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पान पत्ते की गोठ

 

‘पाखी’ के फरवरी अंक में प्रकाशित कहानी।

पान-पत्ते की गोठ

पुरुषोत्तम अग्रवाल

 

पलकें बंद हैं, आँखों में आकाश खुला हुआ है… उसका साँवला विस्तार फैलता जा रहा है….दृश्य निरंतर बदल रहा है…जो दीख रहा है,  वह अब तक देखा आकाश ही है, या बंद आँखें अपना आकाश खुद रच रही हैं…

यह जो आवाज गूँज उठी इस आकाश में… अहीर भैरव गाते मधुप मुद्गल, ‘राम, राम, रोम-रोम, मन चित्त राम; राम की दुहाई है…अंतकाल कोई ना सहाई है….’ जब भी सुना है यह भजन, आँखें भर आईं हैं। कैसा तो गाया है मधुप ने…एक एक सुर छू लो,  सुरों में बँधा एक-एक बोल जैसे मन में खुल रहा हो, मेरा अपना स्वर बन कर….आँखें भर ना आएं तो करें क्या; लेकिन, इन सुरों के ऊपर तिरती, ‘अंतकाल कोई न सहाई है’ को पीछे ठेलती यह दूसरी आवाज…? अरे,यह तो अम्माँ की आवाज है, ‘ गोपू रे, तेरे जैसा साधु आया ही क्यों इस कलजुग में रे…’

क्या मैं मर चुका हूँ? अपने आपसे पूछा गोपाल चौरसिया ने।

बेकार की बात….’अतंकाल कोई न सहाई है’ का अहसास  जीवितों को ही होता है, मर चुकों को नहीं। जो मर चुके हैं वे न सवाल पूछते हैं कि मर चुके हैं या नहीं…न मौत के गीत गाते हैं। मृत्यु-विलास तो बस  जीवितों का ही मनो-विनोद है। मृतक अपने आपसे बात नहीं करते, जो जीवित छूट गये हैं, उनसे भले ही कर लेते हों…

कहते हैं, मौत से ठीक पहले के पल में सारी जिन्दगी मन के परदे पर फास्ट मोशन में चलने लगती है… मैं तो यह फास्ट मोशन फिल्म तकरीबन हर रात देखता हूँ, तो क्या मैं हर रात मरता हूँ? कभी-कभी यह फिल्म जागती आँखों भी देखता हूँ…सिर्फ एकांत में ही नहीं, किसी मीटिंग के दौरान, कोई किताब पढ़ते हुए, किसी से बात करते हुए, चलते हुए…तो क्या हर पल मौत से ठीक पहले का ही पल होता है?

वह पल…साइकिल के पैडल तेजी से मारते हुए… यादें अपनी मन-मर्जी से आ-जा रही हैं। बंद आँखों के खुले आकाश में सिलसिलेवार कहानी कहती फिल्म नहीं, प्रयोगवादी, कोलाज की सी फिल्म चल रही है…. पैडलों पर तेजी से चल रहे पाँव केवल साइकिल को आगे नहीं धकेल रहे, उन धोखों, उन उपहासों को पीछे धकेलने की भी कोशिश कर रहे थे, जो बरसों से आत्मा पर गिजगिजे कीड़ों की तरह रेंगते रहे थे….साइकिल तेजी से भागी जा रही थी….फासले पीछे छूट रहे थे, लेकिन  कीड़े थे कि हटने का नाम नहीं लेते थे…कब से चिपके, कितने सारे कीड़े…दिनोंदिन तादाद में बढ़ते कीड़े….छल, इस्तेमाल, विश्वासघात, उपहास के कीड़े…मेरा चेहरा कैसा दिख रहा होगा उस वक्त?  शायद मुर्दे सा, शायद सुलगती चिता सा…

एकाएक वह धक्का….पीछे से आती कार…गिरते-गिरते सुनाई पडीं…हा हा हा की आवाजें…जो अभी भी माँ के डकराने-रोने की आवाज को मुँह चिढ़ाती मेरे कानों में पैठ रही हैं..हा..हा…ही..ही…कैसी रही…अबे निकल…कहीं देख ना ले साला…’ ‘तेरे जैसा साधु रे…’ ‘ अंतकाल कोई न सहाई है…’

‘कहीं देख न ले साला’…हुआ क्या था? कब हुआ था? कुछ ही देर पहले? दिन-दो-दिन पहले? महीनों या बरसों पहले?

 

प्रो. गोपाल चौरसिया कुलपति बन गये थे, अजब -गजब किस्म के कुलपति। वेश-भूषा के प्रति लापरवाही तो चलिए बुद्धिजीवी सुलभ स्टाइल-स्टेटमेंट के खाते में आती थी, लेकिन बाकी हरकतें? किसी भी विभाग में, कभी भी, पहुँच जाना…किसी होस्टल में नाश्ते के वक्त, किसी में लंच के वक्त पहुँच जाना…पहली आदत उन अध्यापकों को परेशान करने लगी थी जो यूनिवर्सिटी को क्लासलेस सोसाइटी बनाने के काम में लगे थे, क्लास में पढ़ाना जिन्हें निहायत उबाऊ और फालतू काम लगता था। दूसरी आदत से वे साँसत में थे जिन पर होस्टलों की जिम्मेवारी थी। शुरु-शुरु में लोगों ने यही समझा कि नया मुल्ला है, ज्यादा प्याज खा रहा है…लेकिन जल्दी ही बात साफ हो गयी कि ईमानदारी से काम करना, चीजों पर निगाह रखना गोपाल चौरसिया का सहज स्वभाव था, नये मुल्ले का प्याज-प्रेम नहीं।

अपने सहज स्वभाव से गोपाल चौरसिया तरह-तरह की ताकतों को असहज किये दे रहे थे। किताबों की खरीद से लेकर इमारतों के निर्माण तक में हुए घपलों की जाँच शुरु हो गयी थी। कोचिंग सेंटरों में पढ़ाने वालों से चौरसिया ने जबाव-तलब कर लिया था। कोढ़ में खाज यह कि नितांत अकेला इंसान था यह, अपने अकेलेपन में पूरी तरह मगन । उस तक कोई समझदारी की बात पहुँचाने का कोई रास्ता कहीं से भी खुलता दिखता ही नहीं था। ना किसी से मिलना ना जुलना, बस दफ्तर, लाइब्रेरी, लैबोरेट्री; और शाम के समय साइकिल-सवारी…वीसी साहब को पता ही नहीं लगता था कि उनकी साइकिल कितने लोगों को ट्रक की तरह कुचलती चली जा रही थी। सामान्य छात्र-जन गोपाल चौरसिया से जितने प्रसन्न, भाँति-भाँति के नेतागण उतने ही दुखी। अध्यापक हो या छात्र, गोपाल चौरसिया किसी से जरूरी काम से ज्यादा का वास्ता नहीं रखते थे। उनसे भी नहीं जो चौरसिया की जाति के ‘पिछड़ेपन’ के  कारण उन्हें ‘अपना आदमी’ मानते थे। उन्हें भी समझते देर नहीं लगी थी, अपनी जाति का भले ही हो, वीसी अपने किसी काम का तो नहीं है।

ताकतवर लोगों के बीच जाति-धर्म निरपेक्ष आम राय बनने लगी थी कि इस वीसी को सबक सिखाना  विश्वविद्यालय के सुचारू संचालन के लिए परमावश्यक है।

सबक सिखाया जाए तो कैसे? जिस आदमी की जीवन-पुस्तिका में किसी पन्ने पर चील-बिलौंटा ना बना हो, किसी पन्ने को छुपा कर रखने की जिसे जरूरत ना पड़ी हो, उसे सबक सिखाएं तो कैसे? जो आदमी कपड़े-लत्तों के मामले में जितना लापरवाह दिखता हो, काम-काज और नियम-कायदे के मामले में उतना ही चाक-चौबंद हो, उसे फँसाएं तो कैसे फँसाएं, कहाँ फँसाएं?

एक तरीका हो सकता था…सूझ प्रो. गोपीनाथ की थी। अपनी मेधा के लिए विख्यात सिंह साहब ने एक रसरंजन-गोष्ठी में गोपीनाथजी का आकलन यों किया था- ‘प्रोफेसर गोपीनाथ बुद्धि-विकास के अवसरों की कमी या सत्संग के अभाव  के कारण बन गये मूर्ख नहीं,  जेनेटिकली डिफाइंड मूर्ख हैं,  गोपीनाथजी की जीवन-संगिनी सरस्वती, श्वसुर ब्रह्मा, गुरु बृहस्पति और सखा वेदव्यास होते तब भी वे मूर्ख ही रहते…’ छात्रों और प्रोफेसरों के बीच, इस आकलन पर आम सहमति बनते देर नहीं लगी थी।

गोपीनाथजी का सुझाव वीसी साहब की साइकिल से जुड़ा था। साइकिलिंग गोपाल चौरसिया का पसंदीदा व्यायाम था। शाम को ही नहीं कई बार रात के समय भी साइकिल पर तेजी से पैडल मारते, कैंपस के चक्कर लगाते वाइस-चांसलर साहब कई लोगों के लिए कौतूहल और प्रेरणा के विषय थे, कई लोगों के लिए जायके के। कुछ लोगों को उनकी इस आदत पर सैद्धांतिक एतराज भी था।  देर शाम, या शुरु होती रात लड़के-लड़कियों के ऐसे मधुर क्षणों की वेला होती थी, जिन क्षणों के बिना यूनिवर्सिटी में आना ना आना बराबर ही कहा जा सकता था। अब बताइये, आपने प्रेमिका का हाथ थामा ही, कमर-बहियाँ डाली ही कि सामने से साइकिल-सवार वीसी साहब प्रकट….कोई बात हुई भला। कार में आएं-जाएं, खुद मस्त रहें, हमें मस्त रहने दें…ये तो साइकिल पर खलीफा हारूँ अल रशीद बने अपने बगदाद के चक्कर काट रहे हैं। यह नैतिक दारोगागीरी नहीं तो और क्या है? नौजवानों की प्राइवेसी का हनन नहीं तो और क्या है? वह भी, इस क्रांतिकारी कैंपस में, जहाँ छात्र-संघ के चुनाव मेस के खाने की गुणवत्ता के सवाल पर नहीं, मार्क्स बनाम गाँधी बनाम आंबेडकर की बहसों  पर जीते और हारे जाते थे…

वीसी साहब की बेवक्ती साइकिलिंग को छात्रों के बीच मुद्दा बनाया जा सकता है, गोपीनाथजी की इस सूझ का सैद्धांतिक प्रतिपादन किया प्रोफेसर पांडे ने, ‘एभरीबडी हैज ए राइट टू प्राइभेसी जी…हाउ कैन ए भीसी…मने…मतलब…’ पांडेजी की अंग्रेजी आगे चल नहीं पा रही थी, सो मिसिरजी ने कुमुक पहुँचाई, ‘ ट्रैम्पल अपॉन डेमोक्रेटिक राइट्स ऑफ यंग जेनरेशन…’

‘वही..वही…’ पांडे जी सप्तम स्वर में चहक उठे, ‘वही तो मैं कह रहा हूँ डॉक सा’ब….युवा पीढ़ी के लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन भला कैसे सहन किया जा सकता है….’

‘मजाक के लिए ठीक है, पांडेजी…’ सिंह साहब गोपीनाथ के बारे में अपना आकलन मन ही मन दोहराते हुए, धीर-गंभीर स्वर में मुखरित हुए, ‘सीरियसली इशू बनाने के चक्कर में मत पड़ जाइएगा….चौरसिया और हीरो बन जाएगा….वह साइकिल पर ही तो घूमता है, किसी लड़के-लड़की को खामखाह टोका है उसने कभी?’

पांडेजी कुनमुनाए जरूर लेकिन कहते क्या? सिंह साहब की बात में दम था। अपनी साइकिल-सैर से लड़के-लड़कियों को होने वाली असुविधा गोपाल चौरसिया समझते थे, जल्दी ही उन्होंने जता भी दिया था कि किसी की निजी जिंदगी में ताक-झाँक करने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं। छात्रों को भी अपने अजब-गजब वीसी के अच्छे कामों की रोशनी में उनकी अजब-गजब हरकतों पर गुस्से की बजाय प्यार आने लगा था। गोपाल चौरसिया छात्रों के बीच वीसी के बजाय  सीवीसी के नाम से लोकप्रिय होने लगे।

सीवीसी याने साइकिल वाला वीसी….

लेकिन पांडेजी, मिसिरजी, गोपीनाथजी जैसी आत्माएँ वीसी के पहले लगने वाले ‘सी’ अक्षर का विस्तार साइकिल शब्द में नहीं, एक ठेठ देशज शब्द में करती थीं…वही शब्द जिसे गोपाल चौरसिया पर स्थायी रूप से चिपका दिया गया था। अपनी छात्रावस्था में वे चूतिया चौरसिया थे, और यहाँ चूतिया वाइस-चासंलर…सीवीसी….

साइकिल वाले वाइस-चांसलर साहब कभी-कभी आधी रात को भी साइकिल लेकर निकल पड़ते थे। देर तक कैंपस में चक्कर लगाते रहते थे। इस वक्त देखने वालों को उनका पैडल मारने का अंदाज अजीब  लगता था। पैडल पर दीवानावर तेजी से चलते पाँव, बदन में अजब सी अकड़ाहट, कंधों के झुकाव में सख्ती, आँखें सड़क से कहीं आगे, दूर निहारती हुईं, चेहरे पर बेबस गुस्सा….आम तौर से बहुत भद्र, बल्कि बेचारे से दीखने वाले गोपाल चौरसिया आधी रात को साइकिल चलाते समय अपने अतीत के न जाने किन प्रेतों से लड़ते थे कि खुद प्रेत जैसे दीखने लगते थे।

‘जरूर कोई प्रेम-प्रसंग है…’ सिंह साहब का अनुमान था, लेकिन इतने चुप्पे आदमी के प्रेम-प्रसंग की खबर निकालें तो कैसे? कहाँ से? कहीं कोई निशान रहा भी हो तो उसे पाना आसान नहीं, और स्वयं चौरसिया को कुरेदना असंभव। सिंह साहब ने बस एक बार संकेत किया था, ‘कोई बता रहा था, डॉक सा’ब कि कल रात आप काफी टेंस थे, साइकिलिंग करते हुए…’

गोपाल चौरसिया की जबावी निगाहें सिंह साहब को भीतर तक चीर गयी थीं। वे आँखें बलि के लिए सजाए जा रहे पशु की थीं, या अपनी पराजय का बोझ ढोते योद्धा की? वे निगाहें तिरस्कृत प्रेमी की थीं, या छले गये मित्र की? उन आँखों के पीछे खुद से हारा हुआ आदमी था, या हर हार को जीत में बदलने पर आमादा इंसान?

बोले कुछ नहीं थे गोपाल चौरसिया…बस हल्की सी मुस्कान, खुद का मजाक बनाता लहजा, ‘ सूरत ही ऐसी दी है भगवान ने…क्या करूँ…’

उस दिन पहली बार सिंह साहब को सीवीसी-चूतिया वाइस-चांसलर- के प्रति करुणा हुई थी…कितना अकेला है यह इंसान…ना कोई भाई-बहन, ना यार-दोस्त…जोरू ना जाता….कोई मधुर प्रसंग जीवन में रहा भी हो…तो अब क्या जासूसी करना उसकी…

यह बात किसी को नहीं बताई, सिंह साहब ने। उनके मन में चौरसिया के प्रति उपहास की जो  विशाल इमारत थी, उसमें कहीं एक छोटा सा कमरा हमदर्दी का बनने लगा था, जिसके बारे में मिसिर, पांडे और गोपीनाथ को बताने का कोई मतलब ही नहीं था।

पांडेजी को सीवीसी के औचक निरीक्षणों से कोई परेशानी नहीं थी। वे तो कहते थे कि सीवीसी चूतिया वाइस-चांसलर से सेंट्रल विजिलेंस कमीशनर ही बन जाएँ तो भी हमारा क्या उखाड़ लेंगे? बात सही थी क्योंकि पांडेजी क्लासलेस सोसाइटी बनाने के लिए नहीं, क्लास को ध्रुपद की तरह खींच देने के लिए विख्यात थे। पांडेजी की कठिनाई यह थी कि वीसी साहब का विषय तो विज्ञान था, लेकिन हिन्दी, अंग्रेजी साहित्य में रुचि रखते थे, सो कभी औपचारिक ढंग से, कभी योंही अनौपचारिक तरीके से छात्रों से बात करने लगते थे। आदत से मजबूर थे, सो शुरु भले ही हिन्दी में हों, बीच में अंग्रेजी में प्रविष्ट जरूर हो जाते थे। पांडेजी का अधिकांश मौलिक लेखन अंग्रेजी में पढ़ी किताबों के ही बूते जिन्दा था, वीसी के साथ दो-चार बार बतिया चुके बटुकों के मन में पांडेजी की तेजस्वी मौलिकता के प्रति अश्रद्धा का उदय होने लगा था।

इस अश्रद्धा के हमलों का मुकाबिला पांडेजी निन्दा की गोलाबारी से कर रहे थे…‘ अंग्रेजी में गोलेबाजी करते रहते हैं …कुछ समझ आता है तुम लोगों को? खाली अंग्रेजी का गोला फेंकने से होता है कुछ?’

कहते कहते पांडेजी ने अंग्रेजी गोले का मुँहतोड़ जबाव देता गोला पार्श्व भाग से दाग ही दिया था। काफी देर से हठयोग सा साध रहे थे, लेकिन उत्साह और हास की अभिव्यक्ति में देह-बल लगा, उसका कुछ प्रभाव अधोप्रदेश तक भी जा पहुँचा और गोला दग गया। कमरा पांडे-गंध से सुवासित और पांडे-ध्वनि से गुंजरित हो उठा। बटुकगण आह्लादित हो उठे; अंग्रेजी के साम्राज्यवाद के विरुद्ध ऐसी वीर-रसपूर्ण और सुवासित ध्वनियाँ इतिहास में कम ही अवसरों पर सुनी गयीं हैं, और फिर यह ध्वनि तो उन आचार्य की देह का प्रसाद थी, जो पिछले अनेक दशकों से अंग्रेजी लेखों और पुस्तकों के अनुवाद को अपना मौलिक योगदान बता कर,  शब्द और कर्म दोनों के जगत को सुवासित किये हुए थे।

पांडेजी ने सिंह साहब, गोपीनाथजी, सुकुलजी आदि समानधर्माओं के बीच ही नहीं, एकाध और जगह भी अपना मूल विषाद प्रकट कर ही दिया  –‘अब लीजिए, ये साले बनिये बक्काल, तेली तंबोली भी भीसी बनेंगे, यह तो टू मच हो गया है जी…’

पांडेजी के विषाद में सारे भद्रपुरुषों के विषाद का योग था। यह विषाद-योग ही वह दार्शनिक आधार था, जिस पर सारे मतभेदों के बावजूद पांडेजी, सुकुलजी, गोपीनाथजी ही नहीं, धीर-गंभीर सिंह साहब भी साथ खड़े थे। इस दार्शनिक आधार को प्रचंड अभिव्यक्ति पांडेजी के गगनभेदी चिंचियाते स्वर में ही मिलती थी—‘चौरसिया…बताइए भला, चौरसिया…तंबोली-तेली; बनिए-बक्काल…सामाजिक न्याय वगैरह ठीक है, हम भी समर्थक ही हैं, मने सोशल जस्टिसवा के… लेकिन भीसी….यह तो सचमुच टू मच है, डॉक सा’ब….’

बात सही थी, फिर भी, विषाद-योग की गुह्यता के उल्लंघन पर सिंह साहब को गुस्सा आया था… ‘यह गोपीनाथ तो अपनी मूर्खता का खोम्चा सजाए घूमता ही रहता है, लेकिन पांडेजी को क्या हो रहा है… गोपीनाथ पर विद्वानों के सत्संग का असर भले ही न पड़ा हो, लेकिन उसके कुसंग में पांडेजी जरूर अपनी जन्मजात चतुराई खोते जा रहे हैं…किसी भी जगह चिंचियाने लगते हैं। बनिये-बक्ककालों, तेली-तंबोलियों को ठिकाने लगाने के लिए धीरज और गंभीरता चाहिए…मुँह से या न जाने कहाँ कहाँ से गोला फेंक देने  से काम नहीं चलता…’

सिंह साहब ने पांडेजी को कई बार समझाया— दिखने में ही भोंदू है, वाइस-चांसलर; पक्का घुन्ना है, सारी खबर रखता है, जानता है, आप लोग क्या क्या कहते हैं, उसके बारे में, यह भी जानता है कि बात-बेबात खड़े होने वाले झंझटों का स्रोत आप ही लोग हैं…सँभल कर रहिए…

 

इस समय आईसीयू के बाहर खड़े पांडेजी का चेहरा पीला है, और सिंह साहब का लाल। मिसिरजी और गोपीनाथजी तो आए ही नहीं कि हस्पताल में जमा बौखलाए लड़के-लड़कियों का झुंड कहीं कुछ कर न बैठे। पांडेजी सिंह साहब के साथ आए थे, वीसी साहब पर हुए कायराना हमले की निंदा की, उनके प्रति मतभेदों के बावजूद अपना प्रेम रेखांकित किया, और किसी के कुछ पूछने या कहने के पहले ही अंदर लपक लिये। सिंह साहब सब-कुछ के बावजूद सम्मान सबका पाते थे, उन्होंने भी दो शब्द कहे, अपराधियों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही की माँग की, गोपाल चौरसिया के प्रति अपने ही नहीं, पांडेजी के भी आदर को रेखांकित किया…और अंदर पहुँचे…

पांडेजी का चेहरा पीलिया के मरीज का सा हो रहा था, चिंघाड़ती आवाज चूं-चूं में बदल रही थी, ‘मने डॉक सा’ब…अब…अब क्या होगा….’

‘घंटा होगा…’ सिंह साहब अपना प्रसिद्ध धीर-गंभीर भाव बनाए नहीं रख पा रहे थे, ‘ लौंडो को लगाते वक्त  पूछा था आपने? क्या होगा…?’

‘अब…डॉक सा’ब…किसी को क्या पता था कि टक्कर इतनी जोर की लग जाएगी, मैंने तो कहा था कि बस जरा सी गाड़ी छुआ देना….पवनकुमार को खासकर समझाया था।’

सिंह साहब आईसीयू की सफेद टाइल जड़ी दीवार निहार रहे थे। एकाएक उनके मन में वीभत्स  विचार आया–इस बेवकूफ पांडे की खोपड़ी दीवार पर दे मारी जाए…तो टाइल का रंग लाल होगा या इसके चेहरे की तरह पीला—बोले सिर्फ इतना, ‘आप धन्य हैं महाराज….भेजा भी तो पवनकुमार को, चौरसिया अच्छी तरह जानता है आपके पवन-प्रेम को…कुछ अंदाजा है, होश में आने पर उसे बस पवन का नाम लेना है, बाकी काम पुलिस ही पवन-वेग से कर लेगी …

 

 

पांडेजी की वामपंथी नास्तिकता पवनगामी हो चली थी, संस्कार-गत स्मृति मन ही मन धारा-प्रवाह बह निकली थी, होंठों की हलचल से सिंह साहब समझ गये, हनुमान-चालीसा का पाठ चल रहा है, ‘रामदूत अतुलित बल-धामा; अंजनि-पुत्र पवन-सुत नामा…’ इस हाल में भी सिंह साहब को हँसी आ गयी, ‘ वाह, क्या बात है पांडेजी, करतूत करवाई भी तो पवनकुमार से, गुहार भी लगा रहे हैं तो पवन-सुत से…’

‘डॉक सा’ब…पलीज…अभी नहीं…’ अब जाहिर हो ही गया था तो पांडेजी थोड़े खुले स्वर में जारी हो गये … ‘महावीर विक्रम बजरंगी; कुमति निवार सुमति के संगी…’

सिंह साहब चुटकी लेने की आदत से मजबूर थे, ‘महाराज, पवनकुमार को अपना बजरंग बनाए घूमते थे, अब बजरंग बली से कुमति-निवारण की अपील कर रहे हैं…’

‘पलीज, डॉक सा’ब’…पांडेजी लगभग रो दिये, ‘दिस ईज़ भेरी बेड…इस मुसीबत…’

सिंह साहब को रहम आ गया, ‘ अब जो हुआ सो हुआ, पांडेजी… पवनकुमार और दूसरे गणों की एलीबाई तैयार करवाइये, गाड़ी इधर-उधर करवाइए… वैसे भगवान की माया कौन जाने…शायद चौरसिया ही बात आगे ना बढ़ाए…आखिरकार भला आदमी है बेचारा…हिम्मत रखिए…और हाँ, रुक क्यों गये…पाठ जारी रखिए, ‘दुर्गम काज जगत के जेते; सुगम अनुग्रह तुमरे तेते’… जारी रखिए…’

 

… इस पल जो याद आया चला जा रहा है, वह मेरा अतीत है, या किसी और का, फिल्म जो चल रही है, वह मेरे जीवन की है या किसी और के जीवन की…या अनेक किन्हीं औरों की…..

माँ की सूरत ऐसे दिखे, डकराहट ऐसे सुनाई पड़े तो समझो अंत…माँ खुद चली जाती है, संतान आए, कभी नहीं चाहती…हालाँकि जानती है कि आना तो हरेक को है…लेकिन फिर भी। अब यहीं देखो कैसे बिगूचन में है, अम्माँ, देख रही है मेरी हालत, लाड़ से गोद में ले लेना चाहती है मुझे…मैं स्वयं भी तो फिर से वही छोटा सा छौना हो गया हूँ, उसका ‘लल्ला’  जिसे अम्माँ हँस कर गोद में ले लेती है…‘आजा बेटा, बहुत दर्द है ना, आ जा मेरी गोद में…ओले मेला छौना…ताता हो गयी….आजा अभी ठीक कर देगी अम्माँ…’ और अगले ही पल रो रही है। जहाँ वह है वहाँ मुझे गोद में लेने की बात भी मन में ला सकी, यह सोचते ही खुद को कोस रही  है…’ना, ना रे…जबान जले मेरी… गोपू तू क्यों यहाँ आए… तू वहीं रह बेटा अभी देखा ही क्या है तूने?’

बहुत देख लिया अम्माँ, बहुत देख लिया…विद्वानों की विद्वता देख ली, क्रांतिकारियों की हकीकत देख ली, सुबह शाम मनुवाद को कोसने वाले पांडों, मिसिरों, गोपीनाथों का सच देख लिया…देख ना तेरा बेटा…यहाँ पट्टियों में लिपटा पड़ा है… बाहर अभिनेता जमा हैं, तेरे दिलीपकुमार, देवानंद और रहमान पानी भरें, इनके आगे…ये सब देख क्या बढ़िया सीनरी रच रहे हैं, दुखी होने की…

… अभी चमकीली आतिशबाजी थी, तेज चलती साइकिल की सनसनाहट थी, सड़क पर धप से गिरने की आवाज थी…सफलता के मद में डूबे शिकारियों के ठहाके थे…और. अभी-अभी अम्माँ की यह डकराहट…अम्माँ तो कब की चल बसी…हाँ, तो याद ही आ रही है ना…

नही…अम्माँ मेरी यादों में नहीं बोल रही, अम्माँ इस आकाश में, पल-पल रंग बदलती यादों की, चोटों की, दर्दों की इस चमकीली आतिशबाजी के बीच बोल रही है, मुझे गोद में बुला रही है…

अम्माँ किताबें ठीक कर रही है, बाबूजी से झगड़ रही है कि दुकान जाएगा, तो गोपू पढ़ेगा कब…‘अरे, तो पढ़ के कौन सी स्वर्ग में सीढ़ी लगानी है तेरे बेटे को री…चल खैर तेरी मर्जी…जब तक देह चल रही है तब तक तो चल ही रही है…’ दुकान भेजने का आग्रह करके बाबूजी परंपरा निभाते थे, और अम्माँ के जरा से प्रतिवाद के सामने समर्पण करके बेटे की संभावनाओं में झाँकते भविष्य की ताईद करते थे…गोपाल को संकोच होता था, दुकान पर इतना काम…बाबूजी अकेले…

दुकान सूरजनारायण के मंदिर के सामने हुजरात रोड के कोने पर थी । छोटी सी, लेकिन बेहतरीन पान-पत्ते बाजिव दाम पर बेचने के लिए मशहूर। ग्राहकों में पनवाड़ियों से ज्यादा थे पान के शौकीन आम गृहस्थ। देसी बिलौआ, कलकतिया, बनारसी, मगही सभी तरह के पत्तों की दर्जनों गड्डियाँ रोजाना इस दुकान से निजी पानदानों तक का सफर करतीं थीं। पनवाड़ी ग्राहक  ‘दाम कम पत्ते ज्यादा’ की चाल पर चलना चाहते थे; स्वाद का क्या है, वह तो बीड़ा बनाने के पहले मसालेबाजी करके सँभाल ही लिया जाएगा….बाबूजी को यह बात सुहाती नहीं थी। चीज़ बढ़िया बेचनी है, दाम ज्यादा होने के कारण कम बिक्री की परवाह वे करते नहीं थे। नतीजा—प्रतिष्ठा देवी की कृपा बनी हुई थी, लेकिन श्रीलक्ष्मीजी सदासहाय का भंडार सदा भरा रहने की बस कामचलाऊ  रहता था।

उसी कामचलाऊ भंडार में कतर-ब्योंत करके बाबूजी ने अम्माँ के लाड़ले, साधु-स्वभाव बेटे को ऊंची पढ़ाई के लिए घर से दूर, शहर से दूर भेजा था। अम्माँ बड़ी शान से कहती थी, पड़ोसिनों, सहेलियों से—‘मेरा गोपू दसवीं-बारहवीं पास करके दुकान पे नहीं बैठने वाला, वो तो सोलह जमात पढ़ेगा….उसके बाद विलायत भी जाएगा…’

पढ़ने के लिए तो गोपाल चौरसिया विलायत नही जा सके, हाँ, पढ़ाने के लिए कई बार गये। खुद की पढ़ाई के लिए यही क्या कम था कि पान-पत्ते की गोठ से निकल कर देश की राजधानी के जाने-माने शिक्षा-संस्थान तक पहुँच पाए…

उस शिक्षा-संस्थान में पहला दिन…पान-पत्ते की गोठ के रहवासी का ताकत-कुर्सी, चमक-दमक की गोठ के निवासियों से पहला वास्ता…

‘नाम?’

‘जी, गोपाल चौरसिया…’

पीछे से सर पर धप्पा… ‘जी-वी नहीं, बेटा, सर…सर बोलते हैं, सीनियर्स को…’

एक और धप्पा… ‘ और सीनियर की जगह सामने सीनियरनी हो तो सर नहीं, मै’म…समझे कुछ सर गोपाल चौरसिया?’

सामने से अगला सवाल, ‘एड्रेस  क्या है सर गोपाल चौरसिया का?’

‘ जी…मतलब…सर…पान-पत्ते की गोठ…’

वाक्य पूरा होने के पहले ही आश्चर्य भरा ‘ऐं?’

‘अबे चूतिया….’ ऐं का समाधान करती एक आवाज बगल से, किसकी, नहीं पता क्योंकि जिस फ्रेशर की धुलाई की जा रही हो, उसका आँख उठाकर इधर-उधर देखना वर्जित था, केवल आवाज सुनी जा सकती थी, जो सामने वाले प्रश्नकर्ता के लाभार्थ अवतरित हुई थी, ‘…इंजीनियर कहीं के, कुछ लिट-फिट पढ़ा कर; खासकर राष्ट्रभाषा का; तो समझ पाएगा कि हिज हाइनेस तंबोली खानदान से ताल्लुक रखते हैं, और पान पत्ते की गोठ आपकी खानदानी रियासत का नाम है, गोठ माने गली दैट इज़ एली फॉर कल्चरल इललिटरेट्स लाइक यू…हिज हाइनेस सर गोपाल चौरसिया माँ-बाबूजी ऑर मे बी, अम्माँ-दादा के महान  सपनों को पूरा करने के इरादे से इस तुच्छ संस्थान को धन्य करने पधारे हैं…’

‘ सर गोपाल चौरसिया बहुत लंबा है यार, हिज हाइनेस के लिए छंगा सर विल बी मच मोर एप्रोप्रिएट…देख क्या सैंपल है पान-पत्ते की गोठ का…मेरे हाथों में छह छह उंगलियाँ हैं, समझो बलम मजबूरियाँ हैं….’

रोक नहीं पाया था, अपनी तड़प को गोपाल, लेकिन क्या तड़प…बस आँख ही तो उठी थी कि तीन-चार थप्पड़….’ आँख नीचे, आँख नीचे…आँख लाल नहीं करने का, वरना साले रात को होस्टल में पूरे का पूरा लाल हो जाएगा, छंगे से छक्का बन जाएगा, एक ही रात में…पूरी टीम बैटिंग करेगी….जिंदगी भर टाँगें चौड़ी की चौड़ी रहेंगी…’

यह विज्ञान की उच्च शिक्षा के लिए बना इलीट संस्थान था, जल्द से जल्द अमेरिका प्रस्थान कर जाने की राह देख रहे भारत-भविष्यों के लिए बनाई गयी सराय थी। भारतीय दरिद्रनारायण के मत्थे कम खर्च में बेहद महंगी शिक्षा हासिल कर रंग-बिरंगे भारत-भविष्य यहाँ से पश्चिमोन्मुखी हो जाते थे, वहाँ पहुँच कर भरे गले से घोषणाएँ करते थे—आई लव माय इंडिया…। ठीक ही है, प्रेम विरह में  पनपता है, तो क्यों न खुद ही विरह-दशा की रचना करके विरह-गीत गाया जाए—आई लव माय इंडिया…

संस्थान से निकलने के बाद भी, यहाँ उन्हें दे दी गयी पहचान ने गोपाल चौरसिया का पीछा कभी नहीं छोड़ा….पीठ पीछे तो अनिवार्य रूप से, कभी-कभी मुँह पर भी, तिर्यक भाव से उन्हें याद दिलाया जाता रहा था कि वे सबसे पहले और सबसे बाद हैं –छंगा तंबोली, चूतिया चौरसिया— ही…

उपकुलपति प्रो. गोपाल चौरसिया…अस्पताल के बिस्तर पर इस पल…कोई ना कोई आवाज आती है… कह जाती है—छंगा तंबोली..छंगा तंबोली…चूतिया चौरसिया…चूतिया चौरसिया…

इन्हीं आवाजों के बीच गूँज रही हैं, पान पत्ते की गोठ की आवाजें। महानगर में रहते रहते खुद गोपाल चौरसिया को पान-पत्ते की गोठ अजनबी लगने लगी थी….पान पत्ते की गोठ…क्या बेतुका नाम है…क्यों नहीं मेरी गली का नाम महारानी लक्ष्मीबाई वीथिका हो सकता था, या कम  से कम पटेलनगर या नेहरूनगर जैसा कुछ…पान पत्ते की गोठ…किसी को बताते ही अटपटी हँसी झेलने को तैयार रहो….

लेकिन इस पल वे छिप जाना चाहते थे उसी पान पत्ते की गोठ की गोद में। अम्माँ तो रही नहीं, लेकिन गोठ सारे बदलावों के बावजूद है वहीं की वहीं…कुछ लोग जरूर चाहते थे कि उसे कोई  सुसंस्कृत नाम दे दिया जाए। एक प्रस्ताव तो यह भी था कि गोठ को यहीं के सपूत, विश्व-विख्यात वैज्ञानिक गोपाल चौरसिया का ही नाम दे दिया जाए, गोपाल चौरसिया ने सख्ती से मना कर दिया था। बीच-बीच में पान-पत्ते की गोठ से ही नहीं, अपने शहर भर से गोपाल चौरसिया को  चिढ़ होने लगती थी, अजीब था इस शहर का मिजाज, अपने रूखड़ेपन पर गर्व करता, अपने हैंकड़पन पर इतराता…

इस पल, चिढ़ नहीं, केवल दर्द है…अपनी देह का ही दर्द नहीं, अपने रूखड़े, हैंकड़ शहर का भी दर्द…उस शहर के लिए तड़प रहे हैं, गोपाल चौरसिया… अपनी खुद की पान पत्ते की गोठ रच रहे हैं गोपाल चौरसिया…उसी में विचर रहे हैं गोपाल चौरसिया….

‘चौरसिया’— इस शब्द पर ही तो अपनी विद्वता और विट के लिए देश-देशांतर में मशहूर सिंह साहब ने जुमला जड़ा था, ‘भई इस चौरसिया में चार ही रस हैं ना, गायब कौन से कौन पाँच हैं….मौजूद कौन से चार हैं…किन चार रसों से बने हैं चौरसियाजी…रसराज श्रृंगार का तो अता-पता नहीं, हास्य के आलंबन हैं…उत्साह से भरपूर हैं, यह हुआ वीर-रस, और पांडेजी, बुरा मत मानिएगा, आप सज्जनों के मन में भय का संचार तो किया ही है चौरसिया ने, सो तीसरा हुआ भयानक…अब चौथा…’

‘ हें हें…डॉक साब’, भयभीत होने की सचाई पर खिसियाई हँसी का आवरण डालते हुए पांडेजी ने ही चौथा रस बताया था…’अद्भुत…बल्कि वही मुख्य रस  है….कैसे कैसे अद्भुत नमूने हैं मेरे भंडार में, यही प्रमाणित करने को उतारा है धरती पर परमेश्वर ने अपने भीसी साहब को…सो, चौरसिया के चार रस हुए…, हास्य, वीर,  भयानक और अद्भुत…’

‘ बाकी पाँच भी धीरे धीरे खुलेंगे…चौरसिया तो वीसी बनने के पहले थे ना, कुछ ही दिनों में नौरसिया हो ही जाएंगे….वीभत्स और करुण समेत…’

सिंह साहब की बात आज सच ही लग रही है। सिंहों, पांडों, मिसिरों, गोपीनाथों की वीभत्सता ने चौरसिया को करुण दशा में पहुँचा दिया है….चौरसिया से नौरसिया….

अपनी नियति पर मुस्कराहट रोकते नहीं बनी गोपाल से…पिटा हुआ इंसान इतना तो कर ही सकता है…चार रस वाला चौरसिया मुस्करा रहा है, ‘सिंह साहब, रसराज भी था मेरे जीवन में, सो पँचरसिया कहिए मुझे, कोरा चौरसिया नहीं…’

 

…उसकी हथेलियाँ मगही सी थीं, नन्हीं-नन्हीं चिकनी और कोमल…और मेरे हाथ बिलौआ से, बड़े-बड़े, जरा कड़क से। बिलौआ गाँव के पान-पत्ते की विशेषता ही यह कि कत्था-चूना लगा  कर जब बीड़ा बनाया जाए तो मुड़ने के कारण कड़क पत्ते की देह दरकने लगे…. और मगही ऐसा कि बीड़ा बनाने वाले को भी लगे कि कितनी कोमल देह उसकी अंगुलियों का स्पर्श पा रही है….

उसके हाथ मगही से, मेरे बिलौआ से…यह बात बस पल भर को,  मन के आकाश में  कौंध कर ही वहीं लुप्त हो गयी थी। कह तो खुद से ही नहीं पाया गोपाल…उससे क्या कहता…मन का सेंसर धमकाने लगा था, ‘साले,  इस पल भी तंबोलीपन से बाज नहीं आ पा रहे हो…’ खुद पर झेंप होने लगी थी। पान पत्ते की कौंध दबा कर कवि की उधार पंक्ति से काम चलाया था, ‘उसका हाथ हाथ में लेते हुए मैंने सोचा, दुनिया को हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए…’

दुनिया को मगही पत्ते की तरह नर्म, सुंदर और सुडौल क्यों नहीं होना चाहिए?

दुनिया की कड़क-दरक को बिलौआ की तरह क्यों नहीं कहा जाना चाहिए?

उसके हाथ को मगही और अपने हाथ को बिलौआ की तरह क्यों नहीं देख पाया मैं?

इस वक्त गोपाल चौरसिया के मन में दर्द इस बात का कि सारिका के मन के कत्थे में बुरादे की मिलावट क्यों नहीं देख पाया मैं…

मेरे अस्तित्व के तने पर कठफोड़वा की तरह अपने कटाक्षों  से, तानों से जो खोखल उसने रचे, उन्हें वक्त रहते क्यों नहीं देख पाया मैं? जिससे भरोसा पाने का भरोसा था, उसके, सारिका के ताबड़तोड़ लांछनों का जबाव देते क्यों नहीं बना मुझसे… मन में कौंधा जरूर, लेकिन मुँह से  क्यों नहीं निकला था…क्यों नहीं कह पाया कि कुछ दिन के लिए यह लगने की देर थी कि मैं किसी बड़े पद पर नहीं पहुँच पाऊँगा और तुम्हें पिंड छुड़ाने की हड़बड़ी पड़ गयी थी, सारिका….

दर्द गोपाल को कोई आज ही नहीं हो रहा था….आधी रात को पागलों की तरह साइकिल चलाता गोपाल बेबस क्रोध, तन-मन को निचोड़ते दर्द और परास्त प्रेम के प्रेतों से ही तो लड़ता था… मन से उठती चीख को चुप्पी में बदलने की कोशिश ही तो उसके चेहरे को मुर्दे की तरह ठंडा या जलती चिता की तरह सुलगता बना देती थी….

ऐसा ही था वह पल भी… साइकिल के पैडल तेजी से मारते हुए, अपने आपको कोसते हुए, सन्नाटे को चीरती चीत्कार मन के आकाश में सुनते हुए, लगा था कि साइकिल की सीट की जगह बदन के नीचे आकाश का खालीपन आ गया है…वह पल नहीं, बस पल का छोटा सा टुकड़ा था, जब सड़क से टकराते बदन ने अजीब सी थप की आवाज सुनी थी…सन्नाटे की आवाज…

 

सिंह साहब डॉक्टर की अनुमति लेकर कमरे के भीतर आ चुके थे। बिस्तर के पास खड़े देख रहे थे, उन्हें दया आ रही थी, इस अभागे पर; जाने जिएगा या मरेगा…कितना बदमाश है पांडे…मजाकबाजी अपनी जगह, उखाड़-पछाड़ अपनी जगह…चलता है यह सब…लेकिन शुद्ध गुंडई…ऊपर से कहता है,  ‘बस गाड़ी जरा सी छुआ देने भर को कहा था…ताकि वीसी साहब छंगे तो हैं ही कुछ दिन लंगड़े रहने का भी सुख उठा लें…हें…हें…हें….’ अब साला हनुमानजी को मक्खन लगा रहा है…कुमति का संग खुद करें, सुमति इन्हें हनुमानजी दिलवाएँ…बेहूदे कहीं के…लेकिन वीसी ठीक हो जाएँ तो अनुरोध तो करूँगा कि  माफ कर दें, पुलिस को नाम ना दें…जेल जाना पड़ा तो झेलना तो पांडे के परिवार को पड़ेगा, पूरी कम्युनिटी की दुनिया भर में भद्द उड़ेगी, सो अलग….

 

… ‘राम, राम, रोम-रोम, मन चित्त राम; राम की दुहाई है…अंतकाल कोई ना सहाई है….’जब भी सुना है यह भजन, आँखें भर आईं हैं। कैसा तो गाया है मधुप ने…एक एक सुर छू लो,  सुरों में बँधा एक-एक बोल जैसे मन में खुल रहा हो, मेरा अपना स्वर बन कर….आँखें भर ना आएं तो करें क्या….

नहीं चाहिए ऐसी कातरता का वितान…नहीं चाहिए राम का नाम, कबीर का गान, मधुप का स्वर….नहीं चाहिए मुझे….बंद करो यह भजन… चुप रहो, मुझे कुछ कहना है, मेरी सुनो…

गोपाल चौरसिया कुछ कहना चाहते थे… बचपन से अब तक की चुप्पियाँ, अब तक झेले गये अपमानों और षड़यंत्रों की स्मृतियाँ, छंगा तंबोली, चूतिया चौरसिया होने के सुलगते विरदगान…तेली-तंबोली के वीसी बन जाने पर भद्र पुरुषों की पीड़ा, उस कार के धक्के से साइकिल की सीट से एकाएक शून्य में पहुँच जाने के अहसास का शॉक, तन के तने पर कठफोड़वा की चोंच के लगातार प्रहार से बने खोखल पर अपना खोखला गुस्सा…अम्माँ की लोरियाँ, बाबूजी के कँधे पर सवार होने की स्मृतियाँ…सारिका की मीठी आवाज के सुर…इस्तेमाल किये जाने के दर्द, बेबसियाँ, बेवकूफियाँ…सब कुछ…पान पत्ते की गोठ की गंधें-दुर्गंधें, उस गोठ के अंधेरे मकान से लेकर विशाल वीसी निवास तक की स्मृतियाँ ,सब उनके कंठ तक आ रही थीं, सारी ताकत अपने वजूद की लगा कर वे संजो रहे थे यह सब…उन्हें कहना था कुछ…कैसे कहें, किससे कहें…शुभ पाने का सुख, सुख देने वालों को शुक्रिया….दुख पाने की चोट…दुख देने वालों को माफी…

‘पांडेजी…’ बहुत धीमे स्वर में नाम उच्चारा, प्रो. गोपाल चौरसिया ने….

पास ही खड़े सिंह साहब ने झुक कर ध्यान से सुनने का जतन किया, बेशक, गोपाल चौरसिया पांडेजी को ही याद कर रहे थे। अच्छा लगा सिंह साहब को। बच जाए तो अच्छा है…आखिरकार सहयोगियों के बीच उपहास का पात्र यह छंगा तंबोली स्टूडेंट्स के बीच तो काफी लोकप्रिय था…

था नहीं…सिंह साहब ने खुद को दुरुस्त किया…है…और भगवान करे कि ‘है’ के ‘था’ में बदलने की नौबत ना आए…गोपाल चौरसिया इस हाल में पांडेजी को याद कर रहे हैं…वैर नहीं रहना चाहिए…हो सकता है, भगवत्कृपा से बच ही जाएं वीसी साहब…और यदि वक्त आ ही गया है…तब भी, दोनों ही हाल में मन में वैर का रहना ठीक नहीं, पांडेजी को भी कुछ पछतावा तो है ही…इस वक्त जता दें…बात खत्म हो, बाद की बाद में देखी जाएगी। वीसी साहब चल बसे तो, और चलते रहे तो भी… आखिरकार हानि-लाभ जीवन-मरण, जस-अपजस विधि हाथ…देखा जाएगा…अभी तो किसी तरह कुछ सँभाल हो…

दरवाजे के पास पहुँच कर, बाहर झाँका सिंह साहब ने, ‘पांडेजी, जरा आइए…’

पांडेजी हनुमान-चालीसा का मौन पाठ जारी रखे हुए अंदर आ गये, सिंह साहब से आँखों-आँखों में ही पूछा ‘क्या बात है?’ सिंह साहब ने धीरे से कहा, ‘ पास जाइए,  चुप रहिएगा, आपका नाम ले रहे हैं, शायद माफ करने जैसी बात करेंगे, बेचारे भले आदमी ठहरे…’

पांडेजी हनुमानजी से निस्तार की अपील करते-करते ही, बिस्तर की ओर बढ़े, पास पहुँच कर झुके, गोपाल चौरसिया के मुँह से फिर आवाज निकली, आँख एक पल को खुली, ‘पांडेजी…’

जी..जी मैं ही हूँ….

पांडेजी झुके…

पांडेजी झुके हुए हैं, सोच रहे हैं क्यों बुलाया मुझीको इसने, कहना क्या चाहता है मुझसे…

मुँह में कुछ हरकत हुई, जो कुछ गोपाल चौरसिया ने जिन्दगी भर एकत्र किया था, निकला… कोई शब्द नहीं, सिर्फ एक आवाज– बलिपशु की आखिरी चीख सी, मरते योद्धा की अंतिम ललकार सी… अस्पष्ट लेकिन दमदार…और साथ में था, ना जाने कबसे बाहर आने का रास्ता तलाशता, अपने वजूद में सारे आस-पास को समोता गुस्सा….सारे तिरस्कारों का जबाव देता पान पत्ते की गोठ के रहवासी का तड़पता धिक्कार, पांडेजी के सारे चेहरे को  लथेड़ता, बेबसी में सुलगता थूक का थक्का…

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

Contextualizing Kabir: Full Speech

Second Edition of Akath Kahani Prem Ki…

I am happy to announce that the second edition of my book Akath Kahani Prem Ki: Kabir Ki Kavita Aur Unka Samay is forthcoming from Rajkamal Prakashan:

Akath Kahani Prem Ki ... second edition cover

Second Edition Cover

It will be launched on September 9 at 5pm at Triveni Kala Sangam, Mandi House . Harbans Mukhia will be the keynote speaker. Ashok Vajpeyi, Javed Anand, Om Thanvi and Ved Prakash will speak on various aspects of the book. Namwar Singh will preside. All are welcome to attend.

Some of the important themes that are likely to be discussed are Kabir’s contribution as a poet, the Kabir-Ramanand connection, bhakti as spirituality without religion, evolution of early Indian modernity and the setback suffered by the same due to the colonial intervention.

The first edition of the book was launched in October, 2009 and has been exceedingly well received. Akath Kahani Prem Ki… was awarded the first Rajkamal Kruti Samman

>> Download an extract (hindi)
>> Read an extract in english translation (published in Communalism Combat – January 2010)

In the context of recent honour killings

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http://timesofindia.indiatimes.com/city/delhi/Samaj-ke-liye-yeh-murder-zaroori-tha-says-girls-uncle/articleshow/6084080.cms

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सुमन केशरी की लंबी कविता-‘राक्षस पदतल पृथ्वी टलमल’ के कुछ अंश। यह कविता ‘याज्ञवल्क्य से बहस’ ( राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2008) में संकलित है।
राक्षस पदतल पृथ्वी टलमल

गाँव के बीचोंबीच
सरपंच के दरवाजे के ऐन सामने
गाँव के सभी जवान और बूढ़े आदमियों की मौजूदगी में
बिरादरी के मुखियों ने वह फैसला सुनाया था…

उस रात शायद ही किसी घर में पूरी रसोई बनी
कइयों के पेट तो निन्दा-रस से भरे थे
तो कोई जीत की खुशी में मगन थे
कुछ छोड़ जाना चाहते थे कदमों के निशान
तो कुछ बन जाना चाहते थे धर्म, मर्यादा,संस्कृति की पहचान

दालान के कोने में लड़की खौफजदा थी
छिटकी सहेलियाँ थीं
और माँ मानो पाप की गठरी
सिर झुकाए खड़ी थी
बीच बीच में घायल शेरनी सी झपटने को तैयार
आँखों से ज्वाला बिखेरती
दाँत पीसती, दोहत्थी छाती पर मारती
सब कुछ बड़ा अजीब था
न तो लड़के ने कोई डाका डाला था
न किया था किसी का बलात्कार
और न लड़की ने किया था कोई झगड़ा
या फिर किसी बड़े का अपमान
बस किया था तो बस प्यार

ऐसे तो जिबह करने वाले जानवर भी नहीं बाँधे जाते माँ
और तुमने बाँध दिया खुद अपनी जाई को अपने हाथों
मानो कोख ही को बाँध दिया हो मर्यादा की रस्सी से
ऐसा क्या तो कर दिया मैंने
बस मन ही तो लग जाने दिया
जहाँ उसने चाहा
कभी जाति की चौहद्दी से बाहर
तो कभी रुतबे की खाई को लांघ
तो कभी धर्म की दीवार के पार।

हमने प्रेम…बस प्रेम को जीया
केवल प्रेम किया
और छोड़ प्रेम को कोई नहीं जानता
कि प्रेम की अपनी ही मर्यादा है
अपने ही नियम हैं
और अपना ही संसार…

लटका दो इन्हें फाँसी पर
ताकि समझ लें अंजाम सभी
प्रेम का, मनमानी का
मर्यादा के नाश का
संस्कारों के ह्रास का

तो सदल-बल सभी लटका आए उन मासूमों को
गाँव के पार
पीपल की डार पर
सभी साथ थे कोलाहल करते
ताकि आत्मा की आवाज सुनाई न पड़े
घेर न ले वह किसी को अकेला पा कर
आखिर संस्कार और मर्यादाएं
बचाए रखती हैं जीव को
अनसुलझे प्रश्नों के दंशों से
दुरुह अकेलेपन से…

तो जयजयकार करता
समूह लौट चला उल्लसित कि
बच गयीं प्रथाएँ
रह गया मान
रक्षित हुई मर्यादा
फिर से खड़ा है धर्म बलपूर्वक
हमारे ही दम पे
जयजयकार, तुमुल निनाद, दमकता दर्प
सब ओर अद्भुत हलचल
लौटता है विजेताओं का दल
राक्षस पदतल पृथ्वी टलमल.

-सुमन केशरी।
sumankeshari@gmail.com