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शबरी के बेर…प्रियादास का स्मरण

शबरी के बेर…
प्रियादास का स्मरण…

प्रेम और भक्ति में विह्वल होकर राम और लक्ष्मण को ‘जूठे बेर’ खिलाने वाली शबरी हम सबने रामलीला में देखी है, फिल्मों और टेलीविजन धारावाहिकों में देखी है।
वाल्मीकि रामायण में मतंग ऋषि की शिष्या शबरी राम और लक्ष्मण का स्वागत उसके द्वारा संचित ‘विविध वन्य वस्तुओं’ से करती है—“ मया तु विविधं वन्यं संचितं” (अरण्यकांड, 74.17) जूठे-अनजूठे बेरों का उल्लेख तक नहीं है यहाँ।
तो, शबरी के प्रेमानुराग और राम की भक्त-वत्सलता को रेखांकित करने वाली यह मार्मिक कल्पना किसकी है? किसने इस प्रसंग को यह सुंदर मोड़ दिया?
मैं जानता हूँ, आपमें से नब्बे फीसदी के मन में एक ही नाम कौंधेगा—तुलसीदास…
किन्तु ऐसा है नहीं..
रामचरितमानस में भी यह प्रसंग वाल्मीकि की ही तरह आता है,
“ कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि” ( दोहा 34, अरण्यकांड)
रामचरितमानस पर जिसका बहुत प्रभाव है, उस अध्यात्म रामायण में भी यह प्रसंग वाल्मीकि की ही तरह है।

तो शबरी के बेरों की कथा-कल्पना का मूल स्रोत?

मेरी अब तक की जानकारी के अनुसार यह काम सबसे पहले प्रियादास करते हैं। ये चैतन्य महाप्रभु के अनुयायी, गौड़ीय ( बंगाली) संप्रदाय के वैष्णव थे। जरूरी नहीं कि बंगाली ही रहे हों, बहुत करके संभावना यह है कि प्रियादासजी ओड़िया थे। इन्होंने 1712 में नाभादासजी की प्रसिद्ध भक्तमाल (रचनाकाल सोलहवीं सदी) पर ‘भक्तिरसबोधिनी’ टीका लिखी थी।
ऐसे तथ्यों पर ध्यान देने से आरंभिक आधुनिक काल के भक्ति-संप्रदायों के आपसी संबंधों को अधिक प्रामाणिकता से देखा जा सकता है। वरना समकालीन राजनीति में खुद को सही जगह फिट करने के लिए वैसे ही तमाशे होते रहेंगे जैसा विनय धारवाड़कर ने कबीर-बानी के अंग्रेजी अनुवाद की भूमिका में किया है। उन्होंने एक झटके में नाभादास के साथ ही प्रियादास को भी रामानंदी वैष्णव बना दिया है। उनकी समझ से यह संभव ही नहीं कि रामानंदी भक की रचना पर गौड़ीय वैष्णव श्रद्धा और अनुराग के साथ टीका करे।

खैर, नाभादासजी ने अपनी गागर में सागर वाली शैली में, ‘हरिवल्लभ’ ( यानि भगवान को बहुत ही प्रिय) भक्तों में ध्रुव, उद्धव आदि के साथ नौवें छप्पय में ’हनुमान,जांबवंत, सुग्रीव, विभीषण, शबरी’ का उल्लेख किया है।
इसी छप्पय की टीका करते हुए प्रियादास लिखते हैं, “ ल्यावे वन बेर लागी राम की औसेर फल चाखे धरि राखे फेरि मीठे उन्हीं के योग हैं। मारग में रहे जाइ लोचन बिछाइ कभू आवें रघुराई दृग पावें निज भोग हैं।” ( भक्तमाल, खेमराज श्रीकृष्णदास, मुंबई, संस्करण 1989, पृ. 9)
संभव है कि यह बात प्रियादास को बंगाल या ओड़िसा की अलिखित, लोक-प्रचलित रामकथाओं से प्राप्त हुई हो। ध्यान देने की बात यह है कि प्रियादास भी यह नहीं कह रहे कि एक-एक बेर चख-चख कर राम को खिलाया जा रहा है। यह मार्मिक नाटकीयता बहुत करके रामलीला परंपरा की अपनी देन है।

 
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RTI to Ministry of Home Affairs Regarding Possible Destruction of Historical Records

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Here are  the news reports which prompted me to file the RTI detailed below:

http://timesofindia.indiatimes.com/india/Following-PM-Modis-directive-home-ministry-destroys-1-5-lakh-files/articleshow/37093548.cms

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Friends:

There have been reports in the media suggesting that a huge number of files in the Ministry of Home Affairs have been destroyed, ostensibly in the interest of efficiency and space-management. According to the reports these include the file containing records of the cabinet meeting which took place just before the news of Gandhiji’s assassination was formally announced.

The GOI usually follows a record retention schedule. Moreover in the case of files containing documentation of the historically crucial period just after independence, it must be ensured that the documents must be treated as sacrosanct, and must be preserved as such, change of government notwithstanding. Historians might differ in their interpretations of momentous events like the assassination of Gandhiji (1948) or imposition of emergency (1975), but for any sane debate and contest of ideas, preservation of and access to official documents and records is a must.

Unfortunately, there is not much clarity in the instant case on whether the digital copies of these important files have been made, or if these have been shifted to National Archives or any similar institution. It is also not clear how a historian or any interested citizen can get access to these important documents.

Surely, you would agree, these vital issues concern each and every citizen and also the nation as such. Such documents which contain the raw material of history cannot be allowed to be obliterated.

Keeping this in mind, I have filed an application with the ministry of home affairs under the RTI act.

In the RTI, I have sought the following information–

1   1. As per the recent newspaper reports, is it true that a large number of files and documents pertaining to Ministry of Home Affairs have been destroyed in the last few weeks, i.e. after May 20th 2014?

2. Were these files and documents destroyed as per the extant Record Retention Schedules of Government of India?

3. Have the important files and documents been identified and retained?

4. Have the important files of permanent nature been retained in digital form or any other form?

5. Please inform where have the important files and documents of permanent nature been sent

6. Have these files and documents been sent to National Archives of India, Nehru Memorial Museum and Library and other libraries?

7. In case information contained in these important files and documents are to be retrieved in future for study and research purposes, where should one go and find them?

8. Please provide a copy of the order and file noting vide which the instruction for destroying records was issued to the officials of Ministry of Home Affairs, Government of India.

 

नेहरू की छाया बहुत लंबी है….

लंबी छाया नेहरू की

 

वह ऐसी उमस भरी दोपहर थी,  जिसमें मांएं बच्चों को डाँट-डपट कर सुला दिया करती थीं कि  गली में खेलने ना निकल जाएं….वह नींद ऐसी ही डाँट से लाई गयी नींद थी….

सोते-जागते कानों में दूर से अजीब सी आवाजें आ रही थीं—‘जलाओ घी के…मर गया….’। यह दूसरी आवाज तो दूर से नहीं आ रही, यह तो जीजी (मां)  की आवाज है, ये तो जीजी  के हाथ हैं जो झकझोर रहे हैं, ‘उठ परसोतम, जल्दी उठ, सुन तो….नेहरूजी नहीं रहे….’ यह जो गाल पर आँसू टपका है, यह मुश्किल से ही रोने वाली जीजी की आँख में सँजोए हुए आँसुओं में से एक है….

कुछ ही देर बाद बाबूजी दुकान बढ़ा कर वापस आ गये थे….चाभी का झोला खूंटी पर लटका कर, पस्त पड़ गये खाट पर…

घी के (दिए)  जलाने का आव्हान करती आवाज का तर्क तो तभी समझ आ गया था, वह मोहल्ला हिन्दू महासभा का गढ़ ठहरा…लेकिन जीजी-बाबूजी के दुख को समझने की कोशिश आज तक जारी है। वे कांग्रेस के वोटर नहीं, विरोधी ही कहे जाएंगे… नेहरूजी की कई बातों से उन्हें चिढ़ होती थी, चीन से हारने की वजह भी तो नेहरू की नादानी ही थी…फिर भी उस रात घर में चूल्हा नहीं जला….जैसे घर का कोई बुजुर्ग ही चल बसा था…तीन दिन तक पूजा नहीं हुई…सूतक माना गया….

बहुत से लोग भारतीय जन-मानस में गांधीजी की उपस्थिति को तो स्वाभाविक मानते हैं, क्योंकि वे घोषित रूप से धार्मिक, पारंपरिक व्यक्ति थे, लेकिन नेहरू? उनके बारे में बताया जाता है कि उनका सोच-विचार, मन-संस्कार तो विलायती था—क्या लेना-देना उनका भारतीय जन-मानस से…

तो, क्या सत्ताईस मई उन्नीस सौ चौंसठ को क्या वह घर अनोखा था, जहाँ उस रात चूल्हा नहीं जला, तीन दिन तक सूतक माना गया; या वह देश के करोड़ों घरों जैसा साधारण घर ही था…क्या खो दिया था उस दोपहर, इन तमाम घरों ने?

आज,पचास बरस बाद एक बात तो लगती है कि हम में से बहुतेरे मानवीय संवाद की विधि ही नहीं समझते, इसीलिए उस जादू को नहीं समझ पाते जो गांधी और नेहरू जैसे विपरीत ध्रुवों पर खड़े दिखने वाले व्यक्तित्वों के बीच संवाद और विवाद का रिश्ता संभव करता है। औद्योगीकरण से लेकर संगठित धर्म तक के  सवालों पर अपने और जवाहरलाल के बीच मतभेदों से गांधीजी खुद भी नावाकिफ तो नहीं थे, फिर भी क्या कारण था, उनकी इस आश्वस्ति का कि, “स्फटिक की भाँति निर्मल हृदयवाले जवाहरलाल के हाथों देश का भविष्य सुरक्षित है”।

केवल आश्वस्ति नहीं, आग्रह, इस हद तक कि कांग्रेस संगठन में नेहरू की तुलना में पटेल के पक्ष में व्यापकतर समर्थन को जानते हुए भी स्वयं पटेल पर प्रभाव डाला कि नेहरू के नेतृत्व में काम करना स्वीकार करें। याद करें कि ग्राम-स्वराज्य के  सवाल पर  ‘असाध्य मतभेदों’  की बात का सार्वजनिक रेखांकन गांधी ने ही किया था। आज लगता है कि वह बहस चलनी चाहिए थी, उससे कतरा जाने की बजाय, दोनों पक्षों को, खासकर नेहरू को उलझना चाहिए था। ऐसा  होता तो दोनों पक्षों-गांधीजी और जवाहरलालजी- को ही नहीं, सारे समाज को बुनियादी सवालों पर अपनी सोच बेहतर करने में मदद मिलती।

खैर, जनमानस के साथ संवाद की कसौटी पर,एक लिहाज से नेहरू गांधीजी से भी अधिक प्रेरक व्यक्तित्व हैं। उनके मुहाविरे में ‘धार्मिकता’ नहीं थी, रहन-सहन में ‘पारंपरिकता’ नहीं थी, हिन्दी-उर्दू बोलते बखूबी थे, लेकिन गांधीजी की तरह कभी अपनी मातृभाषा में लिखा नहीं। ‘लेखक’ अंग्रेजी के ही थे; और ‘धर्मप्राण’ भारतीय जन-मानस से संवाद इतना गहरा था कि बेखटके बांधों और कारखानों को ‘नये भारत के नये तीर्थस्थल’ कह सकें।

गांधीजी को अपने ‘सत्य के प्रयोगों’ का सार जीवन-तप से मिला, नेहरू ने अपने जीवन-तप में ‘भारत की खोज’ की। यह केवल एक पुस्तक का शीर्षक नहीं, ईमानदार, विनम्र आत्म-स्वीकार था, अपनी न्यूनता का। मुंह में चांदी का चम्मच लेकर जन्मे जोशीले नौजवान को अहसास कैंब्रिज से लौटते ही हो गया था कि उसकी विशेषाधिकार-संपन्न सामाजिक स्थिति ने उसे अपने समाज से कितना काट दिया है, उसे भारत मिल नहीं गया है, उसे खोजना है। ‘भारत की खोज’ नेहरू के लिए अपनी जगह की तलाश भी थी।

‘आत्मकथा’ में कितने चाव और गर्व से लिखा है नेहरू ने, ‘ कांग्रेस के जन-संपर्क कार्यक्रम के तहत, मानव-जाति को ज्ञात हर यातायात-साधन का उपयोग किया’। मीलों पैदल चले, साइकिल चलाई, नाव पर बैठे, घुड़सवारी तो बचपन से करते आए थे, बैलगाड़ी, ऊंटगाड़ी की भी सवारी की….और देखा, ‘उन हताश, पीड़ित किसानों को जिन्होंने सारी तकलीफों और ज्यादतियों के बीच अपनी इंसानियत को बचाए रखने का कमाल कर दिखाया है’;  समझा और आत्मसात किया इस सत्य को कि ‘गांधीजी इन किसानों को उपदेश नहीं देते, वे इनकी तरह सोच पाते हैं, और इसलिए इनसे बातचीत ही नहीं, ऐसा गहरा संवाद कर पाते हैं, जिसके जादू को हम जैसे पार्लर सोशलिस्ट समझ ही नहीं सकते’।

इस जादू को समझने के तप ने ही ‘भारत की खोज’  का रूप लिया, यह खोज केवल वर्तमान की नहीं थी, फिर भी, यह किताब कोई इतिहास-ग्रंथ नहीं, बल्कि लेखक की आत्म-कथा का एक रूप है। यह किताब बेधड़क रूप से आधुनिक एक व्यक्ति द्वारा अपने समाज की परंपरा से संवाद की कोशिश, अपने समाज की आत्मा की खोज है। अपने आत्म में समाज की आत्मा, और उस समाज की परंपरा में अपनी जगह की तलाश है।

इस खोज में ही उन्होंने खुद को यह जानते पाया कि ‘भारत माता की जय’ के नारे में, ‘वंदे मातरम’ के अभिनंदन में जो मां शब्द  है वह संकेतक है वह देश के इतिहास, भूगोल, संस्कृति, विरासत सब कुछ का, लेकिन सर्वोपरि देश के साधारण इंसान का…।  ‘ एक तरह से आप स्वंय हैं भारत-माता’— यही कहते थे नेहरू बारंबार अपने श्रोताओं से। गांधीजी के अद्भुत शब्द-चित्र का ‘आखिरी आदमी’ है भारत-माता, उसकी आँख का आखिरी आँसू पोंछना ही होगा भारत-माता की सच्ची जय…।

‘भारत की खोज’ के ही प्रसंग में नेहरू ने अपनी धर्म-दृष्टि स्पष्ट की थी, “गैर-आलोचनात्मक आस्था और तर्कहीनता पर निर्भर” विश्वासों से वे असुविधा महसूस करते थे, ऐसे विश्वास चाहे ‘हिन्दू’ धर्म के नाम से पेश किये जाएं, चाहे ‘इस्लाम’ या ‘ईसाइयत’ के नाम से। लेकिन वे जानते थे कि, “धर्म मानवीय चेतना की किसी गहरी जरूरत को संतुष्ट करता है…मानवीय अनुभव के उन अज्ञात क्षेत्रों की ओर ले जाता है, जो समयविशेष के विज्ञान और अनुभवपरक ज्ञान के परे हैं”। इसीलिए संगठित धर्म के निजी अरुचि के बावजूद आक्रामक किस्म के धर्म-विरोध में नेहरू की कोई दिलचस्पी नहीं थी।

प्रचलित धार्मिकता का विकल्प वे प्राचीन भारत और प्राचीन यूनान की प्रकृति-पूजक, बहुदेववादी (उनके अपने शब्दों में ‘पैगन’) संवेदना और उसके साथ ही ‘जीवन के प्रति नैतिक दृष्टिकोण’ में पाते थे। उन्होंने गांधीजी का सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान ‘साधन-शुचिता’ पर बल को ही माना। उन्होंने रेखांकित किया कि ‘ सत्य पर एकाधिकार के किसी भी दावे से पैगन अवधारणा का मूलभूत विरोध है”। एक अमेरिकी पत्रकार ने जब उनसे कहा कि ‘ धीरे धीरे मुझे लगने लगा है कि किसी भी न्यूज-स्टोरी के स्याह-सफेद ही नहीं, और भी रंग होते हैं,’  तो नेहरू ने छूटते ही कहा था, ‘ वेलकम टू हिन्दू व्यू ऑफ लाइफ’।

इन सब प्रभावों और संवादों के साथ भारत की, और खुद अपनी खोज करते नेहरू ने और उनके मार्गदर्शक गांधीजी और साथी पटेल तथा दीगर नेताओं ने सेकुलरिज्म के शब्द-कोशीय अर्थ पर नहीं, भारतीय अनुभव से कमाए गये अर्थ पर बल दिया। सार्वजनिक जीवन तथा राजतंत्र में पंथ-निरपेक्षता की वकालत की, सेकुलरिज्म का अर्थ अल्पसंख्यकों के मन में सुरक्षा-बोध भरना माना। संविधान-सभा में अल्पसंख्यक-संरक्षण के बारे में विचार करने के लिए बनी समिति के अध्यक्ष नेहरू नहीं पटेल थे।

नेहरू ने गलतियां भी कीं; बड़े लोगों की गलतियाँ बड़ी भी होती हैं, महंगी भी। लेकिन, उन सारी गलतियों (जिनकी चर्चा होती ही रहती है, होनी ही चाहिए) के बावजूद, सच यही है कि नेहरू द्वारा अपनाई गयी मूल दिशा सही थी। गांधीजी  सच्चे अर्थों में मौलिक चिन्तक थे। नेहरू ने ऐसा कोई दावा परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से नहीं किया कि वे मानवीय स्थिति के प्रसंग में कोई नितांत मौलिक अस्तित्वमीमांसामूलक या ज्ञानमीमांसामूलक प्रस्थान प्रस्तुत कर रहे हैं। गांधीजी सत्य के प्रयोग कर रहे थे, राजनैतिक आंदोलन उनकी आध्यात्मिक खोज का अंग था। नेहरू भारत की और अपनी जगह की खोज कर रहे थे।

स्वाधीनता के बाद, नेहरू, पटेल और उनके साथियों के सामने चुनौती स्वाधीन देश में लोकतांत्रिक न्याय के साथ आर्थिक विकास संभव करने की थी; एक सनातन सभ्यता को आधुनिक राष्ट्र-राज्य का रूप देने की थी। इसके लिए संवैधानिक परंपराओं और संस्थाओं की महत्ता का व्यावहारिक रेखांकन सबसे बुनियादी था, और नेहरू ने यह करने की कोशिश की;  बेशक सफलता और असफलता के साथ। इसी से संबद्ध खोज थी विश्व-रंगमंच पर भारत की प्राचीनता, विविधता, और अंतर्निहित संभावना के अनुकूल भूमिका तलाशने की। यहाँ भी कुछ कामयाबी, कुछ नाकामयाबी— यह स्वाभाविक नहीं क्या?

उनकी नीतियों का मूल प्रस्थान मध्यम-मार्ग था। भगवान बुद्ध द्वारा प्रतिपादित मध्यमा प्रतिपदा। इसीलिए उन्हें समाजवादियों की भी आलोचना का सामना करना पड़ा, और मुक्त-व्यापार वालों की भी। उनकी मिश्रित अर्थव्यवस्था को उस चुटकुले का मूर्त रूप बताया गया कि, ‘ मैडम, अपने मिलन से होने वाली संतान को कहीं रूप मेरा और बुद्धि आपकी मिल गयी तो’?

लेकिन रास्ता तो यही था । सोवियत संघ के विघटन से लेकर पिछले दिनों जब बराक ओबामा को कहना पड़ा कि पूरी छूट तो मार्केट फोर्सेज को नहीं दी जा सकती।

रास्ता तो यही है, एक बार फिर दिख रहा है। चुनाव में शानदार हार के बाद, कांग्रेस के हार्वर्ड-पलट नीतिकार कह रहे हैं कि नेहरू की ओर लौटना होगा— जाहिर है कि जीत हुई होती तो नेहरू की ओर लौटने की बात तक नहीं होती।  खैर, कांगेस की बात तो ठीक है लेकिन…।

मेरे मित्र नीलांजन मुखोपध्याय ने बढ़िया किताब लिखी है नये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर। उन्होंने ठीक ही नरेन्द्र मोदी को भारत का पहला ‘नॉन नेहरूवियन’ प्रधानमंत्री पदाकांक्षी कहा है। लेकिन, इन ‘नॉन नेहरूवियन’ पदाकांक्षी के प्रधानमंत्री मनोनीत हो जाने के बाद तो उनकी भाषा भी नेहरूवियन होने की कोशिश कर रही है, और विदेश-नीति भी, सैनिकों के सर के बदले सर काटने की बातें करने वालों के मन-मयूर शपथ-ग्रहण में ही पाकिस्तान के प्रधान-मंत्री के आने की बात से नृत्य कर रहे हैं।

गांधी-नेहरू की विरासत केवल कांग्रेस तक वाकई सीमित नहीं है, चाहें तो कह लें, वह मजबूती है, चाहें तो कह लें कि मजबूरी है भारत नामके राष्ट्र-राज्य के लिए ।

जवाहरलाल नेहरू की पार्थिव देह तो सत्ताईस मई उन्नीस सौ चौंसठ को शांत हो गयी लेकिन उस देह की छाया बहुत लंबी है, वह भारत के पहले ‘नॉन नेहरूवियन’ प्रधानमंत्री पर भी पड़ ही रही है।

 

 

in search of Renaissance Man

This is text of Key-Note address  to Lomosonov Seminar, CRS, JNU.

November 14th, 2011.

It is very appropriate that this academic event celebrating the tercentenary of M.V. Lomosonov has been dedicated to the search of new age renaissance-man.  After all he was a real polymath, a son of common people who went on to earn the acclaim as Russia’s first Renaissance man. He published monographs on physics, geology, chemistry, optics, classics, language, and history. He was a commanding figure in the debates over what should constitute the more-or-less vernacular Russian literary language and poetic meter, for which he authored a much-celebrated grammar as well as a book of Russian rhetoric.

And here let us recall that, intellectuals across Europe came to see themselves, in the sixteenth, seventeenth and eighteenth centuries, as citizens of a transnational intellectual society—a Republic of Letters in which scholars, philosophers and scientists could find common ground in intellectual inquiry even if they followed different faiths and belonged to different nations. Given this self-perception of this republic of letters, The more interesting and more important question would be- were people from outside Western Europe admitted  as its citizens or not?  People like Lomosonov are important not only for their own societies but for mankind as such for the simple reason that knowing and thinking about such people encourages, in fact forces us, not only to redraw  the boundaries of the so-called republic of letters, but also  to rethink other given categories and rework the received wisdom.  I am sure; this gathering of scholars is going to make important deliberations in the direction.

Once again I express my gratitude for giving me the privileged opportunity of presenting this key-note address to such an important seminar and I would like to use this opportunity to put some concerns for the consideration of the fellow scholars.

Renaissance, as we all know, literally means re-birth. And hence the term renaissance is metaphorically used to describe the historical process particularly in the realm of culture whereby Europe was reborn into its real self, as it were. Obviously re-birth can only come after death, after a certain fundamental break. The centuries preceding renaissance in European history are naturally known as the dark ages, from which Europe recovered courtesy the Arabic translations of the Greek classics. So far as European cultural experience is concerned, may be the metaphor of death and re-birth can be justified. The question however is, can we use this term-‘Renaissance’ i.e. rebirth in the context of other societies? To put the question in a concrete way, when we talk of, let us say Bengal Renaissance of the 19th century, are we not implicitly saying that the centuries preceding the 19th were those of stagnation and decay, of metaphoric death?  Can the pre-colonized India really be described in these terms? Be it the grand narrative of Mughal state in north India or the local narratives of various parts of the sub-continent, the description of society and culture as stagnant and dead hardly seems appropriate. It is an equally debatable proposition that the colonial modernity brought the necessary dynamism to otherwise stagnant pre-colonial India. As a matter of fact, the reality seems to be rather reverse, the colonialism far from brining India into the flow of history, actually brought a deliberate disruption in the historical evolution of Indian society by its policies of economic destruction and historical distortions. The colonial episteme and policies actually led to what I prefer to call –सांस्कृतिक संवेदना-विच्छेद- ‘the dissociation of cultural sensibility’  [i]  in the mind of the colonially educated Indians. Tagore’s novel “Gora” traces the anxiety and anguish resulting from this dissociation in a moving way.

This dissociation of sensibility was palpable even during the so-called Bengal Renaissance. Be it the heinous practice of Widow-burning or other social ills, the reformers like Ram Mohan Roy used to perforce make appeals to the ancient wisdom of the Upanishads. Nothing wrong there, the point however is- was there nothing progressive and inspiring in the contemporary everyday practices and in the immediate past? Was it appropriate to treat the Upanishads as something frozen in time long ago and now waiting to be ‘re-born’?   Did Chandidas and Chaitnaya have nothing to offer to the reformers?  It was Bankim Chandra Chattopadhyay who put this question to Ram Mohan Roy. He thus underlined the reformers’ ignorance of the tradition coming down not only from the remote antiquity but also from immediate past. More serious was the   downright contempt for even the positive aspects of contemporary life and the immediate past.  This contempt was deliberately crated by the colonial modernity, and continues to live with us Indians even today.

The point, I am trying to  make here is that we cannot understand the colonial period of Indian history without first understanding better the history of what happened before it. Similarly we cannot understand processes of the European renaissance without taking into account its debt to other traditions.  It follows that the categories like renaissance and renaissance-man ought to be employed in non-European contexts with necessary modifications and never losing the sight of what the Colonialism did to the cultural memories and intellectual legacies of the colonized societies. Let us not ignore the dynamics of the universality, which was there much before the colonial expansion.  Andre Gunder-Frank has demonstrated quite convincingly that ‘great universal cultures flourished till the 19th century totally independent of modern Europe.’[ii]

Recalling Gunder-Frank’s Argument, the Mexican scholar Enrique Dussel argues for the idea of ‘trans-modernity” instead of the so-called post-modernity, “the concept of post-modernity implies that there is a process that emerges “from within” modernity and reveals a state of crisis within globalization. “Trans”- modernity, in contrast, demands a whole new interpretation of modernity in order to include moments that were never incorporated into the European vision.”[iii]

There is no problem in using the categories evolved in Europe, provided these are not used in a euro-centric manner.  One should never forget the caution issued by Raymond Schwab to his European readers about pre-colonial India, way back in the fifties-“unlike a unique model, India had always known the same problems as we, but had not approached in the same ways. It presented, as had been seen only once before in the history of mankind, a past that was not dead but remained an antiquity of today and always.”[iv] This sensitivity to both identity and difference is extremely important for undertaking the search for a new renaissance man in the 21st century.  Schwab also argued quite forcefully that the arrival of Indic studies in 18th-19th century Europe was one of the decisive events of the world intellectual history. Recalling that this arrival was described as the oriental renaissance by the contemporaries, he argues that, “this is not a second renaissance but the first belatedly reaching its logical conclusion.”, and it is only after this completion of renaissance that, “humanist’s long prohibition against looking beyond Greece for fear of running into Barbarism and the clerics’ against looking beyond Judea for fear of running into idolatry ends in the west.”[v]

The search for a new renaissance-man cannot be undertaken without the cognition and recognition of the universality of human spirit and the diversity of its manifestations. Abhinavagupta, who was a great mystic, philosopher and Kavyashastri at the same time summed up the wisdom of his intellectual tradition most succinctly in a reminder which is even more relevant today after almost a thousand years- न हि एकया दृष्ट्या सम्यगम् निर्वर्णनम् निर्वहति… it is not only through one way that you can appropriately describe all the phenomenon….

I hope, following the lead of Abhinavagupta, we can explore the universality of human spirit and free it from the burden of unnecessary binaries; we can keep the differences in sight and yet not lose sight of the common pursuits. If we really want to search and imagine the new age renaissance men and women, we will have to get rid of binaries imagined between the mystic cognition and intellectual enlightenment; between the concern for society and the autonomy of individual. Instead of the stifling ideological straight-jackets, the search for the new age renaissance-man will have to root itself in the life-affirming vision of art and literature.

I cannot think of a better way of concluding this address than to quote from Jaishankar Prasad- who is not much known outside the Hindi literary circles and who was a great scholar, poet and playwright, and a great connoisseur of arts, a new age Renaissance man- if you please. He was active during the colonial period and acutely sensitive to the pressures caused by the colonial situation. While discussing the Indian and western notions of art and poetry, Prasad observed:

ज्ञान के वर्गीकरण में पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक रुचि-भेद विलक्षण है। प्रचलित शिक्षा के कारण आज हमारी चिंतनधारा के विकास में पाश्चात्य प्रभाव ओत-प्रोत हैं और इसलिए हम बाध्य हो रहे हैं अपने ज्ञान-संबंधी प्रतीकों को उसी दृष्टि से देखने के लिए। यह कहा जा सकता है कि इस प्रकार के विवेचन में हम केवल निरुपाय होकर  ही प्रवृत्त नहीं होते, किंतु विचार-विनिमय के नये साधनों की उपस्थिति के कारण संसार की विचार-धारा से कोई भी अपने को अछूता नहीं रख सकता। इस सचेतनता के परिणाम में हमें अपनी सुरुचि की ओर प्रत्यावर्तवन करना चाहिए क्योंकि हमारे मौलिक ज्ञान-प्रतीक दुर्बल नहीं हैं।[vi]

That is: “The different taxonomies of knowledge in the east and the west are due to the differences in cultural preferences. The prevalent education system has coloured our thinking with western influences and has compelled us to asses our own cultural semiotics on western parameters. But let us not overplay the role of compulsion here; the presence of the new media of the exchange of ideas has made it impossible for anybody to remain untouched by the ideas in international circulation. In fact, we must go back to our own semiotics with this awareness, as our own knowledge systems and signs are not any weaker.”

I think, this reminder from an Indian renaissance-man of the colonial era has become even more important for the new age renaissance-man and woman of the 21st century.

 

 

 

 

 



[i]  See my “ Akath Kahani Prem ki: Kabir ki Kvaita aur un ka Samay”( Hindi) Chapter 2. ( New Delhi, 2nd edition, 2010), Rajkamal Prakashan.

[ii] See Andre Gunder Frank, “Re-Orient: Global Economy in the Asian Age”, Vistar Publications, New Delhi, 2002( first published in 1998.

[iii] Enrique Dussel, “World System and “Trans”- Modernity.” In  ‘Unbecoming Modern: Colonialism, Modernity, Colonial Modernities’ eds. Saurabh Dube, Ishita Banerjee-Dube. , Social Science Press, New Delhi, 2006.

 

[iv]  Raymond Schwab, “The Oriental Renaissance” Tr. Gene Patterson-Black and Victor Reinking.  Columbia University Press. New York, 1984.

 

[v] Ibid, p.15.

[vi] ‘Kavya aur Kala’ in “Prasad ki sampoorna Kahaniyan aur Nibandh” ed. Satyaprakash Mishra, Lok-Bharti Prakashan, Allahabad, 2009, p. 467.

Contextualizing Kabir: Full Speech

“Gandhi was not important, and will never have any significance”- A reflection.

A learned acquaintance made the stunning claim on my fb wall that Gandhi was never important and will never be important. This left leaning prophet perhaps does not know that this statement could have got him incarcerated in Stalin’s Russia! There have been many critiques of Gandhi, but none to my knowledge has emanated from such an ideological black hole.

I present below a few reflections for your perusal.

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After the 1919 ‘reforms’ the elections to the central and provincial legislatures took place in nov. 1923 ( not in 1925), and congress after initial hesitation allowed its members to enter the ‘councils’, thus bringing an end to the conflict between ‘pro-changers’ and ‘no-changers’. During 1923-14 congressmen also captured a large number of municipalities. C.R. Das became mayor of calcutta and Netaji Bose was appointed his ‘Chief Executive Officer’. Sardar Patel was elected president of Ahmdabaad Municipality.

So, if congress was ‘collaborating’ with colonial administration, Netaji and Sardar were also participating in this act. Gandhiji on the other hand was doubtful form day one and in 1926 wrote categorically of “not only futility, but also of inadvisability” of the council entry.

The point is that ALL political tendencies in pre-independence India ( including of course, the communists) have been accused of collaboration with Imperialism at one point of time or the other. the reason is simple, neither the working of Imperialism nor the resistance to is capable of being reduced to Manichean binaries desired by those suffering from the lack of intellectual rigor. In real, complex historical situation and their evaluation childish, or shall we say Bush-like version of “Dialectics” ( Good guys versus bad guys) does not work.

So far as counter-posing Patel and Netaji to Gandhi and Nehru is concerned, it has been a favorite hobby horse of a certain political tendency in India. Patel of course, occasionally had sharp differences with Nehru, but one wonders if he would feel ‘flattered’ being propsed as a better leader than Gandhi. Given, Patel’s rather no-nonsense temperament, the “scholar” (!) making such a suggestion in his presence is likely to be in a bit of trouble!

In fact, some self-proclaimed ‘dialecticians’ ( hope, one need not elucidate on the centrality of this idea in the Marxist method) have reduced everything to Bushism of Good guys and Bad guys. It is due to typically middle class and adolescent fascination with ‘action’ ( an euphemism for violence) that such ‘Marxists’ can ride not only their own fantastic horses, but also the rightist’s favorite hobby horse of Gandhi-Nehru bashing and, of course ignorant “glorification” of Patel and Netaji. And so far, as India’s freedom/ Independence being a “useless word” is concerned, usually the well-fed and NRIs ( permanent as well as temporary) mouth such empty and thunderous phrases, while those really fighting for a better India know the import of freedom, even if imperfect.

My friend Priyankar Pailwal has been advised to read some Marxist historians, I have read couple of them and naturally none of them is so ignoramus and pompous to issue the decree that, “गांधी का न कोई महत्व था, न है”। only a certain kind of characters are blessed with this variety of ‘confidence’ and they have been referred to, in the poetic lamentations like, “….where angels fear to tread” and, “….जिन्हें न व्यापे जगतगति”.

Antonio Gramsci who will, hopefully qualify as a Marxist theoretician, if not ‘historian’, in the ‘further selections from Prison note-books’ ( 1999, p119), we find him seeing in Gandhi and his movement ‘something akin to early Christianity’. which ” the contemporary Catholics and Protestants can not even imagine to appreciate” . Of course, a sense of the history of early Christianity and its later organization into the Pauline church is required to grasp the import of this ‘simple’ statement.

I had posted Obama’s sentence to really appreciate not only his personal admiration of Gandhiji, but also to remind my friends of the history of civil rights movement in ‘civilized America’. let me just quote here from Stanley Wolepart’s ” Gandhi’s Passion’ ( Oxford, 2001, p. 264)-” Martin Luther King was not the first nor the only great black leader in the US to be inspired by Gandhi’s life and its message of love, hope, faith and courage. W.E.B. Du Bois had earlier invited Gandhi to visit America on behalf of the National Association for Advancement of Colored People( NAACP).” It may well be, Du Bois prophetically said ” that real human equality and brotherhood in the United States will come only under the leadership of another Gandhi.” It was of course left to Dr. King to declare even more prophetically in his last -” I have been to the mountain-top”- speech ( April 3, 1968) that, the choice is ” no more between non-violence and violence, but between non-violence and non-existence”

One must criticize the president of USA, but one can not loose sight of the historically and morally significant sense of gratitude coming from a person of colour, who ” might not be standing before you today, asPresident of the United States, had it not been for Gandhi and themessage he shared with America and the world”.

As someone belonging organically to Gandhi’s philosophical ( yes, my dear even those not declared “doctor of Philosophy” have it, Gandhi certainly had one) location and his legacy speaking out movingly in Obama’s sentence, I certainly feel proud, and at the same time reserve my right to criticize Gandhi!

It was with this pride, that I posted Obama’s sentence. I am, fortunately not blessed with audacity to make “final comment” on Gandhiji, but for current discussion this should, hopefully suffice.just another incidental point, while referring tentatively to an uncertain number, the lower one is mentioned first and the higher one later. You do not say 20-15 years old, but 15-20 years old. Those who teach Hindi as ‘native speakers’ to foreigners should take care of such details. After all, as they say- ‘ Devil is in the details’, and this is true both of history and language- Hindi, English or any other. For example, the leftists are also politicians and some of them are even parliamentarians, hopefully at least do not answer to the description- “black Englishmen”.

Finally, as someone said, “anger qua anger proves nothing save itself”, and this is not Gandhi, but Fredrick Engels!

Thinking of Gandhiji

Thinking of Gandhiji…

1. Some lines from a conversation in the chapter ‘Aswaththama’ in Dilip Simeon’s novel Revolution Highway (Penguin, 2010)

They think so much about the future, they’ve forgotten the present. They claim to know a future that ordinary people don’t, so they place themselves beyond ordinary moral standards. They are forever innocent.

Politics has played havoc with history. Everyone prefers fairytales to inconvenient facts.

What do I make of Gandhi? A man at odds with is times. But we needed him. We still do, because we’re as in much the same situation as we were in his lifetime.

I’ll tell you something that took me a very long time to understand. People want all the good to be on one side. They yearn for simplification. They can’t accept that their community, or their party, any place to which they belong, could do anything bad. They will invent any fiction and tell lies to their children, to avoid admitting that our moral capacity is unstable, that we are capable of just as much evil as the other side.

Read Yudhisthira’s answers to the Yaksha, the tree spirit beside the forest lake…Yudhisthira answered his questions to revive his brothers. One of the questions is about the supreme virtue.

What is the answer?

Read it and find out yourself!

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2. Two poems by Suman Keshari (‘याज्ञवल्कय से बहस’, राजकमल, 2008 से)

1.बा।

कितना कठिन है

शब्दों में तुम्हें समेटना

बा

तुम एक परछांई सी सूरज की

उसी के वृत्त में अवस्थित

चंदन लेप के समान

उसको उसी के ताप से दग्ध होने से बचातीं

उसे भास्कर बनातीं….

2.बा और बापू।

चलते चलते आखिर थक ही गई

इशारे भर से रोक लिया उसे भी

उस ढलती शाम को

जो जाने कब से तो चल रहा था

प्रश्नो की कंटीली राह पर

नंगे पाँव

नियम तोड़ रुक गया वह

भीग गई आत्मा

लहलहाई

कोरों पर चमकी

यह जानते हुए भी

कि  देह भर रुकी है उसकी

शय्या के पास

मन तो भटक ही रहा है

किरिच भरी राहों पर

उन प्रश्नों के समाधान ढ़ूँढ़ता

जो अब तक पूछे ही न गए थे…

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3. Some lines from an article by yours truly.  Published in ‘India 60’, (Editor Ira Pande, Harper Collins, 2007), this article was based on a lecture delivered at Gandhi Peace Foundation, Delhi, on 2nd October, 2005.

Way back in the early 1960s, as a child in a north Indian town, one of the many popular sayings I grew up listening to was “Majboori ka naam Mahatma Gandhi.” The phrase conveyed that Gandhi was another name for meekness bordering on timidity…

The assassin proved Gandhi right. The act of murder manifested not the strength, but the helplessness of the assassin. He killed a man who was utterly vulnerable and yet had a towering stature, someone who was a target of attacks from all quarters and yet remained steadfast…Gandhi was not a meek ‘victim’- he quite probably knew he would pay with his life for his fortitude. Then, as now, it required a degree of personal courage to believe in essential goodness of humankind, and to maintain an unshakable faith in ethical acts and dialogue. It required great wisdom to interrogate ‘sacred’ violence, and Gandhi did precisely that.

On that particular 30th January of 1993, I became convinced that word majboori (helplessness) needed to be replaced with Mazbooti-the Hindustani word for fortitude. We had to understand the sheer fact that Gandhi was a man of immense strength.

Mazbooti ka naam Mahatma Gandhi!

Second Edition of Akath Kahani Prem Ki…

I am happy to announce that the second edition of my book Akath Kahani Prem Ki: Kabir Ki Kavita Aur Unka Samay is forthcoming from Rajkamal Prakashan:

Akath Kahani Prem Ki ... second edition cover

Second Edition Cover

It will be launched on September 9 at 5pm at Triveni Kala Sangam, Mandi House . Harbans Mukhia will be the keynote speaker. Ashok Vajpeyi, Javed Anand, Om Thanvi and Ved Prakash will speak on various aspects of the book. Namwar Singh will preside. All are welcome to attend.

Some of the important themes that are likely to be discussed are Kabir’s contribution as a poet, the Kabir-Ramanand connection, bhakti as spirituality without religion, evolution of early Indian modernity and the setback suffered by the same due to the colonial intervention.

The first edition of the book was launched in October, 2009 and has been exceedingly well received. Akath Kahani Prem Ki… was awarded the first Rajkamal Kruti Samman

>> Download an extract (hindi)
>> Read an extract in english translation (published in Communalism Combat – January 2010)