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“The Naths in Hindi Literature”

My essay “The Naths in Hindi Literature” has appeared in the volume “Yogi Hero and Poets: Histories and Legends of the Naths” edited by David Lorenzen and Adrian Munoz, published by State University of New York Press.

This essay is based on the key-note address I gave to the conference on ” The Nath-Yogis” by the El  Collegio de Mexico, Mexico city in 2007.

The Volume also contains essays by David Lorenzen, Daniel Gold, Daniel Gordon White, Ishita Bannerjee-Dube and others.

For more information click here- http://www.sunypress.edu/p-5272-yogi-heroes-and-poets.aspx

Día de los Muertos

नवंबर की पहली और दूसरी तारीख मेक्सिको में दिया दे लॉस मोरता याने मृतकों के दिन के तौर पर मनाई जाती है। काफी धूम-धाम से लोग अपने मृतकों को याद करते हैं, उनकी याद में आँसू बहाते हैं, और उन्हें उनके पसंदीदा व्यंजन, वाइन आदि परोसते हैं। जैसे अपने यहाँ दिवाली पर खांड की मिठाइयां बनाई जाती हैं, वैसे ही यहाँ मृतकों की याद में खाँड की, चीनी की खोपड़ियाँ बनाते हैं, उपहार के तौर पर मित्रों को देते हैं, और अपने प्रिय जनों के नाम लिख कर उन्हें अर्पित करते हैं।

वैसे तो सारे मेक्सिको में यह ‘त्यौहार’ जोर- शोर से मनाया जाता है, लेकिन कुछ इलाकों में इसकी धूम बहुत ही ज्यादा होती है। लोग कब्रिस्तान जाते हैं, रोते भी हैं, नाचते भी हैं, वाइन पीते हैं, आँसू बहाते हैं। कुछ जगहों पर कब्रिस्तान से लेकर घर तक गेंदे की पत्तियों से राह बनाते हैं, ताकि इतने दिनों बाद मृतक घर का रास्ता न भूल जाएं। जो ऐसा नहीं कर पाते, वे गेंदे के फूल तो मृतकों को अर्पित करते ही हैं। गेंदा मेक्सिको में मृतकों का फूल है।

जाहिर है कि यह ईसाइयत के आगमन के पहले का चलन है, और सेमेटिक धर्मों के उदय के पहले की हर सभ्यता में किसी न किसी रूप में मिलता है। मृत्यु को जीवन का विरोधी नहीं, पूरक तत्व: जीवन की अपरिहार्य परिणति, बल्कि जीवन के सतत प्रवाह में एक और मोड़े मानने वाली सोच के लिए स्वाभाविक ही है कि प्रिय से बिछुड़़ने के अपरिहार्य मानवीय दुख के बावजूद मृत्यु और मृतकों दोनों से संवाद बनाने की कोशिश करता रहे। नचिकेता को जीवन के परम रहस्यों का बोध मृत्यु के देवता यम ने ही कराय़ा था।

मेक्सिको में दिया दे लॉस मोरता की तारीखें -पहली और दूसरी नवंबर- पारंपरिक आज्तेक काल-गणना पर ही आधारित हैं। रोमन कैथॉलिक ईसाइयत ने इस परंपरा को स्वीकृत और समाहित कर लिया है।

इन दो दिन मेक्सिको में छुट्टी का माहैल रहता है। अफसोस कि मुझे एक तारीख की दोपहर को ही रवाना हो जाना है,  सो मृतकों के श्राद्ध के इस राष्ट्रीय पर्व का साक्षी नहीं बन पाऊंगा, लेकिन उस भावना को तो महसूस कर ही रहा हूं जिस के साथ यह पैगन सभ्यता प्रयत्न करती है, मृत्यु को स्वीकार करने का, औऱ मृतकों को अस्तित्वहीन मानने की बजाय मृत्यु को ही एक वैकल्पिक अस्तित्व मानने का।

आज कालेकियो में मेरी “का्ंफ्रेस” ( याने बातचीत) थी, माहौल में दिया दे लॉस मोरता था। मृत्यु का आतंक नहीं,मृतकों के प्रति कृतज्ञता और प्यार के साथ संवाद कायम करने का प्रयत्न। जिस कमरे में बातचीत उसके ठीक बाहर ही दिया दे लॉस मोरता की झाँकी लगी थी, स्वर्गीय प्रोफेसरों के चित्रों के सामने उनकी पसंदीदा वाइन परोसी गयी थीं. धूप-बत्ती जल रही थी।

लाइब्रेरी में कालेकियो के पहले लाइ्ब्रेरियन के चित्र की झाँकी थी, साथ ही ऐन उजले दुल्हन जैसे कपड़ों में मृत्यु की छवि खड़ी थी, एक और छवि सोफे पर विराजमान थी। चीनी की बनी खोपड़ियां  तो थी हीं, याने मृत्यु के जिन प्रतीकों से भय होता है, यहाँ उनसे सहज संवाद का जतन था।

क्या पैगन सभ्यताएं मृत्यु के बारे में अधिक संवेदनशील, अधिक समझदार नहीं है? मेक्सिको से लेकर आयरलै़ड तक. जापान से लेकर भारत तक?

 

Panel on Akath at South Asia Conference

I am excited to share that there is a panel devoted to my book Akath Kahani Prem Ki at the 40th Annual Conference of South Asia at the University of Wisconsin, Madison, Wisconsin, USA. The panel is called “Kabir in context: Purushottam Agrawal’s New Study”.  The panel will be chaired by Prof. Thomas Trautmann. Professors David Lorenzen, John S Hawley and Pashuara Singh will present papers. I will respond to the discussion.

From the conference website:

Purushottam Agrawal�s 2010 book, Akath kahani prem ki: kabir ki kavita aur unka samay [Love�s Untellable Story: Kabir�s Poetry and His Times], is the most important new study about Kabir since the 1974 publication of Charlotte Vaudeville�s book Kabir. The most obvious comparison is with H. P. Dvivedi�s path-breaking book, also titled Kabir, first published in 1942. Agrawal�s own English version of his book is expected to be published in 2011. Each paper in the panel will offer discussions of selected topics found in Agrawal�s work and will suggest ways in which his treatment of these topics could be extended or modified. David Lorenzen will offer a general review of Agrawal�s study and discuss in more detail Agrawal�s ideas the nature of the Kabir-bijak of the Kabir Panth and about the roles of Ramananda and Kabir in fostering an indigenous early modernity that was later aborted as a result of political changes taking place first in the Mughal Empire and then with the advent of British colonialism. Pashaura Singh will discuss Agrawal�s analysis of early collections of Kabir�s songs and verses in the Adi Granth and the Kabir-granthavali. Singh will pay particular attention to the selection process for Kabir�s compositions in the Adi Granth of the Sikhs and will discuss why some compositions were included in the early drafts of the Adi Granth but edited out of the final text. John Hawley will discuss three aspects of Agrawal�s study: first, his analysis of the creation of a Sanskrit Ramanand in the early twentieth century and its bearing on the historical relation between Kabir and Ramanand; second, the coherence of the Kabir corpus and the problem of the songs and verses written in Kabir�s name after his death; and third, the role of Kabir in creating a modern Hindu identity. Purushottam Agrawal himself will respond to these three papers and offer his views about what he regards as the most important contributions of Kabir to Hindi literature, to the importance of the early collections as well as later oral tradition, to the social and religious changes that took place in medieval and colonial India, and to the continuing changes that have been incurring since Independence.

David Lorenzen’s review of Akath Kahani

Kervan, an Italian magazine edited by Pinuccia Caracchi recently carried a review of my book Akath Kahani Prem Ki: Kabir Ki Kavita Aur Unka Samay by Prof. David N. Lorenzen.

You can read the review here [pages 102-106]. The review is in English, even though other parts of the magazine are in Italian.