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क़िस्सा दामिनी की दूसरी मौत और हम सब की बेबसी का….’वसु का कुटुम’….मृदुला गर्ग के उपन्यास की समीक्षा ( ‘हंस’ में प्रकाशित)

 

प्रचलित विधा विभाजन में आप इसे लंबी कहानी कहें या छोटा उपन्यास, ‘बोल कर लिखवाया गया’ ‘वसु का कुटुम’  असल में ठेठ क़िस्सा है, तवील नहीं मुख्तसर सा क़िस्सा। लेकिन यह क़िस्सा बनावट में जितना मुख्तसर है, सरोकार में उतना ही वसीह और बुनावट में उतना ही सघन।

इसे लिखे जाने का क़िस्सा बयान करते हुए मृदुलाजी ने लिखा है, “ प्रतिरोध, परकाया प्रवेश और रसोक्ति (आइरनी)—ये तीन तत्व मेरी सभी रचनाओं के अभिन्न अंग रहे हैं।” लेखिका के इस कथन को यदि कसौटी मान लें, तो बेधड़क कहा जा सकता है कि ‘वसु का कुटुम’ इन तीनों तत्वों को भरपूर धारण करते हुए भी, मृदुला गर्ग की रचनाशीलता के सर्वथा नये, और किसी हद तक अप्रत्याशित प्रस्थान की सूचना देता है। स्त्री-पुरुष संबंधों की विडंबनाओं की मार्मिक, अभावुक पड़ताल के लिए ख्यात लेखिका द्वारा नये विषय का अनुसंधान नयी भंगिमा और नये रूपाकार में करना अनुभवपगी वरिष्ठता के साथ युवाओं सरीखे जोश और एडवेंचर के प्रेरणाप्रद संयोग का रेखांकन भी है।

क़िस्सा मुख्तसर है,  एक पुराने घर की जगह मकान बनवाया जा रहा है। आस-पास के लोगों की समस्याओं की परवाह किये बग़ैर, क़ायदे-क़ानून को ध्वस्त करते हुए मकान का निर्माण हो रहा है। इस निर्माण से शुरु कर यह क़िस्सा बहुत सी चीज़ों के बनने और बिगड़ने की नवैयत का बयान करता है, अंदाज़े बयाँ पहले पैराग्राफ में ही साफ हो जाता है—

“ बी.के.सपोत्रा घर बनवा रहे हैं। अच्छा कर रहे हैं। घर बनवाओ, सबाब लो। परिवार वालों को बारिश-लू से पनाह मिले। निजता पले। बच्चे जन्म लें। दरोदीवार ज़िन्दगी की क़शिश से सरोबार हो। मज़ा आ जाए जो घर में एक बगीची भी हो, भले छोटी सी। खाद डाल मामूली सब्ज़ी फूल उगाए जाएँ। भिंडी-बैंगन-टमाटर तो उगाए ही जा सकते हैं। वह भी नहीं तो हरा धनिया और लौकी-करेले की बेल सही। मिट्टी की छुअन और आसमान का नज़ारा इन्सान होने के गुमान को पुख्ता करते हैं। यह तसल्ली भी बनी रहती है कि खुले में सोने की मजबूरी नहीं है। जब चाहो, छत के नीचे पनाह ले सकते हो। मन हो, बाहर बने रहो, न हो तो भीतर जा संग-साथ निभाओ या अकेले क़िताब पढ़ो। बच्चों, बड़े-बूढ़ों को सुरक्षा दे, ऐसा घर बनाना सचमुच सबाब का काम है। ख़ासकर तब,जब घर ऐसी ज़मीन पर बने जिसे बंजर जान खेती में न लगाया गया हो। पेड़ भी न काटने पड़ें और रंग चोखा जमे। ग़लत कह गई। बंजर दरअसल कोई ज़मीन होती नहीं; पानी-खाद दे मशक्कत करो तो और कुछ नहीं, कीकर बबूल तो उगाया ही जा सकता है। बथुआ लोभिया भी बशर्ते पाँव तले ज़मीन हो।

मैं जबर ग़लती कर गई। बी.के.सपोत्रा घर नहीं, मकान बनवा रहे हैं।”

कहन की विडंबना और शिल्प के जादू को बरतरफ करके देखना चाहें तो क़िस्सा बस इतना है कि बी. के. सपोत्रा बनाए जा रहे घर के आस-पास बाड़ नहीं लगा रहे, रात-रात भर काम करा रहे हैं, लोग धूल मिट्टी और शोर से होने वाली परेशानियाँ ही नहीं, नींव के गड्ढे में गिरने के खतरे भी झेल रहे हैं, दमा की मरीज एक झक्की सी औरत —दामिनी—इस बात का विरोध करते-करते एकाएक मर जाती है। उसका वैसा ही अजीब सा ‘मित्र’ राघवन; रत्नाबाई और नजमा के साथ मिलकर उस एनजीओ से जबावतलब करने की कोशिश करता है, जिसने दामिनी के इलाज के नाम पर चंदा किया और वह चंदा गायब हो गया। एनजीओ की कर्ता-धर्ता मीरा राव के जीवन  और उनके एनजीओ का मोटो है—‘वसुधैव कुटुंबकम्’— जो रत्नाबाई के मानीखेज रूप से ‘ग़लत’ उच्चारण में बन जाता है—‘वसु का कुटुम’। दामिनी तो मर गयी, उसके नाम पर चंदे का क्या हुआ—यह सवाल पूछती रत्नाबाई  खुद उस एनजीओ के दफ्तर में, “ श्मशान घाट में तांडव करते शिव” की तरह  नाचती मर जाती है। इसके बाद मामला टीआरपी संभावनायुक्त हो जाता है और टीवी की बहसों में कुछ दिन गर्म रहता है। इन बहसों की नदी कुछ ही दिन में इस खास मामले को छोड़ विदेशों में जमा काले धन को वापस लाने के व्यापक “ कौवा रोर” के सागर में समा जाती है; और क़िस्सा आपको बताता है कि, “ यह पूरी कहानी हम कह तो गए, मगर सभी जानते हैं कि सब कुछ रहेगा वही का वही…तो जब सब जानते हैं तो हम बार-बार उसे क्यों दोहराएँ?”

‘ वसु का कुटुम’ पढ़ते हुए लेबनानी लेखक राबी आलमदीन का उपन्यास ‘हाकावाती’ याद आता है। ‘हाकावाती’—इस शब्द का अर्थ ही होता है—क़िस्सागो। ‘वसु का कुटुम’ उतने विस्तृत फलक को नहीं छूता, लेकिन जितने तक स्वयं को सीमित रखता है, उस फलक पर अनुभव और स्मृति के सधाव को निभाता बखूबी है। इस सधाव में बात को कहने के लिए ‘भाषा को यथार्थवादी’  ढंग से बरतने की बजाय लेखिका का आग्रह पाठक की स्मृति और कल्पना को संबोधित करने का है।

दिल्ली के कुख्यात सामूहिक बलात्कार कांड की शिकार दामिनी ( मीडिया के एक हिस्से के अनुसार निर्भया) जैसे इस उपन्यास की ‘नायिका’  के रूप में ‘अवतरित’ हो गयी है। इस विचित्रता की व्याख्या के लिए वह उस बलात्कार कांड का एक ‘काउंटर फैक्चुअल’ क़िस्म का नैरेटिव भी राघवन को सुना देती है कि वह लड़की असल में जीवित बच गई थी, और “इसी शहर में एक नौकरी लेकर बस गई। और कोई नाम होता तो लोग उसमें दामिनी को ढूंढते, मगर क्योंकि नाम दामिनी था, जो उन्हीं का दिया हुआ था, जो असली नहीं था, जो किसी को नहीं था, इसलिए उन्होंने दामिनी को नहीं ढूंढा।”

याने दामिनी जीवित है, उस भयानक बलात्कार के बावजूद, फिर से लड़ने के हौसले के साथ जीवित है, क्योंकि जैसा कि राघवन और रत्नाबाई की बात में साफ होता है, “ भइया जिसे मार-मूर कर गेर दिया जावे, उसे किसी का डर नहीं रहता और वह बहुत जीवट की हो जाती है।”

बी.के. सपोत्रा के विरुद्ध लड़ाई पूरी नहीं होती कि दामिनी के इलाज के नाम पर लोगों से चंदा वसूलने वाले एन.जी.ओ. की कारगुजारियाँ सामने आने लगती हैं। राघवन ने अपनी बेटी के ब्याह के लिए जो गिन्नी बचा कर रखी थी, उससे दामिनी-फंड की शुरुआत होती है, और फिर वह गिन्नी उसी तरह गायब हो जाती है जैसे नागरिकता का बोध। क़िस्सा अपने ठेठ खिलंदड़े अंदाज़ में कुछ सचाइयाँ याद दिलाता है, जिनके सामने बेबसी इस वक्त की भारतीय नागरिकता की सबसे डरावनी सचाई बनती जा रही है।

‘वसु का कुटुम’ मानवीय संवेदना के छीजने को ही नहीं रेखांकित करता, वह अपने विशिष्ट देशकाल में नागरिकता के बोध और उसके संस्थानों—क़ानून, प्रेस, तथाकथित सिविल सोसाइटी—की सड़ाँध को भी उजागर करता है। वसुधैव कुटुंबकम् के नारे पर चलने वाले ‘बेकायदा’ नामी एन.जी.ओ.को सपोत्रा साहब चंदा देते हैं, वह एन.जी.ओ. उनके बिजनेस में पैसा लगाता है, अंधाधुंध ब्याज के लालच में। मीरा राव का कहना है, “ हो सकता है, वो ग़ैर-क़ानूनी माना जाए। मगर मैं मानती हूँ, क्योंकि यह काम समाजसेवा के लिए हो रहा था, इसलिए उसमें क़ानून को टाँग अड़ाने की ज़रूरत थी नहीं।”

किसी भी तरह अपने लिए कुछ हासिल करने की होड़, बहती गंगा में हाथ धोने की ललक, स्वाभाविक ही है कि समाज के इलीट तक सीमित न रह कर सब तरफ व्याप रही है। दामिनी की समर्थक नजमा अपने लिए स्कूटी का जुगाड़ कर लेती है, और हिन्दीशजी अपने लिए टीआरपी का। स्वयं उनकी चमक फीकी न कर दे, इसलिए वे चपरासी रामलखन को दोबारा पैनल डिस्कसन में बुलाते ही नहीं। इधर सारी बहस चलती रहती है, आरटीआई होती रहती है, रामलखन के सपोत्रा का बेटा होने का दावा किया जाता है; सपोत्रा बनते मकान  से गिर कर मर जाता है… उधर ग़ैर-क़ानूनी ढंग से बन रहा मकान बन भी जाता है, उसके तल्ले  सपोत्रा के बेटे द्वारा अलग-अलग लोगों को बेच भी दिये जाते हैं, अब जिसे जो करना है, कर ले।

क़िस्से की ‘सीख’ पाठक को रामलखन के शब्दों में ही प्राप्त होती है, “ करना यह चाहिए कि चाहे अनुमति-पत्र मिले या न मिले, आप धड़ल्ले से मकान बनवा डालिए। मगर याद रखिए, जब मकान पूरा हो जाएगा तो आपको मरना पड़ेगा। जब आप मर जाएँगे तो आपके उत्तराधिकारी पर आपके अवैध कर्मों का कोई उत्तरदायित्व नहीं होगा।”

क़िस्सा ख़त्म होता है, रत्नाबाई-पुत्र लल्लन की भविष्यवाणी से, “ यही रामलखन हमारे देश का अगला प्रधानमंत्री होगा। और तब? तब बहुत कुछ बदल जाएगा, देश का नक्शा बदल जाएगा!”

क़िस्सा आखिर में यह भी बता देता है कि, “यह लल्लन ने कहा नहीं, सिर्फ सोचा। कहा हमने।”

“ मर गया तेरे वसु का कुटुम। मर गया जालिम सपोत्रा…” इस घोषणा के साथ “ …नाच रही थी महापिशाचिनी, उस सजे-सँवरेस महँगे कमरे के बीचोबीच”——यह सूचना देता क़िस्सा कहता है, “ हम जानते हैं कि जो हम दिखला रहे हैं, वह शोभनीय नहीं है। बहुतों के सौंदर्यबोध को आहत कर सकता है। मगर हम क्या करें, जो कर रही है रत्नाबाई कर रही है, हम नहीं। हो सकता है, वह महाकाली का अवतार हो धरती पर। और आप जानते हैं कि महाकाली तो आपके शोभनीय की छाती पर ही अपना घमासान किया करती हैं। उनके हुँकार में सौन्दर्यबोध नहीं होता। उनके हुँकार में होता है तांडव। उनके हुँकार में होता है, प्रलय।”

पढ़वा तो यह क़िस्सा खुद को लेगा ही। ऐसी ही किताबों के लिए अंग्रेजी में कहते हैं, ‘अनपुटडाउनेबल’। पढ़ने के बाद, आपका मन प्रलय और तांडव का इंतजार करने का होता है, या उसके पहले, बदलाव की दिशा सोचने का…वह आप पर है…

-पुरुषोत्तम अग्रवाल।

कबीर की कविताई पर व्याख्यान गार्गी कालेज, दिल्ली में

A look at state of higher education under Smriti Irani

http://www.governancenow.com/news/regular-story/a-look-state-higher-education-smriti-irani

my column in Governance Now

 

Asking for the moon…

-Purushottam Agrawal

 

The minister for Human Resource Development along with her mandarins and the vice-chancellors of all central universities was in two days retreat in September in Chandigarh. It is not surprising that the electronic media neither reported nor discussed the event. After all, it has fast ‘evolved’ from infotainment to unabashed comedy and live cockfighting. But, it did come as a surprise that this meeting was not reported adequately even in large sections of the print media.

Well, in defence of our journalistic class one has to say nothing dramatic or curious happened at this retreat. Given Modi’s ballistic campaigning and general pretense that his government is ‘different’ from all regimes independent India has seen (after all, ‘nothing’ happened in 60 years), the media was probably looking for some dramatic departures, some important disjunctions from the UPA policy framework on education.

What we got instead was smooth continuity, informed by a mindless technocracy, as far as higher education policy is concerned.

From the point of view of the future of our higher education, this continuity of perspective is very important. Departures would of course have been interesting, but continuity is curious, to say the least. One recalls the great detective who reminded Inspector Gregory, while working on ‘The silver Blaze’ case, that the fact that the dog ‘did nothing in the night-time’, was in fact the curious incident.

The continuity of UPA and NDA policies in many areas is becoming increasingly clear. In case of education the consensus amongst the ‘forward looking’ ruling elite had become clear decades ago when the nomenclature of the ministry was changed from education to human resources. Now, the state is not looking at educating its citizens, it is not investing in human individuals; rather it is investing in resources which happen to be ‘human’.

The liberal framework gave way to the managerial one even without a whimper in political circles, just as education was sought to be reduced to ‘science, technology and management’. In fact, there is little scope in such an approach even for science in its fundamental sense. There is hardly any enthusiastic encouragement from the official side for fundamental and ‘non-pragmatic’ research in science. For the ruling elite, corporate bosses and most of the middle classes in India these days, ‘science’ is nothing but a euphemism for useful technology.

Another shared trait between the NGO friendly, ‘inclusive’ UPA government and ‘no-nonsense’ nationalist one under PM Modi is the obsession with controlling everything  and propagating the great ideal of  ‘one size fits all’, in the sphere of  ‘human resource development’. The present minister, while paying lip-service to the idea of autonomy of universities, still got a draft ‘single act’ for all central universities circulated for ‘suggestions’. This act is based on the recommendations of the Pathan Committee, which was formed in 2013 (while Kapil Sibal was minister) with the clear mandate of suggesting ways of implementing the ministerial motto of one size fits all and had recommended, inter alia, doing away with the office of Chancellor, and having in its place a council of Vice-Chancellors headed by, no prizes for guessing, the minister for HRD!

There is not even the veneer of autonomy here – the government must control all aspects of university life. Another brain-wave, ostensibly ‘egalitarian’ and ‘democratic’ (and common to UPA and NDA dispensations) is to have common admission and common curriculum for all the central universities in order to facilitate ‘student and faculty mobility’. Again, the idea of only ‘Technology and Management’ being worthy of any serious consideration is implicit here. In the field of Humanities and Social Sciences, it will be an extremely harmful step. Even in science, technology and management, the inclinations and orientations of various departments do and should influence their research programmes and priorities.

In social sciences and humanities, at any rate, interpretations matter a lot, and institutions of higher learning make their distinct marks by offering different interpretations to the same or similar data. This diversity of views and approaches enliven the field of knowledge and enrich the collective wisdom of society. In education systems the world over, individual teachers are encouraged to offer new courses and identify new focus areas in the on-going teaching programmes every semester. In contrast, our political and administrative bosses want forty central universities to teach the same text, same poets, same set of research questions, same priorities to each and every student. If, by ‘common curriculum’, something else is meant, I would love to be enlightened.

Mr. Kapil Sibal also has to his credit the great idea of appointing vice-chancellors through advertisements and interviews. There is a whole world of difference between someone being nominated without having applied, and someone getting through after an interview. The Supreme Court has categorically stated that notwithstanding the funding from government, the relationship between government and university professors and vice-chancellors is not that of master and servant. Under the guidance of Mr. Sibal, for the newly established central universities, the nomination method was replaced with selection method in order to make the master-servant point in a subtle psychological manner to be followed with legal steps in due course. Once the idea of a single act and a council headed by the minister, governing the matters of all the central universities is put in practice, the Sibelian dream of ‘one size fits all’ would be happily realised. The gods of efficiency and good governance would have slayed the demons of independent and critical research and teaching.

If she wants to reform education, Ms Irani would do well to break from this Sibelian mould. Participating in a couple of TV debates about her suitability as the minister of HRD, as she does not possess higher degrees, I had made two points. First, in any democracy, ministers are supposed to provide direction and perspective, and this has nothing to do with higher degrees. In fact, the question of formal qualification is more pertinent in the context of high-level bureaucrats, i.e. IAS officers, who having passed one examination in life supposedly acquire expertise on everything from agricultural policy to rocketry to the finer points of pedagogy. Incidentally, in the mid-fifties, the administration in the education ministry was headed by a professor. Maulana Azad, as education minister, had appointed the distinguished academic Prof. Humayun Kabir as education secretary. It would be interesting to know when and how the IAS lobby captured this position. Ms Irani may look at the idea of reviving the practice of having experts run higher education in the country.

The second point I made, was about the standards of education, I believe that no human being can create more drift and confusion in our education system than what has been achieved by USA trained top class ‘intellectuals’ under the benign guidance of PM Manmohan Singh. Ms Irani can only take things in a better direction, provided she chooses to act differently and see through the designs of control-freak bureaucrats.

But, given the convergence of thinking on higher education between UPA and NDA as reflected during the Chandigarh retreat, one is probably asking for the moon.

talking with darling daughter on Kabir…

पैरघंटी के बारे में….

3 जून के ‘जनसत्ता’ में श्री अरुण नारायण की एक टिप्पणी छपी है, ‘सृजन के सरोकार’। लिखते हैं, ” सभी जानते हैं कि दर्जनाों हत्याओं की जिम्मेदार रही रणवीर सेना के ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या के बाद बिहार में कैसा तांडव हुआ था और सरकार में शामिल भाजपा के एक मंत्री ने ब्रह्मेशवर मुखिया को ‘गांधीवादी’ का तमगा दिया था। लेकिन बीते एक-दो सालों की की रचनाओं में भी ये संदर्भ दर्ज करना शायद ही किसी को जरूरी लगा।”

कुछ संतोष के साथ और कुछ असंतोष बल्कि खीझ के साथ यह टिप्पणी लिख रहा हूँ। संतोष इस बात का , कि एक वर्ष पहले प्रकाशित मेरी कहानी ‘पैरघंटी’ ( ‘नया ज्ञानोदय’ जून, 2013) यह संदर्भ दर्ज करती है।
असंतोष और खीझ इस बात की कि किसी पाठक के ध्यान में यह बात दर्ज ही नहीं हुई, कम से कम मेरे जानते…
रचनात्मक कहानी और अखबारी कहानी (न्यूज स्टोरी) एक ही ढंग से न लिखी जाती है, न पढ़ी जानी चाहिए…
‘पैरघंटी’ के ‘उच्चकुलोद्भव, उच्चपदस्थ भोजपुरी भाषी’ अधिकारी श्री सत्यजित राजन, अपनी अधीनस्थ एक ओबीसी महिला की ‘धृ्ष्टता’ के प्रसंग में स्मरण करते हैं ‘मुखियाजी’ का…उसे सबक सिखाने के लिए कसम खाते हैं, ‘कुछ ही महीने पहले ब्रह्मलीन हुए मुखियाजी’ की…

साहित्य में चीजें साहित्यिक ढंग से ही दर्ज होनी चाहिएं…थोड़ी संवेदना और सचेतनता पाठक को भी साधनी चाहिए…

“उठ खड़ी हुई थी , वह,सो भी लुंज-पुंज नहीं, आँखों में आँसू भर कर नहीं। सीधी रीढ़ के साथ, सचाई भरी, सहज ही चमकती आँखों के साथ…इसे तो ठीक करके ही रहूँगा…एकाएक सत्यजितजी ने मन ही मन अरसा पहले वैकुंठवासी हुए पिताश्री के साथ-साथ कुछ ही महीने पहले ब्रह्मलीन हुए मुखियाजी की भी कसम खाई, और साथ ही वे अपनी धरती से भी जुड़ गये, यह बदतमीज औरत भी तो उसी धरती की थी… ‘चलतानी कहुँवा, बइठल रहीं, रउआ से त अभी ठीक से बात करि के बा.., रिमैन सीटेड, मिनिस्टर साहब से मिल कर आता हूँ फिर बताता हूँ तुम्हें कि कैसे बात की जाती है, सीनियर अफसर से…भगवान से डरिए…यू ऐंड यौर भगवान…माई फुट…’”

‘आप’ और अरविन्द केजरीवाल के बारे में…..

‘आप’ फिर खबरों में है, जनता से माफी मांगने के कारण, और नितिन गडकरी  से माफी ना माँगने के कारण….

‘आप’ से उम्मीदें बहुत हैं, लेकिन आशंका भी है कि कहीं अपने दुश्मन आप ना साबित ना हो जाएं…..

लोकसभा चुनाव से पहले प्रकाश रे को यह इंटरव्यू दिया था, ‘प्रभात-खबर’ के लिए….आज यहाँ लगा रहा हूँ, इस उम्मीद में कि शायद अब ‘आप’ के मित्र इसे शांतचित्त से पढें-गुनें…

 

 

प्रश्न- अलग अलग जातीय, क्षेत्रीय, आर्थिक-सामाजिक पृष्ठभूमि के लोग केजरीवाल की पार्टी से जुड़े हैं और जुड़ रहे हैं। क्या इसे भारतीय राजनीति के नये सूत्रपात के रूप में देखा जा सकता है, जहाँ अभी तक राजनीतिक दल किसी सामाजिक पहचान और उस पर आधारित समर्थन पर निर्भर हैं।

‘आप’ परिघटना का सर्वाधिक सार्थक और शुभ पहलू यही है कि यह पार्टी हमारे लोकतंत्र की ‘सहज और स्वाभाविक’ मान ली गयी विकृतियों को दूर करने का प्रयत्न करती दीख रही है। लोकतांत्रिक मूल्यों और सुशासन के लिए जनता को संगठित करने के बजाय किसी न किसी सामाजिक-धार्मिक या क्षेत्रीय अस्मिता के नाम पर राजनीति करने वालों की कृपा से नागरिक मुद्दे पीछे छूटते जा रहे हैं, और समाज में परस्पर अविश्वास का वातावरण बनता जा रहा है। सच तो यह है कि भारत-धारणा- आइडिया ऑफ इंडिया- ही खतरे में महसूस होने लगी है। ऐसे में  ‘आप’ के प्रति जनता का उत्साह इस बात की सूचना है कि भारत-धारणा राजनेताओं और बुद्धिजीवियों के लिए भले ही बस एक कल्पना भर हो, आम लोगों के लिए जीवन-मरण का सवाल है। लोग एक विश्वसनीय विकल्प के लिए बेकल हैं जिसके जरिए वे लोकतांत्रिक मूल्यों के आधार पर संचालित, जबावदेह सरकार हासिल कर सकें। नेता लोग किसी भी बात पर स्टैंड लेते समय अपने वोट-बैंक की चिंता करते हैं, लोकतांत्रिक मूल्यों और मर्यादाओं की नहीं। बुद्धिजीवी भी सार्वभौम लोकतांत्रिक मूल्यों की परवाह किये बिना, अपनी अपनी पसंदीदा अस्मितावादी राजनीति को जायज ठहराते हैं। जबावदेही का आलम यह है कि चुनाव के बाद नेताओं के दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं। भ्रष्टाचार और वीआईपी संस्कृति के विरोध की जिनसे उम्मीद थी, वे ही कमजोरों के सशक्तिकरण के नाम पर इन व्याधियों के सबसे बड़े पैरोकार बन  गये हैं।  इज्जत और सुरक्षा हरेक नागरिक का  अधिकार नहीं बल्कि वीआईपी का विशेषाधिकार बन गयी है।

‘आप’  के प्रति उत्साह प्रचलित राजनीतिक संस्कृति के प्रति असंतोष से ही उपजा है। यह दूसरे दलों के लिए स्वागत योग्य चेतावनी है। आखिरकार कुल चार विधायकों की कमी के बावजूद, दिल्ली में सरकार बनाने से इंकार कर देने के भाजपा के ‘नैतिक’ फैसले के बीच ‘आप’  की सफलता में ध्वनित होता जनता का यह असंतोष और उत्साह ही था। सवाल, लेकिन यह है कि यह ‘नयापन’ कितने दिन चल पाएगा।

प्रश्न- केजरीवाल का तीव्र विरोध राजनैतिक विरोध कहीं उनकी पार्टी की बढ़ती लोकप्रियता से उपजी तल्खी तो नहीं है? उन्हें मिल रहे जनसमर्थन का कोई तो ठोस आधार होगा?

केजरीवाल को मिल रहे जनसमर्थन के वास्तविक आधार की ओर मैं, आपके पहले प्रश्न का उत्तर देते हुए संकेत कर ही चुका हूँ। यह आधार है विकल्प की संभावना में आम हिन्दुस्तानी का विश्वास और ‘आप’ के रूप में उसे पा लेने का उत्साह। विरोध का कारण भी यही है। भाजपा खासकर तल्ख है क्योंकि उसे डर लग रहा है कि कहीं ‘आप’ के कारण, आने वाले चुनावों में उसकी हालत ‘ हाथ तो आया लेकिन मुँह नहीं लगा’ वाली ना हो जाए। जिस असंतोष को भुना कर सत्ता में आने के सपने भाजपा देख रही है, उसे ‘आप’ की झोली में जाते देख तल्खी स्वाभाविक ही है। लेकिन,  दूसरे दल भी चिंतित हैं क्योंकि  ‘आप’ किसी एक पार्टी के लिए नहीं, समूची राजनैतिक संस्कृति के लिए चुनौती के रूप में उभरी है।

प्रश्न- अन्ना आंदोलन से लेकर दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफे तक की समयावधि में केजरीवाल के विचार और व्यवहार में क्या बदलाव आए हैं? उनका और उनकी पार्टी का राजनीतिक भविष्य क्या हो सकता है? किसी भी मौजूदा गठबंधन से नहीं जुड़ने के उनके फैसले को किस रूप में देखा जा सकता है?

        अन्ना आंदोलन के दौरान, अन्ना हजारे के साथ ही एक टीवी शो में हिस्सा लेते हुए अरविन्द केजरीवाल उन लोगों पर बहुत तीखे आक्रमण  कर रहे थे, जो उनसे कहते थे कि बाकायदा राजनीति में आकर अपनी बात जनता के सामने रखें। तो, एक बदलाव तो जाहिर ही है कि वे अब बाकायदा एक राजनैतिक पार्टी ही नहीं बना चुके, बल्कि दिल्ली के मुख्यमंत्री भी रह चुके। जहाँ तक सवाल है व्यवहार का, अरविन्द केजरीवाल ने शायद अनजाने ही जता दिया है कि वे स्वभाव से आंदोलनकारी ही हैं, और इसी भूमिका में उनका मन रमता है। शायद उन्हें खुद भी आशंका नहीं थी कि सरकार चलाने की झंझट भी उनके सिर आ सकती है।

विडंबना यह है कि वोट माँगने के लिए वादा तो यही करना पड़ेगा कि बेहतर सरकार चलाएंगे या चलाने वालों  की मदद करेंगे, लेकिन वोट मिल जाने पर, लोकसभा में कुछ सीटें जीत जाने पर आंदोलन के अलावा क्या करेंगे…यह शायद वे खुद नहीं जानते। उन्हें और उनके साथियों को यह समझना ही होगा कि बेशक आंदोलन लोकतांत्रिक राजनीति का आधार है, लेकिन आंदोलन की प्रामाणिकता का प्रतिमान यह है कि अवसर मिलने पर बेहतर और स्थिर सरकार चला कर भी दिखाएँ।

प्रश्न- दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा भ्रष्टाचार मिटाने की प्रतिबद्धता की ओर इंगित करता है याकि आपको लगता है कि अरविन्द केजरीवाल सरकार चलाने की जिम्मेवारी से भागना चाहते थे? क्या इस घटनाक्रम को राजनैतिक पैंतरेबाजी के रूप में देखा जा सकता है?

        मुझे नहीं लगता कि इस्तीफा भ्रष्टाचार मिटाने की प्रतिबद्धता का सूचक है। मैं बारंबार कहता रहा हूँ कि लोकतंत्र केवल संख्याओं का खेल नहीं, संस्थाओं और मर्यादाओं का भी मामला है। जिस बिल को आप इतना महत्वपूर्ण मानते हैं, उसकी प्रतिलिपियाँ विधान-सभा सदस्यों को एक ही रात पहले मुहैया कराना क्या सूचित करता है? कानूनी तौर से, दिल्ली विधान-सभा में किसी विधेयक को पेश करने के पहले उप-राज्यपाल की अनुमति जरूरी है। यह दिल्ली की विशेष स्थिति से जुड़ा प्रावधान है। फिर, संसद द्वारा लोकपाल बिल पारित कर दिये जाने के बाद दिल्ली या किसी भी राज्य में लोकायुक्त का गठन केंद्रीय कानून की उपेक्षा करके नहीं किया जा सकता। केजरीवाल चाहते तो सरकार चलाते हुए, इस मामले में राजनैतिक और सामाजिक आम-राय बनाने की कोशिश कर सकते थे। लेकिन तब उन्हें भ्रष्टाचार के लिए हम शहीद हुए-ऐसा कहने का सुख और सरकार चलाने के झंझट से मुक्ति न मिल पाती, और वे लोकसभा चुनाव के लिए ‘इशू’ को ‘लाइव’ न रख पाते। केजरीवाल का इस्तीफा एक बहुत ही सोचा-समझी राजनैतिक चाल है।

‘आप’ की बुनियादी समस्या नैतिक दंभ है। इसीके दर्शन सोमनाथ भारती प्रकरण में हुए थे, और इसीके कारण जन-लोकपाल जैसे महत्वपूर्ण कानून का श्रीगणेश ही गैर-कानूनी ढंग से करने में ‘आप’ को कोई संकोच नहीं हो रहा था।  

        प्रश्न- केजरीवाल व्यवस्था-परिवर्तन के हिमायती हैं, अराजक हैं, समाजवादी हैं, या पूंजीवादी? या फिर राजनीतिक समझ को लेकर भ्रमित हैं?

 राजनैतिक दर्शन में ‘अराजकतावादी’ उन विचारकों को कहा जाता है, जो समाज में राजसत्ता के प्रभाव को कम से कम करना चाहते हैं। केजरीवाल तो जिस तरह के सर्वशक्तिमान, ‘ऑल इन वन’ लोकपाल की कल्पना करते हैं, वह राज्य की ताकत को कम नहीं, बल्कि अभूतपूर्व रूप से ज्यादा  करने वाला है। केजरीवाल के हिसाब से भ्रष्टाचार सभी समस्याओं की जड़ है, और उनकी कल्पना का जन-लोकपाल हर रोग का रामबाण इलाज। उनके हिसाब से व्यवस्था परिवर्तन का आशय इतना ही प्रतीत होता है।  चीजें इतनी आसान हैं नहीं। बात समाजवादी या पूंजीवादी होने की नहीं, जटिल समाजतंत्र और राज्यतंत्र की गतिशील और गहरी समझ की है, जिसका  केजरीवाल में अभाव लगता है। याद कीजिए, दिल्ली विधान-सभा में उन्होंने ऑटो-ड्राइवर से लेकर अंतरिक्ष-यात्री तक को ‘आम आदमी’ निरूपित कर दिया था, याने जो नेता नहीं है, वह आम आदमी है। स्वच्छ राजनीतिक संस्कृति का विकास सभी राजनेताओं और सारे राजनीतिक तंत्र के प्रति तिरस्कार का भाव रखके नहीं किया जा सकता। राजनीति मात्र को रद्द करने वाली यह मनोवृत्ति लोकतंत्र को भी रद्द करने वाली मनोवृत्ति में बड़ी तेजी से बदल सकती है। केजरीवाल के कुछ साथी उन पर तानाशाही मनोवृत्ति का आरोप लगाते सुने भी जाते रहे हैं।

मेरी चिंता केजरीवाल के भ्रमित होने से कहीं ज्यादा है। जैसाकि मैंने आपसे कहा, ‘आप’ की सफलता का आधार है विकल्प की संभावना में आम हिन्दुस्तानी का विश्वास और ‘आप’ के रूप में उसे पा लेने का उत्साह। खतरा यह है कि ‘आप’ अपने नैतिक दंभ के कारण इस विश्वास को तोड़ने वाली पार्टी भी साबित हो सकती है।

वीआईपी संस्कृति और भ्रष्टाचार से उत्पन्न रोष के कारण मिले विश्वास को यदि इस तरह से पथभ्रष्ट किया गया तो यह पार्टी अपनी सबसे बड़ी दुश्मन आप तो साबित होगी ही, भ्रष्ट तंत्र को नये सिरे से नैतिक वैधता प्रदान करने का पाप भी उसी के सिर जाएगा।

 

 

  

 

‘पैरघंटी’–‘नया ज्ञानोदय’ जून 2013 में प्रकाशित

पैरघंटी

सत्यजितजी का स्वरूप बड़ी तेजी से बदल रहा था। अधीनस्थों, खासकर निचले तबकों से संबंधित अधीनस्थों की चमड़ी कोड़े की तरह उधेड़ने वाली उनकी जबान पुचकार पाने को व्याकुल, लप-लप करती जीभ में बदलती जा रही थी। जिस कंठ-स्वर को सिंह-गर्जना का मानव-संस्करण मान, वे अपनी वंशावली पर गर्व करते थे, वह स्वर कूं-कूं की निरीहता पहले ही ओढ़ चुका था। देह दो पैरों की मुद्रा त्याग कर चारों पैरों पर आ चुकी थी। शरीर के पार्श्व भाग में, बढ़िया कपड़े के पैंट में से दुम धीरे-धीरे निकल रही थी, और तेज-तेज हिल रही थी।

उच्चकुलोद्भव, उच्चाधिकारी श्री सत्यजित इस समय मंत्रीजी के गुस्से को पुचकार में बदलने की साधना कर रहे थे। इस गुह्य साधना का साक्षी कोई नहीं था, सिवा साधक और साध्य के। हाँ, गगनविहारी देवता अवश्य यह दृश्य देख रहे थे। देख रहे थे, और बोर हो रहे थे। वे ऐसे दृश्य अनादि काल से देखते आ रहे थे, और चट चले थे। जिन्हें देवयोनि प्राप्त किये बहुत समय हो गया था, ऐसे देवताओं की बोरियत तो अब फटीग में बदलती जा रही थी। वे सब कुछ दिखाने वाली दिव्य-दृष्टि को कोसने लगे थे, मनुष्यों से ईर्षा करने लगे थे जो दिव्य-दृष्टि से वंचित होने के कारण, सब कुछ देखने से तो बचे ही रहते हैं, और जो देख सकते हैं, वह भी आम तौर से या तो देखते ही नहीं, या देख कर भी अनदेखा कर देते हैं।

इस समय श्वान-आसन साध रहे सत्यजितजी को उनके वैकुंठवासी पिताश्री प्यार से ‘राजन’ कहा करते थे। सत्यजितजी से जिनका वास्ता पड़ता था, वे सब जानते थे कि उनकी कृपा-दृष्टि उपलब्ध कराने वाला जंतर यही संबोधन था- ‘राजन’। उधर, मंत्रीजी के कैलासवासी पिताश्री उन कोई साढ़े-पाँच सौ श्रेष्ठ जनों में से थे, जिन्हें हर मैजेस्टी की कृपावंत हुकूमत ने ‘आलीजाह-बहादुर’, ‘दरबार’, ‘श्रीमंत’ आदि बनाए रखा था, और जिन्हें अपने जीवन-काल में कलि-काल का यह पातक देखना पड़ा कि देखते-देखते ही वे सल्तनते-बरतानिया के फर्जन्द-ए-खवास से भारत माता की संतान बनने को बाध्य हुए।

मंत्रीजी के स्वर्गवासी पिताश्री उनकी कुर्सी के ठीक सामने एक शानदार तस्वीर में मौजूद रहते थे। आबनूस के रोबीले फ्रेम में मढ़ी इस तस्वीर में स्वर्गवासी महाराजा के साथ स्वयं हिज एक्सीलेंसी वायसराय मौजूद थे। कुछ दरबारी मौजूद थे, पृष्ठभूमि में चंद जी-हजूरे भी मौजूद थे, हिज एक्सीलेंसी, महाराजा और दरबारियों के हाथों में राइफलें मौजूद थीं, जी-हजूरों के हाथों में तोड़ेदार बंदूकें मौजूद थीं, और नीचे की तरफ…

नीचे की तरफ वह शेर मौजूद था, जिसे सौ-पचास हाँके वालों की मेहनत के जरिए, पेशेवर शिकारियों की दक्षता के जरिए मारकर हिज एक्सीलेंसी और महाराजा ने ‘लाजबाव’ बहादुरी से शिकार करने का गौरव प्राप्त किया था। अपनी मौत में भी रोबीले दिख रहे शेर के सिरहाने हिज एक्सीलेंसी दि वायसराय खड़े थे, पाँव उसके सर पर और राइफल जमीन पर टिकाए। सल्तनत-ए-बर्तानिया के फर्जन्द-ए-खास महाराजा की भी राइफल जमीन पर टिकी थी, लेकिन पाँव शेर के सर पर नहीं दुम पर था।

कहाँ वह ज़माना कहाँ यह गया-गुजरा वक्त कि एक दिन तो यह शानदार तस्वीर कुछ देर के लिए ही सही, दीवार से हटानी पड़ गयी थी। मंत्रीजी नोट करते थे कि उनके कमरे में आने वालों में से कई लोगों को यह तस्वीर विभिन्न कारणों से खटकती थी…खटकती रहे…ब्लू ब्लड जिनकी शिराओं में बह रहा था, रायल खानदान के रोशन चिराग़ वे मंत्रीजी नसों में लाल खून लिए घूमने वाले ऐं-वें टाइप्स की परवाह क्यों करें? बल्कि इन लाल खून वाले हकीर इंसानों में से कुछ का तो खून लाल से सफेद हो गया था, इतने गुस्ताख़ हो गये  थे ये बेहूदे कि मंत्री जी को ‘महाराजा’, ‘श्रीमंत’ जैसे उचित संबोधनों की बजाय बस श्री या जी लगा कर या सर या महोदय कह कर संबोधित करते थे…ब्लडी इडियट्स, डर्टी फिल्द…

ऐसे मूर्खों की तो उपेक्षा ही उचित थी, लेकिन जब वर्ल्ड वाइल्ड-लाइफ फंड का एक शिष्ट-मंडल प्रोजेक्ट टाइगर की फंडिंग डिसकस करने के लिए आया था, तो इसी सत्यजित ने जान हथेली पर रख कर श्रीमंत को सलाह दी थी कि कुछ देर के लिए शेर के शानदार शिकार की यह जानदार तस्वीर कमरे से हटा दी जाए। सलाह सही थी, यह तब जाहिर हो गया जबकि शिष्ट-मंडल के एक सदस्य ने यह सुझाव दे डाला कि निजी संग्रहों से नहीं, तो कम से कम सरकारी और अर्द्ध-सरकारी संग्रहालयों से ऐसी सभी ‘ऑब्सीन’ तस्वीरें, पेंटिंग्स आदि हटा दी जाएं जिनमें अंग्रेज अफसर और उनके ‘नेटिव’ चापलूस शिकार किये हुए शेरों के साथ ‘वल्गर’ पोज दे रहे हैं। सुझाव देने वाला गोरी चमड़ी में न मढ़ा होता, तो अपने स्वर्गीय पिताश्री का अप्रत्यक्ष ही सही, इस गये गुजरे जमाने की वजह से ऐसा घोर अपमान करने वाले की चमड़ी खींच कर उसमें,  भुस भले न भर पाएं, श्रीमंत किसी और ढंग से हरामजादे को ठीक तो कर ही देते। लेकिन, एक तो गोरा, ऊपर से फंड का मामला, मंत्रीजी अपने ब्लू बल्ड का घूँट पी कर रह गये थे। मन ही मन सत्यजित की दूरंदेशी की तारीफ भी की।

उस दिन के बाद से,मंत्रीजी सत्यजित को अपना खास मुसाहिब मानने लगे थे, इस मान्यता के कारण सत्यजितजी का आलम सातों दिन चौबीसों घंटे यह रहने लगा कि ‘आजकल पाँव जमीं पर नहीं पड़ते मेरे…’

यह तस्वीर मंत्रीजी की मेज के ठीक सामने थी, और उसी मेज के नीचे थी वह पैरघंटी—फुटबेल—जिसके कारण सत्यजितजी इस समय श्वान-नृत्य कर मंत्रीजी को रिझाने की साधना कर रहे थे।

बात यह थी कि मंत्रीजी चपरासी को बुलाने के लिए हाथघंटी और पीए को बुलाने के लिए इंटरकाम का उपयोग नहीं करते थे। उन्हें अपनी मेज पर घंटी रखना सुहाता नहीं था, और इंटरकाम पर वे केवल अपने जूनियर मिनिस्टर से बात करते थे, सो भी बेमन से। घंटियों को मंत्रीजी मेज के ऊपर नहीं, मेज के नीचे, पाँव की पहुँच में रखते थे, एक चपरासी के लिए, एक पीए के लिए…

यहाँ तक तो सत्यजितजी के हिसाब से भी बात ठीक ही थी। चपरासी हो या  क्लर्क ग्रेड का पीए, ये सब इसी लायक हैं कि इन्हें हाथ के इशारे पर नहीं, पैर की ठोकर पर रखा जाए…लेकिन अब यह तो ठीक नहीं ना कि…क्या कहें, कैसे कहें…

मंत्रीजी अपने पीए को ही नहीं, पीएस याने श्री सत्यजित आईएएस को भी पैरघंटी से ही बुलाते थे। चपरासी और आईएएस को बुलाने का ढंग एक ही हो, यह तो प्रथम दृष्ट्या ही गलत था, ऊपर से घंटी भी हाथ से बजने वाली नहीं, पैरघंटी…इजंट इट टू मच, यार…

सत्यजितजी को बेहद बुरा लगता था मंत्री महाराजा का यह अविवेक; लेकिन आईएएस ट्रेनिंग की औपचारिक शिक्षा याद रही हो न रही हो, सार की बात अन्य बंधु-बांधवों की तरह उन्होंने भी मन में गोया फेविकोल से चिपका ली थी- निचले पायदान वाले के सर पर पाँव, और उपरले पायदान वाले के पाँव पर सर रखे रहना ही तरक्की की सीढ़ियाँ चढ़ते चले जाने का असली मंतर है। सो, पैरघंटी से बुलाए जाने को लेकर अपनी असुविधा उन्होंने मंत्रीजी के सामने जाहिर कभी नहीं होने दी थी। फायदा क्या था? कितनी भी खिसिया ले, बिल्ली खंभे का नोच क्या सकती है, उखाड़ क्या सकती है?

गुस्सा तो आता ही था, सो उसे  झेलने के लिए थे ना बहुतेरे तुच्छ प्राणी, जिनके अस्तित्व पर सत्यजित की जबान गुलामों के मालिक के हंटर की तरह चलती थी, जिनके कानों की तरफ सत्यजित के शब्द ताजा फटे ज्वालामुखी के खौलते लावे की तरह लपकते थे। इन्हीं तुच्छ प्राणियों में से एक इस वक्त सूली चढ़ी बैठी थी सत्यजितजी के कमरे में जबकि पैरघंटी की बुलाहट सुन कर उन्हें मंत्रीजी के चैंबर की ओर लपकना पड़ा था, उस हरामजादी काली-कलूटी ओबीसी को वार्न करके ही निकले थे सत्यजितजी कि जब तक वापस ना आएं, खबरदार, हिलना मत, यहाँ से। मंत्रीजी के कमरे की ओर लपकते हुए सत्यजित की भुनभुनाहट जारी थी…’सर ही चढ़ते चले जा रहे हैं, यार ये लोग तो, इस को तो यह गुमान भी  है ना कि बिना रिजर्वेशन के सर्विस में आई है, आई होगी, रहेगी तो ओबीसी ही ना, रिजर्वेशन नो रिजर्वेशन….खानदान थोड़े ही बदल जाएगा, औकात थोड़े ही बदल जाएगी…बैठी रहना, अभी वापस आकर बताता हूँ तेरी औकात, बेहूदी चिरकुट, जबसे दफ्तर में आई है, मेरे बनाए नोट में गलतियाँ निकालती रही…और अब चली है स्टडी लीव माँगने…’

खिसियाहट इस वजह से कई गुनी हो गयी थी कि पैरघंटी उस कलूटी के सामने ही बज उठी और सत्यजितजी का तन-मन बेकाबू होकर रिफ्लेक्स एक्शन करने लगा था। घंटी बजते ही वे उछले, दरवाजे की ओर लपके, हड़बड़ाए शरीर का धक्का खा कर कुछ फाइलें मेज से धराशायी हुईं, संभलने के चक्कर में खुद गिरते-गिरते बचे। अपने आपको बचपन में सुने मुहावरे-लजवन पचाने- पर अमल करते पाया, कलूटी को सुनाते हुए बोले, “काम करना पड़ता है, इंपोर्टेंट पोजीशन पर…आपकी तरह नहीं….”

हिम्मत…हिम्मत देखो नालायक की, चट से बोली, ‘काम सब करते हैं…’

दरवाजे तक पहुँच चुके सत्यजित पलटे थे, ‘ सब पता है, सूरत देख कर ही जान गया था कि जिन्दगी भर हराम की खाई है, कभी काम नहीं किया है…मस्ती की है बस…और अब मस्ती के लिए ही यह स्टडी लीव का नाटक…’

‘भगवान से डरिए, सर…’

हद है, यार कितनी चलती है जबान इस हेहर की। ठीक है कि इस ऑफिस में नयी आई है, मेरे रोब-दाब से वाकिफ नहीं, लेकिन यह तो हद ही है, ऐसी की तैसी इसकी…

‘स्टडी लीव तो आप भूल ही जाइए, मैडम…और अगर किसी तरह ले भी ली, तो लौट कर तो यहीं आना है, देखना कैरियर की ऐसी-तैसी न कर दी तो मैं भी राजन…आई मीन सत्यजित नहीं…’

उठ खड़ी हुई थी , वह,सो भी लुंज-पुंज नहीं, आँखों में आँसू भर कर नहीं। सीधी रीढ़ के साथ, सचाई भरी, सहज ही चमकती आँखों के साथ…इसे तो ठीक करके ही रहूँगा…एकाएक सत्यजितजी ने मन ही मन अरसा पहले वैकुंठवासी हुए पिताश्री के साथ-साथ कुछ ही महीने पहले ब्रह्मलीन हुए मुखियाजी की भी कसम खाई, और साथ ही वे अपनी धरती से भी जुड़ गये, यह बदतमीज औरत भी तो उसी धरती की थी… ‘चलतानी कहुँवा, बइठल रहीं, रउआ से त अभी ठीक से बात करि के बा.., रिमैन सीटेड, मिनिस्टर साहब से मिल कर आता हूँ फिर बताता हूँ तुम्हें कि कैसे बात की जाती है, सीनियर अफसर से…भगवान से डरिए…यू ऐंड यौर भगवान…माई फुट…’

कहते कहते सत्यजितजी अपने भगवान के मंदिर की ओर लपक लिए थे। प्रवेश करते ही पाया कि उनके भगवान इस समय वरदहस्त मुद्रा में नहीं, खड्गहस्त मुद्रा में थे। छूटते ही बोले  ‘सुना है आपको पैरघंटी से कुछ परेशानी है, यू आर वेरी अपसेट विद दि  फुटबेल एरैंजमेंट..’

फुटबेल का जिक्र अपने भगवान के मुख से इस प्रकार सुनते ही, तुच्छ प्राणियों के वे ही भगवान जिनकी शान में अभी-अभी ‘माई फुट’ की घोषणा करके आए थे, सत्यजितजी को याद आने लगे।

‘नो सर, नो सर…आई मीन…’ मन ही मन बूझ रहे थे कि चुगलखोर कौन है, चुगलखोर भी क्या साला आदत से मजबूर…यह सिंह कमीना…खाने में तो हरामजादा पत्थर भी पचा जाए लेकिन बात जरा सी नहीं पचा सकता…मैं भी तो चूतिया हूँ, उसके सामने मुँह से निकल कैसे गयी इस साली फुटबेल की बात…

मंत्री भगवान जारी थे, ‘ सुना है कि आपको इतनी बुरी लगती है हमारी फुट-बेल कि केब-सेक से बात करने जा रहे हैं…सीधे पीएम से ही मिल लीजिए ना…हमीं एपाइंटमेंट फिक्स करवा देते हैं आपका, फिर आराम से शिकायत कीजिएगा, हमारी नौकरी ही ले लेंगे आप तो, भई हम लोग तो वैसे ही आने-जाने, कौन सा चुनाव हार जाएं क्या पता, आप ठहरे परमानेंट सरकार, गवर्नमेंट के स्टील-फ्रेम… चुनाव हार गये तो आप लोगों की  इस बिल्डिंग में हम तो घुस भी न पाएं…’

मंत्रीजी की आवाज जरा भी ऊंची नहीं थी, एकदम संतुलित स्वर में बात कर रहे थे।

सत्यजित के पाँवों तले चिकना वुडेन फ्लोर नहीं था, हड्डियों  से भरी ऊबड़-खाबड़ जमीन थी। दीवारों पर उम्दा लकड़ी की चमकीली मढ़ावट नहीं थी, जंगल की पहाड़िया का चितकबरापन था। आँखों की पुतलियों पर खुद निगाहों से ओझल रह कर, दूधिया रोशनी फैलातीं बत्तियों की चमक नहीं थी, घनघोर अंधेरा था। उनके आस-पास रूम-फ्रेशनर की भीनी-भीनी सुगंध नहीं थी, मृत देहों की आदिम दुर्गंध थी…

शिकार वाली तस्वीर का शेर जैसे जिन्दा हो गया था… सत्यजित को इतमीनान से निहार रहा था, खिला-खिला कर चबाने के मूड में लग रहा था।

‘ जाहिर है कि…’ मंत्रीजी जारी थे, ‘ आपके जैसे कंपीटेंट ऑफिसर की जरूरत तो आपके होम-काडर को भी होगी ही…’

हे भगवान, अब दिल्ली से रवानगी…वापस महाराष्ट्र…चलो ग़नीमत है…

लेकिन शेर ने अभी तो अंगड़ाई ही ली थी… ‘ हम खास रिक्वेस्ट करेंगे सीएम से कि आपकी कंपीटेंस और तजुर्बे का, आपकी इंटिग्रिटी का सही इस्तेमाल करें, गड़चिरोली में नक्सल चैलेंज के सामने आपके जैसा बहादुर और खानदानी अफसर ही टिक सकता है…’

पहली बार शेर हल्के से दहाड़ा, पहली बार मंत्रीजी के मुँह से आप की जगह तुम निकला ‘ आई विल पर्सनली एन्स्योर कि तुम्हें गडचिरोली में ही पोस्ट किया जाए…’

आवाज में फिर वही स्थिरता… ‘ऑफ कोर्स सीनियरिटी तो कंसीडर होगी ही, देयरफोर यू ऑट बी देयर इन ए सुपरवाइजरी कैपेसिटी, स्पेशल पोस्टिंग पर…बट गडचिरोली टु बी श्योर…’

इस भयानक दशा में भी सत्यजित को वह चुटकुला याद आ गया, ‘पिताजी शेर के सामने पड़ गये थे…अच्छा तो फिर क्या किया उन्होंने…उन्हें क्या करना था…जो कुछ किया शेर ने ही किया…’

लेकिन यहाँ तो कुछ करना ही पड़ेगा…वरना गड़चिरोली…नक्सल…

लेकिन, कैसे? क्या?

शेर खिलकौटी के मूड में ही बना हुआ था, ‘होम-काडर वापस भेज रहे हैं आपको…थैंक्यू सर भी नहीं कहेंगे क्या आप मिस्टर सत्यजित आईएएस?’

मिल गया, डूबते को जिस तिनके की तलाश थी, मिल गया, चुटकुले वाले पिताजी की नियति से निकलने का जरिया मिल गया…

‘गलती तो सेवक से हुई है, श्रीमंत, लेकिन इतना अनसिविल तो आपका यह सर्वेट सपने में भी नहीं हो सकता कि महाराज को सर कहे, आप जो कहें मंजूर है, लेकिन यह गुस्ताखी तो मुझसे मरते दम तक नहीं होगी कि श्रीमंत या महाराज के अलावा कोई संबोधन दूँ, आपके पीठ-पीछे भी ध्यान रहता है मुझे…’

मंत्रीजी जरा सा मुस्कराए, सेवक की हिम्मत बढ़ी, ‘मैं तो  सपने में भी आपको हिज हाइनेस कह कर ही याद करता हूँ, यौर हाइनेस…’

मंत्रीजी की मुस्कान थोड़ी और चौड़ी हुई, सर्वेंट की सिविलिटी कुछ और मुखर हुई, ‘ प्लीज पनिश मी इन वाटएवर वे…लेकिन श्रीमंत अपने श्रीचरणों से दूर न करें मुझे…गुस्ताखी तो हुई है, लेकिन बस एक लास्ट चांस…’

मंत्रीजी के मुस्कराते मौन के संकेत ग्रहण कर, सत्यजितजी का स्वरूप परिवर्तित हो रहा था। उनकी जबान पुचकार पाने को व्याकुल, लप-लप करती जीभ में बदलती जा रही थी, कंठ-स्वर कूं-कूं की निरीहता  ओढ़ चुका था। देह दो पैरों की मुद्रा त्याग कर चारों पैरों पर आ चुकी थी। शरीर के पार्श्व भाग में, बढ़िया कपड़े के पैंट में से दुम धीरे-धीरे निकल रही थी, और तेज-तेज हिल रही थी।

अब उनके पाँवों के नीचे हड्डियों से भरी ऊबड़-खाबड़ जमीन नहीं, चिकना वुडेन फ्लोर था। जंगल की पहाड़िया के चितकबरेपन की जगह दीवारों पर उम्दा लकड़ी की चमकीली मढ़ावट थी । आँखों की पुतलियों पर घनघोर अंधेरे की जगह, खुद निगाहों से ओझल रह कर, दूधिया रोशनी फैलातीं बत्तियों की चमक थी। आस-पास मृत देहों की आदिम दुर्गंध की जगह रूम-फ्रेशनर की भीनी-भीनी सुगंध थी।

मंत्रीजी देख रहे थे, सुन रहे थे। सत्यजित दुम हिलाते हुए अगली दोनों टाँगें उठाए, नृत्य कर उन्हें रिझा रहे थे, उनकी वंश-विरुदावली गाने में पेशेवर चारणों को पीछे छोड़ रहे थे। स्वयं मंत्रीजी का ऐसा गुणानुवाद कर रहे थे कि उनका क्रोध लाड़ में बदलता जा रहा था, वे मन ही मन कुछ अनौपचारिक भी हो रहे थे, उसी अनौपचारिक मुद्रा में उनके मुँह से लाड़ भरे शब्द निकले, ‘ क्यों ऐसी चापलूसी कर रहे हो, यार कि मेरे पेशाब की गंध को मलयानिल बनाए दे रहे हो, और कुछ नहीं तो अपने नाम का ही लिहाज करो…सत्यजित…’

इन लाड़ भरे शब्दों ने सत्यजितजी को आश्वस्त भी कर दिया और प्रगल्भ भी। कूं-कूं करते आए और श्रीमंत के श्रीचरणों में थूथन रगड़ने लगे। आश्वस्त प्रगल्भता की तरंग में उनके मुँह से जो शब्द निकल रहे थे, उन्हें सुन कर यह दृश्य, बोरियत या दिलचस्पी से देख रहे देवता उलझन में थे कि सत्यजित की स्पष्टोक्ति पर पुष्प-वर्षा करें या उनकी निर्लज्जता पर प्रस्तर-वर्षा। देवताओं की उलझन से बेखबर सत्यजित कुंकुंआए जा रहे थे— ‘ नाम के इन एकार्डेस ही तो चल रहा हूँ, यौर हाइनेस!  मेरा नाम न तो सत्यकाम है कि सत्य की कामना करूँ, न सत्यप्रिय कि इसे प्यार करूँ। मैं तो सत्यजित हूँ। जीत लिया है मैंने सत्य को, ऐसा जीता है कि इसका जो चाहूँ मैं, यार करूँ, प्राण ले लूँ या बलात्कार करूँ… आपका पेशाब क्या, शिट भी साफ करवाऊं…मजाल है सत्य की कि चूँ भी कर जाए…सत्य को जीत लेना काम है मेरा, सत्यजित नाम है मेरा…सत्यजित रा…’

वक्त रहते सँभल गये, सत्यजित। ‘राजन’ कहने वाले स्वर्गीय पिताश्री का लाड़ इस पल याद करना अभी-अभी, मुश्किल से कमाए गये महाराजश्री के लाड़ का कबाड़ कर सकता था। बात फौरन पटरी पर लाए, ‘सत्यजित…रा…मतलब, आप का, राजकुलदीपक आपश्री का चाकर…आपका सदा वफादार सेवक हूँ मैं श्रीमंत, सत्यजित हूँ मैं…विजेता सत्य का, अब इसका जो चाहे मैं यार करूँ, प्राण ले लूँ या बलात्कार करूँ…’

मंत्री-महाराज का लाड़ और उमड़ा, पैरों पड़े सत्यजित का सर सहलाया, बोले, ‘उठो, ठीक है, बहुत हुआ, दुम अंदर करो, आगे से ख्याल रखना, जाओ अब…’

‘जो हुकुम दरबार का..’ कहते कहते सत्यजितजी ने दुम पैंट के अंदर की, और लटकती जीभ मुँह के अंदर…कमरे से निकले, और जंगल में टहलते शेर की अदा से अपनी गुफा की ओर चले, जहाँ उस हेहर औरत को छोड़ आए थे। ऊपर वाले के पांव पर सर रगड़ आने के बाद, अब ट्रेनिंग-सार के दूसरे हिस्से पर अमल करने का समय था। अब नीचे वाले के सर पर पांव रगड़ने का समय था। अपने असली भगवान को तुष्ट कर चुकने के बाद ‘भगवान से डरिए’ कहने वाली इस हेहर को और उसके भगवान को ठीक कर देने का समय था। अब कुकुरावतार से शेरावतार में संतरण का समय था। अब इस कुतिया को चींथ कर फेंक देने का समय था।

‘ऐसा सबक सिखाऊंगा, कुतिया को कि सारी हैन-तैन सदा के लिए भूल जाएगी…’ कमरे में घुसते ही गुर्राए, ‘ यस, वेल…मैडम सिंसियर…’

लेकिन कुर्सी तो खाली थी, गुर्राहट मन ही मन दहाड़ में बदल गयी, यह मजाल, यह गुस्ताखी…अब तो साली को सस्पेंड करके ही दम लूंगा, ऐसा इनसबार्डिनेशन….यह हुकुम-उदूली…कह कर गया था कि यहीं मरी रहना…और उठ कर चल दी…’

अपनी कुर्सी पर बैठ, पीए को बुलाने के लिए इंटर-काम उठाया सत्यजितजी ने कि सस्पेंशन लेटर डिक्टेट करें कि सामने रखे कागज पर निगाह गयी…अरे यह तो वही है…इस कागज में मुँह चिढ़ाती, नाक पर अंगूठा रख कर लिल्ली-टिल्ली करती…यह तो मेरी मेज पर, बल्कि मुँह पर इस्तीफा मार कर चल दी…चल कहाँ दी… इस्तीफे के इस सड़े से कागज में से झाँक तो रही है…उन्हीं चमकीली, साफ आँखों से…टिल्ली-लिल्ली कर रही है, उसी काली-कलूटी रंगत में चमक रही है, चिढ़ा रही है मुझे…लिल्लली—टिल्लली…

गगनविहारी देवताओं को मजा आ गया। ऐसे दृश्य कहाँ रोज-रोज देखने को मिलते थे। ऊब और फटीग के शिकार बुजुर्ग देवता पुष्प-वर्षा की तैयारी में लग गये। युवतर देवगण तो उस कलूटी की जय-जयकार करते हुए उसकी चिढ़ोक्ति में अपना भी योगदान करने लगे…लिल्लली-टिल्लली..

शिकार जिसके पंजे से निकल गया, उस शेर की दहाड़ से गूंज उठा कमरा…लेकिन जिसे सत्यजित दहाड़ समझ रहे थे, वह देवताओं को भौं-भौं सुनाई दे रही थी…बेबस भौं-भौं जो बीच-बीच में तो कूँ-कूँ की तरफ भी बढ़ उठती थी…

सत्यजित मन भर कर दहाड़ या भौंक भी नहीं पाए थे कि एकाएक मेज पर रखी पैरघंटी बज उठी और अभी-अभी सबक सीख कर आए श्री सत्यजित तेजी से स्वरूपांतरण की प्रक्रिया में लग गये… भौं-भौं को उन्होंने तुरंत ही उचित स्वर-ताल वाली कूं-कूं में बदला। कुछ ही देर पहले जो अंदर की थी, वह दुम फिर से पैंट के बाहर धीरे-धीरे निकलने और तेज-तेज हिलने लगी।

सत्यजितजी श्रीमंत के कमरे की ओर लपक लिये।

 

 

 

 

 

 

 

रहनुमा जैसा मैं रचता…

रहनुमा जैसा मैं रचता…

उपन्यास लिख रहा हूँ, पता नहीं रहनुमा रचूँगा या नहीं, रचना चाहूँगा भी या नहीं। लेकिन इतना तय है कि ‘रहनुमा जैसा मैं रचता’  इस वाक्य में अधूरापन है, इसे पूरा करता है यह वाक्य कि रहनुमा जैसे मैं रचता।

यह जरूर है कि उपन्यास लिखे जाने में, यहाँ बात करने में अनुभव और उनकी स्मृतियाँ बहुत बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। इन स्मृतियों ने ‘अकथ कहानी प्रेम की…’ के सवालों से जूझने बल्कि सवालों को पूछने में भी भूमिका निभाई है। यादें और वे तेजरफ्तार बदलाव जो रोज मेरी यादों में जगह बना रहे हैं, मुझे अब उपन्यास  लिखने को कह रहे हैं। अखिलेश ने, एक बार मुझसे बात करते हुए,  ‘अकथ’ को अपने आपको खोजती किताब कहा था। उपन्यास उस खोज का अगला चरण है, और दरपेश सवाल उपन्यास के बारे में, खुद अपने बारे में सोच-विचार का बहाना है। सवाल वही कि मैं रचता तो कैसा रचता रहनुमा, कैसे रचता रहनुमा।

तुलसीदासजी ने मानस की शुरुआत खलवंदना से की है, अपन खलवंदना करें न करें, काल-वर्णना तो करनी ही होगी। काल याने बीतता समय, बल्कि भर्तृहरि की मार्मिक चेतावनी याद करें तो वह समय जिसमें हम बीत रहे हैं—कालो न यातो वयमेव याता:।

यह ऐसा काल है जिसमें साझे सपनों का अकाल  है। ऐसा वक्त है जब पहचानें आगे आ गयी हैं सपने पीछे छूट गये हैं, जो सपने हैं भी वे एक दूसरे से टूट गये हैं। अलग अलग पहचानें अलग अलग सपने। औरत का सपना अलग, दलित का अलग, अश्वेत का सपना अलग, मजदूर का अलग। जितनी पहचानें उतने सपने। जितने सपने उतने संघर्ष और आपस में वास्ता कोई नहीं या बस कहने भर को। एक तरफ है खगोलीकरण की वास्तविकता और दूसरी तरफ मुक्ति की, बेहतर दुनिया की लालसा, लेकिन इन दोनों के बीच संबंध बना पाने की कल्पना कमजोर पड़ती जा रही है।

यथार्थ को भी उसकी पूरी जटिलता में हम कितना देख पा रहे हैं, पता नहीं, लेकिन यह तो बहुत गहरे में लगता है कि  सपने जो देखा करती थीं, वे आँखें ही शायद हमने खो दी हैं, और सुधी जन आँखों को इस तरह खो देने का उत्सव मना रहे हैं। रोमन सिटीजनों के निर्देश पर उनके लिखी स्क्रिप्ट पर ग्लेडियेटर एक दूसरे के प्राण ले लेने तक लड़ रहे हैं, यह भूल कर कि लड़ाई असल में उस स्क्रिप्ट के खिलाफ होनी चाहिए जिस पर उनसे एक्ट कराया जा रहा है। और थ्योरी बताने वाले थ्योरी बता रहे हैं कि उचित यही है कि हर कोई अपनी पहचान की लड़ाई आप लड़े, स्थानीय संघर्ष करे—क्योंकि महावृत्तांत- ग्रांड नैरेटिव- तो सारी मुसीबत की जड़ ठहरा। सो, ग्लेडियटरों के बहते खून को देख कर चिल्ला रहे  खूंख्वार रोमनों  की मदोन्मत्त शाबाशियों में सुधी जन स्वर मिला रहे हैं, उत्सव मना रहे हैं,  किलक किलक कर घोषणा कर रहे हैं कि देखो जी देखो वो हुआ महावृत्तांत का अंत।

अब जिसे लड़ना है, अपनी पहचान की लड़ाई आप लड़े, किसी को हक नहीं कि किसी और की ओर से बोलने की जुर्रत कर सके। बड़े संघर्ष वहम हैं, व्यक्ति और नागरिक जैसी बातें तो बस बातें हैं, बातों का क्या, इन बातों में पड़ने की बजाय महावृतांत के अंत की खरीददारी में ही  समझदारी है। और समझदार को चाहिए कि बृहद कल्पनाओं के चक्कर से निकल कर अपनी जगह पर रहे, और वहीं करे जो भी करना है। याने अन्याय का अंत हो न हो इतिहास का अंत तो हो ही गया,  व्यवस्था बदले न बदले,  बदलाव की बात का मतलब तो ही बदल ही गया। यह कोई छोटा बदलाव है जी?

इस अंतोत्सवकारी किलक को सुना जा रहा है, इस किलक में लोग अपने अनुभवों की गूँज सुन पा रहे हैं ऐसी स्थिति बनने में  इस सचाई का योगदान नहीं नकारा जा सकता कि ईसापूर्व रोमन इतिहास के ग्लेडियटर स्पार्टाकस को रहनुमा के रूप में रचने बीसवीं सदी के हावर्ड फास्ट को अहसास हुआ कि  जिस सपने पर भरोसा कर उन्होंने अपना स्पार्टाकस रचा था, वह सपना सपना नहीं दु:स्वप्न साबित हुआ। जिस  देवता पर भरोसा किया था, उसने छल किया- दि गॉड दैट फेल्ड…

इस छल से उत्पन्न पीड़ा ने ही  अंतपुराण को प्रामाणिकता दी है। लेकिन न भूलें कि इस  अंतपुराण ने जहाँ व्यवस्थित रूप से वाणी पाई, जहाँ ग्रांड नैरेटिव के अंत का उत्साह अपनी तार्किक परिणति याने इतिहास के अंत की घोषणा में बदला, उस बयान में सारी चमक के बावजूद यह कसक भी थी कि तरह तरह के अंतों के बाद, इतिहास के अंत के बाद, आदमी और कुत्ते में ज्यादा फर्क नहीं रह जाने वाला है। न भूलें फ्रांसिस फुकुयामा की मशहूर किताब का पूरा नाम– दि एंड ऑफ हिस्ट्री एंड दि लास्ट मैन- इतिहास  का अंत और अंतिम मनुष्य…और याद करें, मनुष्य के लिए ‘इतिहास के अंत’ की उपलब्धि के बारे में फुकुयामा का यह दो टूक कथन-

 

“वे (मनुष्य मात्र) आर्थिक गतिविधियों के जरिए अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति तो कर लेंगे,लेकिन किसी संग्राम में अपने प्राण दाँव पर नहीं लगाएंगे। दूसरे शब्दों में वे फिर से उसी तरह पशु बन जाएंगे, जैसे कि इतिहास के आरंभ में थे। कुत्ते को रोटी मिल जाए तो वह सारा दिन धूप में सोता रह  सकता है, उसे परवाह नहीं कि दूसरे कुत्ते उससे बेहतर हालत में हैं या कहीं दूर दुनिया में किसी कुत्ते का शोषण हो रहा है”। ( दि एंड ऑफ हिस्ट्री एंड दि लास्ट मैन, पेंग्विन, लंदन, 1992, पृ. 311).

 

मैं अपने उपन्यास में रहनुमा रचूँ या न रचूँ, मनुष्य के कुत्ताकरण का उत्सव नहीं मना  सकता। रहनुमा रचा तो ऐसा रचूंगा, ऐसे रचूंगा कि वह मनुष्य के कुत्ते में बदल जाने की नियति की पड़ताल कर सके, उससे टकरा सके। राह दिखा सके या न दिखा सके, इतना जता सके कि इतिहास कूड़े का  ढेर नहीं कि जिस पर पर चढ़ कर बाँग दे कोई भी  मुर्गा और बन जाए मसीहा। इतिहास बंद गली का आखिरी मकान भी नहीं कि जहाँ पहुँच कर हम गठरी पटक कर पसर जाएं कि लो पहुँच गये इतिहास के अंत तक।

मेरा रचा रहनुमा रहनुमा होगा, केवल प्रतिनिधि नहीं। अपने वक्त की एक गौरतलब बात यह भी है  कि नेता और प्रतिनिधि पर्यायवाची मान लिये गये हैं। मान लिया गया है कि हमारी  इच्छाओं को जो कह दे, उनके लिए जो कुछ कर दे वह हमारा नेता है। रिप्रेजेंट करने और लीड करने में फर्क भुला दिया गया है,  और रिप्रेजेंट भी वही करे जो मेरे जैसा हो मेरी बिरादरी, मेरी पहचान मेरी आइडेंटिटी का हो। मेरी सांस्कृतिक पहचान और उसमें भी वही जो मेरा मन हो, मेरी इकलौती पहचान है।  तो जब मेरा प्रतिनिधित्व ही मेरा नेतृत्व है तो होना तो यही है, होना तो यही था कि

 

चलता हूं थोड़ी दूर, हर इक तेज रौ के साथ

पहचानता नहीं हूं अभी, राहबर को मैं

शाइर को जो कसक है रहनुमा को न पहचानने की, उस कसक को शब्द देने में ही उस सवाल का जबाव मिलने की मुझे उम्मीद है जो दिये गये विषय-‘रहनुमा मैं जैसा रचता’-  में मैंने जोड़ा है- रहनुमा मैं जैसे रचता…कोशिश करेगा मेरा उपन्यास कि रौ, राह और राहबर, रहनुमा के आपसी रिश्तों की पड़ताल कर सके…राहरौ और राहबर में फर्क कर सके। मैं ध्यान रखूंगा कि रहनुमा बनाने के चक्कर में उस पात्र को अपनी मनचीती सोच का निर्जीव प्रतीक न बना दूँ, मनुष्य का झंडाकरण न कर दूँ। रहनुमा हो या मसीहा, मनुष्य अंतत: मनुष्य है—उसे रहनुमा बनाने के चक्कर में उसकी मनुष्यता की छुट्टी कर देना काफी अमानुषिक हरकत है, जिससे बचना चाहिए उपन्यास में भी, उपन्यास के बाहर भी। अपने रचना-संसार में प्रजापति मैं भले ही होऊं, ‘यथारोचते’ की महिमा मुझे भले ही हासिल हो, लेकिन उस महिमा की भी मर्यादा है। रहनुमा रचूंगा या नहीं पता नहीं लेकिन कोशिश रहेगी कि किसी भी पात्र को रचते समय महिमा और मर्यादा का संतुलन बना रहे।

इतिहास और महावृत्तांत के अंत के उत्सव मनाने का नहीं, यह समय, यूरोकेंद्रित आधुनिकता की अहम्मन्यता को चुनौती देती, परस्पर संवादरत आधुनिकताओं और उनसे संभव हो सकने वाले नये यूनिवर्सलिज्म की खोज का;  नये महावृत्तांत की खोज और बखान का समय है। मेरा रचा रहनुमा इस चेतना से ही उत्पन्न होगा।  अपने देश के संदर्भ में  वह राज नॉस्टेल्जिया के इलीट रूपों से भी टकराएगा और पॉलिटिकली करेक्ट रूपों से भी क्योंकि वह जानेगा कि आधुनिकता कोई वायरस नहीं जो यूरोप में पैदा हो कर फैलता चला गया। वह जानेगा कि चीनियों को लाइलाज अफीमची, अफ्रिकियों, आज्तेकों और इंकाओं  को जन्मजात असभ्य बल्कि अमानुष और भारतीयों को सतत रूप से जड़, विधवादाहक लोगों के रूप में इतिहास देवता ने नहीं उपनिवेशवाद के राक्षस ने गढ़ा  है।  वह जानेगा कि  उपनिवेशवाद की सबसे बड़ी सफलता यही है कि भारत जैसे देश में  राज नॉस्टेल्जिया केवल ‘प्रतिक्रियावादियों’ का ही अग्निभक्षी क्रांतिकारियों का भी प्रिय शगल है। वह जानेगा कि  गलत रिसर्च करना कैसे सिखाया जाता है और सही रिसर्च करना कैसे सीखना पड़ता है।

और सबसे बड़ी बात यह कि मेरे सोचे किसी पात्र को रहनुमा बनाएगी वह हिम्मत कि वह  गाँधी की तरह घोर अलोकप्रिय फैसले ले सके;  कह सके कि एक चौरी-चौर कांड काफी है  देशव्यापी आंदोलन को वापस ले लेने के लिए। जो अपने नैतिक संकट और विफलता-बोध को छुपाने की बजाय उससे टकरा सके, अपने साथियों को न्यौता दे सके कि वे भी टकराएं उस नैतिक संकट से, और जो आएं उन्हें साथ लेकर निकल सके उन सवालों के जबाव खोजने – ‘जो अब तक पूछे ही नहीं गये’।

Día de los Muertos

नवंबर की पहली और दूसरी तारीख मेक्सिको में दिया दे लॉस मोरता याने मृतकों के दिन के तौर पर मनाई जाती है। काफी धूम-धाम से लोग अपने मृतकों को याद करते हैं, उनकी याद में आँसू बहाते हैं, और उन्हें उनके पसंदीदा व्यंजन, वाइन आदि परोसते हैं। जैसे अपने यहाँ दिवाली पर खांड की मिठाइयां बनाई जाती हैं, वैसे ही यहाँ मृतकों की याद में खाँड की, चीनी की खोपड़ियाँ बनाते हैं, उपहार के तौर पर मित्रों को देते हैं, और अपने प्रिय जनों के नाम लिख कर उन्हें अर्पित करते हैं।

वैसे तो सारे मेक्सिको में यह ‘त्यौहार’ जोर- शोर से मनाया जाता है, लेकिन कुछ इलाकों में इसकी धूम बहुत ही ज्यादा होती है। लोग कब्रिस्तान जाते हैं, रोते भी हैं, नाचते भी हैं, वाइन पीते हैं, आँसू बहाते हैं। कुछ जगहों पर कब्रिस्तान से लेकर घर तक गेंदे की पत्तियों से राह बनाते हैं, ताकि इतने दिनों बाद मृतक घर का रास्ता न भूल जाएं। जो ऐसा नहीं कर पाते, वे गेंदे के फूल तो मृतकों को अर्पित करते ही हैं। गेंदा मेक्सिको में मृतकों का फूल है।

जाहिर है कि यह ईसाइयत के आगमन के पहले का चलन है, और सेमेटिक धर्मों के उदय के पहले की हर सभ्यता में किसी न किसी रूप में मिलता है। मृत्यु को जीवन का विरोधी नहीं, पूरक तत्व: जीवन की अपरिहार्य परिणति, बल्कि जीवन के सतत प्रवाह में एक और मोड़े मानने वाली सोच के लिए स्वाभाविक ही है कि प्रिय से बिछुड़़ने के अपरिहार्य मानवीय दुख के बावजूद मृत्यु और मृतकों दोनों से संवाद बनाने की कोशिश करता रहे। नचिकेता को जीवन के परम रहस्यों का बोध मृत्यु के देवता यम ने ही कराय़ा था।

मेक्सिको में दिया दे लॉस मोरता की तारीखें -पहली और दूसरी नवंबर- पारंपरिक आज्तेक काल-गणना पर ही आधारित हैं। रोमन कैथॉलिक ईसाइयत ने इस परंपरा को स्वीकृत और समाहित कर लिया है।

इन दो दिन मेक्सिको में छुट्टी का माहैल रहता है। अफसोस कि मुझे एक तारीख की दोपहर को ही रवाना हो जाना है,  सो मृतकों के श्राद्ध के इस राष्ट्रीय पर्व का साक्षी नहीं बन पाऊंगा, लेकिन उस भावना को तो महसूस कर ही रहा हूं जिस के साथ यह पैगन सभ्यता प्रयत्न करती है, मृत्यु को स्वीकार करने का, औऱ मृतकों को अस्तित्वहीन मानने की बजाय मृत्यु को ही एक वैकल्पिक अस्तित्व मानने का।

आज कालेकियो में मेरी “का्ंफ्रेस” ( याने बातचीत) थी, माहौल में दिया दे लॉस मोरता था। मृत्यु का आतंक नहीं,मृतकों के प्रति कृतज्ञता और प्यार के साथ संवाद कायम करने का प्रयत्न। जिस कमरे में बातचीत उसके ठीक बाहर ही दिया दे लॉस मोरता की झाँकी लगी थी, स्वर्गीय प्रोफेसरों के चित्रों के सामने उनकी पसंदीदा वाइन परोसी गयी थीं. धूप-बत्ती जल रही थी।

लाइब्रेरी में कालेकियो के पहले लाइ्ब्रेरियन के चित्र की झाँकी थी, साथ ही ऐन उजले दुल्हन जैसे कपड़ों में मृत्यु की छवि खड़ी थी, एक और छवि सोफे पर विराजमान थी। चीनी की बनी खोपड़ियां  तो थी हीं, याने मृत्यु के जिन प्रतीकों से भय होता है, यहाँ उनसे सहज संवाद का जतन था।

क्या पैगन सभ्यताएं मृत्यु के बारे में अधिक संवेदनशील, अधिक समझदार नहीं है? मेक्सिको से लेकर आयरलै़ड तक. जापान से लेकर भारत तक?

 

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