण है, सारे विवादों और झगड़ों के बावजूद संवादधर्मिता में विश्वास और सांस्कृतिक साझेपन का बोध। इस बोध और विश्वास ने ही भारतीयता को वह ताकत दी है कि विभिन्न धार्मिक-सांस्कृतिक परंपराएं इसमें अपना योगदान करती रही हैं, उनका उद्भव भारत भूखंड की सीमाओं के भीतर हुआ हो बाहर।

स्वाधीनता आंदोलन के दौरान ‘विविधता में एकता’ पर जो बल था, वह इसी पारंपरिक सभ्यता-बोध का समकालीन मुहावरे में प्रस्तुतीकरण था, कोरा तात्कालिक नारा नहीं। लेकिन स्वाधीनता आंदोलन और उसे संभव करने वाले बौद्धिक उपक्रमों की सीमाएं भी भुलाईं नहीं जा सकतीं। गुप्तजी के सवाल- कौन थे क्या हो गये, और क्यो होंगे अभी’  में सोचने का आव्हान भी था, ‘आओ मिल कर विचारें सभी’। दिक्कत यह थी कि इस सभी में व्यंजित ‘हम सब’ के बीच खाई थी। जो हम इस तरह की कविताओं में बोल रहा था, उसमें सारी सदिच्छा के बावजूद दलित, आदिवासी और स्त्री की आवाज की जगह बहुत ही कम थी। औपनिवेशिक ज्ञानकांड और प्रशासन ने जिस बौद्धिक को रचा, उसकी चेतना में और उसके प्रभाव के कारण सारे समाज की चेतना में एक तरह का संवेदना-विच्छेद पैदा हो गया था, जो आज तक चला आ रहा है। संवेदना-विच्छेद से मेरा आशय है—अपने समाज के फौरी अतीत, जीवंत परंपराओं और अपने जन-साधारण की रोजाना जिन्दगी को निर्धारित करने वाले सोच-विचार और दैनंदिन व्यवहार की अवहेलना करना। यह मान लेना कि किसी सुदूर प्राचीन अतीत में भारतीय समाज में आंतरिक गतिशीलता रही हो तो रही हो, अंग्रेजी राज के जड़ें जमाने के पहले याने अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी के भारत में सिवाय सांस्कृतिक जड़ता के कुछ बचा ही नहीं था। इसी संवेदना-विच्छेद के कारण, भारतीय आधुनिकता के जनक राजा राममोहन रॉय मान लिये गये, आज तक माने जाते हैं। भारतीय समाज की अपनी परंपरा में, देशभाषाओं में विकसित होती रही देशज आधुनिकता की संवेदना के साथ संवाद कायम करने के प्रयास, गाँधीजी जैसे अपवादों को छोड़ दें तो, बहुत ही कम हुए।  इस संवेदना-विच्छेद के दो एक ही रूपक याद कर लेना फिलहाल काफी होगा।

औपनिवेशिक ज्ञानकांड की अब तक चली आ रही ताकत के बताए हम जानते हैं कि विधवा-दहन पर रोक लगाने की पहली कोशिश राजा राममोहन राय के प्रयासों से विलियम बेंटिंक ने की थी। वास्तविकता यह है कि इन प्रयासों के सौ साल पहले, जयपुर नरेश जयसिंह अपने राज्य में विधवा-दहन प्रथा पर रोक लगा चुके थे। जिस अठारहवीं सदी को भारतीय इतिहास में ऐसे घोर अंधकार का युग मान लिया गया है जिसमें कि कहीं कोई उदार, प्रगतिशील स्वर था ही नहीं, उसी अठारहवीं सदी में बिहार में दरिया साहब और हरियाणा में चरनदास भक्ति-संवेदना के मुहाविरे में सामाजिक आलोचना ही नहीं, सामाजिक एक्टिवज्म भी कर रहे थे। चरनदास का साथ उनकी दोनों बहनें दयाबाई और सहजोबाई दे रहीं थीं, और दरिया साहब के साथ उनकी जीवन-संगिनी भी सक्रिय थीं। इसी अठारहवीं  सदी में, मारवाड़, गुजरात और मुल्तान के हिन्दू व्यापारी अरब सागर पार करके काहिरा तक और कैस्पियन सागर पार करके रूस तक जा रहे थे, वहाँ बस्तियाँ बनाने के साथ ही, समुद्र पार करके  अपने वतन आते-जाते रहने का सिलसिला अबाध रूप से बनाए हुए थे। लेकिन औपनिवेशिक ज्ञानकांड केवल ब्राह्मण समुदाय के रीति-रिवाजों को भारतीयता का प्रमाण मानते हुए ‘सिद्ध’ कर रहा था कि हिन्दू तो समुद्र यात्रा को पाप मानते थे।

अपनी जन्म-कुंडली में ही ऐसे संवेदना-विच्छेद के ग्रह लेकर जन्मी ‘भारतीयता’ में यह होना ही था कि ‘हम’ और ‘सब’ के बीच खाई पैदा हो जाए। इस लिहाज से, पिछले कोई दो दशकों से चल रहे विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक पहचानों के राजनैतिक-सांस्कृतिक आत्म-रेखांकन का महत्व स्पष्ट होता है।  ‘एकता’ सामाजिक रूप से वर्चस्वशील तबकों के वर्चस्व को दी गयी मनोहर संज्ञा भर न रह जाए, इसके लिए यह जरूरी भी है कि ‘विविधता में एकता’  से परिभाषित होने वाली  भारतीयता में विविधता को उसका उचित महत्व मिले।

लेकिन सवाल यह है कि क्या सिर्फ और सिर्फ विविधता पर ही बल देना उचित है? एकता के वर्चस्वशील सूत्रों के स्थान पर लोकतांत्रिक सूत्रों की तलाश जरूरी है या नहीं? ऐसी तलाश के अभाव में विविधता को विखंडन में बदलने से कैसे रोका जाएगा? यदि हर सामाजिक अस्मिता केवल अपनी ही मुक्ति की चिंता करे तो क्या किसी की भी मुक्ति संभव हो पाएगी? यदि यह तर्क मान लिया जाए कि दलित की बात दलित ही कर सकता है, और स्री की बात स्री  ही, तो फिर नागरिकता की अवधारणा का क्या होगा? क्या हम एक लोकतांत्रिक मिजाज की रचना नागरिकता की धारणा की उपेक्षा करके कर सकते हैं? हम नहीं भूल सकते कि  भारतीय समाज की बनावट ही  ऐसी है कि यहाँ न धक्कामार ब्राह्मणवाद चल सकता है, न धक्कामार गैर-ब्राह्मणवाद। किसी भी धार्मिक, सांस्कृतिक या भाषाई अल्पसंख्या के प्रति घृणा के आधार पर राजनीति अवांछनीय तो है ही, भारतीय समाज के स्वभाव के कारण दूरगामी तौर पर असंभव भी है। अल्पसंख्या चाहे मुसलमानों/ ईसाइयों की हो, चाहे ब्राह्मणों की।

विविधता में एकता सचाई है, बल्कि कहें कि विविधता तो ऐतिहासिक सचाई है और एकता ऐतिहासिक, राजनैतिक कामना। यह कामना किस हद तक संवेदनात्मक सचाई बन पाई है या बन पाएगी, सवाल यह है।  और सन दो हजार बारह में तो लगता यही है कि विविधता में एकता का संतुलन कुछ गड़बड़ाया है। कारण ऐतिहासिक भी हैं, और राजनैतिक आकांक्षाओं और स्वार्थों से जुड़े हुए भी।  हालत यह हो चली है कि सामाजिक-सांस्कृतिक पहचानों और उनकी राजनीति पर इतना बल है कि भारतीय नागरिकता की, उसमें निहित साझे सपनों की बात करना पिछड़ापन माना जाने लगा है। पहचानें आगे आ गयी हैं, सपने पीछे छूट गये हैं। साझे सपनों के ताने-बाने को, उन्हें वास्तविकता में बदलने  वाले तंत्र को ही ‘संप्रभु भारत’ के  संविधान निर्माताओं ने, ‘लोकतांत्रिक गणराज्य’ का नाम दिया था। डॉ. अंबेडकर ने सबसे बड़ी चुनौती भी याद दिलाई थी- ‘राजनैतिक लोकतंत्र को  सामाजिक लोकतंत्र में बदलना’। लोकतंत्र याने वह व्यवस्था और  वह मिजाज जो किसी भी व्यक्ति का मूल्यांकन उसकी व्यक्ति-सत्ता के आधार पर करे, न कि उसकी जन्मजात अस्मिता के आधार पर।

आज हालत यह है कि विधायिका में महिलाओं को आरक्षण देने का विरोध सबसे ऊंची आवाज में वे करते हैं जो जातीय अस्मिताओं के आत्मरेखांकन को राजनैतिक मुहावरे में ढाल रहे हैं। जिन पर समाज के लोकतांत्रिकीकरण की जिम्मेवारी है, और इसी जिम्मेवारी के निर्वाह के लिए संविधान जिन्हें ताकत देता है, वे खापों और पंचायतों के ऊंट-पटांग फरमानों पर चुप्पी साधते ही नहीं,कई बार उन्हें जायज ठहराते भी सुने जा सकते हैं। कहा जाता है कि ‘भई यह तो फलाँ समाज का अपना मामला है, सरकार इसमें क्यों पड़े?’ ध्यान देने की बात यह है कि इस किस्म के वक्तव्यों में ‘समाज’ का मतलब जातियों की पंचायतों और पहचानों से होता है। गोया भारतीय समाज का तो कोई मामला है ही नहीं, जो भी मामले  हैं वे इस या उस जाति के समाज के ही हैं।

निस्संदेह, जाति-व्यवस्था और उससे उपजे पूर्वग्रह, अत्याचार हमारे समाज की कड़वी सचाई हैं। सवाल लेकिन यह है कि इस व्यवस्था को समाप्त करना है या किसी बदले हुए रूप में जारी रखना है? भारतीयता की अवधारणा के लिहाज से, विविधता में एकता की फिर से परिभाषा करने के लिहाज से, और राजनैतिक लोकतंत्र को सामाजिक लोकतंत्र में बदलने के लिहाज से, यह सवाल केंद्रीय सवाल है।

इस बात को दो टूक रूप से कहने की और मन में बसाने की जरूरत है कि एक तरह के जातिवाद का विकल्प दूसरे तरह का जातिवाद नहीं हो सकता, जातिवाद के जाल को लोकतांत्रिक चेतना की छुरी से ही काटा जा सकता है, दूसरे जातिवाद के जाल से नहीं। दो जाल आपस में उलझ कर जो कर सकते हैं, वह आप और हम आज के भारत में देख ही रहे हैं। एक तरह के अस्मितावाद के अतिचार को खत्म करने के लिए दूसरी तरह के अस्मितावाद के अतिचार को रामबाण मानना व्यर्थ है। व्यक्ति की हो, या समुदाय की, किसी भी  अस्मिता का आत्मरेखांकन राजनैतिक लोकतंत्र को सामाजिक लोकतंत्र में  बदलने की दिशा में तभी चल सकता है, जब कि ‘आत्म’ का रेखांकन करते हुए, वह ‘अन्य’ के प्रति भी संवेदनशील रहे। भारतीयता की अवधारणा को पुनर्नवा करने के लिए बेहद जरूरी है कि हम सब याद रखें कि लोकतंत्र केवल संख्याओं के बूते नहीं, संस्थाओं और मर्यादाओं के बल पर चलता है। विभिन्न लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वायत्तता का घटना, उनकी  मर्यादाओं का ध्वस्त होना अंतत: उन्हीं के लिए घातक है जो कमजोर हैं।

 

 

 

 

लोकवृत्त के बारे में…

अंग्रेजी में पब्लिक स्फीयर; हिन्दी में लोक-वृत्त।

अपनी प्रिय मित्र फ्रांचेस्का ओरसिनी की पुस्तक ‘दि हिन्दी पब्लिक स्फीयर 1920-1940’  का हिन्दी अनुवाद देख कर बहुत खुशी हुई। नीलाभ द्वारा किया गया  यह अनुवाद ‘हिन्दी लोकवृत्त 1920-1940’ शीर्षक से वाणी प्रकाशन ने 2011 में छापा है।

जहाँ तक मेरी जानकारी है, ‘पब्लिक स्फीयर’ के लिए ‘लोकवृत्त’ शब्द का प्रयोग पहले-पहल मैने ही किया था।  फ्रांचेस्का की किताब अंग्रेजी में 2002 में छपी थी, उसके रिव्यू के बहाने, मैंने ‘आलोचना’ ( अक्टूबर-दिसंबर, 2003) में एक लेख लिखा था- ‘लोकवृत्त हिन्दी भाषा का या हिन्दी प्रदेश का?’

देख कर कुछ अजीब सा लगा कि  हिन्दी अनुवाद के लिए लिखी गयी भूमिका में फ्रांचेस्का ने लिखा है, “ पब्लिक स्फीयर के लिए एक सटीक हिन्दी शब्द ढूँढना मुश्किल रहा”। यह मुश्किल अनुवाद में जाहिर भी हो जाती है, किताब के नाम में पब्लिक स्फीयर के लिए ‘लोकवृत्त’ शब्द  है तो किताब की शुरुआत में ‘जनपद’। चौथे अध्याय में पब्लिक स्फीयर ‘हिन्दी की दुनिया’ बन गया है तो पाँचवें में ‘पॉलिटिकल  स्फीयर’ का अनुवाद ‘राजनैतिक क्षेत्र’ किया गया है।

2003 में लिखे गये अपने रिव्यू-आर्टिकल के शुरु में ही मैंने पब्लिक स्फीयर के लिए सटीक हिन्दी शब्द खोजने की मुश्किल पर कुछ विचार किया था। सूचना दी थी कि 1996 में लिखित लेख- ‘हिन्दी प्रदेश का वैचारिक संकट…’ में मैंने पब्लिक स्फीयर के लिए ‘लोकमानस’ शब्द का प्रयोग किया था, “ जो निश्चय ही अपर्याप्त था”।

आगे तो बेहतर यही है कि मैं ‘लोकवृत्त: हिन्दी भाषा का या हिन्दी प्रदेश का’ लेख के वे हिस्से यहाँ पेश कर दूँ जो बात को साफ करने में सहायक हो सकते हैं— जिन की दिलचस्पी हो, वे मित्र, जिज्ञासु पाठक पूरा लेख ‘आलोचना-  सहस्राब्दी अंक पंद्रह’, अक्टूबर-दिसंबर, 2003 ( पृ.113-125) में पढ़ ही सकते हैं-

“ …इन दिनों हिन्दी में पब्लिक स्फीयर-सार्वजनिक संसार- की कुछ चर्चा अकादमिक हलकों में हो रही है। हिन्दी के संदर्भ में ‘पब्लिक  स्फीयर’ की बात व्यवस्थित रूप से शुरु करने का श्रेय फ्रांचेस्का ओरसिनी को जाता है।…उनकी पुस्तक प्रकाशित होने के बाद कई जगहों पर, हिन्दी के संदर्भ में ‘पब्लिक स्फ़ीयर’ और पब्लिक डोमेयन की चर्चा सुनाई पड़ने लगी है।

 

“आमतौर से पब्लिक स्फ़ियर के लिए हिन्दी में सार्वजनिक क्षेत्र या  जनपद शब्द का प्रयोग किया जा रहा है, जबकि यह लेख ‘लोकवृत्त’ शब्द का प्रयोग कर रहा है। क्यों? एक तो यही कि सार्वजनिक क्षेत्र हिन्दी में पब्लिक सेक्टर के लिए रूढ़ हो चुका है, और जनपद डिस्ट्रिक्ट के लिए। ग़ैर-जरूरी बिगूचन ( कन्फ्यूजन) से बचने के लिए बेहतर होगा कि हम पब्लिक स्फ़ियर के लिए किसी अन्य पद का प्रस्ताव करें। तो, फिर ‘लोकवृत्त’ ही क्यों?” ( पृ. 113)

इसके बाद यूरोप में पब्लिक और प्राइवेट की धारणाओं के उदय और हैबरमास की पब्लिक स्फियर संबंधी विवेचना की संक्षिप्त चर्चा करने के बाद मैंने लिखा था-

“पब्लिक स्फ़ियर में स्वयं पब्लिक का जो ‘संरचनात्मक रूपांतरण’ निहित है, ‘लोकवृत्त’ उस तक पहुँचने में हमारी सहायता करता है। अंग्रेजी के पब्लिक की ही तरह ‘लोक’ का पारंपरिक संबंध पदानुक्रमपरक मर्यादा से रहा है। इसी मर्यादापरक ( और ‘नॉर्मेटिव’ अर्थ) में आचार्य शुक्ल ने ‘लोकधर्म’ और ‘लोकमंगल’ शब्दों का प्रयोग किया था। इस मर्यादा से तर्कपूर्ण ज़िरह और उसके कारण उत्पन्न परिवर्तनों का संकेत  करना जरूरी है। यह ज़िरह आचार्य शुक्ल के पहले ही शुरु हो गयी थी और उनके बाद भी चलती रही। यह ज़िरह जिस क्षेत्र में हो रही थी, और जिस ढंग से हो रही थी, उसमें ‘लोकधर्म’ शब्द का  आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी द्वारा शुक्लजी से सर्वथा भिन्न, बल्कि विपरीत अर्थ में प्रयोग ध्यान देने योग्य है। जहाँ आचार्य शुक्ल के लिए ‘लोकधर्म’ ‘आर्यधर्मानुमोदित वर्णाश्रम धर्म’ है, वहीं आचार्य द्विवेदी ‘लोकप्रचलित’  विश्वासों को ही नहीं ‘अंधविश्वासों’ को भी ‘लोकधर्म’ की परिभाषा मे ले आते हैं। इतिहासकारों के बीच प्रचलित शब्दावली याद करें तो आचार्य शुक्ल का ‘लोकधर्म’ ‘ग्रेट ट्रैडीशन’ को व्यंजित करता है, और आचार्य द्विवेदी का ‘लोकधर्म’ ‘लिटिल ट्रैडीशन’ को। आचार्य शुक्ल ‘लोकधर्म’ शब्द का प्रयोग ‘नॉर्मेटिव’ ढंग से करते हैं, आचार्य द्विवेदी ‘डिस्क्रिप्टिव’ ढंग  से।

“ लोकधर्म शब्द के बारे में यह ‘संवाद’ संकेत करता है—‘लोक’ शब्द की व्याप्ति और सांस्कृतिक संदर्भवानता की ओर। ‘सार्वजनिक’ के बरक्स, ‘लोक’ सिर्फ राजनैतिक-प्रशासनिक नहीं, सांस्कृतिक आशय से संपन्न शब्द है। इसका संकेत मनुष्य की सभी इहलौकिक गतिविधियोंकी ओर जाता है—लोकमर्यादा की अवधारणा का रूपांतरण तार्किक और इहलौकिक गतिविधियों का ही परिणाम है। ‘पब्लिक स्फ़ियर’ स्वयं पब्किल की अवधारणा में आए रूपांतरण से जुड़ा है, यह हमने देखा। किसी भी समाज में ‘पब्लिक’ मर्यादा की एक पारंपरिक अवधारणा होती ही है- और पब्लिक स्फ़ियर का उदय उस अवधारणा के रूपांतरण का कारण भी है, परिणाम भी। हिन्दी भाषा की सांस्कृतिक चेतना में ऐसी मर्यादाएं ‘लोकमर्यादाएं’ हैं, उनका पालन ‘लोकधर्म’ है: इन मर्यादाओं से जिरह करना किसी के लिए लोकनीति हो सकता है तो किसी के लिए ‘लोक-विरोध’ या ‘लोक-विद्वेष’ । कहने का आशय यह कि परंपराप्राप्त, शासक संरक्षित, ‘सार्वजनिक शुभ’ के अर्थ में लें, या निजता संपन्न नागरिकों के पारस्परिक संवाद से अर्जित ‘सामान्य शुभ’ के अर्थ  में—इस प्रसंग में ‘पब्लिक’ का सही प्रतिशब्द ‘लोक’ है न कि ‘सार्वजनिक’ या ‘जनपद’।

“इसलिए ‘पब्लिक स्फ़ियर’ के लिए ‘लोकवृत्त’ शब्द का प्रयोग अधिक तर्कसंगत और सार्थक है”।

2003 में प्रकाशित लेख की इस याद-दिहानी से, उम्मीद है कि “पब्लिक स्फीयर के लिए एक सटीक हिन्दी शब्द” खोजने में जो मुश्किल  फ्रांचेस्का और उनकी किताब के  अनुवादक के सामने आई, वह दूर हो सकेगी।

 

in search of Renaissance Man

This is text of Key-Note address  to Lomosonov Seminar, CRS, JNU.

November 14th, 2011.

It is very appropriate that this academic event celebrating the tercentenary of M.V. Lomosonov has been dedicated to the search of new age renaissance-man.  After all he was a real polymath, a son of common people who went on to earn the acclaim as Russia’s first Renaissance man. He published monographs on physics, geology, chemistry, optics, classics, language, and history. He was a commanding figure in the debates over what should constitute the more-or-less vernacular Russian literary language and poetic meter, for which he authored a much-celebrated grammar as well as a book of Russian rhetoric.

And here let us recall that, intellectuals across Europe came to see themselves, in the sixteenth, seventeenth and eighteenth centuries, as citizens of a transnational intellectual society—a Republic of Letters in which scholars, philosophers and scientists could find common ground in intellectual inquiry even if they followed different faiths and belonged to different nations. Given this self-perception of this republic of letters, The more interesting and more important question would be- were people from outside Western Europe admitted  as its citizens or not?  People like Lomosonov are important not only for their own societies but for mankind as such for the simple reason that knowing and thinking about such people encourages, in fact forces us, not only to redraw  the boundaries of the so-called republic of letters, but also  to rethink other given categories and rework the received wisdom.  I am sure; this gathering of scholars is going to make important deliberations in the direction.

Once again I express my gratitude for giving me the privileged opportunity of presenting this key-note address to such an important seminar and I would like to use this opportunity to put some concerns for the consideration of the fellow scholars.

Renaissance, as we all know, literally means re-birth. And hence the term renaissance is metaphorically used to describe the historical process particularly in the realm of culture whereby Europe was reborn into its real self, as it were. Obviously re-birth can only come after death, after a certain fundamental break. The centuries preceding renaissance in European history are naturally known as the dark ages, from which Europe recovered courtesy the Arabic translations of the Greek classics. So far as European cultural experience is concerned, may be the metaphor of death and re-birth can be justified. The question however is, can we use this term-‘Renaissance’ i.e. rebirth in the context of other societies? To put the question in a concrete way, when we talk of, let us say Bengal Renaissance of the 19th century, are we not implicitly saying that the centuries preceding the 19th were those of stagnation and decay, of metaphoric death?  Can the pre-colonized India really be described in these terms? Be it the grand narrative of Mughal state in north India or the local narratives of various parts of the sub-continent, the description of society and culture as stagnant and dead hardly seems appropriate. It is an equally debatable proposition that the colonial modernity brought the necessary dynamism to otherwise stagnant pre-colonial India. As a matter of fact, the reality seems to be rather reverse, the colonialism far from brining India into the flow of history, actually brought a deliberate disruption in the historical evolution of Indian society by its policies of economic destruction and historical distortions. The colonial episteme and policies actually led to what I prefer to call –सांस्कृतिक संवेदना-विच्छेद- ‘the dissociation of cultural sensibility’  [i]  in the mind of the colonially educated Indians. Tagore’s novel “Gora” traces the anxiety and anguish resulting from this dissociation in a moving way.

This dissociation of sensibility was palpable even during the so-called Bengal Renaissance. Be it the heinous practice of Widow-burning or other social ills, the reformers like Ram Mohan Roy used to perforce make appeals to the ancient wisdom of the Upanishads. Nothing wrong there, the point however is- was there nothing progressive and inspiring in the contemporary everyday practices and in the immediate past? Was it appropriate to treat the Upanishads as something frozen in time long ago and now waiting to be ‘re-born’?   Did Chandidas and Chaitnaya have nothing to offer to the reformers?  It was Bankim Chandra Chattopadhyay who put this question to Ram Mohan Roy. He thus underlined the reformers’ ignorance of the tradition coming down not only from the remote antiquity but also from immediate past. More serious was the   downright contempt for even the positive aspects of contemporary life and the immediate past.  This contempt was deliberately crated by the colonial modernity, and continues to live with us Indians even today.

The point, I am trying to  make here is that we cannot understand the colonial period of Indian history without first understanding better the history of what happened before it. Similarly we cannot understand processes of the European renaissance without taking into account its debt to other traditions.  It follows that the categories like renaissance and renaissance-man ought to be employed in non-European contexts with necessary modifications and never losing the sight of what the Colonialism did to the cultural memories and intellectual legacies of the colonized societies. Let us not ignore the dynamics of the universality, which was there much before the colonial expansion.  Andre Gunder-Frank has demonstrated quite convincingly that ‘great universal cultures flourished till the 19th century totally independent of modern Europe.’[ii]

Recalling Gunder-Frank’s Argument, the Mexican scholar Enrique Dussel argues for the idea of ‘trans-modernity” instead of the so-called post-modernity, “the concept of post-modernity implies that there is a process that emerges “from within” modernity and reveals a state of crisis within globalization. “Trans”- modernity, in contrast, demands a whole new interpretation of modernity in order to include moments that were never incorporated into the European vision.”[iii]

There is no problem in using the categories evolved in Europe, provided these are not used in a euro-centric manner.  One should never forget the caution issued by Raymond Schwab to his European readers about pre-colonial India, way back in the fifties-“unlike a unique model, India had always known the same problems as we, but had not approached in the same ways. It presented, as had been seen only once before in the history of mankind, a past that was not dead but remained an antiquity of today and always.”[iv] This sensitivity to both identity and difference is extremely important for undertaking the search for a new renaissance man in the 21st century.  Schwab also argued quite forcefully that the arrival of Indic studies in 18th-19th century Europe was one of the decisive events of the world intellectual history. Recalling that this arrival was described as the oriental renaissance by the contemporaries, he argues that, “this is not a second renaissance but the first belatedly reaching its logical conclusion.”, and it is only after this completion of renaissance that, “humanist’s long prohibition against looking beyond Greece for fear of running into Barbarism and the clerics’ against looking beyond Judea for fear of running into idolatry ends in the west.”[v]

The search for a new renaissance-man cannot be undertaken without the cognition and recognition of the universality of human spirit and the diversity of its manifestations. Abhinavagupta, who was a great mystic, philosopher and Kavyashastri at the same time summed up the wisdom of his intellectual tradition most succinctly in a reminder which is even more relevant today after almost a thousand years- न हि एकया दृष्ट्या सम्यगम् निर्वर्णनम् निर्वहति… it is not only through one way that you can appropriately describe all the phenomenon….

I hope, following the lead of Abhinavagupta, we can explore the universality of human spirit and free it from the burden of unnecessary binaries; we can keep the differences in sight and yet not lose sight of the common pursuits. If we really want to search and imagine the new age renaissance men and women, we will have to get rid of binaries imagined between the mystic cognition and intellectual enlightenment; between the concern for society and the autonomy of individual. Instead of the stifling ideological straight-jackets, the search for the new age renaissance-man will have to root itself in the life-affirming vision of art and literature.

I cannot think of a better way of concluding this address than to quote from Jaishankar Prasad- who is not much known outside the Hindi literary circles and who was a great scholar, poet and playwright, and a great connoisseur of arts, a new age Renaissance man- if you please. He was active during the colonial period and acutely sensitive to the pressures caused by the colonial situation. While discussing the Indian and western notions of art and poetry, Prasad observed:

ज्ञान के वर्गीकरण में पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक रुचि-भेद विलक्षण है। प्रचलित शिक्षा के कारण आज हमारी चिंतनधारा के विकास में पाश्चात्य प्रभाव ओत-प्रोत हैं और इसलिए हम बाध्य हो रहे हैं अपने ज्ञान-संबंधी प्रतीकों को उसी दृष्टि से देखने के लिए। यह कहा जा सकता है कि इस प्रकार के विवेचन में हम केवल निरुपाय होकर  ही प्रवृत्त नहीं होते, किंतु विचार-विनिमय के नये साधनों की उपस्थिति के कारण संसार की विचार-धारा से कोई भी अपने को अछूता नहीं रख सकता। इस सचेतनता के परिणाम में हमें अपनी सुरुचि की ओर प्रत्यावर्तवन करना चाहिए क्योंकि हमारे मौलिक ज्ञान-प्रतीक दुर्बल नहीं हैं।[vi]

That is: “The different taxonomies of knowledge in the east and the west are due to the differences in cultural preferences. The prevalent education system has coloured our thinking with western influences and has compelled us to asses our own cultural semiotics on western parameters. But let us not overplay the role of compulsion here; the presence of the new media of the exchange of ideas has made it impossible for anybody to remain untouched by the ideas in international circulation. In fact, we must go back to our own semiotics with this awareness, as our own knowledge systems and signs are not any weaker.”

I think, this reminder from an Indian renaissance-man of the colonial era has become even more important for the new age renaissance-man and woman of the 21st century.

 

 

 

 

 



[i]  See my “ Akath Kahani Prem ki: Kabir ki Kvaita aur un ka Samay”( Hindi) Chapter 2. ( New Delhi, 2nd edition, 2010), Rajkamal Prakashan.

[ii] See Andre Gunder Frank, “Re-Orient: Global Economy in the Asian Age”, Vistar Publications, New Delhi, 2002( first published in 1998.

[iii] Enrique Dussel, “World System and “Trans”- Modernity.” In  ‘Unbecoming Modern: Colonialism, Modernity, Colonial Modernities’ eds. Saurabh Dube, Ishita Banerjee-Dube. , Social Science Press, New Delhi, 2006.

 

[iv]  Raymond Schwab, “The Oriental Renaissance” Tr. Gene Patterson-Black and Victor Reinking.  Columbia University Press. New York, 1984.

 

[v] Ibid, p.15.

[vi] ‘Kavya aur Kala’ in “Prasad ki sampoorna Kahaniyan aur Nibandh” ed. Satyaprakash Mishra, Lok-Bharti Prakashan, Allahabad, 2009, p. 467.

“The Naths in Hindi Literature”

My essay “The Naths in Hindi Literature” has appeared in the volume “Yogi Hero and Poets: Histories and Legends of the Naths” edited by David Lorenzen and Adrian Munoz, published by State University of New York Press.

This essay is based on the key-note address I gave to the conference on ” The Nath-Yogis” by the El  Collegio de Mexico, Mexico city in 2007.

The Volume also contains essays by David Lorenzen, Daniel Gold, Daniel Gordon White, Ishita Bannerjee-Dube and others.

For more information click here- http://www.sunypress.edu/p-5272-yogi-heroes-and-poets.aspx