RTI to Ministry of Home Affairs Regarding Possible Destruction of Historical Records

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Here are  the news reports which prompted me to file the RTI detailed below:

http://timesofindia.indiatimes.com/india/Following-PM-Modis-directive-home-ministry-destroys-1-5-lakh-files/articleshow/37093548.cms

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Friends:

There have been reports in the media suggesting that a huge number of files in the Ministry of Home Affairs have been destroyed, ostensibly in the interest of efficiency and space-management. According to the reports these include the file containing records of the cabinet meeting which took place just before the news of Gandhiji’s assassination was formally announced.

The GOI usually follows a record retention schedule. Moreover in the case of files containing documentation of the historically crucial period just after independence, it must be ensured that the documents must be treated as sacrosanct, and must be preserved as such, change of government notwithstanding. Historians might differ in their interpretations of momentous events like the assassination of Gandhiji (1948) or imposition of emergency (1975), but for any sane debate and contest of ideas, preservation of and access to official documents and records is a must.

Unfortunately, there is not much clarity in the instant case on whether the digital copies of these important files have been made, or if these have been shifted to National Archives or any similar institution. It is also not clear how a historian or any interested citizen can get access to these important documents.

Surely, you would agree, these vital issues concern each and every citizen and also the nation as such. Such documents which contain the raw material of history cannot be allowed to be obliterated.

Keeping this in mind, I have filed an application with the ministry of home affairs under the RTI act.

In the RTI, I have sought the following information–

1   1. As per the recent newspaper reports, is it true that a large number of files and documents pertaining to Ministry of Home Affairs have been destroyed in the last few weeks, i.e. after May 20th 2014?

2. Were these files and documents destroyed as per the extant Record Retention Schedules of Government of India?

3. Have the important files and documents been identified and retained?

4. Have the important files of permanent nature been retained in digital form or any other form?

5. Please inform where have the important files and documents of permanent nature been sent

6. Have these files and documents been sent to National Archives of India, Nehru Memorial Museum and Library and other libraries?

7. In case information contained in these important files and documents are to be retrieved in future for study and research purposes, where should one go and find them?

8. Please provide a copy of the order and file noting vide which the instruction for destroying records was issued to the officials of Ministry of Home Affairs, Government of India.

 

पैरघंटी के बारे में….

3 जून के ‘जनसत्ता’ में श्री अरुण नारायण की एक टिप्पणी छपी है, ‘सृजन के सरोकार’। लिखते हैं, ” सभी जानते हैं कि दर्जनाों हत्याओं की जिम्मेदार रही रणवीर सेना के ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या के बाद बिहार में कैसा तांडव हुआ था और सरकार में शामिल भाजपा के एक मंत्री ने ब्रह्मेशवर मुखिया को ‘गांधीवादी’ का तमगा दिया था। लेकिन बीते एक-दो सालों की की रचनाओं में भी ये संदर्भ दर्ज करना शायद ही किसी को जरूरी लगा।”

कुछ संतोष के साथ और कुछ असंतोष बल्कि खीझ के साथ यह टिप्पणी लिख रहा हूँ। संतोष इस बात का , कि एक वर्ष पहले प्रकाशित मेरी कहानी ‘पैरघंटी’ ( ‘नया ज्ञानोदय’ जून, 2013) यह संदर्भ दर्ज करती है।
असंतोष और खीझ इस बात की कि किसी पाठक के ध्यान में यह बात दर्ज ही नहीं हुई, कम से कम मेरे जानते…
रचनात्मक कहानी और अखबारी कहानी (न्यूज स्टोरी) एक ही ढंग से न लिखी जाती है, न पढ़ी जानी चाहिए…
‘पैरघंटी’ के ‘उच्चकुलोद्भव, उच्चपदस्थ भोजपुरी भाषी’ अधिकारी श्री सत्यजित राजन, अपनी अधीनस्थ एक ओबीसी महिला की ‘धृ्ष्टता’ के प्रसंग में स्मरण करते हैं ‘मुखियाजी’ का…उसे सबक सिखाने के लिए कसम खाते हैं, ‘कुछ ही महीने पहले ब्रह्मलीन हुए मुखियाजी’ की…

साहित्य में चीजें साहित्यिक ढंग से ही दर्ज होनी चाहिएं…थोड़ी संवेदना और सचेतनता पाठक को भी साधनी चाहिए…

“उठ खड़ी हुई थी , वह,सो भी लुंज-पुंज नहीं, आँखों में आँसू भर कर नहीं। सीधी रीढ़ के साथ, सचाई भरी, सहज ही चमकती आँखों के साथ…इसे तो ठीक करके ही रहूँगा…एकाएक सत्यजितजी ने मन ही मन अरसा पहले वैकुंठवासी हुए पिताश्री के साथ-साथ कुछ ही महीने पहले ब्रह्मलीन हुए मुखियाजी की भी कसम खाई, और साथ ही वे अपनी धरती से भी जुड़ गये, यह बदतमीज औरत भी तो उसी धरती की थी… ‘चलतानी कहुँवा, बइठल रहीं, रउआ से त अभी ठीक से बात करि के बा.., रिमैन सीटेड, मिनिस्टर साहब से मिल कर आता हूँ फिर बताता हूँ तुम्हें कि कैसे बात की जाती है, सीनियर अफसर से…भगवान से डरिए…यू ऐंड यौर भगवान…माई फुट…’”

नेहरू की छाया बहुत लंबी है….

लंबी छाया नेहरू की

 

वह ऐसी उमस भरी दोपहर थी,  जिसमें मांएं बच्चों को डाँट-डपट कर सुला दिया करती थीं कि  गली में खेलने ना निकल जाएं….वह नींद ऐसी ही डाँट से लाई गयी नींद थी….

सोते-जागते कानों में दूर से अजीब सी आवाजें आ रही थीं—‘जलाओ घी के…मर गया….’। यह दूसरी आवाज तो दूर से नहीं आ रही, यह तो जीजी (मां)  की आवाज है, ये तो जीजी  के हाथ हैं जो झकझोर रहे हैं, ‘उठ परसोतम, जल्दी उठ, सुन तो….नेहरूजी नहीं रहे….’ यह जो गाल पर आँसू टपका है, यह मुश्किल से ही रोने वाली जीजी की आँख में सँजोए हुए आँसुओं में से एक है….

कुछ ही देर बाद बाबूजी दुकान बढ़ा कर वापस आ गये थे….चाभी का झोला खूंटी पर लटका कर, पस्त पड़ गये खाट पर…

घी के (दिए)  जलाने का आव्हान करती आवाज का तर्क तो तभी समझ आ गया था, वह मोहल्ला हिन्दू महासभा का गढ़ ठहरा…लेकिन जीजी-बाबूजी के दुख को समझने की कोशिश आज तक जारी है। वे कांग्रेस के वोटर नहीं, विरोधी ही कहे जाएंगे… नेहरूजी की कई बातों से उन्हें चिढ़ होती थी, चीन से हारने की वजह भी तो नेहरू की नादानी ही थी…फिर भी उस रात घर में चूल्हा नहीं जला….जैसे घर का कोई बुजुर्ग ही चल बसा था…तीन दिन तक पूजा नहीं हुई…सूतक माना गया….

बहुत से लोग भारतीय जन-मानस में गांधीजी की उपस्थिति को तो स्वाभाविक मानते हैं, क्योंकि वे घोषित रूप से धार्मिक, पारंपरिक व्यक्ति थे, लेकिन नेहरू? उनके बारे में बताया जाता है कि उनका सोच-विचार, मन-संस्कार तो विलायती था—क्या लेना-देना उनका भारतीय जन-मानस से…

तो, क्या सत्ताईस मई उन्नीस सौ चौंसठ को क्या वह घर अनोखा था, जहाँ उस रात चूल्हा नहीं जला, तीन दिन तक सूतक माना गया; या वह देश के करोड़ों घरों जैसा साधारण घर ही था…क्या खो दिया था उस दोपहर, इन तमाम घरों ने?

आज,पचास बरस बाद एक बात तो लगती है कि हम में से बहुतेरे मानवीय संवाद की विधि ही नहीं समझते, इसीलिए उस जादू को नहीं समझ पाते जो गांधी और नेहरू जैसे विपरीत ध्रुवों पर खड़े दिखने वाले व्यक्तित्वों के बीच संवाद और विवाद का रिश्ता संभव करता है। औद्योगीकरण से लेकर संगठित धर्म तक के  सवालों पर अपने और जवाहरलाल के बीच मतभेदों से गांधीजी खुद भी नावाकिफ तो नहीं थे, फिर भी क्या कारण था, उनकी इस आश्वस्ति का कि, “स्फटिक की भाँति निर्मल हृदयवाले जवाहरलाल के हाथों देश का भविष्य सुरक्षित है”।

केवल आश्वस्ति नहीं, आग्रह, इस हद तक कि कांग्रेस संगठन में नेहरू की तुलना में पटेल के पक्ष में व्यापकतर समर्थन को जानते हुए भी स्वयं पटेल पर प्रभाव डाला कि नेहरू के नेतृत्व में काम करना स्वीकार करें। याद करें कि ग्राम-स्वराज्य के  सवाल पर  ‘असाध्य मतभेदों’  की बात का सार्वजनिक रेखांकन गांधी ने ही किया था। आज लगता है कि वह बहस चलनी चाहिए थी, उससे कतरा जाने की बजाय, दोनों पक्षों को, खासकर नेहरू को उलझना चाहिए था। ऐसा  होता तो दोनों पक्षों-गांधीजी और जवाहरलालजी- को ही नहीं, सारे समाज को बुनियादी सवालों पर अपनी सोच बेहतर करने में मदद मिलती।

खैर, जनमानस के साथ संवाद की कसौटी पर,एक लिहाज से नेहरू गांधीजी से भी अधिक प्रेरक व्यक्तित्व हैं। उनके मुहाविरे में ‘धार्मिकता’ नहीं थी, रहन-सहन में ‘पारंपरिकता’ नहीं थी, हिन्दी-उर्दू बोलते बखूबी थे, लेकिन गांधीजी की तरह कभी अपनी मातृभाषा में लिखा नहीं। ‘लेखक’ अंग्रेजी के ही थे; और ‘धर्मप्राण’ भारतीय जन-मानस से संवाद इतना गहरा था कि बेखटके बांधों और कारखानों को ‘नये भारत के नये तीर्थस्थल’ कह सकें।

गांधीजी को अपने ‘सत्य के प्रयोगों’ का सार जीवन-तप से मिला, नेहरू ने अपने जीवन-तप में ‘भारत की खोज’ की। यह केवल एक पुस्तक का शीर्षक नहीं, ईमानदार, विनम्र आत्म-स्वीकार था, अपनी न्यूनता का। मुंह में चांदी का चम्मच लेकर जन्मे जोशीले नौजवान को अहसास कैंब्रिज से लौटते ही हो गया था कि उसकी विशेषाधिकार-संपन्न सामाजिक स्थिति ने उसे अपने समाज से कितना काट दिया है, उसे भारत मिल नहीं गया है, उसे खोजना है। ‘भारत की खोज’ नेहरू के लिए अपनी जगह की तलाश भी थी।

‘आत्मकथा’ में कितने चाव और गर्व से लिखा है नेहरू ने, ‘ कांग्रेस के जन-संपर्क कार्यक्रम के तहत, मानव-जाति को ज्ञात हर यातायात-साधन का उपयोग किया’। मीलों पैदल चले, साइकिल चलाई, नाव पर बैठे, घुड़सवारी तो बचपन से करते आए थे, बैलगाड़ी, ऊंटगाड़ी की भी सवारी की….और देखा, ‘उन हताश, पीड़ित किसानों को जिन्होंने सारी तकलीफों और ज्यादतियों के बीच अपनी इंसानियत को बचाए रखने का कमाल कर दिखाया है’;  समझा और आत्मसात किया इस सत्य को कि ‘गांधीजी इन किसानों को उपदेश नहीं देते, वे इनकी तरह सोच पाते हैं, और इसलिए इनसे बातचीत ही नहीं, ऐसा गहरा संवाद कर पाते हैं, जिसके जादू को हम जैसे पार्लर सोशलिस्ट समझ ही नहीं सकते’।

इस जादू को समझने के तप ने ही ‘भारत की खोज’  का रूप लिया, यह खोज केवल वर्तमान की नहीं थी, फिर भी, यह किताब कोई इतिहास-ग्रंथ नहीं, बल्कि लेखक की आत्म-कथा का एक रूप है। यह किताब बेधड़क रूप से आधुनिक एक व्यक्ति द्वारा अपने समाज की परंपरा से संवाद की कोशिश, अपने समाज की आत्मा की खोज है। अपने आत्म में समाज की आत्मा, और उस समाज की परंपरा में अपनी जगह की तलाश है।

इस खोज में ही उन्होंने खुद को यह जानते पाया कि ‘भारत माता की जय’ के नारे में, ‘वंदे मातरम’ के अभिनंदन में जो मां शब्द  है वह संकेतक है वह देश के इतिहास, भूगोल, संस्कृति, विरासत सब कुछ का, लेकिन सर्वोपरि देश के साधारण इंसान का…।  ‘ एक तरह से आप स्वंय हैं भारत-माता’— यही कहते थे नेहरू बारंबार अपने श्रोताओं से। गांधीजी के अद्भुत शब्द-चित्र का ‘आखिरी आदमी’ है भारत-माता, उसकी आँख का आखिरी आँसू पोंछना ही होगा भारत-माता की सच्ची जय…।

‘भारत की खोज’ के ही प्रसंग में नेहरू ने अपनी धर्म-दृष्टि स्पष्ट की थी, “गैर-आलोचनात्मक आस्था और तर्कहीनता पर निर्भर” विश्वासों से वे असुविधा महसूस करते थे, ऐसे विश्वास चाहे ‘हिन्दू’ धर्म के नाम से पेश किये जाएं, चाहे ‘इस्लाम’ या ‘ईसाइयत’ के नाम से। लेकिन वे जानते थे कि, “धर्म मानवीय चेतना की किसी गहरी जरूरत को संतुष्ट करता है…मानवीय अनुभव के उन अज्ञात क्षेत्रों की ओर ले जाता है, जो समयविशेष के विज्ञान और अनुभवपरक ज्ञान के परे हैं”। इसीलिए संगठित धर्म के निजी अरुचि के बावजूद आक्रामक किस्म के धर्म-विरोध में नेहरू की कोई दिलचस्पी नहीं थी।

प्रचलित धार्मिकता का विकल्प वे प्राचीन भारत और प्राचीन यूनान की प्रकृति-पूजक, बहुदेववादी (उनके अपने शब्दों में ‘पैगन’) संवेदना और उसके साथ ही ‘जीवन के प्रति नैतिक दृष्टिकोण’ में पाते थे। उन्होंने गांधीजी का सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान ‘साधन-शुचिता’ पर बल को ही माना। उन्होंने रेखांकित किया कि ‘ सत्य पर एकाधिकार के किसी भी दावे से पैगन अवधारणा का मूलभूत विरोध है”। एक अमेरिकी पत्रकार ने जब उनसे कहा कि ‘ धीरे धीरे मुझे लगने लगा है कि किसी भी न्यूज-स्टोरी के स्याह-सफेद ही नहीं, और भी रंग होते हैं,’  तो नेहरू ने छूटते ही कहा था, ‘ वेलकम टू हिन्दू व्यू ऑफ लाइफ’।

इन सब प्रभावों और संवादों के साथ भारत की, और खुद अपनी खोज करते नेहरू ने और उनके मार्गदर्शक गांधीजी और साथी पटेल तथा दीगर नेताओं ने सेकुलरिज्म के शब्द-कोशीय अर्थ पर नहीं, भारतीय अनुभव से कमाए गये अर्थ पर बल दिया। सार्वजनिक जीवन तथा राजतंत्र में पंथ-निरपेक्षता की वकालत की, सेकुलरिज्म का अर्थ अल्पसंख्यकों के मन में सुरक्षा-बोध भरना माना। संविधान-सभा में अल्पसंख्यक-संरक्षण के बारे में विचार करने के लिए बनी समिति के अध्यक्ष नेहरू नहीं पटेल थे।

नेहरू ने गलतियां भी कीं; बड़े लोगों की गलतियाँ बड़ी भी होती हैं, महंगी भी। लेकिन, उन सारी गलतियों (जिनकी चर्चा होती ही रहती है, होनी ही चाहिए) के बावजूद, सच यही है कि नेहरू द्वारा अपनाई गयी मूल दिशा सही थी। गांधीजी  सच्चे अर्थों में मौलिक चिन्तक थे। नेहरू ने ऐसा कोई दावा परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से नहीं किया कि वे मानवीय स्थिति के प्रसंग में कोई नितांत मौलिक अस्तित्वमीमांसामूलक या ज्ञानमीमांसामूलक प्रस्थान प्रस्तुत कर रहे हैं। गांधीजी सत्य के प्रयोग कर रहे थे, राजनैतिक आंदोलन उनकी आध्यात्मिक खोज का अंग था। नेहरू भारत की और अपनी जगह की खोज कर रहे थे।

स्वाधीनता के बाद, नेहरू, पटेल और उनके साथियों के सामने चुनौती स्वाधीन देश में लोकतांत्रिक न्याय के साथ आर्थिक विकास संभव करने की थी; एक सनातन सभ्यता को आधुनिक राष्ट्र-राज्य का रूप देने की थी। इसके लिए संवैधानिक परंपराओं और संस्थाओं की महत्ता का व्यावहारिक रेखांकन सबसे बुनियादी था, और नेहरू ने यह करने की कोशिश की;  बेशक सफलता और असफलता के साथ। इसी से संबद्ध खोज थी विश्व-रंगमंच पर भारत की प्राचीनता, विविधता, और अंतर्निहित संभावना के अनुकूल भूमिका तलाशने की। यहाँ भी कुछ कामयाबी, कुछ नाकामयाबी— यह स्वाभाविक नहीं क्या?

उनकी नीतियों का मूल प्रस्थान मध्यम-मार्ग था। भगवान बुद्ध द्वारा प्रतिपादित मध्यमा प्रतिपदा। इसीलिए उन्हें समाजवादियों की भी आलोचना का सामना करना पड़ा, और मुक्त-व्यापार वालों की भी। उनकी मिश्रित अर्थव्यवस्था को उस चुटकुले का मूर्त रूप बताया गया कि, ‘ मैडम, अपने मिलन से होने वाली संतान को कहीं रूप मेरा और बुद्धि आपकी मिल गयी तो’?

लेकिन रास्ता तो यही था । सोवियत संघ के विघटन से लेकर पिछले दिनों जब बराक ओबामा को कहना पड़ा कि पूरी छूट तो मार्केट फोर्सेज को नहीं दी जा सकती।

रास्ता तो यही है, एक बार फिर दिख रहा है। चुनाव में शानदार हार के बाद, कांग्रेस के हार्वर्ड-पलट नीतिकार कह रहे हैं कि नेहरू की ओर लौटना होगा— जाहिर है कि जीत हुई होती तो नेहरू की ओर लौटने की बात तक नहीं होती।  खैर, कांगेस की बात तो ठीक है लेकिन…।

मेरे मित्र नीलांजन मुखोपध्याय ने बढ़िया किताब लिखी है नये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर। उन्होंने ठीक ही नरेन्द्र मोदी को भारत का पहला ‘नॉन नेहरूवियन’ प्रधानमंत्री पदाकांक्षी कहा है। लेकिन, इन ‘नॉन नेहरूवियन’ पदाकांक्षी के प्रधानमंत्री मनोनीत हो जाने के बाद तो उनकी भाषा भी नेहरूवियन होने की कोशिश कर रही है, और विदेश-नीति भी, सैनिकों के सर के बदले सर काटने की बातें करने वालों के मन-मयूर शपथ-ग्रहण में ही पाकिस्तान के प्रधान-मंत्री के आने की बात से नृत्य कर रहे हैं।

गांधी-नेहरू की विरासत केवल कांग्रेस तक वाकई सीमित नहीं है, चाहें तो कह लें, वह मजबूती है, चाहें तो कह लें कि मजबूरी है भारत नामके राष्ट्र-राज्य के लिए ।

जवाहरलाल नेहरू की पार्थिव देह तो सत्ताईस मई उन्नीस सौ चौंसठ को शांत हो गयी लेकिन उस देह की छाया बहुत लंबी है, वह भारत के पहले ‘नॉन नेहरूवियन’ प्रधानमंत्री पर भी पड़ ही रही है।

 

 

‘आप’ और अरविन्द केजरीवाल के बारे में…..

‘आप’ फिर खबरों में है, जनता से माफी मांगने के कारण, और नितिन गडकरी  से माफी ना माँगने के कारण….

‘आप’ से उम्मीदें बहुत हैं, लेकिन आशंका भी है कि कहीं अपने दुश्मन आप ना साबित ना हो जाएं…..

लोकसभा चुनाव से पहले प्रकाश रे को यह इंटरव्यू दिया था, ‘प्रभात-खबर’ के लिए….आज यहाँ लगा रहा हूँ, इस उम्मीद में कि शायद अब ‘आप’ के मित्र इसे शांतचित्त से पढें-गुनें…

 

 

प्रश्न- अलग अलग जातीय, क्षेत्रीय, आर्थिक-सामाजिक पृष्ठभूमि के लोग केजरीवाल की पार्टी से जुड़े हैं और जुड़ रहे हैं। क्या इसे भारतीय राजनीति के नये सूत्रपात के रूप में देखा जा सकता है, जहाँ अभी तक राजनीतिक दल किसी सामाजिक पहचान और उस पर आधारित समर्थन पर निर्भर हैं।

‘आप’ परिघटना का सर्वाधिक सार्थक और शुभ पहलू यही है कि यह पार्टी हमारे लोकतंत्र की ‘सहज और स्वाभाविक’ मान ली गयी विकृतियों को दूर करने का प्रयत्न करती दीख रही है। लोकतांत्रिक मूल्यों और सुशासन के लिए जनता को संगठित करने के बजाय किसी न किसी सामाजिक-धार्मिक या क्षेत्रीय अस्मिता के नाम पर राजनीति करने वालों की कृपा से नागरिक मुद्दे पीछे छूटते जा रहे हैं, और समाज में परस्पर अविश्वास का वातावरण बनता जा रहा है। सच तो यह है कि भारत-धारणा- आइडिया ऑफ इंडिया- ही खतरे में महसूस होने लगी है। ऐसे में  ‘आप’ के प्रति जनता का उत्साह इस बात की सूचना है कि भारत-धारणा राजनेताओं और बुद्धिजीवियों के लिए भले ही बस एक कल्पना भर हो, आम लोगों के लिए जीवन-मरण का सवाल है। लोग एक विश्वसनीय विकल्प के लिए बेकल हैं जिसके जरिए वे लोकतांत्रिक मूल्यों के आधार पर संचालित, जबावदेह सरकार हासिल कर सकें। नेता लोग किसी भी बात पर स्टैंड लेते समय अपने वोट-बैंक की चिंता करते हैं, लोकतांत्रिक मूल्यों और मर्यादाओं की नहीं। बुद्धिजीवी भी सार्वभौम लोकतांत्रिक मूल्यों की परवाह किये बिना, अपनी अपनी पसंदीदा अस्मितावादी राजनीति को जायज ठहराते हैं। जबावदेही का आलम यह है कि चुनाव के बाद नेताओं के दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं। भ्रष्टाचार और वीआईपी संस्कृति के विरोध की जिनसे उम्मीद थी, वे ही कमजोरों के सशक्तिकरण के नाम पर इन व्याधियों के सबसे बड़े पैरोकार बन  गये हैं।  इज्जत और सुरक्षा हरेक नागरिक का  अधिकार नहीं बल्कि वीआईपी का विशेषाधिकार बन गयी है।

‘आप’  के प्रति उत्साह प्रचलित राजनीतिक संस्कृति के प्रति असंतोष से ही उपजा है। यह दूसरे दलों के लिए स्वागत योग्य चेतावनी है। आखिरकार कुल चार विधायकों की कमी के बावजूद, दिल्ली में सरकार बनाने से इंकार कर देने के भाजपा के ‘नैतिक’ फैसले के बीच ‘आप’  की सफलता में ध्वनित होता जनता का यह असंतोष और उत्साह ही था। सवाल, लेकिन यह है कि यह ‘नयापन’ कितने दिन चल पाएगा।

प्रश्न- केजरीवाल का तीव्र विरोध राजनैतिक विरोध कहीं उनकी पार्टी की बढ़ती लोकप्रियता से उपजी तल्खी तो नहीं है? उन्हें मिल रहे जनसमर्थन का कोई तो ठोस आधार होगा?

केजरीवाल को मिल रहे जनसमर्थन के वास्तविक आधार की ओर मैं, आपके पहले प्रश्न का उत्तर देते हुए संकेत कर ही चुका हूँ। यह आधार है विकल्प की संभावना में आम हिन्दुस्तानी का विश्वास और ‘आप’ के रूप में उसे पा लेने का उत्साह। विरोध का कारण भी यही है। भाजपा खासकर तल्ख है क्योंकि उसे डर लग रहा है कि कहीं ‘आप’ के कारण, आने वाले चुनावों में उसकी हालत ‘ हाथ तो आया लेकिन मुँह नहीं लगा’ वाली ना हो जाए। जिस असंतोष को भुना कर सत्ता में आने के सपने भाजपा देख रही है, उसे ‘आप’ की झोली में जाते देख तल्खी स्वाभाविक ही है। लेकिन,  दूसरे दल भी चिंतित हैं क्योंकि  ‘आप’ किसी एक पार्टी के लिए नहीं, समूची राजनैतिक संस्कृति के लिए चुनौती के रूप में उभरी है।

प्रश्न- अन्ना आंदोलन से लेकर दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफे तक की समयावधि में केजरीवाल के विचार और व्यवहार में क्या बदलाव आए हैं? उनका और उनकी पार्टी का राजनीतिक भविष्य क्या हो सकता है? किसी भी मौजूदा गठबंधन से नहीं जुड़ने के उनके फैसले को किस रूप में देखा जा सकता है?

        अन्ना आंदोलन के दौरान, अन्ना हजारे के साथ ही एक टीवी शो में हिस्सा लेते हुए अरविन्द केजरीवाल उन लोगों पर बहुत तीखे आक्रमण  कर रहे थे, जो उनसे कहते थे कि बाकायदा राजनीति में आकर अपनी बात जनता के सामने रखें। तो, एक बदलाव तो जाहिर ही है कि वे अब बाकायदा एक राजनैतिक पार्टी ही नहीं बना चुके, बल्कि दिल्ली के मुख्यमंत्री भी रह चुके। जहाँ तक सवाल है व्यवहार का, अरविन्द केजरीवाल ने शायद अनजाने ही जता दिया है कि वे स्वभाव से आंदोलनकारी ही हैं, और इसी भूमिका में उनका मन रमता है। शायद उन्हें खुद भी आशंका नहीं थी कि सरकार चलाने की झंझट भी उनके सिर आ सकती है।

विडंबना यह है कि वोट माँगने के लिए वादा तो यही करना पड़ेगा कि बेहतर सरकार चलाएंगे या चलाने वालों  की मदद करेंगे, लेकिन वोट मिल जाने पर, लोकसभा में कुछ सीटें जीत जाने पर आंदोलन के अलावा क्या करेंगे…यह शायद वे खुद नहीं जानते। उन्हें और उनके साथियों को यह समझना ही होगा कि बेशक आंदोलन लोकतांत्रिक राजनीति का आधार है, लेकिन आंदोलन की प्रामाणिकता का प्रतिमान यह है कि अवसर मिलने पर बेहतर और स्थिर सरकार चला कर भी दिखाएँ।

प्रश्न- दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा भ्रष्टाचार मिटाने की प्रतिबद्धता की ओर इंगित करता है याकि आपको लगता है कि अरविन्द केजरीवाल सरकार चलाने की जिम्मेवारी से भागना चाहते थे? क्या इस घटनाक्रम को राजनैतिक पैंतरेबाजी के रूप में देखा जा सकता है?

        मुझे नहीं लगता कि इस्तीफा भ्रष्टाचार मिटाने की प्रतिबद्धता का सूचक है। मैं बारंबार कहता रहा हूँ कि लोकतंत्र केवल संख्याओं का खेल नहीं, संस्थाओं और मर्यादाओं का भी मामला है। जिस बिल को आप इतना महत्वपूर्ण मानते हैं, उसकी प्रतिलिपियाँ विधान-सभा सदस्यों को एक ही रात पहले मुहैया कराना क्या सूचित करता है? कानूनी तौर से, दिल्ली विधान-सभा में किसी विधेयक को पेश करने के पहले उप-राज्यपाल की अनुमति जरूरी है। यह दिल्ली की विशेष स्थिति से जुड़ा प्रावधान है। फिर, संसद द्वारा लोकपाल बिल पारित कर दिये जाने के बाद दिल्ली या किसी भी राज्य में लोकायुक्त का गठन केंद्रीय कानून की उपेक्षा करके नहीं किया जा सकता। केजरीवाल चाहते तो सरकार चलाते हुए, इस मामले में राजनैतिक और सामाजिक आम-राय बनाने की कोशिश कर सकते थे। लेकिन तब उन्हें भ्रष्टाचार के लिए हम शहीद हुए-ऐसा कहने का सुख और सरकार चलाने के झंझट से मुक्ति न मिल पाती, और वे लोकसभा चुनाव के लिए ‘इशू’ को ‘लाइव’ न रख पाते। केजरीवाल का इस्तीफा एक बहुत ही सोचा-समझी राजनैतिक चाल है।

‘आप’ की बुनियादी समस्या नैतिक दंभ है। इसीके दर्शन सोमनाथ भारती प्रकरण में हुए थे, और इसीके कारण जन-लोकपाल जैसे महत्वपूर्ण कानून का श्रीगणेश ही गैर-कानूनी ढंग से करने में ‘आप’ को कोई संकोच नहीं हो रहा था।  

        प्रश्न- केजरीवाल व्यवस्था-परिवर्तन के हिमायती हैं, अराजक हैं, समाजवादी हैं, या पूंजीवादी? या फिर राजनीतिक समझ को लेकर भ्रमित हैं?

 राजनैतिक दर्शन में ‘अराजकतावादी’ उन विचारकों को कहा जाता है, जो समाज में राजसत्ता के प्रभाव को कम से कम करना चाहते हैं। केजरीवाल तो जिस तरह के सर्वशक्तिमान, ‘ऑल इन वन’ लोकपाल की कल्पना करते हैं, वह राज्य की ताकत को कम नहीं, बल्कि अभूतपूर्व रूप से ज्यादा  करने वाला है। केजरीवाल के हिसाब से भ्रष्टाचार सभी समस्याओं की जड़ है, और उनकी कल्पना का जन-लोकपाल हर रोग का रामबाण इलाज। उनके हिसाब से व्यवस्था परिवर्तन का आशय इतना ही प्रतीत होता है।  चीजें इतनी आसान हैं नहीं। बात समाजवादी या पूंजीवादी होने की नहीं, जटिल समाजतंत्र और राज्यतंत्र की गतिशील और गहरी समझ की है, जिसका  केजरीवाल में अभाव लगता है। याद कीजिए, दिल्ली विधान-सभा में उन्होंने ऑटो-ड्राइवर से लेकर अंतरिक्ष-यात्री तक को ‘आम आदमी’ निरूपित कर दिया था, याने जो नेता नहीं है, वह आम आदमी है। स्वच्छ राजनीतिक संस्कृति का विकास सभी राजनेताओं और सारे राजनीतिक तंत्र के प्रति तिरस्कार का भाव रखके नहीं किया जा सकता। राजनीति मात्र को रद्द करने वाली यह मनोवृत्ति लोकतंत्र को भी रद्द करने वाली मनोवृत्ति में बड़ी तेजी से बदल सकती है। केजरीवाल के कुछ साथी उन पर तानाशाही मनोवृत्ति का आरोप लगाते सुने भी जाते रहे हैं।

मेरी चिंता केजरीवाल के भ्रमित होने से कहीं ज्यादा है। जैसाकि मैंने आपसे कहा, ‘आप’ की सफलता का आधार है विकल्प की संभावना में आम हिन्दुस्तानी का विश्वास और ‘आप’ के रूप में उसे पा लेने का उत्साह। खतरा यह है कि ‘आप’ अपने नैतिक दंभ के कारण इस विश्वास को तोड़ने वाली पार्टी भी साबित हो सकती है।

वीआईपी संस्कृति और भ्रष्टाचार से उत्पन्न रोष के कारण मिले विश्वास को यदि इस तरह से पथभ्रष्ट किया गया तो यह पार्टी अपनी सबसे बड़ी दुश्मन आप तो साबित होगी ही, भ्रष्ट तंत्र को नये सिरे से नैतिक वैधता प्रदान करने का पाप भी उसी के सिर जाएगा।

 

 

  

 

पान पत्ते की गोठ

 

‘पाखी’ के फरवरी अंक में प्रकाशित कहानी।

पान-पत्ते की गोठ

पुरुषोत्तम अग्रवाल

 

पलकें बंद हैं, आँखों में आकाश खुला हुआ है… उसका साँवला विस्तार फैलता जा रहा है….दृश्य निरंतर बदल रहा है…जो दीख रहा है,  वह अब तक देखा आकाश ही है, या बंद आँखें अपना आकाश खुद रच रही हैं…

यह जो आवाज गूँज उठी इस आकाश में… अहीर भैरव गाते मधुप मुद्गल, ‘राम, राम, रोम-रोम, मन चित्त राम; राम की दुहाई है…अंतकाल कोई ना सहाई है….’ जब भी सुना है यह भजन, आँखें भर आईं हैं। कैसा तो गाया है मधुप ने…एक एक सुर छू लो,  सुरों में बँधा एक-एक बोल जैसे मन में खुल रहा हो, मेरा अपना स्वर बन कर….आँखें भर ना आएं तो करें क्या; लेकिन, इन सुरों के ऊपर तिरती, ‘अंतकाल कोई न सहाई है’ को पीछे ठेलती यह दूसरी आवाज…? अरे,यह तो अम्माँ की आवाज है, ‘ गोपू रे, तेरे जैसा साधु आया ही क्यों इस कलजुग में रे…’

क्या मैं मर चुका हूँ? अपने आपसे पूछा गोपाल चौरसिया ने।

बेकार की बात….’अतंकाल कोई न सहाई है’ का अहसास  जीवितों को ही होता है, मर चुकों को नहीं। जो मर चुके हैं वे न सवाल पूछते हैं कि मर चुके हैं या नहीं…न मौत के गीत गाते हैं। मृत्यु-विलास तो बस  जीवितों का ही मनो-विनोद है। मृतक अपने आपसे बात नहीं करते, जो जीवित छूट गये हैं, उनसे भले ही कर लेते हों…

कहते हैं, मौत से ठीक पहले के पल में सारी जिन्दगी मन के परदे पर फास्ट मोशन में चलने लगती है… मैं तो यह फास्ट मोशन फिल्म तकरीबन हर रात देखता हूँ, तो क्या मैं हर रात मरता हूँ? कभी-कभी यह फिल्म जागती आँखों भी देखता हूँ…सिर्फ एकांत में ही नहीं, किसी मीटिंग के दौरान, कोई किताब पढ़ते हुए, किसी से बात करते हुए, चलते हुए…तो क्या हर पल मौत से ठीक पहले का ही पल होता है?

वह पल…साइकिल के पैडल तेजी से मारते हुए… यादें अपनी मन-मर्जी से आ-जा रही हैं। बंद आँखों के खुले आकाश में सिलसिलेवार कहानी कहती फिल्म नहीं, प्रयोगवादी, कोलाज की सी फिल्म चल रही है…. पैडलों पर तेजी से चल रहे पाँव केवल साइकिल को आगे नहीं धकेल रहे, उन धोखों, उन उपहासों को पीछे धकेलने की भी कोशिश कर रहे थे, जो बरसों से आत्मा पर गिजगिजे कीड़ों की तरह रेंगते रहे थे….साइकिल तेजी से भागी जा रही थी….फासले पीछे छूट रहे थे, लेकिन  कीड़े थे कि हटने का नाम नहीं लेते थे…कब से चिपके, कितने सारे कीड़े…दिनोंदिन तादाद में बढ़ते कीड़े….छल, इस्तेमाल, विश्वासघात, उपहास के कीड़े…मेरा चेहरा कैसा दिख रहा होगा उस वक्त?  शायद मुर्दे सा, शायद सुलगती चिता सा…

एकाएक वह धक्का….पीछे से आती कार…गिरते-गिरते सुनाई पडीं…हा हा हा की आवाजें…जो अभी भी माँ के डकराने-रोने की आवाज को मुँह चिढ़ाती मेरे कानों में पैठ रही हैं..हा..हा…ही..ही…कैसी रही…अबे निकल…कहीं देख ना ले साला…’ ‘तेरे जैसा साधु रे…’ ‘ अंतकाल कोई न सहाई है…’

‘कहीं देख न ले साला’…हुआ क्या था? कब हुआ था? कुछ ही देर पहले? दिन-दो-दिन पहले? महीनों या बरसों पहले?

 

प्रो. गोपाल चौरसिया कुलपति बन गये थे, अजब -गजब किस्म के कुलपति। वेश-भूषा के प्रति लापरवाही तो चलिए बुद्धिजीवी सुलभ स्टाइल-स्टेटमेंट के खाते में आती थी, लेकिन बाकी हरकतें? किसी भी विभाग में, कभी भी, पहुँच जाना…किसी होस्टल में नाश्ते के वक्त, किसी में लंच के वक्त पहुँच जाना…पहली आदत उन अध्यापकों को परेशान करने लगी थी जो यूनिवर्सिटी को क्लासलेस सोसाइटी बनाने के काम में लगे थे, क्लास में पढ़ाना जिन्हें निहायत उबाऊ और फालतू काम लगता था। दूसरी आदत से वे साँसत में थे जिन पर होस्टलों की जिम्मेवारी थी। शुरु-शुरु में लोगों ने यही समझा कि नया मुल्ला है, ज्यादा प्याज खा रहा है…लेकिन जल्दी ही बात साफ हो गयी कि ईमानदारी से काम करना, चीजों पर निगाह रखना गोपाल चौरसिया का सहज स्वभाव था, नये मुल्ले का प्याज-प्रेम नहीं।

अपने सहज स्वभाव से गोपाल चौरसिया तरह-तरह की ताकतों को असहज किये दे रहे थे। किताबों की खरीद से लेकर इमारतों के निर्माण तक में हुए घपलों की जाँच शुरु हो गयी थी। कोचिंग सेंटरों में पढ़ाने वालों से चौरसिया ने जबाव-तलब कर लिया था। कोढ़ में खाज यह कि नितांत अकेला इंसान था यह, अपने अकेलेपन में पूरी तरह मगन । उस तक कोई समझदारी की बात पहुँचाने का कोई रास्ता कहीं से भी खुलता दिखता ही नहीं था। ना किसी से मिलना ना जुलना, बस दफ्तर, लाइब्रेरी, लैबोरेट्री; और शाम के समय साइकिल-सवारी…वीसी साहब को पता ही नहीं लगता था कि उनकी साइकिल कितने लोगों को ट्रक की तरह कुचलती चली जा रही थी। सामान्य छात्र-जन गोपाल चौरसिया से जितने प्रसन्न, भाँति-भाँति के नेतागण उतने ही दुखी। अध्यापक हो या छात्र, गोपाल चौरसिया किसी से जरूरी काम से ज्यादा का वास्ता नहीं रखते थे। उनसे भी नहीं जो चौरसिया की जाति के ‘पिछड़ेपन’ के  कारण उन्हें ‘अपना आदमी’ मानते थे। उन्हें भी समझते देर नहीं लगी थी, अपनी जाति का भले ही हो, वीसी अपने किसी काम का तो नहीं है।

ताकतवर लोगों के बीच जाति-धर्म निरपेक्ष आम राय बनने लगी थी कि इस वीसी को सबक सिखाना  विश्वविद्यालय के सुचारू संचालन के लिए परमावश्यक है।

सबक सिखाया जाए तो कैसे? जिस आदमी की जीवन-पुस्तिका में किसी पन्ने पर चील-बिलौंटा ना बना हो, किसी पन्ने को छुपा कर रखने की जिसे जरूरत ना पड़ी हो, उसे सबक सिखाएं तो कैसे? जो आदमी कपड़े-लत्तों के मामले में जितना लापरवाह दिखता हो, काम-काज और नियम-कायदे के मामले में उतना ही चाक-चौबंद हो, उसे फँसाएं तो कैसे फँसाएं, कहाँ फँसाएं?

एक तरीका हो सकता था…सूझ प्रो. गोपीनाथ की थी। अपनी मेधा के लिए विख्यात सिंह साहब ने एक रसरंजन-गोष्ठी में गोपीनाथजी का आकलन यों किया था- ‘प्रोफेसर गोपीनाथ बुद्धि-विकास के अवसरों की कमी या सत्संग के अभाव  के कारण बन गये मूर्ख नहीं,  जेनेटिकली डिफाइंड मूर्ख हैं,  गोपीनाथजी की जीवन-संगिनी सरस्वती, श्वसुर ब्रह्मा, गुरु बृहस्पति और सखा वेदव्यास होते तब भी वे मूर्ख ही रहते…’ छात्रों और प्रोफेसरों के बीच, इस आकलन पर आम सहमति बनते देर नहीं लगी थी।

गोपीनाथजी का सुझाव वीसी साहब की साइकिल से जुड़ा था। साइकिलिंग गोपाल चौरसिया का पसंदीदा व्यायाम था। शाम को ही नहीं कई बार रात के समय भी साइकिल पर तेजी से पैडल मारते, कैंपस के चक्कर लगाते वाइस-चांसलर साहब कई लोगों के लिए कौतूहल और प्रेरणा के विषय थे, कई लोगों के लिए जायके के। कुछ लोगों को उनकी इस आदत पर सैद्धांतिक एतराज भी था।  देर शाम, या शुरु होती रात लड़के-लड़कियों के ऐसे मधुर क्षणों की वेला होती थी, जिन क्षणों के बिना यूनिवर्सिटी में आना ना आना बराबर ही कहा जा सकता था। अब बताइये, आपने प्रेमिका का हाथ थामा ही, कमर-बहियाँ डाली ही कि सामने से साइकिल-सवार वीसी साहब प्रकट….कोई बात हुई भला। कार में आएं-जाएं, खुद मस्त रहें, हमें मस्त रहने दें…ये तो साइकिल पर खलीफा हारूँ अल रशीद बने अपने बगदाद के चक्कर काट रहे हैं। यह नैतिक दारोगागीरी नहीं तो और क्या है? नौजवानों की प्राइवेसी का हनन नहीं तो और क्या है? वह भी, इस क्रांतिकारी कैंपस में, जहाँ छात्र-संघ के चुनाव मेस के खाने की गुणवत्ता के सवाल पर नहीं, मार्क्स बनाम गाँधी बनाम आंबेडकर की बहसों  पर जीते और हारे जाते थे…

वीसी साहब की बेवक्ती साइकिलिंग को छात्रों के बीच मुद्दा बनाया जा सकता है, गोपीनाथजी की इस सूझ का सैद्धांतिक प्रतिपादन किया प्रोफेसर पांडे ने, ‘एभरीबडी हैज ए राइट टू प्राइभेसी जी…हाउ कैन ए भीसी…मने…मतलब…’ पांडेजी की अंग्रेजी आगे चल नहीं पा रही थी, सो मिसिरजी ने कुमुक पहुँचाई, ‘ ट्रैम्पल अपॉन डेमोक्रेटिक राइट्स ऑफ यंग जेनरेशन…’

‘वही..वही…’ पांडे जी सप्तम स्वर में चहक उठे, ‘वही तो मैं कह रहा हूँ डॉक सा’ब….युवा पीढ़ी के लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन भला कैसे सहन किया जा सकता है….’

‘मजाक के लिए ठीक है, पांडेजी…’ सिंह साहब गोपीनाथ के बारे में अपना आकलन मन ही मन दोहराते हुए, धीर-गंभीर स्वर में मुखरित हुए, ‘सीरियसली इशू बनाने के चक्कर में मत पड़ जाइएगा….चौरसिया और हीरो बन जाएगा….वह साइकिल पर ही तो घूमता है, किसी लड़के-लड़की को खामखाह टोका है उसने कभी?’

पांडेजी कुनमुनाए जरूर लेकिन कहते क्या? सिंह साहब की बात में दम था। अपनी साइकिल-सैर से लड़के-लड़कियों को होने वाली असुविधा गोपाल चौरसिया समझते थे, जल्दी ही उन्होंने जता भी दिया था कि किसी की निजी जिंदगी में ताक-झाँक करने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं। छात्रों को भी अपने अजब-गजब वीसी के अच्छे कामों की रोशनी में उनकी अजब-गजब हरकतों पर गुस्से की बजाय प्यार आने लगा था। गोपाल चौरसिया छात्रों के बीच वीसी के बजाय  सीवीसी के नाम से लोकप्रिय होने लगे।

सीवीसी याने साइकिल वाला वीसी….

लेकिन पांडेजी, मिसिरजी, गोपीनाथजी जैसी आत्माएँ वीसी के पहले लगने वाले ‘सी’ अक्षर का विस्तार साइकिल शब्द में नहीं, एक ठेठ देशज शब्द में करती थीं…वही शब्द जिसे गोपाल चौरसिया पर स्थायी रूप से चिपका दिया गया था। अपनी छात्रावस्था में वे चूतिया चौरसिया थे, और यहाँ चूतिया वाइस-चासंलर…सीवीसी….

साइकिल वाले वाइस-चांसलर साहब कभी-कभी आधी रात को भी साइकिल लेकर निकल पड़ते थे। देर तक कैंपस में चक्कर लगाते रहते थे। इस वक्त देखने वालों को उनका पैडल मारने का अंदाज अजीब  लगता था। पैडल पर दीवानावर तेजी से चलते पाँव, बदन में अजब सी अकड़ाहट, कंधों के झुकाव में सख्ती, आँखें सड़क से कहीं आगे, दूर निहारती हुईं, चेहरे पर बेबस गुस्सा….आम तौर से बहुत भद्र, बल्कि बेचारे से दीखने वाले गोपाल चौरसिया आधी रात को साइकिल चलाते समय अपने अतीत के न जाने किन प्रेतों से लड़ते थे कि खुद प्रेत जैसे दीखने लगते थे।

‘जरूर कोई प्रेम-प्रसंग है…’ सिंह साहब का अनुमान था, लेकिन इतने चुप्पे आदमी के प्रेम-प्रसंग की खबर निकालें तो कैसे? कहाँ से? कहीं कोई निशान रहा भी हो तो उसे पाना आसान नहीं, और स्वयं चौरसिया को कुरेदना असंभव। सिंह साहब ने बस एक बार संकेत किया था, ‘कोई बता रहा था, डॉक सा’ब कि कल रात आप काफी टेंस थे, साइकिलिंग करते हुए…’

गोपाल चौरसिया की जबावी निगाहें सिंह साहब को भीतर तक चीर गयी थीं। वे आँखें बलि के लिए सजाए जा रहे पशु की थीं, या अपनी पराजय का बोझ ढोते योद्धा की? वे निगाहें तिरस्कृत प्रेमी की थीं, या छले गये मित्र की? उन आँखों के पीछे खुद से हारा हुआ आदमी था, या हर हार को जीत में बदलने पर आमादा इंसान?

बोले कुछ नहीं थे गोपाल चौरसिया…बस हल्की सी मुस्कान, खुद का मजाक बनाता लहजा, ‘ सूरत ही ऐसी दी है भगवान ने…क्या करूँ…’

उस दिन पहली बार सिंह साहब को सीवीसी-चूतिया वाइस-चांसलर- के प्रति करुणा हुई थी…कितना अकेला है यह इंसान…ना कोई भाई-बहन, ना यार-दोस्त…जोरू ना जाता….कोई मधुर प्रसंग जीवन में रहा भी हो…तो अब क्या जासूसी करना उसकी…

यह बात किसी को नहीं बताई, सिंह साहब ने। उनके मन में चौरसिया के प्रति उपहास की जो  विशाल इमारत थी, उसमें कहीं एक छोटा सा कमरा हमदर्दी का बनने लगा था, जिसके बारे में मिसिर, पांडे और गोपीनाथ को बताने का कोई मतलब ही नहीं था।

पांडेजी को सीवीसी के औचक निरीक्षणों से कोई परेशानी नहीं थी। वे तो कहते थे कि सीवीसी चूतिया वाइस-चांसलर से सेंट्रल विजिलेंस कमीशनर ही बन जाएँ तो भी हमारा क्या उखाड़ लेंगे? बात सही थी क्योंकि पांडेजी क्लासलेस सोसाइटी बनाने के लिए नहीं, क्लास को ध्रुपद की तरह खींच देने के लिए विख्यात थे। पांडेजी की कठिनाई यह थी कि वीसी साहब का विषय तो विज्ञान था, लेकिन हिन्दी, अंग्रेजी साहित्य में रुचि रखते थे, सो कभी औपचारिक ढंग से, कभी योंही अनौपचारिक तरीके से छात्रों से बात करने लगते थे। आदत से मजबूर थे, सो शुरु भले ही हिन्दी में हों, बीच में अंग्रेजी में प्रविष्ट जरूर हो जाते थे। पांडेजी का अधिकांश मौलिक लेखन अंग्रेजी में पढ़ी किताबों के ही बूते जिन्दा था, वीसी के साथ दो-चार बार बतिया चुके बटुकों के मन में पांडेजी की तेजस्वी मौलिकता के प्रति अश्रद्धा का उदय होने लगा था।

इस अश्रद्धा के हमलों का मुकाबिला पांडेजी निन्दा की गोलाबारी से कर रहे थे…‘ अंग्रेजी में गोलेबाजी करते रहते हैं …कुछ समझ आता है तुम लोगों को? खाली अंग्रेजी का गोला फेंकने से होता है कुछ?’

कहते कहते पांडेजी ने अंग्रेजी गोले का मुँहतोड़ जबाव देता गोला पार्श्व भाग से दाग ही दिया था। काफी देर से हठयोग सा साध रहे थे, लेकिन उत्साह और हास की अभिव्यक्ति में देह-बल लगा, उसका कुछ प्रभाव अधोप्रदेश तक भी जा पहुँचा और गोला दग गया। कमरा पांडे-गंध से सुवासित और पांडे-ध्वनि से गुंजरित हो उठा। बटुकगण आह्लादित हो उठे; अंग्रेजी के साम्राज्यवाद के विरुद्ध ऐसी वीर-रसपूर्ण और सुवासित ध्वनियाँ इतिहास में कम ही अवसरों पर सुनी गयीं हैं, और फिर यह ध्वनि तो उन आचार्य की देह का प्रसाद थी, जो पिछले अनेक दशकों से अंग्रेजी लेखों और पुस्तकों के अनुवाद को अपना मौलिक योगदान बता कर,  शब्द और कर्म दोनों के जगत को सुवासित किये हुए थे।

पांडेजी ने सिंह साहब, गोपीनाथजी, सुकुलजी आदि समानधर्माओं के बीच ही नहीं, एकाध और जगह भी अपना मूल विषाद प्रकट कर ही दिया  –‘अब लीजिए, ये साले बनिये बक्काल, तेली तंबोली भी भीसी बनेंगे, यह तो टू मच हो गया है जी…’

पांडेजी के विषाद में सारे भद्रपुरुषों के विषाद का योग था। यह विषाद-योग ही वह दार्शनिक आधार था, जिस पर सारे मतभेदों के बावजूद पांडेजी, सुकुलजी, गोपीनाथजी ही नहीं, धीर-गंभीर सिंह साहब भी साथ खड़े थे। इस दार्शनिक आधार को प्रचंड अभिव्यक्ति पांडेजी के गगनभेदी चिंचियाते स्वर में ही मिलती थी—‘चौरसिया…बताइए भला, चौरसिया…तंबोली-तेली; बनिए-बक्काल…सामाजिक न्याय वगैरह ठीक है, हम भी समर्थक ही हैं, मने सोशल जस्टिसवा के… लेकिन भीसी….यह तो सचमुच टू मच है, डॉक सा’ब….’

बात सही थी, फिर भी, विषाद-योग की गुह्यता के उल्लंघन पर सिंह साहब को गुस्सा आया था… ‘यह गोपीनाथ तो अपनी मूर्खता का खोम्चा सजाए घूमता ही रहता है, लेकिन पांडेजी को क्या हो रहा है… गोपीनाथ पर विद्वानों के सत्संग का असर भले ही न पड़ा हो, लेकिन उसके कुसंग में पांडेजी जरूर अपनी जन्मजात चतुराई खोते जा रहे हैं…किसी भी जगह चिंचियाने लगते हैं। बनिये-बक्ककालों, तेली-तंबोलियों को ठिकाने लगाने के लिए धीरज और गंभीरता चाहिए…मुँह से या न जाने कहाँ कहाँ से गोला फेंक देने  से काम नहीं चलता…’

सिंह साहब ने पांडेजी को कई बार समझाया— दिखने में ही भोंदू है, वाइस-चांसलर; पक्का घुन्ना है, सारी खबर रखता है, जानता है, आप लोग क्या क्या कहते हैं, उसके बारे में, यह भी जानता है कि बात-बेबात खड़े होने वाले झंझटों का स्रोत आप ही लोग हैं…सँभल कर रहिए…

 

इस समय आईसीयू के बाहर खड़े पांडेजी का चेहरा पीला है, और सिंह साहब का लाल। मिसिरजी और गोपीनाथजी तो आए ही नहीं कि हस्पताल में जमा बौखलाए लड़के-लड़कियों का झुंड कहीं कुछ कर न बैठे। पांडेजी सिंह साहब के साथ आए थे, वीसी साहब पर हुए कायराना हमले की निंदा की, उनके प्रति मतभेदों के बावजूद अपना प्रेम रेखांकित किया, और किसी के कुछ पूछने या कहने के पहले ही अंदर लपक लिये। सिंह साहब सब-कुछ के बावजूद सम्मान सबका पाते थे, उन्होंने भी दो शब्द कहे, अपराधियों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही की माँग की, गोपाल चौरसिया के प्रति अपने ही नहीं, पांडेजी के भी आदर को रेखांकित किया…और अंदर पहुँचे…

पांडेजी का चेहरा पीलिया के मरीज का सा हो रहा था, चिंघाड़ती आवाज चूं-चूं में बदल रही थी, ‘मने डॉक सा’ब…अब…अब क्या होगा….’

‘घंटा होगा…’ सिंह साहब अपना प्रसिद्ध धीर-गंभीर भाव बनाए नहीं रख पा रहे थे, ‘ लौंडो को लगाते वक्त  पूछा था आपने? क्या होगा…?’

‘अब…डॉक सा’ब…किसी को क्या पता था कि टक्कर इतनी जोर की लग जाएगी, मैंने तो कहा था कि बस जरा सी गाड़ी छुआ देना….पवनकुमार को खासकर समझाया था।’

सिंह साहब आईसीयू की सफेद टाइल जड़ी दीवार निहार रहे थे। एकाएक उनके मन में वीभत्स  विचार आया–इस बेवकूफ पांडे की खोपड़ी दीवार पर दे मारी जाए…तो टाइल का रंग लाल होगा या इसके चेहरे की तरह पीला—बोले सिर्फ इतना, ‘आप धन्य हैं महाराज….भेजा भी तो पवनकुमार को, चौरसिया अच्छी तरह जानता है आपके पवन-प्रेम को…कुछ अंदाजा है, होश में आने पर उसे बस पवन का नाम लेना है, बाकी काम पुलिस ही पवन-वेग से कर लेगी …

 

 

पांडेजी की वामपंथी नास्तिकता पवनगामी हो चली थी, संस्कार-गत स्मृति मन ही मन धारा-प्रवाह बह निकली थी, होंठों की हलचल से सिंह साहब समझ गये, हनुमान-चालीसा का पाठ चल रहा है, ‘रामदूत अतुलित बल-धामा; अंजनि-पुत्र पवन-सुत नामा…’ इस हाल में भी सिंह साहब को हँसी आ गयी, ‘ वाह, क्या बात है पांडेजी, करतूत करवाई भी तो पवनकुमार से, गुहार भी लगा रहे हैं तो पवन-सुत से…’

‘डॉक सा’ब…पलीज…अभी नहीं…’ अब जाहिर हो ही गया था तो पांडेजी थोड़े खुले स्वर में जारी हो गये … ‘महावीर विक्रम बजरंगी; कुमति निवार सुमति के संगी…’

सिंह साहब चुटकी लेने की आदत से मजबूर थे, ‘महाराज, पवनकुमार को अपना बजरंग बनाए घूमते थे, अब बजरंग बली से कुमति-निवारण की अपील कर रहे हैं…’

‘पलीज, डॉक सा’ब’…पांडेजी लगभग रो दिये, ‘दिस ईज़ भेरी बेड…इस मुसीबत…’

सिंह साहब को रहम आ गया, ‘ अब जो हुआ सो हुआ, पांडेजी… पवनकुमार और दूसरे गणों की एलीबाई तैयार करवाइये, गाड़ी इधर-उधर करवाइए… वैसे भगवान की माया कौन जाने…शायद चौरसिया ही बात आगे ना बढ़ाए…आखिरकार भला आदमी है बेचारा…हिम्मत रखिए…और हाँ, रुक क्यों गये…पाठ जारी रखिए, ‘दुर्गम काज जगत के जेते; सुगम अनुग्रह तुमरे तेते’… जारी रखिए…’

 

… इस पल जो याद आया चला जा रहा है, वह मेरा अतीत है, या किसी और का, फिल्म जो चल रही है, वह मेरे जीवन की है या किसी और के जीवन की…या अनेक किन्हीं औरों की…..

माँ की सूरत ऐसे दिखे, डकराहट ऐसे सुनाई पड़े तो समझो अंत…माँ खुद चली जाती है, संतान आए, कभी नहीं चाहती…हालाँकि जानती है कि आना तो हरेक को है…लेकिन फिर भी। अब यहीं देखो कैसे बिगूचन में है, अम्माँ, देख रही है मेरी हालत, लाड़ से गोद में ले लेना चाहती है मुझे…मैं स्वयं भी तो फिर से वही छोटा सा छौना हो गया हूँ, उसका ‘लल्ला’  जिसे अम्माँ हँस कर गोद में ले लेती है…‘आजा बेटा, बहुत दर्द है ना, आ जा मेरी गोद में…ओले मेला छौना…ताता हो गयी….आजा अभी ठीक कर देगी अम्माँ…’ और अगले ही पल रो रही है। जहाँ वह है वहाँ मुझे गोद में लेने की बात भी मन में ला सकी, यह सोचते ही खुद को कोस रही  है…’ना, ना रे…जबान जले मेरी… गोपू तू क्यों यहाँ आए… तू वहीं रह बेटा अभी देखा ही क्या है तूने?’

बहुत देख लिया अम्माँ, बहुत देख लिया…विद्वानों की विद्वता देख ली, क्रांतिकारियों की हकीकत देख ली, सुबह शाम मनुवाद को कोसने वाले पांडों, मिसिरों, गोपीनाथों का सच देख लिया…देख ना तेरा बेटा…यहाँ पट्टियों में लिपटा पड़ा है… बाहर अभिनेता जमा हैं, तेरे दिलीपकुमार, देवानंद और रहमान पानी भरें, इनके आगे…ये सब देख क्या बढ़िया सीनरी रच रहे हैं, दुखी होने की…

… अभी चमकीली आतिशबाजी थी, तेज चलती साइकिल की सनसनाहट थी, सड़क पर धप से गिरने की आवाज थी…सफलता के मद में डूबे शिकारियों के ठहाके थे…और. अभी-अभी अम्माँ की यह डकराहट…अम्माँ तो कब की चल बसी…हाँ, तो याद ही आ रही है ना…

नही…अम्माँ मेरी यादों में नहीं बोल रही, अम्माँ इस आकाश में, पल-पल रंग बदलती यादों की, चोटों की, दर्दों की इस चमकीली आतिशबाजी के बीच बोल रही है, मुझे गोद में बुला रही है…

अम्माँ किताबें ठीक कर रही है, बाबूजी से झगड़ रही है कि दुकान जाएगा, तो गोपू पढ़ेगा कब…‘अरे, तो पढ़ के कौन सी स्वर्ग में सीढ़ी लगानी है तेरे बेटे को री…चल खैर तेरी मर्जी…जब तक देह चल रही है तब तक तो चल ही रही है…’ दुकान भेजने का आग्रह करके बाबूजी परंपरा निभाते थे, और अम्माँ के जरा से प्रतिवाद के सामने समर्पण करके बेटे की संभावनाओं में झाँकते भविष्य की ताईद करते थे…गोपाल को संकोच होता था, दुकान पर इतना काम…बाबूजी अकेले…

दुकान सूरजनारायण के मंदिर के सामने हुजरात रोड के कोने पर थी । छोटी सी, लेकिन बेहतरीन पान-पत्ते बाजिव दाम पर बेचने के लिए मशहूर। ग्राहकों में पनवाड़ियों से ज्यादा थे पान के शौकीन आम गृहस्थ। देसी बिलौआ, कलकतिया, बनारसी, मगही सभी तरह के पत्तों की दर्जनों गड्डियाँ रोजाना इस दुकान से निजी पानदानों तक का सफर करतीं थीं। पनवाड़ी ग्राहक  ‘दाम कम पत्ते ज्यादा’ की चाल पर चलना चाहते थे; स्वाद का क्या है, वह तो बीड़ा बनाने के पहले मसालेबाजी करके सँभाल ही लिया जाएगा….बाबूजी को यह बात सुहाती नहीं थी। चीज़ बढ़िया बेचनी है, दाम ज्यादा होने के कारण कम बिक्री की परवाह वे करते नहीं थे। नतीजा—प्रतिष्ठा देवी की कृपा बनी हुई थी, लेकिन श्रीलक्ष्मीजी सदासहाय का भंडार सदा भरा रहने की बस कामचलाऊ  रहता था।

उसी कामचलाऊ भंडार में कतर-ब्योंत करके बाबूजी ने अम्माँ के लाड़ले, साधु-स्वभाव बेटे को ऊंची पढ़ाई के लिए घर से दूर, शहर से दूर भेजा था। अम्माँ बड़ी शान से कहती थी, पड़ोसिनों, सहेलियों से—‘मेरा गोपू दसवीं-बारहवीं पास करके दुकान पे नहीं बैठने वाला, वो तो सोलह जमात पढ़ेगा….उसके बाद विलायत भी जाएगा…’

पढ़ने के लिए तो गोपाल चौरसिया विलायत नही जा सके, हाँ, पढ़ाने के लिए कई बार गये। खुद की पढ़ाई के लिए यही क्या कम था कि पान-पत्ते की गोठ से निकल कर देश की राजधानी के जाने-माने शिक्षा-संस्थान तक पहुँच पाए…

उस शिक्षा-संस्थान में पहला दिन…पान-पत्ते की गोठ के रहवासी का ताकत-कुर्सी, चमक-दमक की गोठ के निवासियों से पहला वास्ता…

‘नाम?’

‘जी, गोपाल चौरसिया…’

पीछे से सर पर धप्पा… ‘जी-वी नहीं, बेटा, सर…सर बोलते हैं, सीनियर्स को…’

एक और धप्पा… ‘ और सीनियर की जगह सामने सीनियरनी हो तो सर नहीं, मै’म…समझे कुछ सर गोपाल चौरसिया?’

सामने से अगला सवाल, ‘एड्रेस  क्या है सर गोपाल चौरसिया का?’

‘ जी…मतलब…सर…पान-पत्ते की गोठ…’

वाक्य पूरा होने के पहले ही आश्चर्य भरा ‘ऐं?’

‘अबे चूतिया….’ ऐं का समाधान करती एक आवाज बगल से, किसकी, नहीं पता क्योंकि जिस फ्रेशर की धुलाई की जा रही हो, उसका आँख उठाकर इधर-उधर देखना वर्जित था, केवल आवाज सुनी जा सकती थी, जो सामने वाले प्रश्नकर्ता के लाभार्थ अवतरित हुई थी, ‘…इंजीनियर कहीं के, कुछ लिट-फिट पढ़ा कर; खासकर राष्ट्रभाषा का; तो समझ पाएगा कि हिज हाइनेस तंबोली खानदान से ताल्लुक रखते हैं, और पान पत्ते की गोठ आपकी खानदानी रियासत का नाम है, गोठ माने गली दैट इज़ एली फॉर कल्चरल इललिटरेट्स लाइक यू…हिज हाइनेस सर गोपाल चौरसिया माँ-बाबूजी ऑर मे बी, अम्माँ-दादा के महान  सपनों को पूरा करने के इरादे से इस तुच्छ संस्थान को धन्य करने पधारे हैं…’

‘ सर गोपाल चौरसिया बहुत लंबा है यार, हिज हाइनेस के लिए छंगा सर विल बी मच मोर एप्रोप्रिएट…देख क्या सैंपल है पान-पत्ते की गोठ का…मेरे हाथों में छह छह उंगलियाँ हैं, समझो बलम मजबूरियाँ हैं….’

रोक नहीं पाया था, अपनी तड़प को गोपाल, लेकिन क्या तड़प…बस आँख ही तो उठी थी कि तीन-चार थप्पड़….’ आँख नीचे, आँख नीचे…आँख लाल नहीं करने का, वरना साले रात को होस्टल में पूरे का पूरा लाल हो जाएगा, छंगे से छक्का बन जाएगा, एक ही रात में…पूरी टीम बैटिंग करेगी….जिंदगी भर टाँगें चौड़ी की चौड़ी रहेंगी…’

यह विज्ञान की उच्च शिक्षा के लिए बना इलीट संस्थान था, जल्द से जल्द अमेरिका प्रस्थान कर जाने की राह देख रहे भारत-भविष्यों के लिए बनाई गयी सराय थी। भारतीय दरिद्रनारायण के मत्थे कम खर्च में बेहद महंगी शिक्षा हासिल कर रंग-बिरंगे भारत-भविष्य यहाँ से पश्चिमोन्मुखी हो जाते थे, वहाँ पहुँच कर भरे गले से घोषणाएँ करते थे—आई लव माय इंडिया…। ठीक ही है, प्रेम विरह में  पनपता है, तो क्यों न खुद ही विरह-दशा की रचना करके विरह-गीत गाया जाए—आई लव माय इंडिया…

संस्थान से निकलने के बाद भी, यहाँ उन्हें दे दी गयी पहचान ने गोपाल चौरसिया का पीछा कभी नहीं छोड़ा….पीठ पीछे तो अनिवार्य रूप से, कभी-कभी मुँह पर भी, तिर्यक भाव से उन्हें याद दिलाया जाता रहा था कि वे सबसे पहले और सबसे बाद हैं –छंगा तंबोली, चूतिया चौरसिया— ही…

उपकुलपति प्रो. गोपाल चौरसिया…अस्पताल के बिस्तर पर इस पल…कोई ना कोई आवाज आती है… कह जाती है—छंगा तंबोली..छंगा तंबोली…चूतिया चौरसिया…चूतिया चौरसिया…

इन्हीं आवाजों के बीच गूँज रही हैं, पान पत्ते की गोठ की आवाजें। महानगर में रहते रहते खुद गोपाल चौरसिया को पान-पत्ते की गोठ अजनबी लगने लगी थी….पान पत्ते की गोठ…क्या बेतुका नाम है…क्यों नहीं मेरी गली का नाम महारानी लक्ष्मीबाई वीथिका हो सकता था, या कम  से कम पटेलनगर या नेहरूनगर जैसा कुछ…पान पत्ते की गोठ…किसी को बताते ही अटपटी हँसी झेलने को तैयार रहो….

लेकिन इस पल वे छिप जाना चाहते थे उसी पान पत्ते की गोठ की गोद में। अम्माँ तो रही नहीं, लेकिन गोठ सारे बदलावों के बावजूद है वहीं की वहीं…कुछ लोग जरूर चाहते थे कि उसे कोई  सुसंस्कृत नाम दे दिया जाए। एक प्रस्ताव तो यह भी था कि गोठ को यहीं के सपूत, विश्व-विख्यात वैज्ञानिक गोपाल चौरसिया का ही नाम दे दिया जाए, गोपाल चौरसिया ने सख्ती से मना कर दिया था। बीच-बीच में पान-पत्ते की गोठ से ही नहीं, अपने शहर भर से गोपाल चौरसिया को  चिढ़ होने लगती थी, अजीब था इस शहर का मिजाज, अपने रूखड़ेपन पर गर्व करता, अपने हैंकड़पन पर इतराता…

इस पल, चिढ़ नहीं, केवल दर्द है…अपनी देह का ही दर्द नहीं, अपने रूखड़े, हैंकड़ शहर का भी दर्द…उस शहर के लिए तड़प रहे हैं, गोपाल चौरसिया… अपनी खुद की पान पत्ते की गोठ रच रहे हैं गोपाल चौरसिया…उसी में विचर रहे हैं गोपाल चौरसिया….

‘चौरसिया’— इस शब्द पर ही तो अपनी विद्वता और विट के लिए देश-देशांतर में मशहूर सिंह साहब ने जुमला जड़ा था, ‘भई इस चौरसिया में चार ही रस हैं ना, गायब कौन से कौन पाँच हैं….मौजूद कौन से चार हैं…किन चार रसों से बने हैं चौरसियाजी…रसराज श्रृंगार का तो अता-पता नहीं, हास्य के आलंबन हैं…उत्साह से भरपूर हैं, यह हुआ वीर-रस, और पांडेजी, बुरा मत मानिएगा, आप सज्जनों के मन में भय का संचार तो किया ही है चौरसिया ने, सो तीसरा हुआ भयानक…अब चौथा…’

‘ हें हें…डॉक साब’, भयभीत होने की सचाई पर खिसियाई हँसी का आवरण डालते हुए पांडेजी ने ही चौथा रस बताया था…’अद्भुत…बल्कि वही मुख्य रस  है….कैसे कैसे अद्भुत नमूने हैं मेरे भंडार में, यही प्रमाणित करने को उतारा है धरती पर परमेश्वर ने अपने भीसी साहब को…सो, चौरसिया के चार रस हुए…, हास्य, वीर,  भयानक और अद्भुत…’

‘ बाकी पाँच भी धीरे धीरे खुलेंगे…चौरसिया तो वीसी बनने के पहले थे ना, कुछ ही दिनों में नौरसिया हो ही जाएंगे….वीभत्स और करुण समेत…’

सिंह साहब की बात आज सच ही लग रही है। सिंहों, पांडों, मिसिरों, गोपीनाथों की वीभत्सता ने चौरसिया को करुण दशा में पहुँचा दिया है….चौरसिया से नौरसिया….

अपनी नियति पर मुस्कराहट रोकते नहीं बनी गोपाल से…पिटा हुआ इंसान इतना तो कर ही सकता है…चार रस वाला चौरसिया मुस्करा रहा है, ‘सिंह साहब, रसराज भी था मेरे जीवन में, सो पँचरसिया कहिए मुझे, कोरा चौरसिया नहीं…’

 

…उसकी हथेलियाँ मगही सी थीं, नन्हीं-नन्हीं चिकनी और कोमल…और मेरे हाथ बिलौआ से, बड़े-बड़े, जरा कड़क से। बिलौआ गाँव के पान-पत्ते की विशेषता ही यह कि कत्था-चूना लगा  कर जब बीड़ा बनाया जाए तो मुड़ने के कारण कड़क पत्ते की देह दरकने लगे…. और मगही ऐसा कि बीड़ा बनाने वाले को भी लगे कि कितनी कोमल देह उसकी अंगुलियों का स्पर्श पा रही है….

उसके हाथ मगही से, मेरे बिलौआ से…यह बात बस पल भर को,  मन के आकाश में  कौंध कर ही वहीं लुप्त हो गयी थी। कह तो खुद से ही नहीं पाया गोपाल…उससे क्या कहता…मन का सेंसर धमकाने लगा था, ‘साले,  इस पल भी तंबोलीपन से बाज नहीं आ पा रहे हो…’ खुद पर झेंप होने लगी थी। पान पत्ते की कौंध दबा कर कवि की उधार पंक्ति से काम चलाया था, ‘उसका हाथ हाथ में लेते हुए मैंने सोचा, दुनिया को हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए…’

दुनिया को मगही पत्ते की तरह नर्म, सुंदर और सुडौल क्यों नहीं होना चाहिए?

दुनिया की कड़क-दरक को बिलौआ की तरह क्यों नहीं कहा जाना चाहिए?

उसके हाथ को मगही और अपने हाथ को बिलौआ की तरह क्यों नहीं देख पाया मैं?

इस वक्त गोपाल चौरसिया के मन में दर्द इस बात का कि सारिका के मन के कत्थे में बुरादे की मिलावट क्यों नहीं देख पाया मैं…

मेरे अस्तित्व के तने पर कठफोड़वा की तरह अपने कटाक्षों  से, तानों से जो खोखल उसने रचे, उन्हें वक्त रहते क्यों नहीं देख पाया मैं? जिससे भरोसा पाने का भरोसा था, उसके, सारिका के ताबड़तोड़ लांछनों का जबाव देते क्यों नहीं बना मुझसे… मन में कौंधा जरूर, लेकिन मुँह से  क्यों नहीं निकला था…क्यों नहीं कह पाया कि कुछ दिन के लिए यह लगने की देर थी कि मैं किसी बड़े पद पर नहीं पहुँच पाऊँगा और तुम्हें पिंड छुड़ाने की हड़बड़ी पड़ गयी थी, सारिका….

दर्द गोपाल को कोई आज ही नहीं हो रहा था….आधी रात को पागलों की तरह साइकिल चलाता गोपाल बेबस क्रोध, तन-मन को निचोड़ते दर्द और परास्त प्रेम के प्रेतों से ही तो लड़ता था… मन से उठती चीख को चुप्पी में बदलने की कोशिश ही तो उसके चेहरे को मुर्दे की तरह ठंडा या जलती चिता की तरह सुलगता बना देती थी….

ऐसा ही था वह पल भी… साइकिल के पैडल तेजी से मारते हुए, अपने आपको कोसते हुए, सन्नाटे को चीरती चीत्कार मन के आकाश में सुनते हुए, लगा था कि साइकिल की सीट की जगह बदन के नीचे आकाश का खालीपन आ गया है…वह पल नहीं, बस पल का छोटा सा टुकड़ा था, जब सड़क से टकराते बदन ने अजीब सी थप की आवाज सुनी थी…सन्नाटे की आवाज…

 

सिंह साहब डॉक्टर की अनुमति लेकर कमरे के भीतर आ चुके थे। बिस्तर के पास खड़े देख रहे थे, उन्हें दया आ रही थी, इस अभागे पर; जाने जिएगा या मरेगा…कितना बदमाश है पांडे…मजाकबाजी अपनी जगह, उखाड़-पछाड़ अपनी जगह…चलता है यह सब…लेकिन शुद्ध गुंडई…ऊपर से कहता है,  ‘बस गाड़ी जरा सी छुआ देने भर को कहा था…ताकि वीसी साहब छंगे तो हैं ही कुछ दिन लंगड़े रहने का भी सुख उठा लें…हें…हें…हें….’ अब साला हनुमानजी को मक्खन लगा रहा है…कुमति का संग खुद करें, सुमति इन्हें हनुमानजी दिलवाएँ…बेहूदे कहीं के…लेकिन वीसी ठीक हो जाएँ तो अनुरोध तो करूँगा कि  माफ कर दें, पुलिस को नाम ना दें…जेल जाना पड़ा तो झेलना तो पांडे के परिवार को पड़ेगा, पूरी कम्युनिटी की दुनिया भर में भद्द उड़ेगी, सो अलग….

 

… ‘राम, राम, रोम-रोम, मन चित्त राम; राम की दुहाई है…अंतकाल कोई ना सहाई है….’जब भी सुना है यह भजन, आँखें भर आईं हैं। कैसा तो गाया है मधुप ने…एक एक सुर छू लो,  सुरों में बँधा एक-एक बोल जैसे मन में खुल रहा हो, मेरा अपना स्वर बन कर….आँखें भर ना आएं तो करें क्या….

नहीं चाहिए ऐसी कातरता का वितान…नहीं चाहिए राम का नाम, कबीर का गान, मधुप का स्वर….नहीं चाहिए मुझे….बंद करो यह भजन… चुप रहो, मुझे कुछ कहना है, मेरी सुनो…

गोपाल चौरसिया कुछ कहना चाहते थे… बचपन से अब तक की चुप्पियाँ, अब तक झेले गये अपमानों और षड़यंत्रों की स्मृतियाँ, छंगा तंबोली, चूतिया चौरसिया होने के सुलगते विरदगान…तेली-तंबोली के वीसी बन जाने पर भद्र पुरुषों की पीड़ा, उस कार के धक्के से साइकिल की सीट से एकाएक शून्य में पहुँच जाने के अहसास का शॉक, तन के तने पर कठफोड़वा की चोंच के लगातार प्रहार से बने खोखल पर अपना खोखला गुस्सा…अम्माँ की लोरियाँ, बाबूजी के कँधे पर सवार होने की स्मृतियाँ…सारिका की मीठी आवाज के सुर…इस्तेमाल किये जाने के दर्द, बेबसियाँ, बेवकूफियाँ…सब कुछ…पान पत्ते की गोठ की गंधें-दुर्गंधें, उस गोठ के अंधेरे मकान से लेकर विशाल वीसी निवास तक की स्मृतियाँ ,सब उनके कंठ तक आ रही थीं, सारी ताकत अपने वजूद की लगा कर वे संजो रहे थे यह सब…उन्हें कहना था कुछ…कैसे कहें, किससे कहें…शुभ पाने का सुख, सुख देने वालों को शुक्रिया….दुख पाने की चोट…दुख देने वालों को माफी…

‘पांडेजी…’ बहुत धीमे स्वर में नाम उच्चारा, प्रो. गोपाल चौरसिया ने….

पास ही खड़े सिंह साहब ने झुक कर ध्यान से सुनने का जतन किया, बेशक, गोपाल चौरसिया पांडेजी को ही याद कर रहे थे। अच्छा लगा सिंह साहब को। बच जाए तो अच्छा है…आखिरकार सहयोगियों के बीच उपहास का पात्र यह छंगा तंबोली स्टूडेंट्स के बीच तो काफी लोकप्रिय था…

था नहीं…सिंह साहब ने खुद को दुरुस्त किया…है…और भगवान करे कि ‘है’ के ‘था’ में बदलने की नौबत ना आए…गोपाल चौरसिया इस हाल में पांडेजी को याद कर रहे हैं…वैर नहीं रहना चाहिए…हो सकता है, भगवत्कृपा से बच ही जाएं वीसी साहब…और यदि वक्त आ ही गया है…तब भी, दोनों ही हाल में मन में वैर का रहना ठीक नहीं, पांडेजी को भी कुछ पछतावा तो है ही…इस वक्त जता दें…बात खत्म हो, बाद की बाद में देखी जाएगी। वीसी साहब चल बसे तो, और चलते रहे तो भी… आखिरकार हानि-लाभ जीवन-मरण, जस-अपजस विधि हाथ…देखा जाएगा…अभी तो किसी तरह कुछ सँभाल हो…

दरवाजे के पास पहुँच कर, बाहर झाँका सिंह साहब ने, ‘पांडेजी, जरा आइए…’

पांडेजी हनुमान-चालीसा का मौन पाठ जारी रखे हुए अंदर आ गये, सिंह साहब से आँखों-आँखों में ही पूछा ‘क्या बात है?’ सिंह साहब ने धीरे से कहा, ‘ पास जाइए,  चुप रहिएगा, आपका नाम ले रहे हैं, शायद माफ करने जैसी बात करेंगे, बेचारे भले आदमी ठहरे…’

पांडेजी हनुमानजी से निस्तार की अपील करते-करते ही, बिस्तर की ओर बढ़े, पास पहुँच कर झुके, गोपाल चौरसिया के मुँह से फिर आवाज निकली, आँख एक पल को खुली, ‘पांडेजी…’

जी..जी मैं ही हूँ….

पांडेजी झुके…

पांडेजी झुके हुए हैं, सोच रहे हैं क्यों बुलाया मुझीको इसने, कहना क्या चाहता है मुझसे…

मुँह में कुछ हरकत हुई, जो कुछ गोपाल चौरसिया ने जिन्दगी भर एकत्र किया था, निकला… कोई शब्द नहीं, सिर्फ एक आवाज– बलिपशु की आखिरी चीख सी, मरते योद्धा की अंतिम ललकार सी… अस्पष्ट लेकिन दमदार…और साथ में था, ना जाने कबसे बाहर आने का रास्ता तलाशता, अपने वजूद में सारे आस-पास को समोता गुस्सा….सारे तिरस्कारों का जबाव देता पान पत्ते की गोठ के रहवासी का तड़पता धिक्कार, पांडेजी के सारे चेहरे को  लथेड़ता, बेबसी में सुलगता थूक का थक्का…

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

General Election 2014 and the Challenge of Communal Fascism

General Elections 2014 and the Challenge of Communal Fascism

By Purushottam Agrawal

I made the following observations while addressing a National Convention on Democracy and Secularism on 27 February 2014 in Delhi. This Convention was organized by Dilip Simeon, Harsh Kapoor, Battini Rao and other friends. I am posting these remarks online to invite reflection, interaction and most importantly, action – Purushottam.

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A meeting similar to this was organised ten years ago in the wake of the Gujarat pogrom, but the mood of that convention was one of fire and ‘josh’, unlike the present one characterised by udaasi. May be you are not that udaas or tired, but let me confess, regarding matters of secularism and rights, I feel tired in spirit.

I had had the opportunity of attending the preparatory meeting for that Convention. The chief organiser described me as a minion of Dilip Simeon in the course of discussion. I told the organiser that I was proud of being considered a minion of Simeon. I was there because of Dilip and I am here today because of him.

The organiser of that convention wanted me to address it “as a Hindu”, because of the name I carry. I told him, unlike many of my secular Hindu friends, I don’t disclaim my Hindu identity, but I don’t take political positions as a Hindu. Today, you want me to condemn the Gujarat pogrom, “as a Hindu”, tomorrow, I might, “as a Hindu” feel sympathetic to the idea of Hindusthan Hinduon ka, nahin kisi ke baap ka! I made it clear that I shall speak as a citizen concerned about democratic institutions and norms. Following this, the chief organizer  said that in his opinion it is best if I do not address his Convention.

A secular friend has often castigated me on my ‘hindu-ness’, saying it is because of people like me that the RSS is gaining strength. I have had to remind him that it is precisely because of those Hindus who are religious, but don’t vote for RSS, that RSS has still not succeeded in its designs.

Friends, I find it rather amusing that many of us have no sense of the Hindu tradition, its agonies, its inner conflicts of hegemony and resistance. We have no desire of engaging with it in a serious way, but when the Babri Masjid is demolished, all of a sudden we want to turn to Vivekananda, even the Vedas to find arguments against communal fascism. Such efforts on our part carry no credibility amongst the people who we want to address.

Today, I have been asked to talk about ‘Freedom of thought and life of mind’.  From this podium, Jairus has put the phenomenon of fascism in a theoretical perspective, and Rahul Pandita has done a great job of reminding us of the plight of Kashmiri Pandits.  I claim no scholarship, not even great knowledge. I just want to share my concerns and ideas as a citizen and as a writer.

Let us face the facts. Over the last twenty years, communal forces have succeeded in changing the ‘mindscape’ of our society. Rahul just quoted a very senior communist leader telling Kashmiri Pandits, in the context of their forced exodus from the valley, ‘Aisi baaten hoti rehati hain…’ (“such things happen”). This statement is reflective of the changed mindscape. Even responsible people are falling prey to the ‘chalta hai’ syndrome. More importantly, it is reflective of a very narrow and short-sighted understanding of communal fascism. This reminds me of a related incident which shows the extent to which we have internalised the ideas rooted in the politics of identity. My friend the late Farooque Sheikh had once visited a refugee camp of Pandits in Delhi, and I had to face a hard time convincing a Kashmiri Pandit colleague of mine at JNU that Farooque was a Gujarati, not a Kashmiri. My colleague’s idea was simple- if not a Hindu, Fartuque must certainly be a Kashmiri Muslim, otherwise why would he visit the suffering Kashmiri Pandits? The prejudice that only Dalits can speak for Dalits, women for women and so on has been given huge respectability by our intellectuals. By this argument, someone like me who belongs to the privileged savarna male minority should speak for no oppressed community or individual. We must not forget that in the wake of the 1984 mass murder of Sikhs in Delhi, the only non-Sikh institution to close in mourning was Vidya -Jyoti— a Jesuit theological institute.

To what extent, has the mindscape of our society changed?  Just look around.  It is not a court of law that has passed an order against Wendy Doniger’s book. The publisher decided to pulp it on its own. There was no formal ban on Aamir Khan’s films in Gujarat, it is just that the exhibitors were “not willing” to release them. Similarly there was no formal ban on Salman Rushdie attending the Jaipur Literature Festival in 2012. But the police couldn’t “provide security”. Moreover on the last day of the festival a ‘celebratory’ mass Namaaz was offered at the venue. If next time around the Bajrang Dal feels like organising a Hanuman- Chalisa path at the same venue how will ‘secular’ politics and intelligentsia be in a position to react? It did not happen in a Christian majority country, but here in India, that the film ‘Da Vinci Code’ was  allowed to be released only after the Information and Broadcasting Ministry had  obtained approval of  the Christina clergy by organising a pre-release screening. This was a case of officially sponsored religious censorship of art.

In my youth I had read a story by Harishankar Parsai. In this story, Rama appoints Hanuman as the tax inspector and crafty traders get away with tax-evasion by binding their account-books in a red piece of cloth, as Hanuman wears a red loin-cloth. In so doing, they “prove” their devotion to Hanuman. The story “informs” its readers that this is why traders bind their account books in red till date. This was forty years ago. Tell me honestly- will a writer write such a story today? Will any responsible editor publish it? That is the distance we have travelled. That is the change in mindscape we have undergone.

Only this morning, I came across a rather funny – and sad – bit of news. A truck carrying scrap paper met with a minor accident, with its cargo spilling on the road. In it, there were some copies of a holy book- Hindu or Muslim not known. Subsequently, the driver and cleaner were beaten to a pulp by an irate mob and the police have registered a case against the scrap-dealer who dared ‘hurt’ religious sentiments by treating holy books as scrap.

We have discussed the theoretical aspects of communal fascism in this session, and that is really important. The challenge however is that of acting fast and in a credible manner. Just like Jairus, Kamal and Anu, I studied at JNU, and also taught there. We were given to endless discussions and lengthy meetings – sometimes the general body meeting of the students ran for 36 hours straight! We were confident of revolution being around the corner, but the wretched corner has turned into a corridor and we are still waiting…taking rounds in the corridor…and things have changed beyond recognition. The mindscape of our society has changed fundamentally.

We have to realise that communal fascism is not merely a concern from the standpoint of security of minorities. It poses a threat to the very idea of a democratic and vibrant society. Frankly sometimes I pity the state that Indian Muslims have been reduced to. A political party assuring them of merely basic security against murder, arson and loot can claim itself as secular and can hope to take Muslims along. Should not the Left in Bengal feel ashamed at the plight of Muslims as reflected in the Sachhar Committee report? Do our secular parties realise that Narendra Modi is only speaking their language when he points out that in the last 12 years there have been no riots in Gujarat? The communal and secular parties almost seem to be in connivance for restraining Muslims from being equal citizens of a secular democracy.

People like Dilip and yours truly have been shouting hoarse about the importance of ensuring rule of law, autonomy of institutions and the constitutional rights of citizens qua citizens…but the politics of ‘anti- communalism’ listens, nods and goes on exactly as before.

We are going to have elections in less than two months, and these elections are going to be fraught with unprecedented significance. If Narendra Modi becomes PM, chances are that things in this country will change in a very basic way, and for the worse. Theoretical discussions and disagreements are as important as ever, but we have to think of concrete political choices as well. How do we face the very real danger of India turning into just a formal democracy, without the present churn and vibrancy?  We must remind people and also remind ourselves, that democracy is not just about numbers – it is about democratic norms and institutions. It is about ensuring the free expression of even such views which one may find utterly nonsensical.

Let us never forget, Jesus was crucified as a heretic. ‘Heretics’ provide a society with the opportunity of self-reflection, and democracy is fundamentally about ensuring a non-violent and civilised interface between the orthodox and the heterodox in each and every sphere of life. Communal fascism is a threat to the very idea of such a vibrant and meaningful democracy and hence is a matter of concern not only for religious minorities, but for each and every citizen.

So, we have to look at concrete and credible political possibilities. Some friends refer to AAP as an alternative. I too appreciate its role but with reservations and criticism. Such disagreements are not only normal but also welcome. The point however is to arrive at a practical consensus on defeating communal fascism electorally. Perhaps, in the short term we can proceed with a constituency-wise assessment and in each constituency, help the secular candidate who is most likely to present a challenge to communal politics.  In the long term however, there is no alternative to acting in a manner consistent with human rights, democratic norms, autonomy of institutions and upholding the rule of law. We cannot relax these standards no matter who claims to be ‘hurt’. Unless we act fast to recover our credibility, we will find ourselves even more marginalized and communal fascism will only grow stronger.

Towards an insane society? Reflections on Khurshid Anwar’s suicide and beyond

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A slightly edited version of the following has appeared in today’s Asian Age.

Towards an insane society?

-Purushottam Agrawal

 

So-called ‘media trials’ are only one of the disconcerting aspects of the proliferation of 24X7 news channels in an era where the capacity to reflect calmly is waning fast. Everybody, including intellectuals, seems to be in a hurry “to act” on their chosen causes. The idea that calm reflection must precede any action – individual or collective – seems to have become quite old-fashioned. Even in the response of institutional structures to serious issues, one can discern a mob-mentality under the garb of political correctness. The growing reach and power of electronic media is contributing greatly not only to the creation, but also to the institutionalisation of such a mentality and needs to be balanced with a sense of responsibility and ethics.

Recall how, a couple of years ago, a female school teacher in old Delhi was almost lynched by a furious mob as a news channel had portrayed her as a ‘procuress’ by manipulating audio and visual clips. One doesn’t know if the channel and the reporter were ever legally charged and proceeded against.

Khurshid Anwar, the well-known activist and writer committed suicide on the morning of 18th December last year. The previous night, in a distorted  and sensationalist programme, the Hindutva supporter chief of a news channel and a celebrity feminist turned Narendra Modi enthusiast  had repeatedly described him as a ‘rapist’ and vowed to have him punished.

 

This programme was the culmination of a sustained hate campaign against Anwar. For the preceding three months, he was being charged with rape on the social media. The statement of a girl from a north eastern state was video-recorded by the Hindutva activist, in which Khurshid was charged with raping and sodomizing this girl, and the CD of this recording was distributed to many social activists in various parts of the country. This was done well before any official complaint was lodged with the police or even before an act of rape was established as the complainant has never been subjected to a medical test.

In spite of this, the distribution of this CD and other scurrilous material was condoned and even promoted by ultra-left hate-mongers posing as activists. A vigorous campaign of innuendos was launched against Khurshid on social media websites. The most curious thing in this entire affair was that the accused was acting more transparently than the accusers! Khurshid Anwar kept challenging those charging him to go to the police, to have a medical test of the complainant and proceed formally so that he gets a chance to clear his name. He said this publicly many times over this period, and was thoroughly dispirited at the idea of living with this taint on his reputation as a fierce fighter for gender rights. He filed a defamation case against some of the people whom he knew to be distributing the recording, and reported the matter to the police. No action seems to have been taken to quell the rumours which were damaging Anwar personally and professionally.

It was the wisdom of the well-known activists who knew of the matter and presumably knew of the targeted smear campaign to condone such a course of action. This alliance of the ‘ultras’ of the left and right was probably a result of the uncompromising and sustained stand Anwar had taken against the fanaticism of both Hindu and Islamic variety. His recent series of articles against Wahhabi Islam had particularly angered some ‘comrades’ who refuse to acknowledge the possibility of Islamic fundamentalism.

It is more than two months to the death, but the police have not registered a FIR in the case. The family of Khurshid Anwar lodged a complaint charging the TV channel head, the Modi enthusiast and those who distributed the CD and carried out the social media campaign with conspiracy and abetment to suicide. They have provided documentary evidence which calls for at least a FIR and a thorough inquiry, but the police remain unmoved.

The police seem to be under pressure due to the involvement of ‘big names’ on one hand, and the pressures of identity politics on the other. This is symptomatic of the rot not only in the system but also in the ways the media and intellectuals seek to address systemic short-comings. The rot is characterised by the plethora of laws passed as a result of knee-jerk reactions to situational challenges and under pressures from identity politics of various types. It is also characterised by the fast spreading habit of domain-specific and sometimes frankly opportunistic thinking amongst activists and intellectuals.

To take an example, those well-meaning scholars who are disturbed at Penguin pulping Wendy Doniger’s book due to the fears of harassment under the vague provisions of section 295 of IPC, have been enthusiastically supporting laws which are almost customised for harassment and which compromise on the basic tenets of the rule of law. One mustn’t forget the lampooning of Sharad Yadav by our ‘thinking’ classes for showing the courage of questioning the dangerously vague provisions of the law passed in the wake of the horrendous rape and murder of ‘Nirbhaya’.   Passing stringent and often ill-defined laws has somehow became equivalent with ‘action’ against sexual harassment in the minds of our chattering classes. In this, they forget the duty to protect the rights of the accused. The accused is not guilty just by virtue of accusation.

Such laws are empowering not individual victims but rather ‘representatives’ of identities which have a stake not only  in perpetuation of conservative power structures, but also in creating of an even more oppressive state machinery. The presumption of innocence till proved otherwise has been replaced by the presumption of guilt; instead of state proving the accused guilty, the accused has to prove his/ her innocence under the regime of ‘progressive ‘and ‘empowering’ laws. It is not the victim, but the policeman and his bosses who are becoming more and more powerful.

To take another recent example, the Goa police have charge-sheeted Tarun Tejpal for ‘rape’ under the post-Nirbhaya rape-law. The peculiarly broadened definition of rape under this law can lead to ten years RI for Tejpal. Is it not analogues to legally eradicating the difference between a fist-fight and an attempted murder? Sexual harassment is of course morally repugnant and ought to be treated as a legal offence as well; but can it be put at par with rape? ‘Off with his head’ for each and every offence, may be understandable in the wonderland ruled by the Queen of Hearts; certainly not in a civilized society.  

Khurshid Anwar was driven to desperation due to the psychological pressures created by the troublesome combination of the media cherishing the creation of a moralist mob-mentality and the thinking classes succumbing to the desire of being seen to be politically correct even at the cost of basic tenets of rational thinking. The pressing need of the hour is to resist the temptations of such ‘domain specific’ thinking and move away from knee-jerk reactions.

Gender rights and the rights of other social groups and identities can be ensured only by a system which is genuinely committed to the broad framework of human rights and basic tenets of rule of law. The tragic death of Khurshid Anwar is a stark reminder that the only alternative to such a commitment is to speedily tumble toward an insane society.

Can the Congress re-invent itself?

In the wake of the thrashing received by his party in the just concluded assembly polls, Rahul Gandhi has promised to learn from the Aam Aadmi Party and to involve the youth in a manner which we “cannot imagine” at the moment. It is imperative that the Congress learns its lessons fast. One could speculate on the existence or otherwise of a ‘Modi-wave’, but an anti-congress wave certainly seems to be blowing in the country. Given its already emaciated state in Bihar and U.P., these results have indeed brought the grand old party to a moment of existential crisis. The most telling image of the confusion in the ranks was Ashok Gehlot lamenting on TV, ‘how can the results be so shocking after having done so much of the work for the people?’

Is the Congress willing to ask the right questions and swallow the bitter answers?  The humbling defeat has brought forth the dangers of ad-hoc responses which reflect the top and middle level leadership’s disconnect not only with the ‘aam aadmi’ but also with ground level party workers. Congress has never been a cadre-based party, but it still has a large number of dedicated workers, who have over the years been virtually thrown out of political decision making. The best thing Rahul Gandhi can learn from the unprecedented drubbing is that a political party is structurally very different from an NGO and its culture ought to be different from that of a corporate entity. Sharad Pawar may sound uncharitable and sharp, but there is a lesson in what he says about the impact of ‘jhola-walas’.  Every political leadership does and must have a set of advisors from outside the fold of regular party workers;  she or he must maintain a regular dialogue with intellectuals, academicians and activists, but can any party afford being seen borrowing its political agenda and idiom from those who have no real stake whatsoever in its existence as a political formation?

How can one expect the party-worker to be energised when the top leadership is perceived to be giving more weight to the opinions of those who have earned the status of powerful advisors on the basis of their ‘phoren’ degrees or ‘activism’ and have started ‘suggesting’ policies and ‘reforming’ the party apparatus without having ever worked within it?  Just imagine the plight of the worker who all her life has worked through the dirt and din of the great Indian political scene and upheld the congress ideas and policies, and now has to learn lessons in leadership from thosemyriad MBA and NGO types who have the ear of the ‘high command’ combined with an open disdain for ‘dirty’ party-politics.  Even during the days of Indira Gandhi, when the entire party apparatus was turned into an individual-centric direction, the typical congress worker was not reduced to such helplessness in matters of organisation and policy. Today, the congress worker finds herself in the peculiar and unenviable position of defending an agenda drafted by those who were and are bitterly critical of most of the policies and programmes of her party.

The Congress leadership instead of settling scores in this hour of crisis must ask itself: is there any institutional method of generating frank and free feedback from below? Highly qualified advisors certainly have a role to play, but does the leader have the humility to learn from the humble party-worker as well? A major political party such as the Congress of course has to respond to challenges on a day to day basis, but can such responses be allowed to develop into a full-fledged culture of ad-hocism? What is the message sent out to the worker when  on one day, top ministers are seen laying out the red carpet to a TV yoga-guru and political wannabe, and  just a couple of days later the same person is dismissed as an utter hypocrite.

A lot has been said about drift in the party and policy-paralysis in the government. This drift and paralysis can be addressed only if free and frank feed-back from ground level workers is sought and valued. Leadership is all about finding the right balance between this feedback and the direction in which the leadership wants to take the party. It is also about realising that NGOs have a role to play in the society, but they must not be presumed to replace political parties and their workers. A democratic leadership can be firm and decisive – it can take tough, even un-popular decisions, only if it is willing to lend an ear to the humble and ‘uncouth’ party worker who is usually the most authentic channel to the pulse of the people.

People have not only punished the Congress for failures of governance – they have also implicitly reacted to a political culture wherein serious issues are seen being handled in a careless manner. One wonders how the party leadership got convinced about the shoddy original draft of the ‘Prevention of Communal and Targeted Violence’ bill?How can communal violence be combated by replacing one stereotype (of perpetually aggressive minority) with the equally ridiculous stereotype of a perpetually guilty majority.This is precisely what the drafters of the bill did, quite unmindful of the disastrous implications for the credibility of the Congress party and its government. They also did not appear to have paid adequate attention to sensitive centre-state relations in a federal polity.  Such tunnel-vision is characteristic of NGOs dedicated to some chosen cause, but can this be the approach of any responsible political party and government?

The Congress leadership must reaffirm the party’s uniqueness. Much before the term ‘inclusiveness’ got political currency, the Congress perfected the art of balancing conflicting social interests and political perceptions. In today’s fast changing social and political scenario, Congress will have to explore new horizons of this art of balancing. And the Congress worker has to be in the centre of this exploration.

Remembering Comrade Dang

Remembering Comrade Dang

–         Purushottam Agrawal

Year 1982. It was a second class compartment of a Jabalpur bound train. I, along with my friend Nilanjan Mukhopadhayay, was going to Jabalpur to participate in an event against communal politics organized by IPTA. One of our fellow travelers was a quiet, almost withdrawn old gentleman, his constant reading interspersed by bouts of reflectively looking out of the window. We took him to be a retired teacher, heading home.

It was only at Jabalpur Railway station that we realized that this unassuming, quiet gentleman was comrade Satyapal Dang – the very famous and universally respected leader of the CPI. It was one of those rare occasions upon which I cursed myself for not sharing the typical Indian tendency of striking friendship and indulging in gup-shup with fellow-passengers.  But for the total absence of this tendency in Nilanjan and me, we might have used the many hours of the journey from Delhi to Jabalpur in talking with the man whose articles we used to read with deep interest.

Comrade Dang was there as the chief guest of IPTA’s event. We had long arguments – both during the sessions and afterwards. Of course, he was articulating the party-line regarding the then on-going Akali agitation in Punjab -“we must look at the ‘content’ of the agitation, i.e. the demands of the farmers, not it’s ‘form’ i.e. the utterly communal idiom and orientation”

It was difficult to agree with this dialectics, and we did not. But, comrade Dang, far from being dismissive of our concerns and suspicious of our intentions, was open to our criticisms and eager to engage on the issue.

After this meeting, we continued to receive his support and blessings in our anti-communalism activities. When, in 1983, we brought out the first issue of our inter-disciplinary journal ‘Jigyasa’, he was one of its active supporters, helping us to reach contributors and finding subscribers.  The next face to face meeting took place in 1987 when the Sampradayikta Virodhi Andolan (SVA) invited him along with Gurusharan Singh to deliver the key-note at its founding conference. The founding of the SVA was an outcome of the agony and activism of many friends like Dilip Simeon, Bhagwan Josh and others who, besides intervening to help the victims of the 1984 anti-Sikh riots and other communal incidents, were also trying to understand the true nature and implications of communal mobilizations of all hues. Comrade Dang’s address to this conference was thought-provoking, inspiring and moving. The 1984 and 1987 (Maliana) massacres had already taken place, the issue of communal mobilization had traversed way beyond the comfortable dialectic of ‘form’ and ‘content’. The country was faced with mobilizations exhibiting fascistic characteristics. Who but comrade Dang was better placed to realize this truth first hand? He heartily welcomed the founding of the SVA and its agenda of understanding the nature of ‘Indian variant of fascism’ and fighting the menace without bothering about political correctness of this or that type; without giving any concession to either the majority or the minority versions of the fascistic communal mobilization.

Comrade Dang promised all help and co-operation to us, and stood by his promise when three SVA activists – Dilip Simeon, Jugnu Ramaswami and I decided to visit Punjab in 1988. It was the period of renewed, intense militancy and we wanted to have a first-hand, direct idea of the situation.

The CPI office in Amritsar served as our base courtesy Comrade Dang. It was also his virtual residence. Moving from our ‘base-camp’ we visited many villages and towns. We went to Damdami Taksal and tried to understand the viewpoint of the Kharkus, i.e. militants themselves. We realized the trauma of a militancy ridden society. One can never forget the visit to village Vein-Puin, where a local comrade was our host. The seven year old daughter of this farmer could tell a Mauser pistol form a revolver. While the home-maker cooked food, her elder daughter stood guard with a gun in hand. When we went to the fields to answer the call of nature, the comrade Sardarji himself guarded us with gun in hand!

After all, comrades of all hues were on top of the hit-lists of the militants. It was a young member of the CPM in Amritsar who made the tongue in cheek remark- “we have been talking of Left unity for so many years; here in Punjab it has been already realized, and the credit goes to Kharkus– who treat all communists as enemy number one- without bothering about the differences in the party programs of CPI, CPM and CPI (M.L).”

This observation was confirmed by a top BJP leader as well, who was frank enough to admit, “Neither we, nor the Congress, but only the Communists are really fighting back against the militants.” The experience of those days deserves a much more extensive treatment, but here I just wish to recall the universal respect and admiration comrade Dang enjoyed not only throughout the political spectrum but also in all the sections of society. It just took one phone-call from him to make leaders of the Congress and the BJP, and of course Leftists of all types; – academicians, journalists, social workers, factory workers and farmers, open their doors to guests of ‘Kamredji’. Notwithstanding sharp ideological differences, to a senior woman leader of the BJP, now part of the national leadership of that party, Dang Saheb was nothing less than the elder brother, Bhraji. In those bleak, militancy-ridden times, comrade Dang’s dignified and courageous presence was a beacon of hope and inspiration to all.

I saw him last in 2006 when he had come to Meerut on a private visit. This time, my friend of JNU days, Akshaya Bakaya was with me. Age had taken its toll on the body of the old comrade, but his mind was as alert as ever. He was in an introspective mood, and was trying very sincerely to sound optimistic about the future and to assess the past and present of the Left movement in India and the world. He sounded very uncomfortable with the effective marginalization of the category of ‘class’ even amongst Leftist circles amidst their over-indulgence with the politics of social identities and castes.

Comrade Dang was a lamentably rare exemplar of the idea of a Communist – who while following the party-line honestly, showed intellectual competence and moral courage to think differently as well.

 

‘पैरघंटी’–‘नया ज्ञानोदय’ जून 2013 में प्रकाशित

पैरघंटी

सत्यजितजी का स्वरूप बड़ी तेजी से बदल रहा था। अधीनस्थों, खासकर निचले तबकों से संबंधित अधीनस्थों की चमड़ी कोड़े की तरह उधेड़ने वाली उनकी जबान पुचकार पाने को व्याकुल, लप-लप करती जीभ में बदलती जा रही थी। जिस कंठ-स्वर को सिंह-गर्जना का मानव-संस्करण मान, वे अपनी वंशावली पर गर्व करते थे, वह स्वर कूं-कूं की निरीहता पहले ही ओढ़ चुका था। देह दो पैरों की मुद्रा त्याग कर चारों पैरों पर आ चुकी थी। शरीर के पार्श्व भाग में, बढ़िया कपड़े के पैंट में से दुम धीरे-धीरे निकल रही थी, और तेज-तेज हिल रही थी।

उच्चकुलोद्भव, उच्चाधिकारी श्री सत्यजित इस समय मंत्रीजी के गुस्से को पुचकार में बदलने की साधना कर रहे थे। इस गुह्य साधना का साक्षी कोई नहीं था, सिवा साधक और साध्य के। हाँ, गगनविहारी देवता अवश्य यह दृश्य देख रहे थे। देख रहे थे, और बोर हो रहे थे। वे ऐसे दृश्य अनादि काल से देखते आ रहे थे, और चट चले थे। जिन्हें देवयोनि प्राप्त किये बहुत समय हो गया था, ऐसे देवताओं की बोरियत तो अब फटीग में बदलती जा रही थी। वे सब कुछ दिखाने वाली दिव्य-दृष्टि को कोसने लगे थे, मनुष्यों से ईर्षा करने लगे थे जो दिव्य-दृष्टि से वंचित होने के कारण, सब कुछ देखने से तो बचे ही रहते हैं, और जो देख सकते हैं, वह भी आम तौर से या तो देखते ही नहीं, या देख कर भी अनदेखा कर देते हैं।

इस समय श्वान-आसन साध रहे सत्यजितजी को उनके वैकुंठवासी पिताश्री प्यार से ‘राजन’ कहा करते थे। सत्यजितजी से जिनका वास्ता पड़ता था, वे सब जानते थे कि उनकी कृपा-दृष्टि उपलब्ध कराने वाला जंतर यही संबोधन था- ‘राजन’। उधर, मंत्रीजी के कैलासवासी पिताश्री उन कोई साढ़े-पाँच सौ श्रेष्ठ जनों में से थे, जिन्हें हर मैजेस्टी की कृपावंत हुकूमत ने ‘आलीजाह-बहादुर’, ‘दरबार’, ‘श्रीमंत’ आदि बनाए रखा था, और जिन्हें अपने जीवन-काल में कलि-काल का यह पातक देखना पड़ा कि देखते-देखते ही वे सल्तनते-बरतानिया के फर्जन्द-ए-खवास से भारत माता की संतान बनने को बाध्य हुए।

मंत्रीजी के स्वर्गवासी पिताश्री उनकी कुर्सी के ठीक सामने एक शानदार तस्वीर में मौजूद रहते थे। आबनूस के रोबीले फ्रेम में मढ़ी इस तस्वीर में स्वर्गवासी महाराजा के साथ स्वयं हिज एक्सीलेंसी वायसराय मौजूद थे। कुछ दरबारी मौजूद थे, पृष्ठभूमि में चंद जी-हजूरे भी मौजूद थे, हिज एक्सीलेंसी, महाराजा और दरबारियों के हाथों में राइफलें मौजूद थीं, जी-हजूरों के हाथों में तोड़ेदार बंदूकें मौजूद थीं, और नीचे की तरफ…

नीचे की तरफ वह शेर मौजूद था, जिसे सौ-पचास हाँके वालों की मेहनत के जरिए, पेशेवर शिकारियों की दक्षता के जरिए मारकर हिज एक्सीलेंसी और महाराजा ने ‘लाजबाव’ बहादुरी से शिकार करने का गौरव प्राप्त किया था। अपनी मौत में भी रोबीले दिख रहे शेर के सिरहाने हिज एक्सीलेंसी दि वायसराय खड़े थे, पाँव उसके सर पर और राइफल जमीन पर टिकाए। सल्तनत-ए-बर्तानिया के फर्जन्द-ए-खास महाराजा की भी राइफल जमीन पर टिकी थी, लेकिन पाँव शेर के सर पर नहीं दुम पर था।

कहाँ वह ज़माना कहाँ यह गया-गुजरा वक्त कि एक दिन तो यह शानदार तस्वीर कुछ देर के लिए ही सही, दीवार से हटानी पड़ गयी थी। मंत्रीजी नोट करते थे कि उनके कमरे में आने वालों में से कई लोगों को यह तस्वीर विभिन्न कारणों से खटकती थी…खटकती रहे…ब्लू ब्लड जिनकी शिराओं में बह रहा था, रायल खानदान के रोशन चिराग़ वे मंत्रीजी नसों में लाल खून लिए घूमने वाले ऐं-वें टाइप्स की परवाह क्यों करें? बल्कि इन लाल खून वाले हकीर इंसानों में से कुछ का तो खून लाल से सफेद हो गया था, इतने गुस्ताख़ हो गये  थे ये बेहूदे कि मंत्री जी को ‘महाराजा’, ‘श्रीमंत’ जैसे उचित संबोधनों की बजाय बस श्री या जी लगा कर या सर या महोदय कह कर संबोधित करते थे…ब्लडी इडियट्स, डर्टी फिल्द…

ऐसे मूर्खों की तो उपेक्षा ही उचित थी, लेकिन जब वर्ल्ड वाइल्ड-लाइफ फंड का एक शिष्ट-मंडल प्रोजेक्ट टाइगर की फंडिंग डिसकस करने के लिए आया था, तो इसी सत्यजित ने जान हथेली पर रख कर श्रीमंत को सलाह दी थी कि कुछ देर के लिए शेर के शानदार शिकार की यह जानदार तस्वीर कमरे से हटा दी जाए। सलाह सही थी, यह तब जाहिर हो गया जबकि शिष्ट-मंडल के एक सदस्य ने यह सुझाव दे डाला कि निजी संग्रहों से नहीं, तो कम से कम सरकारी और अर्द्ध-सरकारी संग्रहालयों से ऐसी सभी ‘ऑब्सीन’ तस्वीरें, पेंटिंग्स आदि हटा दी जाएं जिनमें अंग्रेज अफसर और उनके ‘नेटिव’ चापलूस शिकार किये हुए शेरों के साथ ‘वल्गर’ पोज दे रहे हैं। सुझाव देने वाला गोरी चमड़ी में न मढ़ा होता, तो अपने स्वर्गीय पिताश्री का अप्रत्यक्ष ही सही, इस गये गुजरे जमाने की वजह से ऐसा घोर अपमान करने वाले की चमड़ी खींच कर उसमें,  भुस भले न भर पाएं, श्रीमंत किसी और ढंग से हरामजादे को ठीक तो कर ही देते। लेकिन, एक तो गोरा, ऊपर से फंड का मामला, मंत्रीजी अपने ब्लू बल्ड का घूँट पी कर रह गये थे। मन ही मन सत्यजित की दूरंदेशी की तारीफ भी की।

उस दिन के बाद से,मंत्रीजी सत्यजित को अपना खास मुसाहिब मानने लगे थे, इस मान्यता के कारण सत्यजितजी का आलम सातों दिन चौबीसों घंटे यह रहने लगा कि ‘आजकल पाँव जमीं पर नहीं पड़ते मेरे…’

यह तस्वीर मंत्रीजी की मेज के ठीक सामने थी, और उसी मेज के नीचे थी वह पैरघंटी—फुटबेल—जिसके कारण सत्यजितजी इस समय श्वान-नृत्य कर मंत्रीजी को रिझाने की साधना कर रहे थे।

बात यह थी कि मंत्रीजी चपरासी को बुलाने के लिए हाथघंटी और पीए को बुलाने के लिए इंटरकाम का उपयोग नहीं करते थे। उन्हें अपनी मेज पर घंटी रखना सुहाता नहीं था, और इंटरकाम पर वे केवल अपने जूनियर मिनिस्टर से बात करते थे, सो भी बेमन से। घंटियों को मंत्रीजी मेज के ऊपर नहीं, मेज के नीचे, पाँव की पहुँच में रखते थे, एक चपरासी के लिए, एक पीए के लिए…

यहाँ तक तो सत्यजितजी के हिसाब से भी बात ठीक ही थी। चपरासी हो या  क्लर्क ग्रेड का पीए, ये सब इसी लायक हैं कि इन्हें हाथ के इशारे पर नहीं, पैर की ठोकर पर रखा जाए…लेकिन अब यह तो ठीक नहीं ना कि…क्या कहें, कैसे कहें…

मंत्रीजी अपने पीए को ही नहीं, पीएस याने श्री सत्यजित आईएएस को भी पैरघंटी से ही बुलाते थे। चपरासी और आईएएस को बुलाने का ढंग एक ही हो, यह तो प्रथम दृष्ट्या ही गलत था, ऊपर से घंटी भी हाथ से बजने वाली नहीं, पैरघंटी…इजंट इट टू मच, यार…

सत्यजितजी को बेहद बुरा लगता था मंत्री महाराजा का यह अविवेक; लेकिन आईएएस ट्रेनिंग की औपचारिक शिक्षा याद रही हो न रही हो, सार की बात अन्य बंधु-बांधवों की तरह उन्होंने भी मन में गोया फेविकोल से चिपका ली थी- निचले पायदान वाले के सर पर पाँव, और उपरले पायदान वाले के पाँव पर सर रखे रहना ही तरक्की की सीढ़ियाँ चढ़ते चले जाने का असली मंतर है। सो, पैरघंटी से बुलाए जाने को लेकर अपनी असुविधा उन्होंने मंत्रीजी के सामने जाहिर कभी नहीं होने दी थी। फायदा क्या था? कितनी भी खिसिया ले, बिल्ली खंभे का नोच क्या सकती है, उखाड़ क्या सकती है?

गुस्सा तो आता ही था, सो उसे  झेलने के लिए थे ना बहुतेरे तुच्छ प्राणी, जिनके अस्तित्व पर सत्यजित की जबान गुलामों के मालिक के हंटर की तरह चलती थी, जिनके कानों की तरफ सत्यजित के शब्द ताजा फटे ज्वालामुखी के खौलते लावे की तरह लपकते थे। इन्हीं तुच्छ प्राणियों में से एक इस वक्त सूली चढ़ी बैठी थी सत्यजितजी के कमरे में जबकि पैरघंटी की बुलाहट सुन कर उन्हें मंत्रीजी के चैंबर की ओर लपकना पड़ा था, उस हरामजादी काली-कलूटी ओबीसी को वार्न करके ही निकले थे सत्यजितजी कि जब तक वापस ना आएं, खबरदार, हिलना मत, यहाँ से। मंत्रीजी के कमरे की ओर लपकते हुए सत्यजित की भुनभुनाहट जारी थी…’सर ही चढ़ते चले जा रहे हैं, यार ये लोग तो, इस को तो यह गुमान भी  है ना कि बिना रिजर्वेशन के सर्विस में आई है, आई होगी, रहेगी तो ओबीसी ही ना, रिजर्वेशन नो रिजर्वेशन….खानदान थोड़े ही बदल जाएगा, औकात थोड़े ही बदल जाएगी…बैठी रहना, अभी वापस आकर बताता हूँ तेरी औकात, बेहूदी चिरकुट, जबसे दफ्तर में आई है, मेरे बनाए नोट में गलतियाँ निकालती रही…और अब चली है स्टडी लीव माँगने…’

खिसियाहट इस वजह से कई गुनी हो गयी थी कि पैरघंटी उस कलूटी के सामने ही बज उठी और सत्यजितजी का तन-मन बेकाबू होकर रिफ्लेक्स एक्शन करने लगा था। घंटी बजते ही वे उछले, दरवाजे की ओर लपके, हड़बड़ाए शरीर का धक्का खा कर कुछ फाइलें मेज से धराशायी हुईं, संभलने के चक्कर में खुद गिरते-गिरते बचे। अपने आपको बचपन में सुने मुहावरे-लजवन पचाने- पर अमल करते पाया, कलूटी को सुनाते हुए बोले, “काम करना पड़ता है, इंपोर्टेंट पोजीशन पर…आपकी तरह नहीं….”

हिम्मत…हिम्मत देखो नालायक की, चट से बोली, ‘काम सब करते हैं…’

दरवाजे तक पहुँच चुके सत्यजित पलटे थे, ‘ सब पता है, सूरत देख कर ही जान गया था कि जिन्दगी भर हराम की खाई है, कभी काम नहीं किया है…मस्ती की है बस…और अब मस्ती के लिए ही यह स्टडी लीव का नाटक…’

‘भगवान से डरिए, सर…’

हद है, यार कितनी चलती है जबान इस हेहर की। ठीक है कि इस ऑफिस में नयी आई है, मेरे रोब-दाब से वाकिफ नहीं, लेकिन यह तो हद ही है, ऐसी की तैसी इसकी…

‘स्टडी लीव तो आप भूल ही जाइए, मैडम…और अगर किसी तरह ले भी ली, तो लौट कर तो यहीं आना है, देखना कैरियर की ऐसी-तैसी न कर दी तो मैं भी राजन…आई मीन सत्यजित नहीं…’

उठ खड़ी हुई थी , वह,सो भी लुंज-पुंज नहीं, आँखों में आँसू भर कर नहीं। सीधी रीढ़ के साथ, सचाई भरी, सहज ही चमकती आँखों के साथ…इसे तो ठीक करके ही रहूँगा…एकाएक सत्यजितजी ने मन ही मन अरसा पहले वैकुंठवासी हुए पिताश्री के साथ-साथ कुछ ही महीने पहले ब्रह्मलीन हुए मुखियाजी की भी कसम खाई, और साथ ही वे अपनी धरती से भी जुड़ गये, यह बदतमीज औरत भी तो उसी धरती की थी… ‘चलतानी कहुँवा, बइठल रहीं, रउआ से त अभी ठीक से बात करि के बा.., रिमैन सीटेड, मिनिस्टर साहब से मिल कर आता हूँ फिर बताता हूँ तुम्हें कि कैसे बात की जाती है, सीनियर अफसर से…भगवान से डरिए…यू ऐंड यौर भगवान…माई फुट…’

कहते कहते सत्यजितजी अपने भगवान के मंदिर की ओर लपक लिए थे। प्रवेश करते ही पाया कि उनके भगवान इस समय वरदहस्त मुद्रा में नहीं, खड्गहस्त मुद्रा में थे। छूटते ही बोले  ‘सुना है आपको पैरघंटी से कुछ परेशानी है, यू आर वेरी अपसेट विद दि  फुटबेल एरैंजमेंट..’

फुटबेल का जिक्र अपने भगवान के मुख से इस प्रकार सुनते ही, तुच्छ प्राणियों के वे ही भगवान जिनकी शान में अभी-अभी ‘माई फुट’ की घोषणा करके आए थे, सत्यजितजी को याद आने लगे।

‘नो सर, नो सर…आई मीन…’ मन ही मन बूझ रहे थे कि चुगलखोर कौन है, चुगलखोर भी क्या साला आदत से मजबूर…यह सिंह कमीना…खाने में तो हरामजादा पत्थर भी पचा जाए लेकिन बात जरा सी नहीं पचा सकता…मैं भी तो चूतिया हूँ, उसके सामने मुँह से निकल कैसे गयी इस साली फुटबेल की बात…

मंत्री भगवान जारी थे, ‘ सुना है कि आपको इतनी बुरी लगती है हमारी फुट-बेल कि केब-सेक से बात करने जा रहे हैं…सीधे पीएम से ही मिल लीजिए ना…हमीं एपाइंटमेंट फिक्स करवा देते हैं आपका, फिर आराम से शिकायत कीजिएगा, हमारी नौकरी ही ले लेंगे आप तो, भई हम लोग तो वैसे ही आने-जाने, कौन सा चुनाव हार जाएं क्या पता, आप ठहरे परमानेंट सरकार, गवर्नमेंट के स्टील-फ्रेम… चुनाव हार गये तो आप लोगों की  इस बिल्डिंग में हम तो घुस भी न पाएं…’

मंत्रीजी की आवाज जरा भी ऊंची नहीं थी, एकदम संतुलित स्वर में बात कर रहे थे।

सत्यजित के पाँवों तले चिकना वुडेन फ्लोर नहीं था, हड्डियों  से भरी ऊबड़-खाबड़ जमीन थी। दीवारों पर उम्दा लकड़ी की चमकीली मढ़ावट नहीं थी, जंगल की पहाड़िया का चितकबरापन था। आँखों की पुतलियों पर खुद निगाहों से ओझल रह कर, दूधिया रोशनी फैलातीं बत्तियों की चमक नहीं थी, घनघोर अंधेरा था। उनके आस-पास रूम-फ्रेशनर की भीनी-भीनी सुगंध नहीं थी, मृत देहों की आदिम दुर्गंध थी…

शिकार वाली तस्वीर का शेर जैसे जिन्दा हो गया था… सत्यजित को इतमीनान से निहार रहा था, खिला-खिला कर चबाने के मूड में लग रहा था।

‘ जाहिर है कि…’ मंत्रीजी जारी थे, ‘ आपके जैसे कंपीटेंट ऑफिसर की जरूरत तो आपके होम-काडर को भी होगी ही…’

हे भगवान, अब दिल्ली से रवानगी…वापस महाराष्ट्र…चलो ग़नीमत है…

लेकिन शेर ने अभी तो अंगड़ाई ही ली थी… ‘ हम खास रिक्वेस्ट करेंगे सीएम से कि आपकी कंपीटेंस और तजुर्बे का, आपकी इंटिग्रिटी का सही इस्तेमाल करें, गड़चिरोली में नक्सल चैलेंज के सामने आपके जैसा बहादुर और खानदानी अफसर ही टिक सकता है…’

पहली बार शेर हल्के से दहाड़ा, पहली बार मंत्रीजी के मुँह से आप की जगह तुम निकला ‘ आई विल पर्सनली एन्स्योर कि तुम्हें गडचिरोली में ही पोस्ट किया जाए…’

आवाज में फिर वही स्थिरता… ‘ऑफ कोर्स सीनियरिटी तो कंसीडर होगी ही, देयरफोर यू ऑट बी देयर इन ए सुपरवाइजरी कैपेसिटी, स्पेशल पोस्टिंग पर…बट गडचिरोली टु बी श्योर…’

इस भयानक दशा में भी सत्यजित को वह चुटकुला याद आ गया, ‘पिताजी शेर के सामने पड़ गये थे…अच्छा तो फिर क्या किया उन्होंने…उन्हें क्या करना था…जो कुछ किया शेर ने ही किया…’

लेकिन यहाँ तो कुछ करना ही पड़ेगा…वरना गड़चिरोली…नक्सल…

लेकिन, कैसे? क्या?

शेर खिलकौटी के मूड में ही बना हुआ था, ‘होम-काडर वापस भेज रहे हैं आपको…थैंक्यू सर भी नहीं कहेंगे क्या आप मिस्टर सत्यजित आईएएस?’

मिल गया, डूबते को जिस तिनके की तलाश थी, मिल गया, चुटकुले वाले पिताजी की नियति से निकलने का जरिया मिल गया…

‘गलती तो सेवक से हुई है, श्रीमंत, लेकिन इतना अनसिविल तो आपका यह सर्वेट सपने में भी नहीं हो सकता कि महाराज को सर कहे, आप जो कहें मंजूर है, लेकिन यह गुस्ताखी तो मुझसे मरते दम तक नहीं होगी कि श्रीमंत या महाराज के अलावा कोई संबोधन दूँ, आपके पीठ-पीछे भी ध्यान रहता है मुझे…’

मंत्रीजी जरा सा मुस्कराए, सेवक की हिम्मत बढ़ी, ‘मैं तो  सपने में भी आपको हिज हाइनेस कह कर ही याद करता हूँ, यौर हाइनेस…’

मंत्रीजी की मुस्कान थोड़ी और चौड़ी हुई, सर्वेंट की सिविलिटी कुछ और मुखर हुई, ‘ प्लीज पनिश मी इन वाटएवर वे…लेकिन श्रीमंत अपने श्रीचरणों से दूर न करें मुझे…गुस्ताखी तो हुई है, लेकिन बस एक लास्ट चांस…’

मंत्रीजी के मुस्कराते मौन के संकेत ग्रहण कर, सत्यजितजी का स्वरूप परिवर्तित हो रहा था। उनकी जबान पुचकार पाने को व्याकुल, लप-लप करती जीभ में बदलती जा रही थी, कंठ-स्वर कूं-कूं की निरीहता  ओढ़ चुका था। देह दो पैरों की मुद्रा त्याग कर चारों पैरों पर आ चुकी थी। शरीर के पार्श्व भाग में, बढ़िया कपड़े के पैंट में से दुम धीरे-धीरे निकल रही थी, और तेज-तेज हिल रही थी।

अब उनके पाँवों के नीचे हड्डियों से भरी ऊबड़-खाबड़ जमीन नहीं, चिकना वुडेन फ्लोर था। जंगल की पहाड़िया के चितकबरेपन की जगह दीवारों पर उम्दा लकड़ी की चमकीली मढ़ावट थी । आँखों की पुतलियों पर घनघोर अंधेरे की जगह, खुद निगाहों से ओझल रह कर, दूधिया रोशनी फैलातीं बत्तियों की चमक थी। आस-पास मृत देहों की आदिम दुर्गंध की जगह रूम-फ्रेशनर की भीनी-भीनी सुगंध थी।

मंत्रीजी देख रहे थे, सुन रहे थे। सत्यजित दुम हिलाते हुए अगली दोनों टाँगें उठाए, नृत्य कर उन्हें रिझा रहे थे, उनकी वंश-विरुदावली गाने में पेशेवर चारणों को पीछे छोड़ रहे थे। स्वयं मंत्रीजी का ऐसा गुणानुवाद कर रहे थे कि उनका क्रोध लाड़ में बदलता जा रहा था, वे मन ही मन कुछ अनौपचारिक भी हो रहे थे, उसी अनौपचारिक मुद्रा में उनके मुँह से लाड़ भरे शब्द निकले, ‘ क्यों ऐसी चापलूसी कर रहे हो, यार कि मेरे पेशाब की गंध को मलयानिल बनाए दे रहे हो, और कुछ नहीं तो अपने नाम का ही लिहाज करो…सत्यजित…’

इन लाड़ भरे शब्दों ने सत्यजितजी को आश्वस्त भी कर दिया और प्रगल्भ भी। कूं-कूं करते आए और श्रीमंत के श्रीचरणों में थूथन रगड़ने लगे। आश्वस्त प्रगल्भता की तरंग में उनके मुँह से जो शब्द निकल रहे थे, उन्हें सुन कर यह दृश्य, बोरियत या दिलचस्पी से देख रहे देवता उलझन में थे कि सत्यजित की स्पष्टोक्ति पर पुष्प-वर्षा करें या उनकी निर्लज्जता पर प्रस्तर-वर्षा। देवताओं की उलझन से बेखबर सत्यजित कुंकुंआए जा रहे थे— ‘ नाम के इन एकार्डेस ही तो चल रहा हूँ, यौर हाइनेस!  मेरा नाम न तो सत्यकाम है कि सत्य की कामना करूँ, न सत्यप्रिय कि इसे प्यार करूँ। मैं तो सत्यजित हूँ। जीत लिया है मैंने सत्य को, ऐसा जीता है कि इसका जो चाहूँ मैं, यार करूँ, प्राण ले लूँ या बलात्कार करूँ… आपका पेशाब क्या, शिट भी साफ करवाऊं…मजाल है सत्य की कि चूँ भी कर जाए…सत्य को जीत लेना काम है मेरा, सत्यजित नाम है मेरा…सत्यजित रा…’

वक्त रहते सँभल गये, सत्यजित। ‘राजन’ कहने वाले स्वर्गीय पिताश्री का लाड़ इस पल याद करना अभी-अभी, मुश्किल से कमाए गये महाराजश्री के लाड़ का कबाड़ कर सकता था। बात फौरन पटरी पर लाए, ‘सत्यजित…रा…मतलब, आप का, राजकुलदीपक आपश्री का चाकर…आपका सदा वफादार सेवक हूँ मैं श्रीमंत, सत्यजित हूँ मैं…विजेता सत्य का, अब इसका जो चाहे मैं यार करूँ, प्राण ले लूँ या बलात्कार करूँ…’

मंत्री-महाराज का लाड़ और उमड़ा, पैरों पड़े सत्यजित का सर सहलाया, बोले, ‘उठो, ठीक है, बहुत हुआ, दुम अंदर करो, आगे से ख्याल रखना, जाओ अब…’

‘जो हुकुम दरबार का..’ कहते कहते सत्यजितजी ने दुम पैंट के अंदर की, और लटकती जीभ मुँह के अंदर…कमरे से निकले, और जंगल में टहलते शेर की अदा से अपनी गुफा की ओर चले, जहाँ उस हेहर औरत को छोड़ आए थे। ऊपर वाले के पांव पर सर रगड़ आने के बाद, अब ट्रेनिंग-सार के दूसरे हिस्से पर अमल करने का समय था। अब नीचे वाले के सर पर पांव रगड़ने का समय था। अपने असली भगवान को तुष्ट कर चुकने के बाद ‘भगवान से डरिए’ कहने वाली इस हेहर को और उसके भगवान को ठीक कर देने का समय था। अब कुकुरावतार से शेरावतार में संतरण का समय था। अब इस कुतिया को चींथ कर फेंक देने का समय था।

‘ऐसा सबक सिखाऊंगा, कुतिया को कि सारी हैन-तैन सदा के लिए भूल जाएगी…’ कमरे में घुसते ही गुर्राए, ‘ यस, वेल…मैडम सिंसियर…’

लेकिन कुर्सी तो खाली थी, गुर्राहट मन ही मन दहाड़ में बदल गयी, यह मजाल, यह गुस्ताखी…अब तो साली को सस्पेंड करके ही दम लूंगा, ऐसा इनसबार्डिनेशन….यह हुकुम-उदूली…कह कर गया था कि यहीं मरी रहना…और उठ कर चल दी…’

अपनी कुर्सी पर बैठ, पीए को बुलाने के लिए इंटर-काम उठाया सत्यजितजी ने कि सस्पेंशन लेटर डिक्टेट करें कि सामने रखे कागज पर निगाह गयी…अरे यह तो वही है…इस कागज में मुँह चिढ़ाती, नाक पर अंगूठा रख कर लिल्ली-टिल्ली करती…यह तो मेरी मेज पर, बल्कि मुँह पर इस्तीफा मार कर चल दी…चल कहाँ दी… इस्तीफे के इस सड़े से कागज में से झाँक तो रही है…उन्हीं चमकीली, साफ आँखों से…टिल्ली-लिल्ली कर रही है, उसी काली-कलूटी रंगत में चमक रही है, चिढ़ा रही है मुझे…लिल्लली—टिल्लली…

गगनविहारी देवताओं को मजा आ गया। ऐसे दृश्य कहाँ रोज-रोज देखने को मिलते थे। ऊब और फटीग के शिकार बुजुर्ग देवता पुष्प-वर्षा की तैयारी में लग गये। युवतर देवगण तो उस कलूटी की जय-जयकार करते हुए उसकी चिढ़ोक्ति में अपना भी योगदान करने लगे…लिल्लली-टिल्लली..

शिकार जिसके पंजे से निकल गया, उस शेर की दहाड़ से गूंज उठा कमरा…लेकिन जिसे सत्यजित दहाड़ समझ रहे थे, वह देवताओं को भौं-भौं सुनाई दे रही थी…बेबस भौं-भौं जो बीच-बीच में तो कूँ-कूँ की तरफ भी बढ़ उठती थी…

सत्यजित मन भर कर दहाड़ या भौंक भी नहीं पाए थे कि एकाएक मेज पर रखी पैरघंटी बज उठी और अभी-अभी सबक सीख कर आए श्री सत्यजित तेजी से स्वरूपांतरण की प्रक्रिया में लग गये… भौं-भौं को उन्होंने तुरंत ही उचित स्वर-ताल वाली कूं-कूं में बदला। कुछ ही देर पहले जो अंदर की थी, वह दुम फिर से पैंट के बाहर धीरे-धीरे निकलने और तेज-तेज हिलने लगी।

सत्यजितजी श्रीमंत के कमरे की ओर लपक लिये।