Category: Creative Writing

चेंग चुई…..मेरी यह कहानी प्रगतिशील वसुधा-91 में प्रकाशित…

चेंग-चुई.

-पुरुषोत्तम अग्रवाल।

 

‘यह मकबरा सा क्यों बना दिया है भई’

‘सर, इसे मकबरा मत कहिए’ सागरकन्या ने प्रवीण की कम-अक्ली पर तरस खाते हुए कहा, ‘यह चेंग-चुई आर्किटेक्चर है…’

चेंग-चुई?

प्रवीणजी बहुत बड़े अफसर बनने  के बाद एलाट हुआ बंगला देखने आए थे। देश के बड़े सेवकों का जैसा होना चाहिए वैसा ही बंगला था। विशाल, भव्य, गरिमापूर्ण। लेकिन प्रवीण अकेले आदमी, जोरू ना जाता, अल्लाह मियाँ से नाता टाइप। इतने बड़े घर का करेंगे क्या? मकबरे सरीखे डोम पर निगाह पड़ते ही उनकी दुष्ट कल्पना सक्रिय हो गयी थी। सोचने लगे कभी कभी, आधी रात में सारे घर की बत्तियां बंद कर, सफेद कुर्ता पाजामा धारण कर, हाथ में मोमबत्ती लेकर गृह-भ्रमण किया करेंगे। ‘ गुमनाम है कोई, बदनाम है कोई’ या ‘नैना बरसें रिमझिम, रिमझिम’ जैसे किसी धाँसू घोस्ट-सांग की सीडी सही बैकग्राउंड स्कोर देगी। मरने के बाद का हाल तो कोई कह नहीं सकता। सारे ज्ञान और सारी सर्जनात्मक, खुराफाती क्षमता के बावजूद अपन भी नहीं कह सकते-यह बुनियादी सचाई प्रवीणजी भी जानते ही थे। सोच यह रहे थे कि जीते जी भूत बनने में कितना मजा आएगा। उच्च कोटि के इंटेलेक्चुअल के मजे और मूर्खों के मजे में कुछ फर्क भी तो होगा। सबसे बड़ी बात तो यही कि अपने  इस मजे में डिफरेंस का भी ऐसा स्टेटमेंट होगा कि मार्क्स के प्रेतों का बखान करने वाले ज्याक देरिदा भी अपने प्रेतावतार में प्रसन्न हो जाएंगे। ‘देखो न यार’, प्रवीण ने अपने आप से कहा, ‘फिल्मों में सफेद कपड़े पहना कर, नीम अंधेरी रातों में गाना गाने का काम महिलाओं से ही कराया जाता है, अपनी रची इस घोस्ट स्टोरी में अपन इस सेक्सिस्ट स्टीरियो-टाइप को भी तोड़ेंगे और सदा के लिए न सही, कभी कभार तो आधी रातों में अपने प्रेत बनने का नजारा भी आप ही देखेंगे, बतर्ज ‘आप ही डंडी, आप तराजू, आप ही बैठा तोलता…’।

प्रवीणजी के अफसर ने प्रवीणजी के सिनिकल पोयट-फिलासफर को धकियाया, और बंगले को ठीक से देखना शुरु किया। यहाँ रह कर देश की सेवा करने में मजा तो आएगा। दोमंजिला बंगला। नीचे तीन, ऊपर दो बेडरूम। टायलेट-बाथ अटैच्ड । ऊपर की मंजिल पर, कोने का एक कमरा बिना अटैचमेंट के भी। यह रहने वाले की इच्छा पर कि इसे स्टोर मान ले या पूजा अथवा प्रेयर रूम। सागरकन्या फरमा रही थीं, ‘इंटरनेशनल ट्रेंड है न सर दीज डेज, आपने तो देखा ही होगा, आजकल एयरपोर्ट्स पर भी प्रेयर-रूम होते हैं। वैसे आप चाहें तो इस कमरे को स्टोर-कम-प्रेयर रूम के तौर पर भी यूज  कर सकते हैं, ज्यादातर एलाटी करते ही हैं’।

‘याने भगवान की औकात वही मानते हैं, जो घर के फालतू या इफरात सामान की’, प्रवीणजी सोचने लगे, ‘ उनकी माँ को अगर सुझाव दिया जाए कि उनके लड्ड़ू गोपाल के लिए घर की बुखारी का एक कोना मुकर्रर किया गया है तो सुझाव देने वाले की कितनी पीढ़ियों को, चुनिंदा सुभाषितों के जरिए वैतरणी तार देने में माताराम को कितना समय लगेगा’। वह जानते थे कि पूजा-घर में टायलेट ना बनाने के डिजाइन से तो माताराम भी सहमत ही होंगी, लेकिन उनके अपने  मन में यह जरूर आया कि एलाटी और उसके परिवार के बेडरूम्स में तो टायलेट्स हैं लेकिन भगवान के लिए?

यह अतिप्रश्न था। व्यावहारिक और पारमार्थिक दोनों ही धरातलों पर। भगवान के बारे में ऐसे सवाल नहीं पूछे जाते। भगवान वैसे भी सवालों के जबाव देने के फेर में पड़ते नहीं। पड़ने लगें तो नाक में दम हो जाए। उनकी तरफ से उत्तर  देने का काम हो, या उनके नाम पर आहत भावनाओं की जंग छेड़ने का, करना भक्तों को ही पड़ता है। ऐसे में भगवान के भक्तों के रोष की परवाह किये बिना कोई पूछ भी ले टायलेट विषयक अतिप्रश्न तो भगवान का उनके जैसा ही खुराफाती कोई भक्त यह प्रति-प्रश्न भी तो कर सकता है ना कि सारी दुनिया और क्या है बे?

और, फिर भगवान तो दो जहाँ के मालिक हैं। ऐसे सवाल तो इस दुनिया के भी छोटे-बड़े मालिकों के बारे में भी नहीं पूछे जाते। मालिकों के टायलेट से जुड़ा सवाल मिलियन डालर क्वेशचन की कोटि में आता हो न आता हो, अपने ही देश के प्रसंग में, इस सवाल का जबाव जरूर मिलियन रुपीज आंसर साबित हो सकता है…

एकाएक प्रवीणजी की यादों के स्क्रीन पर कालेज के दिनों की फतेहपुर सीकरी यात्रा की डाक्यूमेंट्री चलने लगी। खसखसी दाढ़ी वाले बुजुर्ग गाइड मियाँ शहंशाह अकबर की सुलहकुल नीति का नॉस्टेल्जिक लहजे में बयान  कर रहे थे। आजकल के दंगे फसाद के माहौल को अकबर के सुनहरी दौर के बरक्स रखते हुए ऐतिहासिक पछतावे से गुजर रहे थे, और कोशिश कर रहे थे कि पछतावे के कुछ छींटे इन नौजवानों के दामन पर भी नजर आएँ। नौजवान पछता रहे थे या नहीं, यह तो नहीं कहा जा सकता। हाँ, सिक्स्थ सेंस से यह जरूर जान रहे थे कि उनकी  कन्या-मित्रों के मन में अपने अपने बायफ्रेंड्स के लल्लूपन की तुलना शहंशाह अकबर की शानदार पर्सनाल्टी के साथ जरूर चल रही है। सो, कुढ़ रहे थे, और कर ही क्या सकते थे।

उधर, बुजुर्गवार का बयान जारी था, ‘ देखिए हाजरीन, यह दीवाने आम याने  बादशाह सलामत का दरबार रूम, यह दीवाने खास, यहीं बादशाह दीनो मजहब, मंतिको फलसफा के आलिमों के साथ गहरे मसलों पर तवील गुफ्तगू किया करते थे….और यह इस तरफ उनकी ख्वाबगाह, मतलब बेडरूम, यहाँ वे आराम फरमाते थे…”

बाकी लोग आधी ऊब आधी दिलचस्पी के साथ बादशाह सलामत की दिनचर्या का  कंडक्टेड टुअर ले रहे थे। लेकिन समीर जो आगे चल कर बहुत अच्छा और बहुत उपेक्षित बल्कि कुछ उचकबुद्धुओं के शब्दों में दयनीय कवि बना, इस वक्त अपना निजी इंवेस्टिगेशन कर रहा था। ख्वाबगाह में इधर-उधर घूमा, बाहर तक ताक-झाँक कर आया। लौटा तो, संबोधित गाइड को किया, “सुनिए चचा” लेकिन फिर जिज्ञासा उनके सामने नहीं जैसे सारे इतिहास के सामने ठेठ पुरबिया लहजे में ऱखी, “बादशाह सलामत झाड़ा कहाँ फिरते थे जी?”

मुगलिया शान के कसीदों से ऊबते, जिसे सिस्क्थ सेंस से जान रहे थे, उस तुलनात्मक अध्ययन से जलते लड़के तो जितना जरूरी था, उससे भी ज्यादा जोर से हँसे ही, अकबर की पर्सनाल्टी से टू मच इंप्रेस होती लड़कियों के लिए भी इस सवाल पर हँसी रोकना मुश्किल हो गया। इन साधारण मर्त्य मानवों से अलग, प्रवीण और उनके जैसे ज्ञानी, अवसर के अनुकूल न होने पर भी, जिज्ञासा की मूल वैधता को स्वीकारते हुए उसके सामाजिक आर्थिक और सांस्कृतिक निहितार्थों की पड़ताल में जुट गये।

गाइड बुजुर्ग तड़प उठे थे। मुगलिया सल्तनत का नॉस्टेल्जिया कहिए या मुश्तर्का कल्चर का, इस गुस्ताख सवाल पर उनकी भँवें ही नहीं टेढ़ी हुईं, खसखसी दाढ़ी भी गुस्से से काँपने लगी। बोले कुछ नहीं, एकाएक आदाब अर्ज करके चल दिए, पैसे भी लेने को राजी नहीं। किसी तरह प्रवीण ने ही बात सँभाली थी। गाढ़ी उर्दू और गाढ़ी हिन्दी को बोलचाल की जुबान के समर्थक कितना भी कोसें, इस गाढ़े वक्त साथ गाढ़ेपन ने ही दिया। मर्जी होने पर प्रवीण साध सकते थे दोनों तरह का गाढ़ापन। सो, उन्होंने काफी हाई फंडा उर्दू बोलकर ‘अहमकों के इस हुजूम में वाहिद बाशऊर शख्स’ होने का यकीन बड़े मियाँ को दिलाया, समीर की गुस्ताखी की माफी माँगी, और बुजुर्गवार को फीस देकर, उनकी दुआएं हासिल कर उन्हें विदा किया।

इस अनुभव की याद ने प्रवीण को रोका पूजारूम में अटैच्ड टायलेट-बाथरूम न होने के बारे में अतिप्रश्न करने से।

लेकिन ड्राइंग रूम के पीछे के इस विशाल हाल में, सपाट छत की जगह, मकबरे के गुंबद जैसा आकार देखकर रहा नहीं गया, पूछ बैठे, और ज्ञानान्वित हुए कि यह चेंग-चुई आर्किटेक्चर है। तिलमिलाए भी कि आज तक नाम नहीं सुना था, चेंग-चुई का। मामला चाहे मकान का हो, चाहे श्मशान का, प्रवीणजी को सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता में कहीं भी, किसी से भी पीछे रहना सुहाता नहीं था। विडंबना देखिए कि इस निहायत फैशनेबल (और इस कारण, प्रवीणजी के इंटेलेक्चुल संसार के अलिखित नियमों के अनुसार, अज्ञानी होने को अभिशप्त) बाला ने चेंग-चुई के बहाने प्रवीणजी को अज्ञानी सिद्ध कर ही दिया। ‘पढ़ना कम कर दिया है, साले, तुमने, लिखने और भषणियाने ज्यादा लगे हो’- प्रवीण जी ने खुद को खबरदार किया।

उधर सागरकन्या बड़े अफसर और प्रसिद्ध विद्वान के टू-इन-वन को इंप्रेस करने के अवसर का पूरा लाभ उठा रही थीं, ‘अभी अपने यहां किसी ने नाम तक नहीं सुना है, सर। लोग फेंग सुई तक ही रह गये हैं। मैं तो एक बार इनके साथ शिप पर आइवरी कोस्ट से गुजरी थी.. ही इज़ विद दि मर्चेंट नेवी, यू नो…. वहां चीनी डायस्पोरा की एक बस्ती थी उन्होंने अपनी क्लासिकल ट्रैडीशंस के साथ लोकल नालेज का हाइब्रिड करके फेंग सुई का जो रूप रिकंस्ट्रक्ट किया, उसे चेंग-चुई कहते हैं,’ सागर कन्या पोस्ट-मॉडर्न शब्दावली से गुजर कर असली चीज पर अब आईं, ‘चेंग-चुई का प्रिंसिपल है कि ऐसा डोम बनाने से पाजिटिव एनर्जी सारे घर में सर्कुलेट करती है, यहाँ जो वैक्यूम बनता है, वह सारी नेगेटिव एनर्जी को एब्जार्ब करके, प्यूरिफाई करके उसे पाजिटिव एनर्जी में बदल कर सारे स्ट्रक्चर में सर्कुलेट कर देता है, स्प्रिचुअल एनर्जी का रिसायकलिंग सिस्टम बन जाता है चेंग-चुई के हिसाब से डोम बनाने से…हमारी फर्म ने तो पेटेंट करा लिया है, चेंग-चुई का…अब इन दि एंटायर साउथ एशिया, बस हमारी ही फर्म चेंग-चुई प्रिंसिपल्स के इन एकार्डेंस मकान बनाती है, इसीलिए तो मिनिस्ट्री ने आप जैसे टॉप ऑफिशियल्स की इस कॉलोनी का कांट्रैक्ट हमें दिया है….बिटवीन मी ऐंड यू सर, जब मिनिस्टर साहब को मालूम पड़ा तो ही वाज लिटिल अपसेट कि… ऑनली फॉर ऑफिसर्स…अब आपकी दुआ से ऐंड विद दि ग्रेस ऑफ गॉड ऑलमाइटी, मिनिस्ट्रियल बंगलोज का काम भी हमीं को मिलने वाला है’।

‘लेकिन मेरे यहाँ आने के पहले दीवारों की  सीलन तो ठीक करवा देंगी ना आप, लीकिंग पाइप्स हैं शायद…’

‘ ओ, नो, सर, दिस इज आलसो चेंग-चुई, ताकि आप कभी भी अपरूटेड महसूस न करें, आपकी जडें ही नहीं आपका लेफ्ट-राइट भी बैक टू फ्रंट, सदा भीतर से नम बना रहे, आपकी पर्सनाल्टी और रिलेशनशिप्स में कभी रूखापन न आए…आप तो जानते ही हैं सर कि आजकल फैमिलीज के भीतर ह्यूमन रिलेशंस कितने रूखे और खोखले होते जा रहे हैं…हमने मकानों के चेंग-चुई डिजाइन के जरिए एन्स्य़ोर किया है कि रिश्ते  भीतर से नम रहें औऱ घर में पाजिटिव एनर्जी लगातार मूव करती रहे…बाई दि वे आप तो हिन्दी के राइटर भी हैं न सर?’

पहले मकबरे का सा गुंबद, अब यह सीलन, इसमें भी साला यह चेंग-चुई का आर्किटेक्चर…प्रवीण एक के बाद इन गुगलियों से हिल गये थे, हिन्दी के राइटर होने की याद दिलाए जाने से हकबका गये। इतना ही कह पाए, ‘हाँ, तो?’

‘मेरे हसबैंड एक्टिव इंटरेस्ट लेते हैं हिन्दी राइटिंग में, ही इज ए शॉर्ट स्टोरी राइटर एज वेल एज ए पोयट…’

प्रवीण को चेंग-चुई से बड़ा खतरा मंडराता दिखने लगा। अगला वाक्य यही होने वाला है कि जब आपको टाइम हो, हम लोग आते हैं, हसबैंड की पोयम्स सुन कर कुछ एडवाइज कीजिएगा। हिन्दी का लेखक या प्रोफेसर होने के यों तो कई कुपरिणाम हैं, लेकिन पिछले कई बरसों से जिससे प्रवीण सर्वाधिक आतंकित रहे आए थे, वह यही था- एक से बढ़ कर एक नमूनों की राइटिंग हाजत रफा कराने का माध्यम बनना…। एक से एक चुनिंदा बेवकूफों की रचनाशीलता का मूल्यांकन करना, उनकी महान रचनाओं पर राय देना। साहब लोगों की दुनिया में हिन्दी का लेखक चांदमारी का बोर्ड था। जिन्हें हिन्दी में अपनी क्रिएटिविटी फायर करने की लत लग जाए, उन्हें अपनी इलीट दुनिया में न पाठक मिलते थे, न श्रोता। इस दुनिया में प्रवेश करने के बाद प्रवीण को, भलमनसाहत कहिए या एटीकेट की विवशता, दर्जनों कुड हैव बीन नोबल लारेट्स एमेच्योर्स की फायरिंग झेलने का दुर्भाग्य भोगना पड़ा था,  अब उनका धीरज जबाव देने लगा था। एक भी पल गँवाए बिना, उन्होंने कवर-पोजीशन ले ली,‘ मैं किसी हिन्दी राइटर का लिखा कुछ नहीं पढ़ता’…बात को थोड़ा मजाक का टच देने के लिए आगे जोड़ा, ‘सिवा अपने…’

सागरकन्या को प्रवीण का कथन न तो मजाक लगा, न बुरा और न ही उसे कोई  ताज्जुब हुआ, ‘आई नो दैट सर, हसबैंड भी यही बताते हैं, मैंने भी फील किया, वो क्या है कि एक बार हमारे घर पर गैदरिंग हुई थी तो सारे के सारे राइटर्स बस फॉरेन या एट बेस्ट इंडियन इंगलिश ऑथर्स की ही बात  कर रहे थे, या अपनी खुद की राइटिंग्स की। सो आई नो… बट,  मैं तो कह यह रही थी कि उस गैदरिंग में भी, और वैसे भी मैंने नोट किया है कि कंटेंपरेरी हिन्दी राइटिंग, इन पर्टिकुलर फिक्शन में, नमी पर बड़ा एंफेसिस है। सम एक्सप्रेशंस इन दैट गैदरिंग वर रियली फेबुलस….लाइक…मेरी चेतना भीतर से नम हो गयी, जड़ों की नमी पत्तों तक आ गयी ऐंड आँखों में ही नहीं सारी देह में नमी छा गयी…यू नो…’

गुगली पर गुगली… प्रवीणजी को लगा, अब तो शॉट खेल ही लिया जाए, ‘तो आपके हिसाब से हिन्दी की कंटेपरेरी राइटिंग में भी आपका चेंग-चुई काम कर रहा है, आप मकान बना रही हैं, लेखक लोग कहानियाँ बना रहे हैं..दोनों चेंग-चुई के हिसाब से…राइट?’

‘ऐंड वाय नाट सर?’ सागरकन्या पर प्रवीणजी की चोट का कोई असर नहीं हुआ, ‘किसी चीज से इंप्रेस या इंफ्लुएंस होने के लिए उसे जानना कोई क्रिटिकली जरूरी थोड़े ही है। क्रिश्चियनटी विदाउट क्राइस्ट…यू नो…’

प्रवीणजी की हालत सेंचुरी बनाने के आदी, लेकिन जीरो पर आउट हो गये बैट्समैन की सी हो गयी। ग्लव्स उतारते, पैवेलियन की ओर वापस जाते बस इतना ही कह पाए, ‘सागरकन्या जी, आभारी हूँ आपका, कि चेंग-चुई की पाजिटिव एनर्जी से भरे इस मकबरे…आई मीन मकान में रहने जा रहा हूँ। सफेद कुर्ता-पाजामा और मोमबत्ती आपकी दुआ से मेरे सामान में है, गुमनाम है कोई की सीडी का जुगाड़ कर लूंगा, बस फिर अपने मकबरे…सॉरी अगेन..मकान… में अपना प्रेत-विचरण देखने का सौभाग्य प्राप्त करूंगा। बहुत शुक्रगुजार हूँ…क्या कमाल किया है इस मकान के डिजाइन में व्याप्त, और बाकी सारी चीजों में व्याप्त होती जा रही चेंग-चुई विद्या ने कि मकबरे में रहने के लिए दफ्न होना जरूरी नहीं रहा, और प्रेत बनने के लिए मरना…’।

‘वाट ए क्यूट एक्सप्रेशन, सर’ सागरकन्या के मुँह से हँसी की खनखनाहट बरसने लगी, ‘एनीवे, आप शिफ्ट तो कीजिए, आई एम एब्साल्यूटली श्योर, कभी छोड़ना नहीं चाहेंगे इस बंगलो को, मन ही नहीं करेगा कभी भी, देख लीजिएगा…यही तो है चेंग-चुई का कमाल…’  एकाएक उसने घड़ी देखी, ‘सॉरी सर, मुझे निकलना होगा, बाय सर, बट यू हैव ए वे विद वर्ड्स, मकबरे में रहने के लिए दफ्न होना जरूरी नहीं, प्रेत बनने के लिए मरना जरूरी नहीं, क्या बात है…’ हँसी फिर से खनखनाई…

खनखनाहट गूंजती रही- यही तो है चेंग-चुई का कमाल…गुमनाम है कोई…यही तो है चेंग-चुई का कमाल…गुमनाम है कोई…यही तो है चेंग चुई का कमाल…

 

 

अटलान्टा की तीर्थयात्रा….

अटलांटा की तीर्थयात्रा

चौबीस नवम्‍बर की सुबह । पिछले पांच दिनों से मौसम अनपेक्षित रूप से चमकीला रहा है । साल के इन दिनों में अटलांटा के लोग ऐसी चमकीली धूप की उम्‍मीद नहीं करते, ये तो रिमझिम के दिन हैं । अमेरिका के उत्‍तरी हिस्‍सों में तो बर्फ पड़नी शुरू भी हो गई-लेकिन यहां इस दक्षिणी राज्‍य जॉर्जिया के महानगर अटलांटा में धूप चमक रही है-पिछले पांच दिनों से । आज चौबीस नवम्‍बर को जैसे प्रकृति ने भूल-सुधार किया-तड़के से ही हलकी-हलकी बूंदें पड़ रही हैं । बीच-बीच में बौछारें भी । जो हो, किंग सेंटर तो जाना ही है ।

कई महीने पहले जब अमेरिकन अकेडमी ऑफ रिलीजन की सालाना बैठक में शामिल होने, पर्चा पढ़ने का निमन्‍त्रण मिला था-तभी से उत्‍सुकता के साथ-साथ मन में तीर्थयात्री की सी श्रद्धा भी व्‍यापती रही है । उत्‍सुकता समानधर्मा अध्‍येताओं के साथ मुलाकातों की और श्रद्धा मार्टिन लूथर किंग (जूनियर) की जन्‍मस्‍थली-कर्मस्‍थली की यात्रा कर पाने के अवसर की । वह अवसर आज सामने है । कबीर की कविताओं का श्रेष्‍ठतम अंग्रेजी अनुवाद करनेवाली, कबीर की समर्पित अध्‍येता लिंडा हैस साथ हैं । हम लोग मार्टिन लूथर किंग सेंटर जा रहे हैं । सेंटर माने उन कई भवनों का संकुल-जिनसे किंग का संबंध था; उनका चर्च, उनका घर, दूसरे चर्च, संग्रहालय । उस इमारत की दीवार पर ही लिखे हैं किंग की प्रसिद्ध ‘आई हैव ए ड्रीम’ स्‍पीच के ये शब्‍द : “मैं सपना देखता हूँ कि एक दिन मेरे चार नन्‍हें-मुन्‍नों की परख उनके रंग के आधार पर नहीं, उनके चरित्र के आधार पर की जाएगी ।” यह विश्‍वविख्‍यात भाषण मार्टिन लूथर किंग ने 28 अगस्‍त, 1963 को वाशिंगटन में ढाई लाख लोगों की सभा में दिया था । संग्रहालय में इस भाषण का टेप चल रहा था-लिंडा को रोमांच हो आया-जो उनकी आंखों के पानी में झलक रहा था-“पता है, पुरुषोत्‍तम ! मैं थी वहां…उन लाखों लोगों में एक-किंग का सपना सुनती हुई, देखती हुई ।”

संग्रहालय के स्‍वागत कक्ष में एक अद्भुत पेंटिंग थी-स्‍वागती की टेबल के ऐन ऊपर । महात्‍मा गांधी और मार्टिन लूथर किंग दोनों एक साथ । पेंटर ने जैसे इतिहास के तथ्‍य की उपेक्षा कर उसके नैतिक सत्‍य को सजीव कर दिया था । क्‍या हुआ जो ये दोनों अहिंसा साधक कभी एक-दूसरे से नहीं मिले-वे थे तो एक ही राह के राही । गांधीजी की ऐसी दूसरी तस्‍वीर मैंने नहीं देखी-इसमें वे किंग की ही तरह अश्‍वेत-नीग्रो (!) दिखते हैं, और कुछ ऐसा है रेखांकन में कि बरबस मेरे मुंह से निकला-“ही लुक्‍स लाइक ऐन एंग्री ब्‍लैक मैन ।” क्रुद्ध अश्‍वेत के रूप में गांधी !

मार्टिन लूथर किंग का जन्‍म 15 जनवरी, 1920 को अटलांटा में हुआ था । सीनियर किंग पादरी थे, और उनके यशस्‍वी पुत्र का पादरी बनना भी तय ही था । उन्‍होंने बाकायदा धर्मशास्‍त्र का अध्‍ययन किया और बोस्‍टन यूनिवर्सिटी से थ्‍योलॉजी के पी.एच-डी. होकर लौटे । 1954 में वे पादरी नियुक्‍त हुए । अगले ही साल, बीसवीं सदी के अमेरिकी इतिहास की वह यादगार घटना घटी । रोज़ा पार्क नामक अश्‍वेत महिला ने रंगभेद के विरूद्ध एक छोटा-सा विद्रोह कर दिया-इस छोटे-से विद्रोह ने अमेरिका के दक्षिणी राज्‍यों में चले आ रहे रंगभेद को अमेरिकी लोकतंत्र पर सबसे बड़े प्रश्‍नवाचक में बदल डाला । रोज़ा पार्क ने सिटी बस में, अश्‍वेतों के लिए आरक्षित पिछले हिस्‍से में बैठने से इनकार कर दिया था-इस इनकार ने नागरिकों के समानाधिकार आन्‍दोलन के बहुत प्रचंड आन्‍दोलन की जरूरत को पुरजोर ढंग से रेखांकित कर दिया ।

उन्‍नीसवीं सदी में, अब्राहम लिंकन ने दासता को एक व्‍यापारिक संस्‍था के रूप में तो समाप्‍त कर दिया था; दासों की खरीद-बिक्री पर तो रोक लगा दी थी; लेकिन नस्‍ल और रंग पर आधारित भेद-भाव और सामाजिक अन्‍याय जारी रहा । अमेरिका के दक्षिणी राज्‍यों में तो इस नस्‍ल भेद की शक्‍ल बहुत ही बदसूरत थी । छिट-पुट विरोध भी होता रहता था- लेकिन रंगभेद को सामाजिक स्‍वीकृति ही नहीं, कानूनी मान्‍यता भी प्राप्‍त थी । बस में, अश्‍वेतों के लिए अलग किए गए पिछले हिस्‍से में जाने से इनकार करके रोज़ा पार्क ने इस स्‍वीकृति और मान्‍यता को चुनौती दे डाली ।

रोज़ा पार्क के इस इनकार से जो आन्‍दोलन उत्‍पन्‍न हुआ, मार्टिन लूथर किंग जल्‍दी ही उसकी अगली कतार में आ गए । नस्‍लभेद विरोधी आन्‍दोलन के ही नहीं, समता और न्‍याय के विश्‍वव्‍यापी आन्‍दोलन के प्रवक्‍ताओं में भी उनकी गिनती पहली पाँत में होने लगी । उनके समर्थकों और विरोधियों को जो बात सबसे अजीब लगी- वह थी अहिंसा पर उनकी अडिग आस्‍था । जॉन एच. फ्रैंकलिन का कहना है, “अहिंसा में किंग का विश्‍वास शायद पहले से ही था, लेकिन 1957 में उनकी भारत यात्रा और जवाहरलाल नेहरू से उनकी मुलाकात ने इस आस्‍था को अडिग निश्‍चय का रूप दे दिया ।”

किंग की मृत्‍यु के लगभग पैंतीस साल बाद, आज यह कहना गलत न होगा कि अहिंसा सचमुच न केवल जनान्‍दोलन के लिए सहायक रणनीति, बल्‍कि वास्‍तविक परिवर्तन की शर्त भी है ।गांधीजी को लगभग शब्‍दश: प्रतिध्‍वनित करते हुए किंग ने अपने अन्‍तिम भाषण में जो सच्‍चाई बयान की, उस पर आज शायद उतनी बहस न हो जितनी कि पैंतीस साल पहले हुई थी । किंग ने कहा, “बरसों से हम मनुष्‍य युद्ध और शान्‍ति की बातें करते आए हैं, लेकिन अब सिर्फ बातों से नहीं चलेगा । अब दुनिया के सामने मसला अहिंसा या हिंसा के बीच चुनाव करने का नहीं, बल्‍कि अहिंसा या सर्वनाश (नॉन वायलेंस ऑर नॉन एग्‍जिस्‍टेंस) के बीच चुनाव करने का है ।” दो टूक शब्‍दों में बयान की गई यह सच्‍चाई केवल किंग सेंटर के कोने-कोने में ही नहीं, दुनिया-भर के कोने-कोने में उकेरी गई, गूंजती हुई प्रतीत होती है- अहिंसा या सर्वनाश !

अहिंसा के रास्‍ते की मुश्‍किलें और मोहभंग किंग के आन्‍दोलन को भी झेलने पड़े । अहिंसा और हृदय-परिवर्तन का रास्‍ता सदा सफलता की ओर नहीं जाता । भारत का विभाजन और उसके साथ हुई हिंसा इसका विकट प्रमाण है । नस्‍लभेद विरोधी आन्‍दोलन की अहिंसात्‍मक रणनीति के सामने भी समस्‍याएं आईं । 1966 में किंग की शिकागो यात्रा बहुत कामयाब नहीं रही- सिविल नाफरमानी की रणनीति बहुत से श्‍वेतों का हृदय परिवर्तन करने की बजाय, उनके हिंसक क्रोध को और भी बढ़ाने लगी । स्‍वयं अश्‍वेतों में अहिंसा को लेकर असन्‍तोष पहले से था, वह भी अभिव्‍यक्‍त होने लगा ।

हिंसा-अहिंसा की समस्‍या अन्‍तत: नैतिकता की समस्‍या है- और इसीलिए इसके सन्‍दर्भ में गम्‍भीर विमर्श और खुला संवाद जरूरी है । व्‍यवस्‍था में अन्‍तर्निहित, अव्‍यक्‍त हिंसा का सामना क्‍या सचमुच हृदय-परिवर्तन पर भरोसा करके किया जा सकता है ? मनुष्‍य के स्‍वभाव की दृष्‍टि से देखें तो क्‍या आक्रामकता भी उसका वैसा ही अंश नहीं, जैसा कि करुणा ? असली समस्‍या क्‍या शक्‍ति की नहीं ? क्‍या हिंसा शक्‍ति की ही एक अभिव्‍यक्‍ति नहीं ? और क्‍या शक्‍ति की साधना मनुष्‍य का स्‍वभाव नहीं ?

यह वाजिब प्रश्‍न है । इसी मूल प्रश्‍न से आरम्‍भ कर नीत्‍शे ने ईसाइयत को ‘सेंटीमेंटल’ कहकर रद्द कर दिया था । सवाल वाजिब है- लेकिन क्‍या नीत्‍शे का और उनसे प्रभावित बहुत से विचारकों का खोजा गया जवाब भी वाजिब है ? आक्रमकता- माना कि मनुष्‍य की प्रकृति का अंग है तो क्‍या उसे मानवीय संस्‍कृति का आधार भी होना चाहिए ? सच पूछें तो सही सवाल यही है । क्‍या हम मनुष्‍य सिर्फ प्रकृति का विकास भर हैं या संस्‍कृति का परिणाम भी ? और परिवर्तन की, या अपनी बात कहने की जो विधि हिंसा के रास्‍ते गुजरती है, क्‍या वह किंग की इस चेतावनी की उपेक्षा कर सकती है : ‘अहिंसा या सर्वनाश !’ परिवर्तन का जो स्‍वप्‍न हिंसा पर ही आधारित हो, वह क्‍या सचमुच दूरगामी परिवर्तन को सम्‍भव कर सकता है ? गांधी और किंग के सामने इस प्रश्‍न का उत्‍तर स्‍पष्‍ट था- सारे खतरों और सारी असफलताओं के बावजूद । उनके स्‍वप्‍न का आधार था- अहिंसा में अडिग विश्‍वास !

हमारा समय स्‍वप्‍नहीनता का समय है- फिर भी लोगों के अपने छोटे-छोटे सपने तो हैं ही । उन सपनों में क्‍या नैतिक है, क्‍या अनैतिक ? हिंसा और अहिंसा अथवा अहिंसा और सर्वनाश के चुनावों में किस चुनाव के साथ जाते हैं हमारे सपने ? यह सवाल हमारे लिए है और हममें से हरेक को इसका जवाब खुद ही तलाशना होगा- खुद ही तराशना होगा । जिन्‍होंने अपने जवाब तलाशे और जिए, उनसे संवाद करके हम सीख सकते हैं, लेकिन जूझना तो खुद ही होगा ।

गांधीजी की तरह किंग भी गहरे धार्मिक व्‍यक्‍ति थे । गांधीजी की तरह वे धर्मविश्‍वास का सिर्फ ‘मुहावरे की तरह उपयोग’ नहीं करते थे, उसे जीते थे । उनके लिए धर्म एक प्रदत्‍त सत्‍य था, लेकिन उस सत्‍य से संवाद करने का तेजस्‍वी ढंग उनके धर्मविश्‍वास को नया अर्थ दे देता है वे बिना कोई घोषणा किए, अन्‍यायपूर्ण व्‍यवस्‍था का समर्थन करती धर्मसत्‍ता से जा टकराते हैं । धर्म द्वारा किए जानेवाले दावों को, आध्‍यात्‍मिक तृप्‍ति के वादों को वे एक नई जमीन पर ले जाते हैं । धर्म अगर सचमुच प्रेम करना सिखाता है, वैर पालना नहीं, तो यह प्रेम केवल अपने या अपने जैसों के प्रति कैसे सीमित हो सकता है ? आत्‍म की कोई भी अभिव्‍यक्‍ति अन्‍य के प्रति वैर या विद्वेश पर कैसे आधारित हो सकती है ?

वहां किंग सेंटर में किंग की शिकागो यात्रा की फ़िल्‍म दिखाई जा रही है । एक श्‍वेत युवती किंग को गाली दे रही है- किंग उसकी ओर बढ़ते हैं- ‘तुम्‍हारे जैसी सुन्‍दरी युवती, तुम्‍हारे जैसी सुसंस्‍कृत युवती ऐसी भद्दी जुबान कैसे बोल सकती है ? तुम बात करो न मुझसे- गाली क्‍यों ? वह युवती जब शरमाती हुई किंग से हाथ मिला रही है । किंग के होंठों पर मुस्‍कान है- और यह फ़िल्‍म देखनेवालों की आंखों में … ।

किंग अन्‍तिम बार 3 अप्रैल, 1968 के दिन टेनेसी में बोले । दूसरे ही दिन उन्‍हें गोली मार दी गई । आत्‍मविश्‍वास और आस्‍था का अद्भुत दस्‍तावेज है किंग का यह अन्‍तिम भाषण-‘आई हैव बीन टू माउंटेन टॉप ।’ पर्वत शिखर से देखा है मैंने- परमात्‍मा ने दिखाया है मुझे- एक दिन हम पहुंचेंगे उस ‘प्रॉमिस्‍ड लैंड’ में जहां लोगों की परख उनके जन्‍म से नहीं, उनके कर्म से होगी- ‘भले ही मैं साथ न होऊं ।’ और दूसरे ही दिन … ।

किंग ने अपनी भारतयात्रा के दौरान कहा था, “दिल्‍ली आया हूँ यात्री की तरह, गुजरात जाऊंगा तीर्थयात्री की तरह ।” यह 1957 की बात है । तब मार्टिन लूथर किंग के लिए गांधी का जन्‍मप्रदेश तीर्थस्‍थल था- आज के गुजरात में हिंसा से पीड़ित लोगों को साबरमती आश्रम तक में शरण नहीं मिल पाती । संग्रहालय के गांधी-कक्ष से गुजरते हुए बार-बार किंग की कही यह बात याद आती रही । लिंडा हैस को याद दिलाया किंग का यह कथन और हम दोनों के ही शब्‍द जैसे कुछ देर के लिए चुक गए ।

संग्रहालय की श्रद्धांजलि पुस्‍तिका में पैट्रिस मैतियर नाम के किसी यात्री की श्रद्धांजलि है- जो हम से बस दो ही दिन पहले बाईस तारीख को वहां आया था । इस श्रद्धांजलि में न केवल इस अश्‍वेत तीर्थयात्री की निजी श्रद्धा है, बल्‍कि किंग के कारण जो फर्क आया, उसका लाजवाब मूल्‍यांकन भी । पैट्रिस ने लिखा है, ‘डॉ किंग, जो कुछ आज हूँ, आप ही के कारण । मेरी सबसे अच्‍छी दोस्‍त श्‍वेत है, और जो हालत आपके समय में थी, वैसे आज होती तो मैं उसे पास भी न फटकने देता । जो कुछ आपने किया, उसके लिए आभार । मुझे खुशी है कि आज मैं अलग-अलग नस्‍लों के लोगों से मिल सकता हॅूं । यह एक नया ही तजुर्बा है सीखने का । बस और क्‍या कहूँ, सिवा इसके कि आपसे प्‍यार है और आपकी बहुत याद आती है ।’

तीर्थ का शाब्‍दिक अर्थ है- जलस्‍थल । जल के साथ पवित्रीकरण का सम्‍बन्‍ध मनुष्‍य की कल्‍पना ने हजारों साल पहले जोड़ा था । सेमेटिक धार्मिक परम्‍परा में तो इस सम्‍बन्‍ध का अपना विशिष्‍ट ऐतिहासिक अर्थ था- जेरुसलम के प्राचीन मन्‍दिर में उपासक पवित्रता प्राप्‍त करते थे बलिपशु के रक्‍त से । जॉन द बैपटिस्‍ट अपने शिष्‍यों को बपतिस्‍मा- पवित्रीकरण- प्रदान करते थे- जल से । यह एक नई धर्मदृष्‍टि का, एक नई पवित्रता का प्रस्‍ताव था । नजारथ के अशान्‍तचित्‍त युवक जीसस को जॉन ने नदी के जल से ही बपतिस्‍मा दिया था । यह बात और है कि बाद में जीसस के चर्च ने ‘पवित्रता’ के लिए न जाने कितने मनुष्‍यों का रक्‍त बहाया ! बहरहाल, तीर्थयात्रा का अर्थ है जल के सम्‍पर्क से पवित्र होना ! रक्‍त की बजाय जल से बपतिस्‍पा लेना ।

डॉ. मार्टिन लूथर किंग जूनियर की तस्‍वीरों, मुद्राओं, भंगिमाओं और शब्‍दों के बीच से गुजरते, ‘आई हैव ए ड्रीम’ स्‍पीच की श्रोता लिंड हैस के पवित्र रोमांच को छूते, पैट्रिस मेतियर के मार्मिक शब्‍दों को पढ़ते, क्रुद्ध अश्‍वेत के रूप में उकेरे गए गांधी को देखते जो पानी अनजाने ही आंखों में भरने लगा था- वह पवित्र के पास होने की कृतज्ञता का जल था । बपतिस्‍मा का जल । तीर्थ का जल ।

 

 

 

 

 

 

 

 

लिखे जा रहे उपन्यास का एक छोटा सा टुकड़ा।

हैरान-परेशान इंसान ने कहा रोबोट से, बहुत हुआ यार, अब मैं तो बिखरना चाहूं, तू मस्त रह, तेरा सब सिस्टम फिट है, चलता रहेगा, रोबोट बोला-प्लीज, प्लीज, मुझे गढ़ने में जरा भी मजा गर आया हो, जरा भी अच्छा कुछ हुआ हो तो वादा करो कि बिखरना इखरना छोड़ जिंदगी जिओगे, रचोगे और भी…

इंसान को लगा, रोबोट की इतनी तो मान लेनी चाहिए, कहा- चल वादा किया…

रोबोट को लगा चाँद धरती पर उतर आया है, कोशिश की इंसानों की तरह उछलने की…

लेकिन शरीर वैसे नियमरहित ढंग से नहीं, सधे-बधे ढंग से ही हिला…जैसे रोबोट के शरीर को हिलना चाहिए…

इसके बाद का हवाल कह नहीं सकता, रोबोट मशीनी तेजी से चलता ओझल हो गया मेरी आँखों से कह नहीं सकता उसकी आँखों के बारे में कि चमक रही थीं, या झर रही थीं…