यह लेख सुमन द्वारा संपादित पुस्तक ‘जेएनयू में नामवरसिंह’ ( राजकमल, 2009) में संकलित है…
उन दिनों जेएनयू…
-पुरुषोत्तम अग्रवाल.
1. सफेद हाथी.
1987 में जब नामवरजी साठ साल के हुए, ज्ञानरंजन ने पहल का अंक उन पर केंद्रित किया था। मुझे भी उस अंक में लिखने का सौभाग्य मिला, मैंने लिखा, ‘वे सिर्फ पढ़ाते नहीं सिखाते हैं’। यही लेख सुधीश पचौरी ने ‘नामवर के विमर्श’( 1995) में पुनः प्रकाशित किया। फिर नामवरजी के पचहत्तर वर्ष पूरे करने पर, 2002 में अमृत महोत्सव कार्यक्रम में प्रभाषजी और केदारजी के आदेश पर भाषण दिया, जिसे ओम थानवी ने जनसत्ता में प्रकाशित किया। यह भाषण नामवरजी के व्यक्तित्व के बारे में नहीं, ‘दूसरी परंपरा की खोज ’ के बारे में था, कुल मिला कर आलोचनात्मक। नामवरजी के व्यक्तित्व के बारे में तो पूरे बाइस साल बाद ही लिख रहा हूं। आशा है कि जब वे एक सौ एक वर्ष के होंगे, तब भी उनके बारे में कुछ लिखने के लिये मैं उपलब्ध रहूंगा।
यह लेख जेएनयू के नामवरजी के बारे में है। भारतीय भाषा केंद्र की विशेषताओं, कोर्सेज, अध्यापकों के बारे में नहीं, यह लेख जेएनयू के जेएनयूपन और नामवरजी के नामवरपन के बारे में है। ऐसे व्यक्ति का हलफनामा है यह लेख-जिसे अपने जेएनयूआइट होने पर आज तक बेधड़क अभिमान है, जिसके बारे में कहा जाता है कि वह नामवरजी के निकट है, लेकिन खुद जिसे ऐसा कोई मुगालता नहीं।
नामवरजी सन चौहत्तर में जेएनयू आए; भारतीय भाषा केंद्र को नामवरजी ने बनाया। सोचना यह चाहिए कि जेएनयू ने नामवरजी को, और अनेक अध्यापकों, छात्रों, कर्मचारियों को, नागरिकों को बनाने में कोई विशेष भूमिका निभाई या नहीं? यों तो जेएनयू भी एक और यूनिवर्सिटी ही थी और है, लेकिन क्या सचमुच जेएनयू के होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता? कुछ संस्थाएं किसी समाज में मानक का दर्जा क्या योंही हासिल कर लेती हैं?
शांतिनिकेतन, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बीएचयू, एएमयू, सागर,जामिया, जेएनयू ये सब क्या सिर्फ इमारतें हैं? या ये सपने हैं- जागती आँखों सपने देखने के आदी, ‘विचित्र’ लोगों द्वारा देखे गये सपने। ऐसे सपने जिन्हें देखना और जिनकी ताबीर करना जितना मुश्किल है, चौपट कर देना उतना ही आसान। जेएनयू ने इतने दिनों तक खुद को बचाए रखा, यह क्या भावुक हो जाने लायक बात नहीं? खासकर इन दिनों जबकि जेएनयू गोया खुद ही अपनी निजी पहचान से पिंड छुड़ाकर भीड़ में शामिल होने को व्याकुल दिख रही है।
शांतिनिकेतन, आईआईएस, बीएचयू, सागर, जामिया – ये सब सपने इतिहास के एक खास मोड़ पर देखे गये सपने थे। राजनैतिक के साथ-साथ बौद्धिक और सांस्कृतिक स्वाधीनता भी हासिल करने की हौंस रखने वाले समाज में कुछ शानदार शख्सियतों द्वारा देखे गये सपने। जेएनयू भी एक सपना था। ऐसे समय में देखा गया सपना जो अब ‘रेस्टलेस सिक्सटीज’ के नाम से इतिहास में दर्ज हो चुका है। साठ के उस दशक की वह विश्वव्यापी बेचैनी सत्तर के दशक तक भी सच ही लगती थी। यह प्रति संस्कृति (काउंटर कल्चर) का दौर था। जेएनयू में जो बोहेमियनपन था, वह इस काउंटर-कल्चर ही की उपज था। काउंटर कल्चर का ही एक पक्ष है- दूसरी परंपरा ( अदर ट्रैडीशन) की खोज। संयोग नहीं कि इस नाम की पुस्तक ‘जेएनयू के नामवरजी’ ने ही लिखी। इस पुस्तक में भी, और उन दिनों के जेएनयू में भी, वर्चस्व की संस्कृति का केवल विरोध नहीं था, विकल्प खोजने और रचने की छटपटाहट भी थी। इस अर्थ मे नामवरजी की पुस्तक ‘दूसरी परंपरा की खोज’ भी खाँटी जेएनयूआइट है।
बहरहाल, प्रतिवाद, प्रतिरोध और विकल्प-रचना की इस विश्वव्यापी संस्कृति के प्रति अलग-अलग लोगों के अलग-अलग रवैये थे। विश्व-व्यवस्था का अपना तरीका था, विश्वव्यापी बेचैनी से निपटने का। जैसाकि नामवरजी ने ही एक बार क्लास में कहा था, ‘पूंजीवाद में क्रांति भी बिकती है। चे ग्वेवरा की तस्वीरों वाली कमीजों से लेकर उनकी डायरियां तक अमेरिकी बाजार में बहुत लोकप्रिय हैं’। लेकिन इसी व्यवस्था में गुंजाइश निकलती है प्रतिरोध की। प्रतिरोध के लिये पहले चाहिए बोध। संसद में जेएनयू का प्रस्ताव पेश करते समय सरकार के मन में जो भी रहा हो, जी. पार्थसारथि और मूनिस रज़ा जैसे लोगों ने जेएनयू का सपना एक ऐसी यूनिवर्सिटी के रूप में ही देखा जहां बीसवीं सदी के सातवें-आठवें दशक में व्याप्त बेचैनी को व्यवस्था और विरासत दोनों के बेहतर बोध में बदला जा सके।
जिन विशेषताओं ने जेएनयू को जेएनयू बनाया, वे आकाश से नहीं टपक पड़ी थीं। बल्कि शायद कल्पना के आकाश में तो वे थीं, उन्हें अरावली की पहाड़ियों पर उतार लाना बड़ा काम था। मुझे तो मूनिस रजा से ठीक से बात करने का भी मौका कभी नहीं मिला, लेकिन उनके विट के कि़स्से कई सुने हैं। ऐसा ही एक कि़स्सा यह है कि शुरुआती दिनों में प्रोफेसरों की किसी गप-गोष्टी में मूनिस साहब नया कैंपस विकसित करने की समस्याओं पर बात कर रहे थे। बोले, ‘भई सब कुछ सिरे से ही शुरु करना होगा। अभी तो आलम यह है कि पहाड़ियों पर उल्लू बोलते हैं’। किन्हीं प्रोफेसर साहब ने जुमला जड़ा, ‘अच्छा है, अभी तो बस बोलते हैं, कुछ दिनों बाद पढ़ाएंगे’।
“लेकिन आपको तो हम एपॉइंट ही नहीं कर रहे, पढ़ाएंगे कैसे?”- मूनिस साहब की तरफ से नहले पर दहला आया।
आत्म-साक्षात्कार का वह पल उन प्रोफेसर साहब पर कैसा गुजरा होगा, यह कल्पना आप कर लीजिए।
अभी पिछले ही दिनों एक मित्र ने कहा कि जेएनयू में मुझे अब तक परायापन लगता है। जिस यूनिवर्सिटी में मैंने एम. ए. किया, वहां बिल्कुल अपने गाँव जैसा लगता था।
बात ठीक ही है। हां, उनके हिसाब से जो कमजोरी है, मुझे वही जेएनयू की सबसे बड़ी ताकत लगती है। अंग्रेजी में यूनिवर्सिटी और हिन्दी में विश्वविद्यालय जिस जगह का नाम हो, वहां पहुंच कर भी आपको लगे कि आप अपने गांव या मोहल्ले से बाहर निकल ही नहीं पाए, तो यह चिंता की बात है। आपके लिये भी। यूनिवर्सिटी के लिये भी। जेएनयू का नयापन शुरु में जरूर अटपटा लगता था, कुछ लोगों को शायद ‘पराया’ भी लगता हो, लेकिन जेएनयू की खूबी यह थी कि यह किसी को पराया नहीं समझती थी। शैक्षणिक संस्थाओं मे नये छात्रों से परिचय करने के लिये ‘रैगिंग’ की विधि से हम सब वाकिफ हैं। अब तो यह बाकायदा अपराध की श्रेणी में है। लेकिन जेएनयू में नये छात्रों के ‘पराएपन’ और अपरिचय को दूर करने के लिये रैगिंग कभी मान्य विधि नहीं रही। नये छात्र जेएनयू में आतंकग्रस्त तुच्छ जनों जैसा नहीं, शब्दशः ‘वीआईपी’ जैसा महसूस करते थे। किसी हद तक अभी भी करते हैं। इस बात का क्या महत्व है, यह मेरे जैसे छोटे शहरों से आए विद्यार्थी भली-भाँति समझते हैं। इस बात का क्या मानवीय मोल है, यह उन लड़के-लड़कियों के मां-बाप से पूछिए जिन्होंने रैगिंग के आतंक और यातना के दबाव में आत्महत्याएं की हैं।
जेएनयू का ‘अपराध’ यह अवश्य था कि यह अपने गांव की याद दिलाती नहीं, आत्मसजग रूप से ‘कॉस्मोपॉलिटन’ होने का प्रयत्न करती संस्था थी, अपने सदस्यों को भी वैसा ही बनाने का प्रयत्न करती संस्था थी। केवल अंग्रेजी को खुले मन का अकेला प्रतीक उन दिनों के जेएनयू में कभी नहीं माना गया, अंग्रेजियत की बातें करने वाले कितनी भी करते रहें। हां, यह सही है कि अंग्रेजी के खिलाफ जिहाद को ही लोकतांत्रिक होने का पर्याप्त प्रमाण भी नहीं माना जाता था। लोकतांत्रिक मिजाज इसमें झलकता था कि जो अंग्रेजी नहीं जानते थे, उनके नाम जेएनयू में नोटिस बोर्ड पर नहीं लगा दिये जाते थे, जैसे कि टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज़ में आजकल लगा दिये जाते हैं। अंग्रेजी की हो, या किसी और तरह की, असुविधाएं दूर करने का प्रयत्न लोगों के आत्म-सम्मान की चिंता करते हुए ही किया जाता था। कॉस्मोपॉलिटन होने की परख फैंसी अंग्रेजी बोलने के आधार पर नहीं, कुछ अन्य आधारों पर हुआ करती थी- इस बात का सबसे प्रत्यक्ष प्रमाण तो वह सम्मान ही है, जो नामवरजी को जेएनयू समु्दाय के हर हिस्से से प्राप्त था और है।
बढ़िया अंग्रेजी न जानने के कारण, कम से कम उन दिनों के जेएनयू में अहसासे कमतरी की संभावना न के बराबर थी, कोई गांव से ही ग्रंथियों की गठरी लेकर चला आया हो, तो बात अलग है। मुझे खुद अपने अंग्रेजी ‘ज्ञान’ के तो कई चुटकुले आज तक याद हैं, लेकिन उनके कारण कभी मेरी खिंचाई की गयी हो, ऐसा कोई प्रसंग याद नहीं, बल्कि हर लड़की दोस्त को ‘गर्लफ्रेंड’ नहीं कहा जाता, यह मुझे बड़े प्यार से मेरे अंग्रेजीदाँ दोस्तों ने ही बताया था। हाँ, जब मैं अच्छी खासी अंग्रेजी बोलने-लिखने लगा था, अध्यापक हो चुका था, तब जरूर छात्रों के एक कार्यक्रम में मेरे अंग्रेजी ज्ञान और लहजे की खिल्ली, मेरे सामने ही उड़ाई गयी थी। मेरे छात्र रामचंद्र की व्याख्या के अनुसार, यह शब्द और कर्म दोनों में मेरे बहुत मुखर रूप से दलित समर्थक होने का ‘दंड’ था। खैर, यह दंड देने वाले वे छात्र निश्चय ही ‘क्वींस इंग्लिश’ बोलते रहे होंगे, वह भी ठेठ ‘ऑक्सोनियन’ लहजे में। वे नहीं, तो उनके संरक्षक अध्यापक तो बोलते ही रहे होंगे- ‘नॉन’ को ‘नन’ और ‘बॉडी’ को ‘बडी’ में बदलते हुए।
यह घटना नामवरजी के रिटायरमेंट के बाद की है। 1993 की।
नामवरजी के संबंध अपने सभी अध्यापक साथियों के साथ अच्छे ही नहीं थे। सभी का दिल से सम्मान भी वे नहीं करते थे। लेकिन मजाल है कि औपचारिक कार्यक्रम तो दूर की बात, अनौपचारिक रूप से भी कोई नामवरजी के सामने किसी अध्यापक साथी की शान में गुस्ताखी कर सके। यही बात उस वक्त के कई वरिष्ठ प्रोफेसरों के बारे में कही जा सकती है। अपनी उपस्थति मात्र से नामवरजी और उन दिनों के जेएनयू के अन्य प्रोफेसर ‘सिर्फ पढ़ाते नहीं सिखाते’ थे, सिखाते हैं। मुझे याद है, प्रो0 शेषाद्रि डीन ऑफ स्टूडेंट्स वेल्फेयर होते थे। एक बार छात्र नेता के धर्म का निर्वाह करते हुए मैंने उनसे कुछ बातें ऊंची आवाज में कह दी थीं। शाम को ही नामवरजी ने तलब कर लिया। इतने सख्त ढंग से वे आम तौर से बोलते नहीं, जितने से उस दिन बोले। हालाँकि जब मैंने अपना पक्ष रखा तो थोड़े शांत हुए। बहरहाल, महत्वपूर्ण तो वह गुरुमंत्र था, जो अंततः प्राप्त हुआ-“ पुरुषोत्तमजी, विनम्रता और दृढ़ता में कोई विरोध नहीं हुआ करता, यह याद रखिये”।
बात चल रही थी, अंग्रेजियत की। अंग्रेजी माध्यम थी जेएनयू में अध्यापन-अध्ययन, राजनैतिक-सांस्कृतिक जीवन की। धीरे-धीरे जब जेएनयू की ही प्रवेश-नीति के कारण हिन्दी पृष्ठभूमि के छात्रों की संख्या बढ़ती गयी, तो स्थिति भी बदलती गयी। लेकिन, किसी को आँकने का, किसी की खिल्ली उड़ाने का जरिया बनने का सौभाग्य अंग्रेजी ज़बान को नामवरजी की पीढ़ी के रिटायरमेंट और जेएनयू के धीरे-धीरे रूपांतरण के बाद ही मिला। उन दिनों तो कामरेड पशुपतिनाथ सिंह अपनी अत्यंत ‘लोकतांत्रिक’ अंग्रेजी के साथ ही ए.आई.एस.एफ के सम्मानित नेता हुआ करते थे। स्पोर्ट्स ऑफिसर टोकस साहब की अंग्रेजी तो किसी भी अंग्रेज को हत्या या आत्महत्या पर उतारू कर देने के लिये काफी थी- “प्ले, डू नॉट प्ले। वाट माई फादर्स गोज़, वाटएवर गोज़, यौर फादर्स गोज़। यू नो, यौर वर्क नोज़”।
उन दिनों के माहौल को समझे बिना ही कुछ लोग जेएनयू की ‘अंग्रेजियत’ के विरुद्ध जिहाद मुद्रा में रहते थे । ऐसे ही एक सज्जन हम लोगों के किसी जूनियर बैच में पटने से पधारे थे। बात-बात में अंग्रेजी और जेएनयू की अंग्रेजियत को कोसते ये महानुभाव नामवरजी की ही तरह धोती-कुर्ता पहनते थे। इस आधार पर वे स्वयं को नामवरसिंह द्वितीय मनवाने के फेर में भी रहते थे। हालाँकि हमारे लिये वे ‘जायका’ ही थे। हम लोग अपने सीनियर पंडित घनश्याम मिश्र का धोती-कुर्ता मंडित और चौधरी रामवीरसिंह तथा मौलाना अनीस का अचकन-चूड़ीदार सज्जित व्यक्तित्व देखे हुए थे। इसलिये इन सज्जन द्वारा बजरिए पोशाक दिये जा रहे सांस्कृतिक वक्तव्य की मौलिकता पर हमारा कोई ध्यान नहीं था। गोरख पांडे, आनंद कुशवाहा, शन्ने मियाँ और रमाशंकर विद्रोही पर ध्यान था तब के जेएनयू का, तो उनकी पोशाक के कारण नहीं, शख्सियत के कारण था। ध्यान देने या न देने का यह चुनाव ही जेएनयू की ओर से वक्तव्य था। वैसा ही जैसा अष्टावक्र ने जनक की राजसभा में दिया था- ‘हम कपड़े से या चमड़े से नहीं, सामर्थ्य से परखते हैं, इंसान को’।
नामवरजी को भी जेएनयू ने उनके धोती-कुर्ता से नहीं, सामर्थ्य से ही परखा था। नियुक्ति की नहीं, मैं बात परख की कर रहा हूं। नियुक्तियां तो और भी हुईं, और कुछ ‘जायकों’ की भी हुईं। बात नियुक्ति की नहीं, जो सम्मान नामवरसिंह, रोमिला थापर, विपिन चंद्र, योगेन्द्रसिंह आदि को मिला- उसकी है।
लेकिन बड़े-बड़े विद्वान तो और विश्वविद्यालयों में भी रहे हैं, अभी भी हैं। इसमें ऐसी बड़ी बात क्या है?
जेएनयू केवल शीर्षस्थ विद्वानों को नियुक्त करके ही तो निश्चय ही जेएनयू नहीं बन गयी। जेएनयू जेएनयू बनी क्योंकि नामवरजी जैसे लोग सचेत भाव से जेएनयू वाले बने, जेएनयू को बनाने वाले बने।
जिन दिनों जेएनयू बन रही थी, उन दिनों की जेएनयू की सबसे बड़ी तारीफ उस हिकारत में ही छिपी थी, जिसके साथ जेएनयू को ‘सफेद हाथी’ या ( दीन-दुनिया से बेखबर) ‘टापू’कहा जाता था। जेएनयू को सफेद हाथी कहने वाले नहीं जानते थे कि भारतीय परंपरा में सफेद हाथी एक ही माना गया है- ऐरावत। करोड़ों काले हाथियों के बरक्स एक अकेला सफेद हाथी-ऐरावत।
जेएनयू सचमुच सफेद हाथी था। पचीसों नयी-पुरानी, महान-सामान्य यूनिवर्सिटीज के बीच एक अकेला, अनोखा जेएनयू।
कहने वाले नहीं जानते थे कि व्यंग्य करके भी वे जेएनयू का महात्म्य-वर्णन ही कर रहे हैं। वे बेचारे तो यूरोप के अवज्ञापूर्ण मुहावरे का देशी अनुवाद भर कर रहे थे। ऐरावत को जानते होते या उन हाथियों के रंग के बारे में सुना होता जो सिद्धार्थ को गर्भ में धारण किए जननी के सपनों में दिखते थे, तो शायद कोई और शब्द गढ़ते। लेकिन उससे भी क्या फर्क पड़ना था। किसी की निंदा को विश्वसनीय बनाने के लिए भी तो उसकी विलक्षणता पर ध्यान देना ही पड़ता है। सो, कहने वाले जो भी कहते, इतना तो जरूर ही कहते कि जेएनयू विलक्षण था। ‘वाइट एलीफैंट’ कह लो, ‘आइलैंड’ कह लो, बता तो यही रहे हो कि ‘है बात कुछ ऐसी…’
क्या थी वह बात?
और क्या था नामवरजी का, उनकी पीढ़ी का योगदान उस बात में?
2. व्हाट इज़ टु बी डन?
क्यों लिखना पड़ा पिछला वाक्य भूतकाल में? क्यों दर्द सा होता है, इस वाक्य को ‘है’ की बजाय ‘थी’ के साथ खत्म करने में? आज जेएनयू उस बात के कितना करीब है और कितना दूर? और जो भी है, हुआ करे, जेएनयू के बाहर के लोगों को क्या फर्क पड़ना चाहिए? जेएनयू वाले रोते रहें सुनहरे दिनों को, घूमते रहें अपने ‘नास्टेल्जिया’ में- बाकी लोगों को क्या?
हमारे एक मित्र थे, नहीं मित्र नहीं, बस परिचित। यार लोग उन्हें सर्जनात्मक दुष्ट भाव से ‘धारा तीन सौ सतत्तर’ कहा करते थे। कसम से ,मैंने कभी नहीं कहा। मैं तो उन दिनों भी धारा तीन सौ सत्ततर को समाप्त करने का, समलैंगिकों-विषमलैंगिकों-उभयलैंगिकों सबों के समानाधिकारों का समर्थक था, आज भी हूँ। खैर, ये जो ‘तीन सौ सत्ततर’ के नाम से विख्यात सज्जन थे, ये थे तो जेएनयू में ही, लेकिन इन्हें अपना पुराना विश्वविद्यालय ही सर्वोत्तम लगता था। कहते थे,‘ जेएनयू में ऐसे क्या लाल लटके हैं? लोग बेमतलब में सेंटी होते रहते हैं –जेएनयू, जेएनयू’।
प्रसंगवश, इन सज्जन को धारा तीन सौ सत्ततर का अभिधान देने में ही नहीं, भाषिक सर्जनात्मकता अन्य रूपों में भी अभिव्यक्ति पाती थी। ऊपर जिनका जिक्र आ चुका है, उन कामरेड पशुपति को एक अन्य कामरेड अश्विनी गौड़ यत्नसाधित उच्चारण दोष के साथ,‘पशुपक्षी ’कहा करते थे।
चुनाव के दौरान नारे गढ़ने के लिये ऐसी सर्जनात्मकता बहुत आवश्यक थी। इस मामले में सब पर भारी पड़ते थे- एसएफआई के दादा अबरोल। एसएफआई की ओर से अध्यक्ष पद के लिये खड़े होने वाले उम्मीदवारों के नामों पर नारे गढ़ने में वे उस्तादों के उस्ताद थे। ‘बड़ी लड़ाई, ऊंचा काम-सीताराम सीताराम’; ‘तोड़ेगा सब बाधा बंधन-डी रघुनंदन डी रघुनंदन’ जैसे अमर नारे दादा अबरोल ने ही गढ़े थे। लेकिन सबसे जोरदार चुनौती दादा अबरोल की प्रतिभा के सामने तब आई, जब एसएफआई ने रमेश दधीच को उम्मीदवार बना दिया। आप ही बताइये, ‘दधीच’ को सुर में लाने वाला नारा क्या हो सकता है? लेकिन दादा तो दादा थे- नारा गढ़ा- ‘हमारे बीच, तुम्हारे बीच-रमेश दधीच, रमेश दधीच’।
दादा अबरोल की नारा-प्रतिभा जितनी असंदिग्ध थी, राजनैतिक और बौद्धिक समझ कुछ लोगों के हिसाब से उतनी ही संदिग्ध। ऐसे संदेहवादी दादा के अपने संगठन एसएफआई में भी कम न थे। इनमें से ही एक थे, स्व0 दिलीप उपाध्याय। दादा की समझ के प्रति अपने तथा बहुत से अन्य लोगों के संदेह को दिलीप उपाध्याय ने दादा की नारा-प्रतिभा को टक्कर देते हुए एक नारे में ही ढाला-‘लाइन लंबी फंडे गोल-दादा अबरोल, दादा अबरोल’।
खैर, यह तो विषयांतर हो गया, प्रकृत प्रसंग यह कि धारा तीन सौ सत्ततर के नाम से मशहूर साहब आज बहुत याद आ रहे हैं। जहाँ भी हों, सुखी हों, और सोचें कि खुद उनमें कुछ लाल लटकाने में जेएनयू को कामयाबी मिली या नहीं। मैं तो पिछले कई बरसों से यह सोचता रहा हूँ कि क्या दिया जेएनयू ने हमारी पीढ़ी को- क्या थी वह बात जो आज भी नाज करने को प्रेरित करती है? क्या था नामवरजी का खुद का, और उनके जैसे दूसरे अध्यापकों का, और विद्यार्थियों का, कर्मचारियों का योगदान जेएनयू को ऐसा बनाने में कि उसकी महिमा याद करते भावुक होने में संकोच नहीं होता।
यों तो इस प्रसंग में जेएनयू का इतिहास भी लिखा जा सकता है, और समाजशास्त्र भी। लेकिन फिलहाल कुछ मजेदार घटनाएं याद करके ही इस सवाल का जवाब तलाश करें । कोई ‘आउटसाइडर’ कमल कांप्लेक्स पर कुछ बदमाशी करता पकड़ा गया। मेरे जैसे नये-नये आए लोगों को अपने संस्कारों से ही पता था कि ‘स्टूडेंट कम्युनिटी’ ऐसे तत्वों का उपचार किस विधि से करती है। वह सर्वमान्य विधि न भी अपनाई जाए तो इस बदमाश को पुलिस के हवाले तो तुरंत किया ही जाना चाहिए। लेकिन अद्भुत था यह ‘टापू’, यह ‘सफेद हाथी’। हम नवागतों के अज्ञान पर काबू करने के लिए सभी संगठनों के कोई न कोई प्रतिनिधि एकाएक प्रकट हो गये। वहीं अनौपचारिक ‘ऑल ऑर्गनाइजेशन मीटिंग’, बल्कि छोटी सी जीबीएम ( छात्र संघ की साधारण सभा) शुरु हो गयी। विमर्श का विषय वही था जिससे कॉमरेड लेनिन ने अपनी उस पुस्तक का शीर्षक लिया है- क्या करें? वाट इज़ टु बी डन? पिटाई का तो खैर सवाल ही नहीं। हिंसा अपने आप में तो क्रांतिकारियों के बीच क्या विवादास्पद होती , लेकिन एक वामपंथी, क्रांतिकारी समुदाय गंभीर राजनैतिक उद्देश्य के लिए की जाने वाली उचित हिंसा और भीड़ की तुच्छ हिंसा में फर्क करेगा या नहीं? खासकर तब जबकि इस सर्वहारा ( जी, हाँ, इस तथा ऐसे अन्य शब्दों का व्यवहार उन दिनों के जेएनयू के दैनंदिन जीवन में वाकई होता था!) के अपराध का मूल कारण तो यह व्यवस्था ही है। उसी बूर्ज्वा/ सेमी बूर्ज्वा, सेमी लैंडलॉर्ड/ कंप्रोडोर बूर्ज्वा व्यवस्था की दमनकारी बाहु (‘रिप्रेसिव आर्म’) –दिल्ली पुलिस को कैपस में आने का न्यौता देना क्या व्यवस्था को वैधता देना नहीं होगा?
उस ‘अपराधी’ के चेहरे का भौंचक्कापन मैं कभी भूल नहीं सकता। उसने सपने के सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उसकी साधारण बदमाशी ऐसी गंभीर बहस को जन्म दे देगी। वह तो मन ही मन शायद मना रहा होगा कि यार! जो थप्पड़-लप्पड़ जमाने हैं, जमा कर या पुलिस के हवाले कर मेरा पिंड छोड़ो। उसे नहीं पता था कि वह हर बात को व्यापक सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य में रखने की जेएनयू संस्कृति की गिरफ्त में आ चुका है। इसी सांस्कृतिक आदत के चलते, एक बार जब हैल्थ सेंटर खुलने में आधे घंटे से भी अधिक की देर हो गयी, तो इन दिनों पेरिस में निवास कर रहे और उन दिनों जेएनयू में त्रात्स्कीपंथी सिद्धांतकार कुं0 विजयसिंह इस निष्कर्ष पर पहुँच गये थे कि भारत में शासक वर्गों का आंतरिक संकट असाध्य दशा तक पहुँच गया है। हैल्थ सेंटर तक जो व्यव्स्था वक्त पर नहीं खोल सकती, वह कितने दिन चलेगी? इलाज न मिलने पर भी, वे इस शुभ संवाद से बहुत देर तक प्रसन्न रहे।
लेकिन जेएनयू कल्चर का अर्थ सिर्फ ऐसी रोचक घटनाओं में ही नहीं, इन बातों में भी खुलता था कि इसी के चलते जेएनयू में छात्र-संघ के चुनाव मेस में खाने की विविधता जैसे ‘ठोस और वास्तविक’ मुद्दों पर नहीं, बल्कि इस तरह के ‘हवाई मुद्दों’ पर लड़े जाते थे कि भारतीय समाज और विश्वव्यवस्था के बारे में मार्क्स का विश्लेषण अधिक प्रामाणिक है या गाँधी की अंतर्दृष्टियां अधिक सार्थक हैं-और इन दोनों का ही कौन सा ‘पाठ’ अधिक स्वीकार्य है। एक चुनाव में तो स्टालिन बनाम त्रात्सकी ही मुद्दा बना और डीपी त्रिपाठी और जयरस बानाजी की बौद्धिकता और वाग्मिता के जौहर के कारण यह चुनाव न भूतो न भविष्यति किस्म का हो गया था। महिलाओं का सम्मान करने के लिए उस सफेद हाथी को किसी औपचारिक तंत्र की जरूरत नहीं पड़ती थी- अन्य जगहों से आने वाले ‘मर्दानगी’ संपन्न महानुभावों को मर्दानगी दिखाने के तौर तरीकों की बजाय औरतों के साथ तमीज से पेश होने का पाठ यूनिवर्सिटी की फिजा ही सिखा देती थी।
तीखे राजनैतिक विवाद, चतुर रणनीतियां यह सब था, उन दिनों जेएनयू में, लेकिन इस सबके अंतस में थी एक सरस्वती जिसे जेएनयू कल्चर कहा जाता था। किसी के व्यक्तिगत जीवन पर चटखारे लेना जहाँ परले दर्जे की अशिष्टता मानी जाती थी। कितने भी गंभीर मतभेद के प्रसंग में शारीरिक समीक्षा की जहाँ कोई गुंजाइश नहीं थी। एसएफआई को सबसे तगड़ा झटका तभी लगा था जब दो-चार उत्साही कॉमरेडों ने बेदी-दुर्रानी की मशहूर फ्री-थिंकर जोड़ी के साथ मार-पीट कर दी थी।
उन दिनों जेएनयू बतौर एक समुदाय के, जो घोषित करता था,उसे जीने की भी कोशिश करता था। भले ही कितनी भी असंभव या हवाई या हमारे उन परिचित के हिसाब से ‘हास्यास्पद’ और ‘सेंटी’ क्यों न हो ऐसी कोशिश। कथनी-करनी के अवश्यंभावी भेद को जितना हो सके, मिटाने की कोशिश करने वाले समुदाय के किसी सदस्य का अभिमान क्या सचमुच खोखला ही है?
न यह अभिमान खोखला है, न वह जेएनयू संस्कृति हवा में से टपक पड़ी थी। उसे रचा गया था, सचेत भाव से। उसका विस्तार किया जाता था, औपचारिक-अनौपचारिक दोनों ढंगों से। निश्चय ही ‘शासक वर्गों’ ने ही यह स्पेस दिया था कि ऐसा विश्वविद्यालय संभव हो, लेकिन इस स्पेस का उपयोग अरावली की पहाड़ियों पर जेएनयू रचने में जिन्होंने किया, समस्या उनके प्रति भावुक होने में नहीं, बल्कि उनका ऋण भूल जाने में है।
इस संस्कृति ने नामवरजी को बनाया। हम सब लोगों को बनाया। और हमने, हमसे पहले और पीछे वालों ने इसे बनाया। कोई बात तो थी कि छात्रसंघ के चुनावों में हिंसा तो क्या गाली-गलौज तक अकल्पनीय थी। कोई बात तो थी कि छपे हुए पोस्टर लगाना, ज्यादा पैसे खर्च करना चुनाव में हार जाने का अचूक नुस्खा माना जाता था। कोई बात तो थी कि बिना किसी आरक्षण की धूमधाम के जेएनयू में अद्भुत ‘डाइवर्सिटी’ थी। जाति, धर्म, भाषा और संस्कृति हर प्रकार की डाइवर्सिटी।
पं0 हजारीप्रसाद द्विवेदी ने याद किया है, एक बार उन्हें सुनना पड़ा था, ‘यूनिवर्सिटी गरीबों के लिए नहीं है, जाओ जाकर ईंटा ढोवो’। जेएनयू में कमजोर आर्थिक या सामाजिक पृष्ठभूमि वालों को दाखिले में तरजीह दी जाती थी। एडमीशन इंडेक्स में ऐसी पृष्ठभूमि वालों को, लड़कियों को, और अंग्रेजी स्कूलों में जो नहीं जा सके, ऐसे लोगों को अतिरिक्त नंबर मिला करते थे।
इसीलिए कहा कि उन दिनों जेएनयू एक सपना था। समावेशी समाज की संभावनाओं का, बौद्धिक साहस की संभावनाओं का सपना। विभिन्न रुझानों के लोग अपने सारे मतभेदों के बावजूद जिस एक चीज को बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध थे, उसी चीज को जेएनयू कल्चर कहते थे। इस कल्चर में प्रेम का नहीं, हिंसा का व्यवहार लज्जाजनक माना जाता था। लड़के-लड़कियों के साथ-साथ घूमने, गपियाने और इश्कियाने से नहीं, हमारी संस्कृति किसी को गरियाने या जाति-धर्म के आधार पर आँकने या हाथापाई पर उतारू होने से खतरे में पड़ती थी।
वे दिन गये। गये दिन लौटा नहीं करते। सवाल यह है कि जो दिन आए वे बेहतर थे या बदतर? सवाल यह भी है कि जेएनयू की विशिष्टता को समझने की बजाय, अन्य विश्वविद्यालयों को उस विशिष्टता तक लाने की बजाय ऐसा क्योंकर हुआ कि उस विशिष्टता को समाप्त करने में स्वयं जेएनयू के ही कुछ लोग सक्रिय हो गये। जिस जेएनयू में विभागों को स्वायत्तता बतौर अधिकार के मिली हुई थी, वहीं जाने-माने विद्वानों को कुलपतियों की सनकों के कारण इस्तीफे क्यों देने पड़े? जो एडमीशन पॉलिसी सारे देश के लिये मिसाल बन सकती थी, उसे छोड़ समकालीन ‘पॉलिटिकल करेक्टनेस’ के कोरस में जेएनयू वाले भी क्यों शामिल हो गये? जिस छात्र आंदोलन से सारा देश सीख सकता था, वह कुछ छात्रों और कुछ प्रशासकों के अहंकारों के टकराव में घास की तरह पिस क्यों गया? 1983 में जरा सी बात से शुरु हुआ यह टकराव जेएनयू को सदा के लिये बदलने वाला तूफान बन गया था। एक दिन मैंने नामवरजी से कहा था, ‘श्रीवास्तव साहब इतना अड़ियल रवैया क्यों अपनाए हुए हैं? स्टूडेंट्स की इतनी सी बात मान क्यों नहीं जाते?’
नामवरजी की आवाज में तीखापन कम अवसरों पर सुना है। हर स्थिति में सम स्वर में बात करने की कला वे बखूबी जानते हैं, लेकिन उस दिन था तीखापन आवाज में। बोले, ‘ स्टूडेंट्स की क्या नाक कटी जाती है? बदतमीजी के लिये माफी क्यों नहीं माँग सकते?’
मुझे अच्छा नहीं लगा, लेकिन बात नामवरजी की ही सही थी। आवाज का तीखापन जेएनयू संस्कृति के भविष्य की चिंता से ही जन्मा था। वे उसके निर्माताओं में से हैं। समझ रहे थे कि खतरा कितना गहरा और कितना दूरगामी है। उस आंदोलन की परिणति कुलपति के घर पर कई दिनों तक चलने वाले घेराव और फिर धर-पकड़ और अंततः जेएनयू में दूरगामी बदलावों में हुई। सच तो यह है कि 1983 के बाद जेएनयू के इतिहास का जो अध्याय शुरु हुआ, उसमें जेएनयू के धीरे-धीरे बदलते जाने की, खुद पर नाज करने वाले ‘द्वीप’ स्वभाव को छोड़ कर धारा के साथ तैरने को व्याकुल होते जाने की ट्रैजी-कामेडी ही लिखी हुई है। पिछले कुछ वर्षों में जेएनयू ‘मुख्य धारा’ का अंश बनता ही चला गया है। रैगिंग और ईव-टीजिंग की ‘मुख्य धारा सुलभ’ घटनाएं जेएनयू में भी घटने लगी हैं। छात्रों, अध्यापकों और कर्मचारियों के चुनाव जाति जैसे ‘ठोस’ आधारों पर होने लगे हैं। लाइब्रेरी के एक रीडिंग रूम का अनौपचारिक नाम ही ‘धौलपुर हाउस’ पड़ गया है।
आशा है कि अब धारा तीन सौ सत्ततर जैसे और मेरे उन ग्रामस्मृतिलीन मित्र जैसे लोग जेएनयू से ज्यादा अपनापा महसूस करते होंगे। खैर।
3. मुखामुखम.
सात अक्तूबर 1992 का दिन मेरे जीवन के सबसे यादगार दिनों में से एक है। मैंने दो-चार दिन पहले अपना लेख ‘भक्ति संवेदना: काव्य और शास्त्र का मुखामुखम’ नामवरजी को पढ़ने के लिए दिया था। इसी में मैंने भक्ति के काव्योक्त और शास्त्रोक्त रूपों को, उनके परस्पर मुखामुखम को समझने का प्रस्ताव किया है। आज शाम उस पर बात करने जाना था, उनकी राय जाननी थी। पहुँचा तो हस्बमामूल गुरुदेव ने स्वयं ही दरवाजा खोला। मैं कुछ कहूं, इसके पहले ही, किवाड़ फेरते हुए बोले, “पुरुषोत्तमजी लेख तो आपने ऐसा लिखा है कि आपके चरण छूने की इच्छा होती है”! मुझे काटो तो खून नहीं। अपने गुरुदेव की मारक व्यंग्य-क्षमता से अवगत था, खुद शिकार भी हो चुका था( इस घटना के बाद भी हुआ), बरबस मुँह से निकला, “डॉक सा’ब इतना ही खराब है, तो सीधे कह दीजिए। इतना तीखा सरकाज्म मत कीजिए, प्लीज”।
“मैं सरकाज्म नहीं कर रहा, ठीक कह रहा हूँ। अद्भुत लेख है। नारद के भक्ति-सूत्रों की ऐसी रीडिंग आज तक किसी ने नहीं की है। भक्ति-बोध का उन्नीसवीं सदी के नवजागरण से संबंध भी आपने बहुत सटीक ढंग से रेखांकित किया है, और पंडितजी की सीमाएं भी बिल्कुल ठीक दिखाई हैं। सबसे बड़ी बात यह कि इस लेख से भक्ति को स्वायत्त वैचारिक उपक्रम के रूप में पढ़ने की राह खुलती है”।
इस आश्वस्ति के साथ मेरे होश वापस लौटे और फिर काफी देर तक उस लेख के बहाने भक्ति-संवेदना और नवजागरण से जुड़ी समस्याओं पर बात होती रही।
सत्रह साल हो चले उस शाम को, उसका रोमांच तो जस का तस है ही, बीच-बीच में, इस व्यक्तिगत रोमांच से आगे जाकर भी नामवरजी द्वारा दी गयी उस अभूतपूर्व शाबाशी का अर्थ समझने की कोशिश करता रहता हूं।
मैं था क्या उस वक्त? नामवरजी का ऐसा विद्यार्थी, जो बकौल डॉ0 वीर भारत तलवार के, उनकी सबसे ज्यादा डाँट खाता था। उनके विभाग का जूनियर मोस्ट फैकल्टी मेंबर और एक ऐसा लेखक जो था तो कवि, लेकिन ‘उदीयमान’ हो रहा था बतौर आलोचक के। एक ऐसा हिन्दुस्तानी जिसकी रुचि हिन्दी साहित्य के इतिहास में जगह बनाने से ज्यादा हिन्दू और अन्य प्रकारों की सांप्रदायिकता से संघर्ष करने में थी। जिसे हितचिन्तक सलाह भी दिया करते थे कि इन ‘फालतू’ के कामों में ज्यादा वक्त देने से ज्यादा अच्छा है कि साहित्यजगत में उठा-बैठा जाए।
इस मामले में भी नामवरजी दूसरे साहित्यकारों से अलग ही थे। मैं दिलीप सीमियन, भगवान जोश, सुमन, जमाल किदवई, अरुणकुमार, रविकांत, वृंदा, अमर जैसे अनेक मित्रों के साथ ‘सांप्रदायिकता विरोधी आंदोलन’ ( एसवीए) नाम के संगठन में काम करता था। यह संगठन भी अपने ढंग का एक ही था। खैर। तो, 1989 में हम लोग बहादुर शाह जफर मार्ग पर एक्सप्रेस बिल्डिंग के पास के मैदान में सांप्रदायिक राजनीति के विरोध में कुछ दिनों के सांकेतिक उपवास पर बैठे थे। प्रेसनोट तो हमने जारी किया था, लेकिन किसी भी ‘महत्वपूर्ण’ व्यक्ति को अलग से आमंत्रित नहीं किया था कि आकर हमारे धरने-उपवास की शोभा बढ़ाए या हमारा उत्साहवर्धन करे। एसवीए के काम करने के अंदाज में स्वाभाविक रूप से वही बांकापन था, जो उसके अधिकांश कार्यकर्ताओं के व्यक्तिगत स्वभाव का अनिवार्य अंश था।
लेकिन सांप्रदायिकता के खतरे से आशंकित और चिंतित केवल हम एसवीए वाले थोडे़ ही थे। हमें अपनी हर गतिविधि में बहुत से लोगों का समर्थन और सहयोग मिलता था। इस उपवास में भी रोज बहुत से लोग आते थे। शाम को तो मेला सा लग जाता था। प्रेस के मित्र भी बहुत सहयोग कर रहे थे, लेकिन यह बात अपनी जगह कि हम ‘निमंत्रित’ किसी को नहीं करते थे। बिना निमंत्रण के ही एक दिन स्व0 वी.पी. सिंह भी आए थे, और मैंने, दिलीप ने अपनी आदत के मुताबिक उनकी भी क्लास ले डाली थी। प्रो0 रणधीरसिंह, प्रो0 विपिनचंद्र, प्रो0 धीरूभाई शेठ, कृष्णकुमार, दिलीप पाडगांवकर, जावेद अख्तर, अरविन्द नारायण दास- बुद्धिजीवियों में से ये कुछ नाम हैं जिनका उस उपवास में और एसवीए की अन्य गतिविधियों में भी रुचि लेना याद है। उस उपवास के दौरान रणधीरसिंहजी ने जिस वात्सल्य से हम में से हरेक के सर पर हाथ फेर कर आशीर्वाद दिया था, वह मेरी अमिट यादों में से एक है।
नामवरजी एक दिन दोपहर में आए। सच यही है कि मैं ही नहीं, बाकी सब लोग भी उन्हें वहां देख कर चकित रह गये थे। आखिरकार यह तो हिन्दी जगत के बाहर भी विख्यात है ही कि नामवरजी किसी सार्वजनिक कार्यक्रम में जाते हैं तो अध्यक्षता करने! और यहां वे मौजूद थे बिना किसी खास न्यौते तक के। अपना समर्थन जताने और “पुरुषोत्तमजी, दिलीप…साथ ही अन्य उपवासियों का हाल-चाल जानने के लिए”। मैंने आत्मविडंबना ओढ़ते हुए कहा था, ‘डॉक सा’ब माफ करेंगे, साहित्यिक काम कुछ खास नहीं हो पा रहा है, आजकल”। बोले, “ फासिज्म से लड़ने से बड़ा साहित्यिक काम इस घड़ी और क्या है, पुरुषोत्तमजी”। मैंने कहा, “आप ही लोगों की प्रेरणा है”।
जवाब में जो उन्होंने कहा, वह रोमांचक था, साथ ही दायित्व-बोध की स्मृति बनाए रखने वाला भी। तब भी था। अब भी है। मेरी बात के जवाब में बस अकबर इलाहाबादी का मिसरा दोहरा दिया, “ अरे नहीं ! हमारी तो बातें ही बातें हैं, सैय्यद काम करता है”। मेरे मुँह से तो बोल ही नहीं फूटा। कारण था। लोगों को तब भी लगता था कि मैं नामवरजी के बहुत निकट हूँ, वास्तविकता यह है कि मैं उनसे डरता था, अब भी डरता हूं- न जाने कब अपने प्रसिद्ध व्यंग्य-बाणों में से एक इधर रवाना कर दें। या सीधे-सीधे ही हड़का दें। मुलाकातें भी बहुत कम होती थीं। और जो होती थीं, शुद्ध औपचारिक, एकेडमिक। अकबर इलाहाबादी के मिसरे के जरिए दी गयी यह शाबाशी जितनी औचक थी, अपनी चुप्पी उतनी ही स्वाभाविक। नहीं?
इसके बाद बातचीत की कमान हमारे ‘प्रिंसिपल साहब’ दिलीप ने सँभाली, फंड का डिब्बा भी नामवरजी के सामने रखने से ‘प्रिंसिपल साहब’ नहीं चूके। नामवरजी ने कुछ योगदान किया। बहुत देर बैठे रहे-युवजनों से बतियाते रहे।
ये दो शाबाशियां मेरे लिए यादगार हैं। स्वाभाविक है। अपने लेखन और समाजकर्म दोनों की नामवरजी द्वारा ऐसी सराहना किसके लिये यादगार नहीं हो जाएगी? लेकिन ये शाबाशियां महत्वपूर्ण इसलिए हैं कि ये स्वयं नामवरजी के व्यक्तित्व के बारे में भी कुछ जताती हैं। कुछ लोगों का कहना है कि नामवरजी शक्ति-संपन्न लोगों को आसमान पर चढ़ा देते हैं। बात कभी-कभी सही भी लगती है। लेकिन फिर से कहूं, ये मार्मिक शाबाशियां पाने वाला व्यक्ति न कोई बड़ा अफसर था, न कोई सत्ताधारी। 1989 में, वह एक नाकुछ से कॉलेज में हिन्दी पढ़ाता था, और 1992 में नामवरजी का जूनियर मोस्ट कलीग था, बस।
बतौर अध्यापक के उनके मूल्यांकनों की प्रामाणिकता हम लोगों ने तो हमेशा निर्विवाद रूप से विश्वसनीय पाई। मुझे हमेशा अच्छा ग्रेड देते थे, लेकिन मेरे ही एक पर्चे पर टिप्पणी की थी, ‘घास सी छील कर रख दी है। परचा लिखने का सलीका सुमनजी से सीखिए’। मैंने यह बात गाँठ बाँध ली, और अन्य मित्रों को भी बँधवाई। समीर तो मूलतः कवि थे और हैं, बाकी जो कुछ भी वे हैं, भूलतः ही हैं। नामवरजी रूसी रूपवाद पढ़ा रहे थे। श्कोलोव्सकी के बारे में परचा लिखना था। समीर परचा लिखते समय भी कविया जाता था, इसलिए जमा करने के पहले परचा मुझे दिखा लिया करता था। इस परचे का आरंभ कुछ इस प्रकार हो रहा था, ‘मैं मुंडेर पर पाँव लटकाए बैठा था, कहीं चिड़िया बोल रही थी’। मैंने टिप्पणी की, ‘ यह परचा नामवरजी को दिया, तो मुंडेर से ऐसे गिरोगे कि न चिड़िया बोल पाएगी, न चिड़ा’। परचा कविता की बजाय गद्य में लिखा गया और फिर नामवरजी को दिया गया।
नामवरजी के व्यक्तित्व में ‘अनप्रिडक्टिबिलिटी’ भी गजब की है। ‘संस्कृतिः वर्चस्व और प्रतिरोध’ का लोकार्पण वी. पी. सिंह ने किया था। नामवरजी जो करते हैं, वही कर रहे थे-अध्यक्षता। अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने किताब और लेखक दोनों को धोकर रख दिया। उस किताब में मेरी केन्द्रीय चिन्ता यह थी कि नफरत की राजनीति के बरक्स प्रेम की राजनीति की संभावनाएँ टटोलने में वामपंथी बौद्धिक विफल क्यों रहे? अस्मिता की राजनीति के प्रति सहानुभूति के साथ विचार करते हुए ही कुछ चेतावनियां भी इस किताब में दी गयी थीं। नामवरजी ने इन बातों की काफी खिल्ली उड़ाई। यह बात और है कि आज तेरह साल बाद ‘संस्कृतिः वर्चस्व और प्रतिरोध’ में की गयी भविष्यवाणियां सही और दी गयी चेतावनियां सार्थक ही सिद्ध हुईं हैं। मैं नहीं मानता कि नामवरजी जैसे व्यक्ति को ‘संस्कृतिः वर्चस्व और प्रतिरोध’ के तर्क और सरोकार से सचमुच कोई असहमति हो सकती थी। लेकिन फिर भी किताब को खारिज कर दिया? क्यों? यह केवल कोई व्यक्तिगत समस्या थी, या इसका संबंध हिन्दी बौद्धिकता की व्यापकतर व्याधियों से है?
इस बात की विस्तृत चर्चा कहीं और, कभी और करूंगा। यहां तो इतना ही कहना है कि कई बार नामवरजी तात्कालिक सरोकारों के दबाव में बड़े सवालों की उपेक्षा कर जाते हैं। अब याद नहीं पड़ता, हो सकता है कि 1995 में गुरुदेव किसी कारण मुझसे खिन्न रहे हों, और इसी खिन्नता ने उन्हें मेरी खिंचाई के लिये प्रेरित किया हो। ऐसे चमत्कार नामवरजी अन्य लोगों के साथ भी कर चुके हैं। सच कहूं, मैं आज तक नामवरजी के व्यक्तित्व की इस विशेषता को समझ नहीं पाया हूं। इस तरह का व्यवहार उनसे करवाने वाली कौन सी ग्रंथियां हैं? नहीं जानता।
बहरहाल, मैं तो जेएनयू का और जेएनयू के नामवरजी का कृतज्ञ ही हूँ। नौकरी दिलवाने के लिये नहीं, ज्यादा बड़ी बातों के लिये। जैसाकि उनके साठ साल के होने पर लिखा था, ‘सिर्फ पढ़ाने के लिये नहीं, सिखाने के लिये’।
1982 में जब सुमन द्वारा धकिया कर रामजस कॉलेज में इंटरव्यू देने के लिये भेजा गया था, तब न मैंने नामवरजी से कुछ कहा, न उन्होंने किसी से कुछ कहा। अपना तो प्रण था कि दस इंटरव्यू तो अपने बूते ही देंगे। न हुआ तो ग्यारहवें इंटरव्यू के लिये जाने के पहले गुरुदेव से बात करेंगे। भगवान की दया से जरूरत ही नहीं पड़ी। उस चयन समिति की अध्यक्षता गवर्निंग बॉडी के उपाध्यक्ष रामकँवर गुप्ता कर रहे थे, जिनसे मेरी भेंट न इंटरव्यू के पहले हुई थी, न बाद में कभी हुई। विभागाध्यक्ष प्रो0 निर्मला जैन थीं, और उनके साथ थे प्रो0 रामदरश मिश्र। मेरी नियुक्ति से कुछ लोग आहत हुए। डीयू के योग्य, योग्यतर, योग्यतम उम्मीदवारों पर इस जेएनयूआइट को वरीयता देकर दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग की ‘परंपरा’ तोड़ दी गयी थी। कुछ ऋषियों ने विभिन्न प्रकार की कल्पसृष्टियाँ भी निर्मित एवं प्रचारित कीं। निर्मलाजी ने अपने विख्यात स्वभाव के अनुसार ‘जनसत्ता’ के संवाददाता से कह दिया, ‘जिस लड़के को मैंने रामजस में नियुक्त किया है, वह कई प्रोफेसरों को पढ़ा सकता है’। याने अपन पहले दिन से ही ‘चर्चित’ होते भए। खैर।
रामजस कॉलेज का वातावरण क्या पूरा ‘अद्भुत, अनुपम,मनोहर बाग’ था। लिख सका तो कभी उसके बारे में उपन्यास लिखूंगा। आशा है कि ‘राग दरबारी’ का ‘छंगामल इंटर कॉलेज’ उन दिनों के रामजस के आगे फीका पड़ जाएगा। कुछ वर्षों में हालत यह हो गयी कि मैंने नौकरी छोड़ देने का मन बना लिया। राजेन्द्र माथुर मेरे लेख नियमित रूप से नवभारत टाइम्स में छापते थे, संपादकीय विभाग में खपा लेने को भी राजी हो गये।
लेकिन मैंने आईसीसीआर की विदेश में हिन्दी अध्यापन योजना में भी एप्लाई किया था। माथुर साहब से बात करने के बहुत पहले। हमारे बेटे ऋत्विक के जन्मोत्सव में आए नामवरजी को मैंने इस बारे में बताया। मुझे विदेश जाने के बारे में अपनी स्वीकृति देनी थी। नामवरजी ने कहा, ‘कोई जरूरत नहीं। तुम्हें जेएनयू आना है’।
रामजस अझेल हो चला था। आईसीसीआर को मना कर चुका था। जेएनयू का कुछ पता नहीं लग रहा था। इसीलिये माथुर साहब से बात की थी। उन्होंने हाँ तो की, साथ ही याद दिलाया, ‘दूर के ढोल सुहावने होते हैं’। लेकिन रामजस की शहनाई से तो कैसे भी ढोल अच्छे ही होने थे- दूर के या पास के। इसी बीच जेएनयू का इंटरव्यू कॉल आ गया। थोड़ी देर से ही सही, जेएनयू वापस आने का अवसर मिला। नामवरजी की बात सही साबित हुई।
4.स्वधर्म और सुमति।
आलोचना की बजाय रचनात्मक आलोचना लिखने के विरुद्ध ‘पॉलिमिक्स’ करते हुए नामवरजी ने गीता की उक्ति याद की हैः “स्वधर्मे निधनं श्रेय, परधर्मो भयावह”। आलोचना कुछ और बनने का प्रयत्न करे, यह हीनता-ग्रंथि है। उसे आलोचना ही होना चाहिये- इति आलोचक नामवरसिंह उवाच।
बहुत पहले विश्वविद्यालयों में साहित्य शिक्षण पर उन्होंने ‘आलोचना’ में एक परिसंवाद आयोजित किया था। अपनी टिप्पणी में, वहां भी ‘स्वधर्म’ की बात की थी। विश्वविद्यालय में एक ‘विषय’ बनने के चक्कर में साहित्य अपने बहुमुखी, संवादधर्मी स्वभाव से हाथ धो बैठता है। इस स्वभाव की वापस प्रतिष्ठा ही विश्वविद्यालयों में साहित्य पढ़ाने वालों की सबसे बड़ी चुनौती है। एक सीमित विषय नहीं, साहित्य समूचे जीवनानुभव के साथ मुखामुखम है, इसलिये औपचारिक रूप से साहित्य का अध्ययन-अध्यापन करने वालों को जीवन के विभिन्न पहलुओं की पड़ताल करने वाले विषयों से प्रामाणिक संवाद करना ही होगा।
जोधपुर से लेकर जेएनयू तक नामवरजी के पढ़ाने और पढ़ाई को नियोजित करने के मूल में साहित्य के स्वधर्म-बोध से उत्पन्न यह मूलभूत प्रतिज्ञा ही है।
उसी टिप्पणी में, विश्वविद्यालय ही नहीं, समूची पूंजीवादी व्यवस्था का वर्णन नामवरजी ने ‘पुराणों की भाषा’ में किया था-‘यह ऐसी व्यवस्था है, जिसमें पानी ने बहना और आग ने जलना त्याग दिया है, गरजकि हर वस्तु ने अपना धर्म छोड़ दिया है’।
स्वधर्म!
बतौर अध्यापक और आलोचक के, नामवरजी का सारा जीवन ‘स्वधर्म’ की पुनःप्रतिष्ठा के लिये संघर्ष का जीवन रहा है। सफलता हमेशा नहीं मिली है। कई बार स्वयं उन्होंने ही स्वधर्म से विचलन भी किये हैं। वे स्वयं कहते हैं, ‘बार बार हार मैं गया’। मुझे लगता है कि कई बार वे स्वयं से ही हारे हैं। उनकी अद्वितीय संभावनाएं उनके वास्तविक जीवन के ‘व्यावहारिक’ दबावों से हारी हैं। यह विडंबना उनकी ही नहीं, हम में से किसी की भी हो सकती है।
‘बार बार मैं हार गया’ – यह आत्मस्वीकृति है। ऐसी नहीं कि कोई बगलें बजाने लगे, बल्कि ऐसी जिससे ‘स्वधर्म’ की स्मृति भी रखना सीखे, और विचलन से बचना भी। अपनी संभावनाओं को ‘व्यावहारिक’ दबावों से न हारने देना सीखे। नामवरजी के बारे में सोचता हूँ, तो अपने लिये यही सीख हासिल होती है। एक बार फिर से बाइस साल पहले लिखे अपने लेख का शीर्षक याद करूं- ‘वे पढ़ाते नहीं, सिखाते हैं’। सजग रूप से भी, अनजाने भी। अपनी उपलब्धियों से भी-असफलताओं से भी। अपनी संभावनाओं से भी, विवशताओं और दुर्बलताओं से भी।
ठीक वैसे ही, जैसे उनका जेएनयू सिर्फ पढ़ाता नहीं, सिखाता था, सिखाता है। असफलताओं से भी। सफलताओं से भी। ‘द्वीप’ रह कर भी सिखा रहा था- और इन दिनों ‘मुख्य धारा’ के साथ बह कर भी सिखा रहा है।
सौभाग्य था मेरा कि इस द्वीप पर, उन दिनों पहुंचा, जबकि वह द्वीप ही था। वह सन सत्ततर की गर्मियों की एक दोपहर थी। जेएनयू पहुंच कर मुकाम किया गंगा होस्टल । कमरा नं0 137। आज के जेएनयू वाले कृपया न अविश्वास से मुस्कराएं न ईर्ष्या में जलें। ‘काउंटर कल्चर’ के उन दिनों में भी जेएनयू इतना उदार तो नहीं था। गंगा लड़कों का होस्टल हुआ करता था। कमरा अली जावेद का था- जिसका उपयोग हम जैसों की सराय के रूप में ही ज्यादा होता था। जावेद ने ही उसी दिन या शायद अगले दिन कमल कांप्लेक्स के गीता बुक सेंटर में किताबें पलटते नामवरजी को और फिर विपिन चंद्र को दिखाया था-‘ देखो वो रहे…’
सन सत्ततर की उस दोपहर के बाद के दिन मेरी जिन्दगी के सबसे रोमांचक दिन हैं।
मई 2001 में यूनिवर्सिटी ऑफ वेस्टर्न ऑस्ट्रेलिया, पर्थ जाने का सुयोग हुआ। सुमन वहाँ एम.बी.ए. की पढ़ाई कर रहीं थीं। मैं एक महीने के लिये, बच्चों को साथ लेकर गया था। कैंपस में घूमते हुए, एक दिन हम लोग पहुंच गये विन्थ्रॉप हॉल। बहुत खूबसूरत गॉथिक इमारत, वेनेशियन ग्लॉस की खिड़कियाँ- और उन पर ओल्ड टेस्टामेंट में वर्णित, परमात्मा द्वारा मनुष्य को कृपास्वरूप दी सुमतियों की छवियां- सूझ-बूझ, साहस, बुद्धि, संवेदनशीलता और ज्ञान। लेकिन ओल्ड टेस्टामेंट ( इजाया 11.2) में बताई गयी सुमतियों की संख्या तो सात थी। बाकी दो कहां गयीं? उनकी छवियां क्यों नहीं बनाईं कलाकार ने? जाहिर है कि जानबूझ कर ही नहीं बनाईं। लेकिन क्यों?
विन्थ्रॉप हॉल का निर्माण नेपियर वाल्टर ने 1931 में किया था। कई बरसों तक तो किसी ने उनसे पूछा ही नहीं कि आपने दो सुमतियां क्यों छोड़ दीं। आखिरकार 1959 में तत्कालीन वाइस-चांसलर ने जवाब तलब कर ही लिया। वाल्टर ने लिखा, “ हाँ, दो सुमतियां मैंने जानबूझ कर ही छोड़ी हैं, क्योंकि मेरी समझ से किसी यूनिवर्सिटी की परिकल्पना से उनका कोई लेना-देना है ही नहीं- ‘ धार्मिक और यौनपरक पवित्रता ( पाइटी)’ और ‘भगवान का भय ( फीयर ऑफ गॉड)” ।
वास्तुकार का यह सीधा, सार्थक उत्तर, बौद्धिक साहस और संवेदनशीलता का यह घोषणापत्र पढ़ कर सचमुच आँखें भीग गयीं थीं।
अपने जेएनयू ने ऐसी कोई औपचारिक घोषणा तो कभी नहीं की। लेकिन अपने होने भर से यह बता जरूर दिया कि यूनिवर्सिटी का स्वधर्म निर्भीकता और प्रश्नव्याकुलता है, संवेदनशीलता है, ज्ञान की साधना है, परमात्मा का डर दिखाकर खोखली पवित्रता का आरोपण करना नहीं।
उस जेएनयू का विद्यार्थी जो हो, जिन्होंने उस जेएनयू को बनाया, और जिन्हें उसने बनाया ऐसे नामवरजी का विद्यार्थी जो हो, उस मनुष्य को ‘स्वधर्म’ का निर्वाह तो करना ही होगा।
आशा है, कर सका। आशा है, कर सकूंगा।
यह भी आशा है कि नामवरजी द्वारा जीवन की सेंचुरी बनाने के अवसर पर चीयर-अप करने वालों की भीड़ में, मैं भी कहीं खड़ा होऊंगा।
आमीन!