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अटलान्टा की तीर्थयात्रा….

अटलांटा की तीर्थयात्रा

चौबीस नवम्‍बर की सुबह । पिछले पांच दिनों से मौसम अनपेक्षित रूप से चमकीला रहा है । साल के इन दिनों में अटलांटा के लोग ऐसी चमकीली धूप की उम्‍मीद नहीं करते, ये तो रिमझिम के दिन हैं । अमेरिका के उत्‍तरी हिस्‍सों में तो बर्फ पड़नी शुरू भी हो गई-लेकिन यहां इस दक्षिणी राज्‍य जॉर्जिया के महानगर अटलांटा में धूप चमक रही है-पिछले पांच दिनों से । आज चौबीस नवम्‍बर को जैसे प्रकृति ने भूल-सुधार किया-तड़के से ही हलकी-हलकी बूंदें पड़ रही हैं । बीच-बीच में बौछारें भी । जो हो, किंग सेंटर तो जाना ही है ।

कई महीने पहले जब अमेरिकन अकेडमी ऑफ रिलीजन की सालाना बैठक में शामिल होने, पर्चा पढ़ने का निमन्‍त्रण मिला था-तभी से उत्‍सुकता के साथ-साथ मन में तीर्थयात्री की सी श्रद्धा भी व्‍यापती रही है । उत्‍सुकता समानधर्मा अध्‍येताओं के साथ मुलाकातों की और श्रद्धा मार्टिन लूथर किंग (जूनियर) की जन्‍मस्‍थली-कर्मस्‍थली की यात्रा कर पाने के अवसर की । वह अवसर आज सामने है । कबीर की कविताओं का श्रेष्‍ठतम अंग्रेजी अनुवाद करनेवाली, कबीर की समर्पित अध्‍येता लिंडा हैस साथ हैं । हम लोग मार्टिन लूथर किंग सेंटर जा रहे हैं । सेंटर माने उन कई भवनों का संकुल-जिनसे किंग का संबंध था; उनका चर्च, उनका घर, दूसरे चर्च, संग्रहालय । उस इमारत की दीवार पर ही लिखे हैं किंग की प्रसिद्ध ‘आई हैव ए ड्रीम’ स्‍पीच के ये शब्‍द : “मैं सपना देखता हूँ कि एक दिन मेरे चार नन्‍हें-मुन्‍नों की परख उनके रंग के आधार पर नहीं, उनके चरित्र के आधार पर की जाएगी ।” यह विश्‍वविख्‍यात भाषण मार्टिन लूथर किंग ने 28 अगस्‍त, 1963 को वाशिंगटन में ढाई लाख लोगों की सभा में दिया था । संग्रहालय में इस भाषण का टेप चल रहा था-लिंडा को रोमांच हो आया-जो उनकी आंखों के पानी में झलक रहा था-“पता है, पुरुषोत्‍तम ! मैं थी वहां…उन लाखों लोगों में एक-किंग का सपना सुनती हुई, देखती हुई ।”

संग्रहालय के स्‍वागत कक्ष में एक अद्भुत पेंटिंग थी-स्‍वागती की टेबल के ऐन ऊपर । महात्‍मा गांधी और मार्टिन लूथर किंग दोनों एक साथ । पेंटर ने जैसे इतिहास के तथ्‍य की उपेक्षा कर उसके नैतिक सत्‍य को सजीव कर दिया था । क्‍या हुआ जो ये दोनों अहिंसा साधक कभी एक-दूसरे से नहीं मिले-वे थे तो एक ही राह के राही । गांधीजी की ऐसी दूसरी तस्‍वीर मैंने नहीं देखी-इसमें वे किंग की ही तरह अश्‍वेत-नीग्रो (!) दिखते हैं, और कुछ ऐसा है रेखांकन में कि बरबस मेरे मुंह से निकला-“ही लुक्‍स लाइक ऐन एंग्री ब्‍लैक मैन ।” क्रुद्ध अश्‍वेत के रूप में गांधी !

मार्टिन लूथर किंग का जन्‍म 15 जनवरी, 1920 को अटलांटा में हुआ था । सीनियर किंग पादरी थे, और उनके यशस्‍वी पुत्र का पादरी बनना भी तय ही था । उन्‍होंने बाकायदा धर्मशास्‍त्र का अध्‍ययन किया और बोस्‍टन यूनिवर्सिटी से थ्‍योलॉजी के पी.एच-डी. होकर लौटे । 1954 में वे पादरी नियुक्‍त हुए । अगले ही साल, बीसवीं सदी के अमेरिकी इतिहास की वह यादगार घटना घटी । रोज़ा पार्क नामक अश्‍वेत महिला ने रंगभेद के विरूद्ध एक छोटा-सा विद्रोह कर दिया-इस छोटे-से विद्रोह ने अमेरिका के दक्षिणी राज्‍यों में चले आ रहे रंगभेद को अमेरिकी लोकतंत्र पर सबसे बड़े प्रश्‍नवाचक में बदल डाला । रोज़ा पार्क ने सिटी बस में, अश्‍वेतों के लिए आरक्षित पिछले हिस्‍से में बैठने से इनकार कर दिया था-इस इनकार ने नागरिकों के समानाधिकार आन्‍दोलन के बहुत प्रचंड आन्‍दोलन की जरूरत को पुरजोर ढंग से रेखांकित कर दिया ।

उन्‍नीसवीं सदी में, अब्राहम लिंकन ने दासता को एक व्‍यापारिक संस्‍था के रूप में तो समाप्‍त कर दिया था; दासों की खरीद-बिक्री पर तो रोक लगा दी थी; लेकिन नस्‍ल और रंग पर आधारित भेद-भाव और सामाजिक अन्‍याय जारी रहा । अमेरिका के दक्षिणी राज्‍यों में तो इस नस्‍ल भेद की शक्‍ल बहुत ही बदसूरत थी । छिट-पुट विरोध भी होता रहता था- लेकिन रंगभेद को सामाजिक स्‍वीकृति ही नहीं, कानूनी मान्‍यता भी प्राप्‍त थी । बस में, अश्‍वेतों के लिए अलग किए गए पिछले हिस्‍से में जाने से इनकार करके रोज़ा पार्क ने इस स्‍वीकृति और मान्‍यता को चुनौती दे डाली ।

रोज़ा पार्क के इस इनकार से जो आन्‍दोलन उत्‍पन्‍न हुआ, मार्टिन लूथर किंग जल्‍दी ही उसकी अगली कतार में आ गए । नस्‍लभेद विरोधी आन्‍दोलन के ही नहीं, समता और न्‍याय के विश्‍वव्‍यापी आन्‍दोलन के प्रवक्‍ताओं में भी उनकी गिनती पहली पाँत में होने लगी । उनके समर्थकों और विरोधियों को जो बात सबसे अजीब लगी- वह थी अहिंसा पर उनकी अडिग आस्‍था । जॉन एच. फ्रैंकलिन का कहना है, “अहिंसा में किंग का विश्‍वास शायद पहले से ही था, लेकिन 1957 में उनकी भारत यात्रा और जवाहरलाल नेहरू से उनकी मुलाकात ने इस आस्‍था को अडिग निश्‍चय का रूप दे दिया ।”

किंग की मृत्‍यु के लगभग पैंतीस साल बाद, आज यह कहना गलत न होगा कि अहिंसा सचमुच न केवल जनान्‍दोलन के लिए सहायक रणनीति, बल्‍कि वास्‍तविक परिवर्तन की शर्त भी है ।गांधीजी को लगभग शब्‍दश: प्रतिध्‍वनित करते हुए किंग ने अपने अन्‍तिम भाषण में जो सच्‍चाई बयान की, उस पर आज शायद उतनी बहस न हो जितनी कि पैंतीस साल पहले हुई थी । किंग ने कहा, “बरसों से हम मनुष्‍य युद्ध और शान्‍ति की बातें करते आए हैं, लेकिन अब सिर्फ बातों से नहीं चलेगा । अब दुनिया के सामने मसला अहिंसा या हिंसा के बीच चुनाव करने का नहीं, बल्‍कि अहिंसा या सर्वनाश (नॉन वायलेंस ऑर नॉन एग्‍जिस्‍टेंस) के बीच चुनाव करने का है ।” दो टूक शब्‍दों में बयान की गई यह सच्‍चाई केवल किंग सेंटर के कोने-कोने में ही नहीं, दुनिया-भर के कोने-कोने में उकेरी गई, गूंजती हुई प्रतीत होती है- अहिंसा या सर्वनाश !

अहिंसा के रास्‍ते की मुश्‍किलें और मोहभंग किंग के आन्‍दोलन को भी झेलने पड़े । अहिंसा और हृदय-परिवर्तन का रास्‍ता सदा सफलता की ओर नहीं जाता । भारत का विभाजन और उसके साथ हुई हिंसा इसका विकट प्रमाण है । नस्‍लभेद विरोधी आन्‍दोलन की अहिंसात्‍मक रणनीति के सामने भी समस्‍याएं आईं । 1966 में किंग की शिकागो यात्रा बहुत कामयाब नहीं रही- सिविल नाफरमानी की रणनीति बहुत से श्‍वेतों का हृदय परिवर्तन करने की बजाय, उनके हिंसक क्रोध को और भी बढ़ाने लगी । स्‍वयं अश्‍वेतों में अहिंसा को लेकर असन्‍तोष पहले से था, वह भी अभिव्‍यक्‍त होने लगा ।

हिंसा-अहिंसा की समस्‍या अन्‍तत: नैतिकता की समस्‍या है- और इसीलिए इसके सन्‍दर्भ में गम्‍भीर विमर्श और खुला संवाद जरूरी है । व्‍यवस्‍था में अन्‍तर्निहित, अव्‍यक्‍त हिंसा का सामना क्‍या सचमुच हृदय-परिवर्तन पर भरोसा करके किया जा सकता है ? मनुष्‍य के स्‍वभाव की दृष्‍टि से देखें तो क्‍या आक्रामकता भी उसका वैसा ही अंश नहीं, जैसा कि करुणा ? असली समस्‍या क्‍या शक्‍ति की नहीं ? क्‍या हिंसा शक्‍ति की ही एक अभिव्‍यक्‍ति नहीं ? और क्‍या शक्‍ति की साधना मनुष्‍य का स्‍वभाव नहीं ?

यह वाजिब प्रश्‍न है । इसी मूल प्रश्‍न से आरम्‍भ कर नीत्‍शे ने ईसाइयत को ‘सेंटीमेंटल’ कहकर रद्द कर दिया था । सवाल वाजिब है- लेकिन क्‍या नीत्‍शे का और उनसे प्रभावित बहुत से विचारकों का खोजा गया जवाब भी वाजिब है ? आक्रमकता- माना कि मनुष्‍य की प्रकृति का अंग है तो क्‍या उसे मानवीय संस्‍कृति का आधार भी होना चाहिए ? सच पूछें तो सही सवाल यही है । क्‍या हम मनुष्‍य सिर्फ प्रकृति का विकास भर हैं या संस्‍कृति का परिणाम भी ? और परिवर्तन की, या अपनी बात कहने की जो विधि हिंसा के रास्‍ते गुजरती है, क्‍या वह किंग की इस चेतावनी की उपेक्षा कर सकती है : ‘अहिंसा या सर्वनाश !’ परिवर्तन का जो स्‍वप्‍न हिंसा पर ही आधारित हो, वह क्‍या सचमुच दूरगामी परिवर्तन को सम्‍भव कर सकता है ? गांधी और किंग के सामने इस प्रश्‍न का उत्‍तर स्‍पष्‍ट था- सारे खतरों और सारी असफलताओं के बावजूद । उनके स्‍वप्‍न का आधार था- अहिंसा में अडिग विश्‍वास !

हमारा समय स्‍वप्‍नहीनता का समय है- फिर भी लोगों के अपने छोटे-छोटे सपने तो हैं ही । उन सपनों में क्‍या नैतिक है, क्‍या अनैतिक ? हिंसा और अहिंसा अथवा अहिंसा और सर्वनाश के चुनावों में किस चुनाव के साथ जाते हैं हमारे सपने ? यह सवाल हमारे लिए है और हममें से हरेक को इसका जवाब खुद ही तलाशना होगा- खुद ही तराशना होगा । जिन्‍होंने अपने जवाब तलाशे और जिए, उनसे संवाद करके हम सीख सकते हैं, लेकिन जूझना तो खुद ही होगा ।

गांधीजी की तरह किंग भी गहरे धार्मिक व्‍यक्‍ति थे । गांधीजी की तरह वे धर्मविश्‍वास का सिर्फ ‘मुहावरे की तरह उपयोग’ नहीं करते थे, उसे जीते थे । उनके लिए धर्म एक प्रदत्‍त सत्‍य था, लेकिन उस सत्‍य से संवाद करने का तेजस्‍वी ढंग उनके धर्मविश्‍वास को नया अर्थ दे देता है वे बिना कोई घोषणा किए, अन्‍यायपूर्ण व्‍यवस्‍था का समर्थन करती धर्मसत्‍ता से जा टकराते हैं । धर्म द्वारा किए जानेवाले दावों को, आध्‍यात्‍मिक तृप्‍ति के वादों को वे एक नई जमीन पर ले जाते हैं । धर्म अगर सचमुच प्रेम करना सिखाता है, वैर पालना नहीं, तो यह प्रेम केवल अपने या अपने जैसों के प्रति कैसे सीमित हो सकता है ? आत्‍म की कोई भी अभिव्‍यक्‍ति अन्‍य के प्रति वैर या विद्वेश पर कैसे आधारित हो सकती है ?

वहां किंग सेंटर में किंग की शिकागो यात्रा की फ़िल्‍म दिखाई जा रही है । एक श्‍वेत युवती किंग को गाली दे रही है- किंग उसकी ओर बढ़ते हैं- ‘तुम्‍हारे जैसी सुन्‍दरी युवती, तुम्‍हारे जैसी सुसंस्‍कृत युवती ऐसी भद्दी जुबान कैसे बोल सकती है ? तुम बात करो न मुझसे- गाली क्‍यों ? वह युवती जब शरमाती हुई किंग से हाथ मिला रही है । किंग के होंठों पर मुस्‍कान है- और यह फ़िल्‍म देखनेवालों की आंखों में … ।

किंग अन्‍तिम बार 3 अप्रैल, 1968 के दिन टेनेसी में बोले । दूसरे ही दिन उन्‍हें गोली मार दी गई । आत्‍मविश्‍वास और आस्‍था का अद्भुत दस्‍तावेज है किंग का यह अन्‍तिम भाषण-‘आई हैव बीन टू माउंटेन टॉप ।’ पर्वत शिखर से देखा है मैंने- परमात्‍मा ने दिखाया है मुझे- एक दिन हम पहुंचेंगे उस ‘प्रॉमिस्‍ड लैंड’ में जहां लोगों की परख उनके जन्‍म से नहीं, उनके कर्म से होगी- ‘भले ही मैं साथ न होऊं ।’ और दूसरे ही दिन … ।

किंग ने अपनी भारतयात्रा के दौरान कहा था, “दिल्‍ली आया हूँ यात्री की तरह, गुजरात जाऊंगा तीर्थयात्री की तरह ।” यह 1957 की बात है । तब मार्टिन लूथर किंग के लिए गांधी का जन्‍मप्रदेश तीर्थस्‍थल था- आज के गुजरात में हिंसा से पीड़ित लोगों को साबरमती आश्रम तक में शरण नहीं मिल पाती । संग्रहालय के गांधी-कक्ष से गुजरते हुए बार-बार किंग की कही यह बात याद आती रही । लिंडा हैस को याद दिलाया किंग का यह कथन और हम दोनों के ही शब्‍द जैसे कुछ देर के लिए चुक गए ।

संग्रहालय की श्रद्धांजलि पुस्‍तिका में पैट्रिस मैतियर नाम के किसी यात्री की श्रद्धांजलि है- जो हम से बस दो ही दिन पहले बाईस तारीख को वहां आया था । इस श्रद्धांजलि में न केवल इस अश्‍वेत तीर्थयात्री की निजी श्रद्धा है, बल्‍कि किंग के कारण जो फर्क आया, उसका लाजवाब मूल्‍यांकन भी । पैट्रिस ने लिखा है, ‘डॉ किंग, जो कुछ आज हूँ, आप ही के कारण । मेरी सबसे अच्‍छी दोस्‍त श्‍वेत है, और जो हालत आपके समय में थी, वैसे आज होती तो मैं उसे पास भी न फटकने देता । जो कुछ आपने किया, उसके लिए आभार । मुझे खुशी है कि आज मैं अलग-अलग नस्‍लों के लोगों से मिल सकता हॅूं । यह एक नया ही तजुर्बा है सीखने का । बस और क्‍या कहूँ, सिवा इसके कि आपसे प्‍यार है और आपकी बहुत याद आती है ।’

तीर्थ का शाब्‍दिक अर्थ है- जलस्‍थल । जल के साथ पवित्रीकरण का सम्‍बन्‍ध मनुष्‍य की कल्‍पना ने हजारों साल पहले जोड़ा था । सेमेटिक धार्मिक परम्‍परा में तो इस सम्‍बन्‍ध का अपना विशिष्‍ट ऐतिहासिक अर्थ था- जेरुसलम के प्राचीन मन्‍दिर में उपासक पवित्रता प्राप्‍त करते थे बलिपशु के रक्‍त से । जॉन द बैपटिस्‍ट अपने शिष्‍यों को बपतिस्‍मा- पवित्रीकरण- प्रदान करते थे- जल से । यह एक नई धर्मदृष्‍टि का, एक नई पवित्रता का प्रस्‍ताव था । नजारथ के अशान्‍तचित्‍त युवक जीसस को जॉन ने नदी के जल से ही बपतिस्‍मा दिया था । यह बात और है कि बाद में जीसस के चर्च ने ‘पवित्रता’ के लिए न जाने कितने मनुष्‍यों का रक्‍त बहाया ! बहरहाल, तीर्थयात्रा का अर्थ है जल के सम्‍पर्क से पवित्र होना ! रक्‍त की बजाय जल से बपतिस्‍पा लेना ।

डॉ. मार्टिन लूथर किंग जूनियर की तस्‍वीरों, मुद्राओं, भंगिमाओं और शब्‍दों के बीच से गुजरते, ‘आई हैव ए ड्रीम’ स्‍पीच की श्रोता लिंड हैस के पवित्र रोमांच को छूते, पैट्रिस मेतियर के मार्मिक शब्‍दों को पढ़ते, क्रुद्ध अश्‍वेत के रूप में उकेरे गए गांधी को देखते जो पानी अनजाने ही आंखों में भरने लगा था- वह पवित्र के पास होने की कृतज्ञता का जल था । बपतिस्‍मा का जल । तीर्थ का जल ।