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Keynote Address at Jaipur Literature Festival

I will be delivering the keynote address at the Jaipur Literature Festival along with Arvind Mehrotra on the theme Bhakti Poetry: The Living Legacy.

I am also participating in a panel on Kabir and Dadu Dayal along with Arvind Mehrotra, Monika Boehm-Tettlebach and Shabnam Virmani.

This year, the festival runs from 20 to 24 January. The full schedule can be found here

Attending the festival is free. Official festival website

 

Giving a talk in Nehru Memorial Museum and Library – Kabir and his Times.

Friday, the 25th, 3 P.M.  I will be giving a talk at  Nehru Memorial Museum and Library. The topic is Kabir and his Times.  Apart from talking about his times and the colonial construct of the same, I will be  also talking about the nature of Kabir’s poetic achievements. It is interesting to note that critics and scholars  of all persuasions read Kabir as a social reformer, critic and even as  founder of a new religion. As a matter of fact, Kabir was primarily a poet and one of our greatest. I have tried to argue the primacy of his poetic persona and also to  underline the specific characteristics of his poetic vision.

In this context, I attach here the  last chapter of my book अकथ कहानी प्रेम की: कबीर की कविता और उनका समय , hope, it will be interesting to read. 

अध्याय दस.

 

मुख कस्तूरी महमही : कबीर की कविताई.

 

  1. 1.     सब्दहि देत लखाए: कविता का ढंग.
  2. 2.     कहै कबीर,सुनो भई साधो:   कविता की आवाज.

      3.या पद को बूझै, ताको तीनों त्रिभुवन सूझैं: उलटबाँसी का अर्थ.

                 4.‘अनल अकासा घर किया: कविता का घर.

             5हम तुझ रहे निदान: मृत्यु के सामने कविता.

 

 

 

1.सब्दहि देत लखाए: कविता का  ढंग.

 

कबीर को कवि मानने में आलोचकों के संकोच और स्वयं कवि की हिचक की चर्चा हमने पहले ही अध्याय में की थी। उसके बाद, पूरी पुस्तक , खासकर पिछले दो अध्याय पढ़ते समय, आप स्वयं इस संकोच और हिचक के अटपटेपन पर चकित होते रहे होंगे, ऐसी उम्मीद है। उम्मीद यह भी है कि आप सहमत होंगे कि कोई कवि है या नहीं, यह तय करने के लिए विश्वास स्वयं रचना पर ही करना चाहिए, रचनाकार की घोषणाओं पर नहीं।

कबीर पूरब के निवासी थे, लेकिन उनकी रचनाओं को लिपिबद्ध किया पछांह के लोगों ने, वह भी मौखिक स्रोतों के आधार पर। ‘बीजक’ बहुत बाद में संकलित हुआ, इसलिए उसमें भी कबीर की भाषा अपने ठेठ रूप में नहीं मिलती। इस अर्थ में यह मानना सही है कि कबीर की अपनी भाषा तक पहुँचना आज के अध्येता के लिए असंभव है। लेकिन, भाषा न सही, कबीर की काव्य-भाषा जरूर  थोड़े बदले हुए रूप में  सुलभ है। बोली भले ही बनारसी के साथ राजस्थानी, पंजाबी, छत्तीसगढ़ी और मालवी प्रभावों को भी लिए हो, लेकिन कबीर का मुहावरा, उनके द्वारा प्रयुक्त काव्य-विधियां पछांह की आदिग्रंथ- ग्रंथावली परंपरा में भी सुरक्षित हैं, और पूरब की  बीजक परंपरा में भी। इसलिए, ऐन कबीर के समय की कोई पांडुलिपि उपलब्ध न होने को कविता पर बात करने के मार्ग में ऐसी बड़ी भारी बाधा मानने की कोई जरूरत है नहीं। ‘ सात समंद की मसि करौं’ की चर्चा करते हुए हम देख  चुके हैं कि लिखित को ही प्रामाणिक मानने से अधिक सार्थक है, भक्ति के लोकवृत्त में मान्य प्रामाणिकता-प्रतिमानों पर ध्यान देना।

आरंभ इस जिज्ञासा से करें कि भक्ति के लोकवृत्त में कबीर की इतनी व्यापक मान्यता का कारण क्या रहा होगा? यह कौन कह सकता है कि “घट-साधना” में पीपा या दादू  कबीर से कुछ घट कर थे। कैसे कहें  कि इन  साधकों की आध्यात्मिक उपलब्धियां कबीर से कम थीं या ज्यादा थीं? इन लोगों के अपने समकालीन भी कैसे कह सकते होंगे कि कौन कितना “पहुँचा हुआ” साधक या फकीर है। लेकिन भक्ति के लोकवृत्त में कबीर के प्रति स्तुति भाव तो इतना सर्व-व्यापी है ही, सो क्यों?

कारण है कबीर का कवित्व। हालाँकि उस लोकवृत्त में ही नहीं, व्यापक समाज में भी कबीर कवि नहीं, संत ही कहलाते थे। कारण था, कवि शब्द का उस समय प्रचलित पारिभाषिक अर्थ। कवि माने काव्यशास्त्रीय मान्यताओं और परंपरा पर खरी उतरती शब्द-साधना करने वाला व्यक्ति। रस-छंद-अलंकार को  सजग रूप से साधने वाला रचनाकार। तुलसीदास जब कहते हैं—‘कवित विवेक नहीं मोरे’, तब वे यह नहीं कह रहे कि उन्हें रस-छंद-अलंकार की जानकारी नहीं है; वे यह  कह रहे हैं  कि उन्हें इन चीजों को सायास, सजग रूप से साधने की परवाह नहीं है; सहज, स्वाभाविक रूप से सधते चले जाएं तो चले जाएं। काव्य-रसिकों  की शाबाशी पाने के इरादे से कविता न तुलसीदास कर रहे थे, न कबीरदास। यह बात ध्यान में रखते हुए पढ़ें कबीर के बारे में  आ. हजारीप्रसाद द्विवेदी का प्रसिद्ध कथन :

 

रूप के द्वारा अरूप की व्यंजना, कथन के जरिए अकथ्य का ध्वनन काव्य-शक्ति का चरमनिदर्शन नहीं तो क्या है? फिर भी वह ध्वनित वस्तु ही प्रधान है, ध्वनित करने की शैली और  सामग्री नहीं। इस प्रकार काव्यत्व उनके पदों में फोकट का माल है-बाईप्रोडक्ट है, वह कोलतार और सीरे की भाँति और चीजों को बनाते-बनाते अपने आप बन गया है।[1]

 

कविता में “ध्वनित वस्तु” और “शैली और सामग्री” के बीच,  प्रधानता की होड़  होती है। ठीक यही स्थिति कबीर की रचना में है। असल में, “ध्वनित वस्तु” की ओर ध्यान जाता ही है “ध्वनित करने की शैली और सामग्री” के कारण। कबीर की आत्मछवि कवि की नहीं है, लेकिन काव्यत्व उनके पदों में फोकट का माल नहीं, उनकी भाषा का स्वभाव है। वह “अपने आप बन गया है”, क्योंकि कबीर जो कुछ देखते-दिखाते हैं, बुनियादी तौर से कवि की आँख से देखते-दिखाते हैं, जो कुछ सुनाते हैं, कवि की बोली में सुनाते हैं। इसीलिए ऐसी स्थिति बनती है कि रचनाकार भक्त है, लेकिन उसकी रचना कविता है। रचनाकार भक्ति का रस चाहता है, कवि के रूप में  स्वीकृति नहीं, लेकिन उसकी रचना को पढ़ने के लिए आप का स्वयं भगत  होना, या नाथपंथी साधना का जानकार होना कतई जरूरी नहीं, जबकि कविता के प्रति संवेदनशील होना अनिवार्य है।

अपने आप को कवि तो भक्तों, संतों में कोई नहीं मानता। जायसी जरूर कहते हैं-“मुहम्मद कवि प्रेम का, न तन रकत न मांसु। जिइ देखा तिइ हँसा, सुना तो आए आंसु”। लेकिन हम तो जायसी को ही नहीं तुलसीदास को भी  कवि के रूप में ही देखते हैं, भले ही वे स्वयं अपने आप को केवल भक्त के रूप में ही देखें। वजह यह कि हम जानते हैं कि तुलसीदास की रचना में “ध्वनित वस्तु” ही नहीं, “शैली और सामग्री” भी ध्यान देने योग्य है। सीधा सा सवाल यह है कि कबीर की काव्य-शैली और सामग्री ध्यान देने योग्य है या नहीं? यदि नहीं तो आ. शुक्ल की सी साफगोई से कहना चाहिए, ‘कबीर की कविता उपदेश देती है, भावोन्मेष नहीं करती’। “शैली और सामग्री” पर नहीं, “ध्वनित वस्तु” पर ही ध्यान देने की सिफारिश, यदि सही है तो तुलसीदास के प्रसंग में भी सही है। तुलसी के कवित्व पर सहज रूप से, और कबीर के कवित्व पर इस  कृपापूर्ण लहजे में विचार करने की क्या जरूरत है?

आरंभिक आधुनिक कालीन भक्ति के लोकवृत्त में, उस समय प्रचलित पारिभाषिक अर्थ में कवि शब्द का प्रयोग न तो तुलसीदास के लिए, न कबीर के लिए बहुत आग्रहपूर्वक किया जाता था। लेकिन वह लोकवृत्त ऐसा भी नहीं करता था कि तुलसी को तो सहज रूप से कवि माने और कबीर को कृपापूर्वक—जैसा कि औपनिवेशिक आधुनिकता के बाद प्रचलित हुए साहित्य-बोध में हुआ है। सो, सवाल यह बनता है कि सहज पर बल देने वाले शब्द-साधकों में से कबीर ही सबसे बड़े साधक हैं—यह मान्यता सूचित क्या करती है।

यह मान्यता घोषणा करती है कि कबीर की कविता कोरा उपदेश नहीं, जबर्दस्त भावोन्मेष करती है। भावोन्मेष जीवन की आलोचना का भी, जीवन के पार की कल्पना का भी। भावोन्मेष प्रेम के अत्यंत निजी क्षणों की अनुभूतियों और स्मृतियों का। उल्लास, कामना, अधिकार, आशंका, ईर्ष्या, मादकता, वेदना, मान, मनुहार, खीझ, विश्वास-अविश्वास…सभी का। अलग-अलग कौंध का भी, और इन सबसे बनने वाले कोलाज का भी। प्रेमानुभव का कौन सा पहलू है, जिसका स्वर कबीर की कविता में नहीं गूँजता। फिर, भावोन्मेष सामने मौजूद जिंदगी के परे भी झांकने की हिम्मत का। मौत की आँखों में आँखें डाल कर बात करने के साहस का। उन्मेष जीवन के बहुरंगी उत्सव का, और उसके अंत का। देह के होने के रोमांचक  मादक अहसास का, और उसकी अनिवार्य नश्वरता का। उन्मेष जमकर बोलने के उत्साह का, और अंततः मौन की ओर जाने वाली विवशता का। पाखंड को पांडित्य के दुर्ग से बाहर खींच लाने की ताकत का, अन्याय को हरि-इच्छा बताने वाली सोच से जिरह करने वाली प्रखरता का।

कविता की धारणा निस्संदेह बदलती रहती है। लेकिन बदलाव में निरंतरता पूरी तरह गायब भी नहीं हो जाती।  भाषिक सर्जनात्मकता और प्रश्नाकुलता  बुनियादी निरंतरता को धारण करने वाली सर्जनात्मक चेतना हर ऐतिहासिक मोड़ पर अपने लिए उपयुक्त  भाषा की तलाश करती है। आरंभिक आधुनिक काल की भारतीय सर्जनात्मकता ने आत्माभिव्यक्ति की भाषा भक्ति में पाई। यह आत्माभिव्यक्ति उस समय रूढ़ हो चुकी कविता-धारणा से असंतुष्ट थी। ‘कवि’ शब्द का जो अर्थ  सर्वमान्य था, वह कबीर और उनके जैसे अन्यों को कवि कहलाने में बाधक था। लेकिन कबीर की शब्द-साधना केवल घट-भीतर के सबद-अनहद की ही नहीं, जिसे लोग सब समझते हैं, उस शब्द की, भाषा की भी साधना है, इस बात को भक्ति का लोकवृत्त समझता और सराहता था। कबीर भाषा का सर्जनात्मक प्रयोग किस तन्मयता से करते हैं, कैसी  रूपासक्ति के साथ करते हैं, यह कबीर के प्रशंसक देख सकते थे। उस मजबूरी का मर्म समझ सकते थे, जो निर्गुण के साधक को विवश करती है—अपने साध्य को गुण देने के लिए, निराकार को बालम के आकार में रचने के लिए। कबीर की बानी में रचे-बसे यथार्थ-बोध और सामाजिक आलोचना के साथ ही, प्रेम और मृत्यु जैसे बुनियादी और शाश्वत प्रश्नों पर कबीर की बानी की  मार्मिकता और प्रत्यक्षता,  उनका विडंबना-बोध और विट—इस सब को भक्ति के लोकवृत्त में संवाद कर रहे लोग अपने ढंग और मुहावरे में समझते थे। इसीलिए कबीर को शब्दसाधकों के बीच शिखर की तरह, माला के मनकों में मेरु की तरह सराहते थे।

कबीर से दादू भी सीखते हैं, पीपा भी, और लोग भी। घट-साधना में क्या सीखते हैं, यह तो उस साधना के जानकार ही जानें, लेकिन घट-साधना को, आतम-साधन-सार को कहने की विधि में जो कबीर से पाते हैं, और जो खुद कमाते हैं, वह तो दादू और पीपा की बानी में सुना ही जा सकता है। कबीर की  आवाज आप सुन चुके हैं—“बाल्हा, आव हमारे गेह रे”। दादू कहते हैं—“निस दिन देखौं बाट तुम्हारी कब मेरे घर आवे”। कबीर अपने और दुनिया की समझ के फर्क को समझ के फेर की विडंबना में कहते हैं—“ राम राइ भई विकल मति मोरी, कै यह दुनी दीवानी तेरी”। दादू सीधे तौर पर कहते  हैं—“आतम राम न जाना दादू जगत दीवाना”। कबीर यह ‘निवेदन’ भी करते हैं कि भई मैं तो बिगड़ गया, तुम मत बिगड़ जाना—“कबीर बिगरया राम दुहाई। तुम जिनि बिगरौ मेरे भाई”।

सीधे तौर पर बयान देने और विडंबना के जरिए बाँकी बात कहने  के अंतर को ही दादू, पीपा और भक्ति के लोकवृत्त की अन्य आवाजें कबीर को केंद्रीय स्थिति देकर रेखांकित करती हैं।

कविता की अनिवार्य पहचान न छंद है, और न रस अलंकार की सजग योजना। आलोचक बेशक स्वतंत्र है किसी कविता को अपने प्रतिमानों पर पढ़ने और जाँचने के लिए। यह सचमुच रोचक होगा कि इक्कीसवीं सदी की कविता में अलंकार-योजना खोजी जाए, लेकिन जो इस योजना के अंतर्गत कविता नहीं रचते, उन्हें कवि मानने से ही इन्कार कर देना ज्यादती है। इसी तरह आलोचक निर्धारित कर सकता है कि कौन सी कविता क्रांति या राष्ट्रनिर्माण के काम की है, कौन सी नहीं है; लेकिन जो रचनाएं ऐसे नेक इरादों से न की गयी हों, वे कविता हैं ही नहीं, ऐसा नहीं कहा जा सकता।

कविता की प्राथमिक पहचान है—भाषा की सर्जनात्मकता। रोजमर्रा के शब्दों से लेकर दार्शनिक विमर्श तक के शब्दों का ऐसा प्रयोग कि उस प्रयोग से कुछ अनपेक्षित सा हो उठे। जो शब्द अर्थ खो चले हैं, उनका पुनः अनुसंधान। जिन शब्दों का अर्थ पारिभाषिकता तक  सीमित कर दिया गया है, उनकी बहुलार्थकता की पुनः स्थापना। मानवीय वेदना, बिगूचन, प्रश्नाकुलता, रूपासक्ति, सामाजिक संवेदनशीलता और अस्तित्वगत बेचैनी के निजी अनुभवों को ऐसे मुहावरे और ऐसी कहन में ढालना कि देशकाल की सीमाएं लाँघ कर वह बेचैनी, वह दर्द और वह आनंद हर उस मन में गूँज उठे, जो सुनने को तैयार हो। कबीर यह सब करते हैं, शब्दों के जरिए।  वे घट-साधक, ‘मिस्टिक’ होने के पहले,  स्वभाव से ही शब्द-साधक— कवि— हैं।

‘हद बेहद दोउ तजे’ अध्याय में हमने देखा है कि कबीर किसी एक धर्म की नहीं, संगठित धर्म की धारणा मात्र की समीक्षा करते हुए धर्मेतर अध्यात्म की खोज करते हैं। उनकी सामाजिक आलोचना जन्म लेती है, वर्णाश्रमवादी, जन्मगत ऊंच-नीच के विरुद्ध  भावभगति पर आधारित भागीदारी के आग्रह से। ऐसा आग्रह करके कबीर की ‘नारदी भक्ति’ देशज आधुनिकता में मानवाधिकार का विमर्श संभव करती है, यह हम ‘भगति नारदी मगन सरीरा’ अध्याय में देख चुके हैं। कविता की चर्चा के प्रसंग में खास ध्यान देने की बात यह है कि कबीर की कविता प्रेम की केवल मधुर पुकार भर नहीं है। वह श्रोता को कँधों से पकड़ कर झिंझोड़ भी देती है। कबीर का व्यंग्य नेमी-धर्मी पंडितों, शरीयत के पाबंद मौलानाओ, और करामातें दिखाने वाले जोगियों, पीरों भर ही  नहीं है, वह आप पर भी व्यंग्य है, और अपने आप पर भी। कबीर का प्रेम चूँकि खरा है, इसलिए आपको हमेशा प्यारे-प्यारे वातावरण में ही नहीं रखता। जरूरत पड़ने पर झकझोर कर आपको अपने खुद के पाखंड और गुमान की हकीकत भी दिखा देता है। वे तो स्वयं अपने मन को भी चेतावनी दिए रहते हैं कि सहज के, अपने विवेक-विचार के रास्ते चलता रहे, नहीं चलेगा तो कोडे पड़ेंगे, प्रेम के कोड़े:

अपनै विचारि असवारि कीजै।

सहज के पाइड़ै पांव जब दीजै।।

दे मुहरा लगाम पहिराऊं। सिकली जीन गगन दौराऊं।।

चलि बैकुंठ तोहि लै तारूं। थकहि तो प्रेम ताजनैं मारूं।।

( गौड़ी, 35, ग्रंथावली, माताप्रसाद गुप्त, पृ0 160).

कबीर के  निशाने पर केवल खामखाह में वेद-कतेब पढ़ने वाले ही नहीं, वे भी हैं जो “साखी  सबदी गाते भूले, आतमखबरि नहीं जाना”:

संतो देखत जग बौराना।

सांच कहौं तो मारन धावे। झूठे जग पतियाना।।

नेमी देखा, धरमी देखा। प्रात करै असनाना।।

आतम मारि पखानहि पूजै। उनमें कछु नहिं ज्ञाना।।

बहुतक देखा पीर औलिया। पढ़ै किताब कुराना।।

कै मुरीद तदबीर बतावै। उनमें उहै जो ज्ञाना।।

आसन मारि डिंभ घरि बैठै। मन में बहुत गुमाना।।

पीतर पाथर पूजन लागै। तीरथ गर्व भुलाना।।

टोपी पहिरै माला पहिरे। छाप तिलक अनुमाना।।

साखी सबदी गावत भूले। आतमखबरि नहीं जाना।।

हिन्दू कहै मोहि राम प्यारा। तुर्क कहै रहिमाना।।

आपस में दोऊ लरि मूये। मर्म न काहू जाना।।

घर-घर मंतर देत फिरत हैं। महिमा के अभिमाना।।

गुरु के सहित शिष्य सब बू़ड़े। अन्त काल पछिताना।।

कहैं कबीर सुनो हो भई संतों। ई सब भरम भुलाना।।

केतिक कहौं कहा नहिं मानै। सहजै सहज समाना।। (सबद 4,बीजक, पृ0 111-2).

एक ही साथ अनेकों बाह्याचारों की  खबर लेता यह पद पढ़ना कितना रोचक और मनोरंजक है न हमारे लिए। सचमुच, ये सब नेमी-धरमी, सुबह-सुबह नहाने वाले, ये किताब-कुरान पढ़ने वाले लोग कितने अविवेकी और असहिष्णु होते हैं न। सच कहने वाले को मारने दौड़ते हैं, हिन्दू-मुसलमानों को आपस में लड़ाते रहते हैं। कितने गये-गुजरे लोग है, कबीर के समय में तो और भी गये-गुजरे रहे होंगे, तब तक भारतीय समाज एनलाइटेंड जो नहीं हुआ था।

और हम?

कबीर की कविता की सबसे बड़ी ताकत, उसकी कालजयिता यही है कि वह आपको संबोधित ही नहीं करती, आपको विषय भी बनाती है। शर्त यही है कि आत्मुष्टता की बजाय थोड़े आत्मबोध के साथ पढ़ी जाए। वैसे तो कबीर भी झिंझोड़ ही रहे हैं-‘आतमखबरि नहीं जाना’। अपने आत्म को, विवेक को मार कर पूजा केवल पत्थरों की नहीं, और प्रकार की वैचारिक, संवेदनात्मक जड़ताओं की भी की जाती है। कबीर की आलोचना के  निशाने पर वे सभी हैं, जो आत्म-विवेक को तिलांजलि देकर जड़ता की, अपने वक्त के फैशनों की शरण में छुप जाना चाहते हैं। कबीर की बेचैन कविता “अपने जैसे” लोगों को भी कोई कंसेशन देने वाली नहीं।

कबीर की आवाज  को  ‘आत्म’ द्वारा ‘अन्य’ की आलोचना तक सीमित करने की बजाय, अपने आप पर भी निगाह डालते हुए  सुना जाए, उनकी बेचैन आत्मा के सुविधाजनक टुकड़े करने की बजाय, उसकी समग्रता  से संवाद किया जाए तो समझते देर नहीं लगती, कि क्यों कबीर अपने राम की भक्ति की तुलना तलवार की धार पर चलने से  करते हैं:

कबीर भगति दुहेली राम की, जैसी खंड की धार।

जे डोलै तो कटि पड़े, नहीं तो उतरै पार।।

( सूरातन कौ अंग, 25, ग्रंथावली, माताप्रसाद गुप्त, पृ0 116)

सामाजिक आलोचना और दार्शनिक विमर्श  कविता का रूप तभी लेता है जब अमूर्तन को छोड़ मूर्तिमान रूप धारण करे। निर्गुण का दार्शनिक विमर्श ही करते रहते तो कबीर विचारक और साधक ही रह जाते। बिना रूपासक्ति के कोई कवि नहीं होता, और कबीर कवि हैं, इसीलिए अपने निर्गुण, निराकार राम को अपनी कवि-कल्पना में साकार बालम तो बनाते ही हैं, ‘जेती औरति मरदां’ इस जग में हैं, उनमें भी राम का रूप निहारते हैं। राम को केवल घटवासी ही नहीं, जगजीवन के रूप में भी देखते हैं। “निर्गुण” कबीर की राम-धारणा के कई विशेषणों में से एक है, एकमात्र नहीं। राम के  लिए कबीर के पास और विशेषण भी हैं, संज्ञाएं भी। माधव और गोविंद तो हैं ही, स्वयं रघुनाथ  भी। फिर आत्माराम भी हैं, रमैयाराम भी , जगजीवनराम  भी। कबीर का  निर्गुण मानवीय भाव का निषेध करने वाला अमूर्तन नहीं है, जैसाकि उनके भाँति-भाँति के  आलोचकों द्वारा मान लिया गया है। राम की निर्गुणता पर कबीर का बल रामधारणा को केवल अवतारी राम तक सीमित करने से इंकार की  सूचना देता है, बस। कबीर की रामधारणा अवकाश देती है, उन्हें भी, और श्रोता/पाठक को भी, कि निर्गुण राम के प्रति ‘अविच्छिन्न अनुराग’  में अपने सगुण, वास्तविक प्रेमानुभव को भी भरा जा सके।

दुर्भाग्य से यदि ऐसा प्रेमानुभव प्राप्त नहीं हुआ है, तो परमात्मा ने, प्रेम की मजबूरी के साथ ही  कृपा करके मनुष्य को कल्पना भी दी है। जीवन में,  कोई ‘वास्तविक’ प्रेमपात्र न भी हो, प्रेमकामना का पात्र रच लेना कल्पना के कारण संभव है। लौकिक नहीं तो अलौकिक ही सही। लौकिक प्रेम को अलौकिक का रूप, इश्क मजाजी को इश्क हकीकी का रूप कविता ही देती  है। कविता का हो. या साधना का, रहस्यवाद का सार यही है—ऐसी जगह की रचना  करना जहाँ सामाजिक विधि-निषेध से मुक्त आप रच सकें, प्रिय से संवाद का स्पेस। आप ही खुद की भी  बात कहें, और आप ही उसकी भी  बात रचें, आप ही प्रेम की भिक्षा माँगें, और आप ही प्रेम का दान करें—“मंगता बनकर मांगन लागा, देनेवाला तू का तू…”

प्रेम के बिना इंसान क्या, दुनिया के किसी मजहब  का भगवान भी नहीं रह सकता। दूसरे को चाहने की, उससे बतियाने की कामना के ही कारण ब्रह्म को एक से बहु होने की इच्छा हुई। इसी कारण खुदा ने आदम को रचा अपनी छवि में, और उसे सिज्दा न करने के कारण फरिश्ते  इब्लीस पर खफा हुए। इसी प्रेम ने विवश किया कबीर के हरि को कबीर के पीछे-पीछे फिरने के लिए, रसखान के  जिस ब्रह्म की स्तुति में ऋषिगण ऋचाएं कहते हैं, उसे ‘अहीर की छोहरियों’ की  छछिया भर छाछ पर नाचने  के लिए। सीधी सी बात है:

कौन मकसद को इश्क़ बिन पहुँचा।

आरजू इश्क़, मुद्दआ है इश्क़।

कबीर का प्रिय अलौकिक हो सकता है, लेकिन उसके प्रति कबीर  के प्रेम की भाषा पूरी तरह लौकिक है। कबीर  की प्रेमाभिव्यक्ति पाठक को अलौकिक का नहीं, लोकोत्तर का अहसास कराती है। उनकी कविता में  शब्दबद्ध प्रेम में आप अपना प्रेम पढ़ सकते हैं। वह लोकोत्तर अनुभव प्राप्त  कर सकते हैं जो अभिनवगुप्त के अनुसार केवल कविता में ही संभव है, न योग में, न शास्त्र में। कोई जरूरी नहीं कि आप कबीर की हर बात से सहमत ही हों। कबीर के, या किसी भी कवि के प्रसंग में यह भी महत्वपूर्ण नहीं कि उसके  लौकिक प्रेमपात्र को खोज निकालने की जासूसी  में पाठक सफल हुआ या नहीं। बड़ी बात यह है कि वह कवि के रहस्यवाद में अपने प्रेम की आवाज सुन पाया या नहीं। इसी पैमाने पर पाठक  की भी परीक्षा होती है और कवि की भी। फिर, सवाल यह भी है कि रहस्यानुभव जिस ज्ञानमीमांसा में रचा-बसा है, वह जीवन और समाज के रहस्यों के बारे में कोई अंतर्दृष्टि देती है, या उन्हें और भी बेबूझ बनाती है। कबीर तो अपनी बानी को सुरझावनिहारी कहते ही हैं, पाठक को जाँचना यह है कि सही कह रहे हैं या नहीं।

कबीर की वाणी सुरझावनिहारी है, लेकिन उस अर्थ में नहीं, जिसमें उपदेशक की वाणी होती है। कबीर की कविता परस्पर विरोधी मनोभावों और मनोदशाओं में वैसे ही सहज रूप से आवाजाही करती है, जैसे सुबह से शाम तक आप और हम करते हैं।  वे सभी प्रश्नों के उत्तर खोजने के बाद जनता के बीच उनका प्रचार करने नहीं निकले थे। उनकी वाणी में आप धर्मगुरु का नहीं, कवि का ज्ञान सुनते हैं। पैगंबर का इलहाम नहीं, ऐसे मनुष्य की आवाज सुनते हैं, जो कहीं किसी उपलब्धि पर खुशी के मारे नाच रहा है, कहीं विरह में तड़प रहा है, तो कहीं अन्याय और मूर्खता पर तिलमिला रहा है। कहीं उलटबाँसियां कह कर लोगों को छेड़ रहा है, तो कहीं घर का रास्ता बता रहा है। कहीं स्वयं नारी का रूप धार रहा है, तो कहीं नारी मात्र को नर्क का द्वार ठहरा रहा है। कहीं हर बात को अनुभव और विवेक की कसौटी पर परखने की सलाह दे  रहा है, तो कहीं  गुरु के प्रति पूर्ण  समर्पण की।

उपदेशक की मजबूरी होती है  कि वह लोगों के सामने सुसंगत—कंसिस्टेंट—रूप में ही आए। अंतर्विरोध उपदेश को कमजोर करते हैं। कवि की ऐसी मजबूरी नहीं। अनुभूतियों की विविधता कविता की ताकत का प्रमाण देती है, कमजोरी का नहीं। अपने आप को सेंसर करने के लिए उपदेशक विवश है। कवि की ऐसी कोई विवशता नहीं, उसकी वाणी में परस्पर विरोधी अनुभूतियां, उसके केंद्रीय भाव के स्वरों में बारंबार सुनी जा सकती हैं। कवि की मजबूरी कुछ है जरूर, लेकिन उपदेशक की मजबूरी से एकदम अलग तरह की।  मजबूरी है—रूपासक्ति की। कविता के विषय में भी, और उसकी संरचना में भी, कवि का काम अमूर्तनों से नहीं चल सकता। उसे तो मूर्तिपूजा का विरोध करने तक के लिए बिंबों की रचना  करनी ही पड़ती है। निर्गुण को बालम के, सखा के, पिता के, माँ के गुण देने ही पड़ते हैं।

कबीर की यह ‘मजबूरी’ कि वे अपने राम को रूप देते हैं, उनकी रूपासक्ति उनके कवित्व की पहली पहचान है। दूसरी यह है कि जिन शब्दों में वे अपने राम को रचते हैं, उनके परंपराप्राप्त रूप से ही संतुष्ट हो बैठने की बजाय उन शब्दों को भी नये सिरे से रचते हैं। उनके खो चुके अर्थों का संधान भी करते हैं, और शाश्वत ‘सबद’ में ऐन अपने निजी अनुभवों का अर्थ भी भरते हैं। ये अनुभव प्रेम के उल्लास और वेदना के भी हैं, धर्मेतर अध्यात्म की साधना के भी। सामाजिक अन्याय और बेतुकेपन के भी हैं, और जीवन के परे की चिंताओं, कल्पनाओं के भी । और इन  सारे अनुभवों को समेटने की हौंस का, न समेट पाने की बेचैनी का, अकथ कहानी को न कह पाने के दर्द का आरंभ होता है—शब्द-साधना से। प्रेम और मृत्यु जीवन के प्राथमिक सत्य हैं; कबीर  कविता के जरिए इन सत्यों के विविध पहलुओं से स्वयं भी संवाद करते हैं, आपको भी संवाद का न्यौता देते हैं।

कहा गया है कि कबीर जीवन  की स्वाभाविक अनुभूतियों की नहीं, रहस्यपूर्ण घट-साधना की बातें करते हैं, इसलिए प्रखर प्रतिभा के बावजूद उन्हें ठीक-ठीक अर्थ में कवि नहीं माना जा सकता। सामाजिक अन्याय से विचलित होना क्या अस्वाभाविक अनुभूति है? उस अन्याय को जायज ठहराने वाली ज्ञानमीमांसा से जिरह करना क्या अस्वाभाविक बात है? प्रेम में रोना-हँसना-गाना क्या अस्वाभाविक काम है? जीवन और मृत्यु के परे क्या है—यह पूछना क्या सचमुच मनुष्य के लिए अस्वाभाविक जिज्ञासा है?

कबीर की रचना से गुजरते हुए, उपरोक्त प्रश्न  आप यदि  पूछते चलें तो पाएंगे कि जिस कवि को स्वाभाविक मानवीय अनुभूतियों की उपेक्षा करने वाला कहा जा रहा है, वह आपकी अपनी अनुभूतियों को कविता का विषय बना रहा है, बिल्कुल वही सवाल पूछ रहा है, जो उठते तो आपके मन में भी हैं, लेकिन आप संकोच के कारण, साथियों और हितचिंतकों द्वारा गलत समझे जाने के भय के कारण पूछ नहीं पाते। बिल्कुल वैसी ही कल्पनाएं कर रहा है, जैसी आती तो आपके मन में भी हैं, लेकिन आप उन पर सेंसरशिप लागू कर देते हैं। यह सब आप देखेंगे और बरबस कह उठेंगे—कौन है यह व्यक्ति  जो दिखता तो ऐन मेरे जैसा है, लेकिन जिसे मैं पहचान नहीं पाता/ पाती।

कबीर बेशक कहते हैं—‘तुम जिन जानौ यह गीत है, यह तो निज ब्रह्म-विचार रे’, लेकिन कहते गीत में ही हैं। उनका ब्रह्मविचार हो या मृत्यु से साक्षात्कार हम तक उपदेश की तरह नहीं कविता के रूप में ही आता है। उपदेशक भाषा का “उपयोग” करता है, अपना “संदेश” देने के लिए। कवि भाषा में ही अपना सत्य अर्जित करता है। आत्मसंघर्ष उपदेशकों के भी होते हैं, लेकिन उनका अता-पता पाने के लिए उपदेशों की विरचना या पुनर्रचना करनी पड़ती है। कवि की तो रचना ही उसके आत्मसंघर्ष का साक्ष्य देती है, जैसाकि हम  कबीर की  की नारी विषयक संवेदना की चर्चा में देख चुके हैं। उपदेशक या धर्मगुरु का प्रवचन अभेद्य दुर्ग है, तो कवि की भाषा बेहद का मैदान। उस मैदान में महकती कस्तूरी आप  को चुनौती देती है कि कस्तूरी-गंध के पीछे-पीछे आप जहाँ तक आ सकें, आएं। लेकिन हाँ, बाअदब ही आएं क्योंकि आखिरकार, ‘ये मंजिले जाना है, गुजरगाह नहीं है’।

कबीर के कवित्व को लेकर उलझन का  कारण बताया जाता है—उनकी रचना में पारिभाषिक शब्दों की भरमार। पारिभाषिक शब्दों का इतना अधिक प्रयोग करने वाले व्यक्ति  को भला कैसे कवि कहा जा सकता है?

इस प्रसंग में ध्यान देने की बातें दो हैं। एक तो हम कर चुके हैं, ‘हद बेहद  दोउ तजे’ अध्याय में। हमने देखा था कि शब्द चाहें नाथपंथ से लें, चाहे इस्लाम से, उन शब्दों से जो वाक्य रचते हैं, वह कबीर का अपना है। दूसरी, और कवित्व के प्रसंग में बेहद अहम बात यह है कि कबीर पारिभाषिक शब्दावली को फिर से संवेदनात्मक बनाते हैं। तकनीकी एकदेशीयता से शब्दों को मुक्त कर, उन्हें फिर से सर्जनात्मक अनेकार्थकता के खुले आकाश में ले आते हैं। एक पद पढ़ें:

अब हम सकल कुसल करि मांनां।

स्वांति भई तब गोव्यंद जांना।।

तन में होती कोटि उपाधि। उलट भई सुख सहज समाधि।।

जम थैं उलटि भया है राम। दुख बिसरया सुख कीया विश्राम।।

वैरी उलटि भये हैं मीता। साखत उलटि सजन भये चीता।।

आपा जांनि उलटि ले आप। तो नहीं ब्यापै तीन्यूं ताप।।

अब मन उलटि सनातन हूवा। तब हम जाना जीवत मूवा।।

कहै कबीर सुख सहजि समाऊं। आप न डरौं न और डराऊं।।

(गौड़ी, 15 ग्रंथावली, माताप्रसाद गुप्त, पृ0 153)

कबीर के समय में, ‘सहज’ विशिष्ट प्रकार की सहजयानी साधना का तकनीकी शब्द बन चुका था। एक इसी पद में नहीं, अनेक स्थानों पर कबीर अपनी साधना को ‘सहज’ बताते हैं, सहज रूप से ही सहज के तकनीकी अर्थ की जगह उसके सहज अर्थ को रखते हुए। मन जब सहजयानियों की सहजता को छोड़ संवेदना की सहजता की ओर जाता है, प्रेम और विवेक सरीखी सहज मानवीय अनुभूतियों को साधता है,तब चीजें उलट-पुलट सी हो जाती हैं। तरह तरह की ‘उपाधियां’ मनुष्य के संस्कार का हिस्सा बना दी गयी हैं—‘तन में होती कोटि उपाधि’। पद की, सत्ता की, धन की, माया की—न जाने कितनी तरह की हैं ये उपाधियां। चुनौती इनसे बाहर निकल, मनुष्यत्व की सनातनता को फिर से पाने की है। ‘सनातन’ सहजात मनुष्यता जो न जाने कितनी उपाधियों के आवरणों में छुप गयी है, वापस मिल जाए तो कितना कुछ  अनपेक्षित घटने लगता है। यमराज राम जैसे हो जाते हैं। यहाँ तक कि शाक्त भी अपने से लगने लगते है, भलेमानस लगने लगते हैं। सहज की इससे बड़ी महिमा कबीर और क्या बखान सकते थे! ऐसे सहज के स्पर्श के बाद जीते जी मरना और मर कर भी जीना सहज ही समझ आने लगता है। ऐसा स्पर्श पा चुका मनुष्य सचमुच किससे डरेगा, और किसे डराएगा।

राग गौड़ी  का ही चौथा पद  योगियों की तकनीकी शब्दावली में रचा गया है, लेकिन कह यह रहा है कि जो कुछ तुम अपनी तरह-तरह की साधना के जरिए पाते हो, वह मुझे सहज ही प्राप्त है। पद में शब्दावली घट-साधना की है, लेकिन महिमा है प्रेम की। पद शुरु में ही कह देता है:

मन के मोहन मीठुला, यहु मन लागौ तोहि रे।

चरन-कंवल मन मानियां, और न भोवे मोहि रे।

और अनेक कमलों, चक्रों के उल्लेखो से गुजरता हुआ, सनकादिक ऋषियों का उल्लेख करता हुआ समाप्त इस प्रकार होता है:

गुर गमे ते पाइए, झंखि मरै जिनि कोइ।

तहां कबीर रमि रह्या, सहज समाधी सोइ रे।। (गौड़ी, 4, ग्रंथावली, पृ0 142)

गरज यह कि जिसे लोग न जाने कैसी-कैसी शब्दावली में छुपाते रहते हैं, वह बात सारी किसी ‘मीठुला’ के प्रेम में डूब जाने की है। यह असली बात बताने वाला—गुरु—मिलने की देर है, उसके बाद तो समाधि बस सहज की है-मनुष्य के सनातन सहजात भाव—प्रेम—की है।

स्वभाव से  कवि,  कबीर जानते थे कि ‘शब्दों ने अपने अर्थ खो दिए हैं’-“ सहज सहज सब कोई कहै, सहज न चीन्हैं कोई”।  सहज को, शब्दों के अर्थों को  संवेदना और बोध में वापस लाना कितना कठिन है, यह भी पहचानते थे। अपनी भक्ति को, अपने ढंग की सहजता को दुहेली—दुष्कर—उन्होंने यों ही नहीं कहा है। सहज की साधना के पहले सिर काट कर भूमि पर रखने की शर्त यों ही नहीं लगाई है।

मजे की बात यह है कि कवि कबीर तो पारिभाषिक शब्दों को सहज बना रहे थे, उनके व्याख्याकार  सहज रूप से लोकप्रचलित शब्दों को पारिभाषिक बनाने का प्रयत्न करते हैं। और भी मजे की बात यह कि जहाँ कविता का समर्थन ऐसे प्रयत्न को न मिले, वहाँ कह देते हैं कि ये ‘पद कबीर के नाम पर बाद में चल पड़े होंगे’। इस बारे में आप ‘सात समंद की मसि करौं’ में पढ़ ही चुके हैं। योगियों की गगनोपम अवस्था के वाचक के रूप में नहीं, निकृष्ट पति के अर्थ में भी नहीं, सीधे-सीधे,  सामान्य पति या स्वामी के अर्थ में ‘खसम’ शब्द का प्रयोग केवल कबीर ही नहीं, दादू भी करते हैं, अन्य निर्गुणपंथी कवि भी। देखें:

हम गोरू तुम गुआर गोसांई जनम जनम रखवारे।

कबहूं पार उतारि चराइहु कैसे खसम हमारे।।

( रागु आसा, पद 26, ‘संत कबीर’)

हम तो तुम्हारी गाय हैं, तुम हमारे ग्वाले-स्वामी—खसम।

खसमु पछानि तरस करि जीअ मति मारी मारि मणी करि फीकी।(वही, पद 17)

काजी को समझा रहे हैं कि अपने खसम— स्वामी— अल्लाह को पहचाने, उसके नाम पर रहम करे, जीवों को न मारे।

घर के खसम बधिक वै राजा। परजा क्या धौ करै बिचारा। (पद 32बीजक, पृ0 123)

घर के खसम—  स्वामी राजा जब  वधिकों जैसा व्यवहार करने लगें, तो प्रजा क्या करे।

बस, एक उदाहरण दादू से, देने को दर्जनों दिए जा सकते हैं :

दीदार दरूनें दीजिए सुनि खसम हमारे। ( राग माली गौड़ा)

खुद कबीर की कविता में कम से कम एक उदाहरण तो द्विवेदीजी को भी ऐसा मिला, “जिसका बहुत खींच तान कर भी ‘खसमावस्था’ अर्थ नहीं निकाला जा सकता-‘माई मैं दूनो कुल उजियारी। बारह खसम नैहर खायो, सोरह खायो ससुरारी’ इत्यादि”।[2]

कबीर की कविता को धर्मोपदेश की तरह पढ़ने की यह स्वाभाविक परिणति है कि पारिभाषिक शब्दों तक को संवेदनात्मक बनाने वाले कवि द्वारा प्रयुक्त लोक-प्रचलित शब्दों पर भी पारिभाषिकता जबरन थोप दी जाए। बेशक हर पाठक को छूट है कविता में अपना अनुभव, अपनी आकांक्षाएं पढ़ने की, लेकिन अंधाधुंध नहीं। आप अपना अर्थ कवि की शब्दयोजना में ही भरते हैं। वही मर्यादा है। सारे अनोखेपन के साथ कोई  व्याख्या वहीं तक प्रामाणिक कही जा  सकती है, जहाँ तक उसमें पाठ और पाठक का संवेगात्मक तनाव बना रहे। इसके आगे जाने के इच्छुक लोगों को, किसी कवि पर मनमाने अर्थ आरोपित करने की बजाय अपनी खुद की रचना करनी चाहिए।

कबीर को खसम का पारिभाषिक अर्थ में प्रयोग करना होता तो कर ही सकते थे। और एक यही शब्द क्यों, पूरी कविता को पारिभाषिक शब्दावली से भरी ज्ञानमाला बना सकते थे। कबीर के  समय में  गद्य भी लिखा जाता था, और पद्यबद्ध विमर्श, ज्ञान-विज्ञान भी। लेकिन कबीर की भक्ति और साधना का उनकी कविता के साथ संबंध मेन प्रोडक्ट और बाई-प्रोडक्ट का सा नहीं, जल और बूँद का सा है। ‘गिरा अरथ जल बीचि सम’ के इस संबंध के कारण कबीर के गीत छंदोबद्ध ज्ञानमाला नहीं रचते, वे सर्जनात्मक शब्दों के जरिए पाठक/श्रोता की भागीदारी का आकाश संभव करते हैं। बेशक कुछ अलग ढंग से। कोशिश उस अलगपन को सराहने की होनी चाहिए। यह कोशिश हो तभी सकती है जबकि हम शब्द-साधक की साधना के स्वभाव को उसके शब्दों के जरिए पहचानें। कौन सी शब्दयोजना कविता है, कौन सी नहीं, यह शब्द को सुनकर ही जाना सकता है। वैसे ही जैसे कि सिंह है या सिंह की खाल में मेंढ़ा, यह शब्द पर ध्यान देने से ही मालूम पड़ता है:

सिंहों केरी खोलरी मेंढ़ा पैठा जाए।

बानी से पहचानिए, सब्दहि देत लखाए।।(बीजक साखी, 281,पृ0 170)

 

 

2.कहै कबीर,सुनो भई साधो:   कविता की आवाज.

 

कवि शब्द से ही नहीं, आवाज से भी पहचाना जाता है। क्यों बार-बार कहते हैं, कबीर “सुनो भाई साधो”। किससे कहते हैं? क्या सुनाना चाहते हैं और कैसे?

कबीर  सुनने और सुनाने के कवि हैं। लगभग पचास फीसदी पदों में आता है—“कहै कबीर”। जो पांडे और मौलाना, राजा और सामंत  समझते रहे हैं कि उनका काम है, कहना और बाकी सबका सुनना और मानना, उन्हें चुनौती देती कासी के जुलाहे की, दस्तकार की आवाज कदम-कदम पर सीना ठोंक कर  कहती है—कहै कबीर…। ये दो साधारण शब्द असाधारण चुनौती देते हैं सत्तातंत्र को, ज्ञान पर एकाधिकार के दावों को।  जिन्हें संबोधित करते हैं उनमें से कुछ को तो  कबीर चुनौती या तिरस्कार के लहजे में ही संबोधित करते हैं—“पांडे कौन कुमति तोहि लागी” या “ जौरे खुदाइ तुरक मोहि करता, आपै किन कट जाई”। जिस श्रोता को वे अपनेपन के साथ, लगाव के साथ संबोधित करते हैं, जिसे सुनाना  चाहते हैं, वह “साधु” है, कबीर का “ भाई” है, जातभाई नहीं—“सुनो भई  साधो…”।

स्वयं को कासी का जुलाहा भी कहते हैं, और कम से कम एक जगह ‘कबीरा कोरी’ भी; लेकिन एक जगह भी नहीं  कहते कि सुनो भाई जुलाहों, या सुनो भई कोरी। कबीर अपनी बानी के जरिए, “अपने लोगों” के लिए  नया धर्म चलाने, चेले मूंड़ने नहीं निकले थे। उनकी खोज संवादधर्मी मनुष्यों की थी, जिनसे वे कुछ कह सकें, कुछ सुन सकें। उनके श्रोता समुदाय में शामिल होने की शर्त यह नहीं थी कि आपने जन्म  सही खानदान या जाति में  लिया हो, बल्कि यह थी कि आपका दिलो-दिमाग दुरुस्त हो। यह नहीं थी कि आप कबीर को धर्मगुरु मानकर उनकी ही मूर्ति की पूजा करने लगें बल्कि यह थी कि आप भी खोज में शामिल होने  को, उसके जोखिम उठाने को, कबीर की लुकाठी से अपना “घर” जलवाने को तैयार हों।

विचार और संवेदना दोनों में कबीर सामाजिक अन्याय का दो-टूक प्रतिरोध करते हैं, कवि-सुलभ इस बोध के साथ  कि कविता अंततः परकाया-प्रवेश की साधना है। कबीर का दुख केवल जुलाहे का दुख नहीं, किसी भी संवेदनशील मनुष्य का दुख है—“कबीर कहता जात हौं, सुणता है सब कोई”। सब कोई से छीन, किसी एक सामाजिक समूह तक सीमित कर देना उस दुख का भी अपमान है, और उससे उत्पन्न सामाजिक आलोचना का भी। ऐसे अपमानजनक ढंग से अपनी बानी “सुनने” वालों को ध्यान में रख कर ही कहा होगा कबीर ने—“ ऐसा कोई न मिले जासे कहूं निसंक”।

कबीर कहते हैं “सुनो”, क्योंकि शब्द सुना ही पहले जाता है, पढ़ना बात बाद की है। पढ़ना-लिखना सीखने के बहुत पहले, जन्म लेते ही हम “सुनना” शुरु कर देते हैं। सुनना हमें राम ने ही  दिया है, पढ़ना हम अर्जित करते हैं। “सुनो” कहते कबीर हमारे उसी मूलभूत, प्राथमिक आत्म को  संबोधित कर रहे हैं, जो हमारा सहज आत्म है, जन्म से ही हमारे साथ है, और वह केवल मेरा व्यक्तिबद्ध आत्म नहीं, उसके परे जाने वाला मानवीय आत्म भी है। लौकिक भी है और लोकोत्तर भी। कबीर न्यौता देते हैं  ‘आत्म-सत्ता’ के धरातल पर भी, और ‘अध्यात्म सत्ता’ के धरातल पर भी, “सुनो भई साधु”। शब्द चाहे लौकिक प्रेम  को अलौकिक भाव में बदलने वाला हो, चाहे समाज के बेतुकेपन को समझाने वाला और चाहे भीतर-बाहर की निरंतरता के रहस्य में डुबोने वाला, “पढ़ा” तभी जा सकता है, जब हम पहले उसे अपनी मूलभूत आत्मसत्ता में सुन सकें। इस तरह से सुनने से वंचित होने के कारण ही पांडे, मौलाना, अवधूत आदि कबीर के व्यंग्यों के पात्र बनते हैं। इन लोगों के शास्त्रों के विस्तृत विमर्श में, पांडित्यपूर्ण बहस में कबीर नहीं उलझते, इसका कारण यह नहीं कि जानकारी नहीं थी, बल्कि यह कि दिलचस्पी नहीं थी। सच्चे पांडित्य का संबंध कबीर की बात सुनने से नहीं, ‘पीव’ की, प्रेम की आवाज सुनने, पढ़ने से था, और है:

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।

एकै आखर पीव का पढ़ै, सु पंडित होय।

( कथणीं बिन करणीं कौ अंग,4, ग्रंथावली, पृ0 65)

क्या होता है शब्द को, स्वर को सुनने से, कैसे सुना जाता है निःशब्द को, शब्देतर को, यह जानना हो तो  संगीत की ही शरण में जाना पड़ेगा। ‘उड़ जाएगा हंस  अकेला, जग दरसन का मेला’ का जो “अर्थ” कुमार गंधर्व संभव करते हैं, उसे  सिर्फ  सुना जा सकता है। सिर्फ दो ही  शब्द—“अल्लाह हू” समूचे परिवेश में कैसी तड़प पैदा करते हैं, यह मुख्तियार अली को सुनकर ही मालूम पड़ता है। ‘सरवर तटि’ रहते हुए भी जो हंसिनी ‘तिसानी’ (प्यासी) है, उसकी विडंबना बखानते शब्द पढ़ तो आप ग्रंथावली में भी सकते हैं, लेकिन उन का अर्थ  मधुप मुद्गल के स्वर ही कह पाते हैं। ‘गुरु हमारा गगन में. चेला है चित मांही’ को जो अर्थ फरीद अयाज की आवाज देती है, या ‘सकल हंस में राम विराजे’ को प्रह्लाद सिंह टिपानिया की, उसे सिर्फ सुना ही जा सकता है। ‘या घट भीतर के बाग बगीचे’ विद्या राव के स्वरों में सचमुच उजियारे हो उठते हैं ।

विद्वान बताते हैं कि कबीर निरक्षर थे, ठीक ही बताते होंगे। यह भी शायद कभी विद्वान लोग बता पाएं कि कबीर ने संगीत की बाकायदा साक्षरता हासिल की थी, या नहीं, लेकिन यह सही है कि पंद्रहवीं सदी से लेकर आज तक वे गायकों के सर्वाधिक प्रिय कवियों में से एक हैं। कारण यही कि कबीर पढ़ने से बहुत पहले, सुनने और सुनाने के कवि हैं।

कबीर उपदेशक की तरह नहीं सुनाते। जो उन्होंने स्वयं सुना है, जिसने उनके मन को छुआ है, उसकी यादें भी सुनाते हैं। ‘मुंडियों’ के चक्कर में बेटे के पड़ जाने से दुखी, घुट-घुट कर रोती  माँ का दुख हम बेटे की वाणी में ही सुन पाए हैं : “मुसि मुसि रोवै कबीर की माई। ए लरिका क्यूं जीवैं खुदाइ”। और परेशान माँ को बेटे का आश्वासन भी: “कहै कबीर सुनहु री माइ। पूरनहारा त्रिभुवन राइ”। कबीर के वैष्णव बन जाने से उत्पन्न  माँ-बेटे का यह सतत तनाव सीधी बातचीत के रूप में ही नहीं, मार्मिक, नाटकीय बिंब के रूप में भी कबीर की कविता में आता है; बेटा नदी में बह गया है, किनारे खड़ी माँ पुकार रही है, अरे कोई बचाओ,मेरे बेटे को, लेकिन कबीर स्वयं बचना चाहें तब तो! वे तो स्वयं राम-घन के जल से उफन रही, स्वयं-प्रकाशित विवेक  की अमृत-धारा में आनंद से  बहे चले जा रहे हैं:

कबीरा संत नदी गयौ बहि रे।

ठाढ़ी माइ कराडैं टेरे है, कोई ल्यावै गहि रै।।

बादल बांनी राम घंन उनयां, बरिषै अंमृत धारा।

सखी नीर गंग भरि आई, पीवै प्रान हमारा।

जहां बहि लागे सनक-सनंदन, रुद्र ध्यान धरि बैठे।

सुयं प्रकाश आनंद बमेक में, घन कबीर ह्वै पैठे।

( गौड़ी, 149, ग्रंथावली, माताप्रसाद गुप्त. पृ0 230)

हम कबीर को  प्रतिपक्ष के साथ भी संवाद की रचना करते, उसके तर्कों की कल्पना कर उनका उत्तर देते भी सुनते हैं। राग गौड़ी के पद 39 और 40 में  लगता है कि पांडेजी कह रहे हैं कि भई मैं तो वेद-पुराण पढ़ता हूँ, अपने हिसाब से नैतिक जीवन जीता हूँ। सारे जगत में ब्रह्म की व्याप्ति देखता हूँ।  कबीर उन्हीं के तर्क से सवाल उठा देते हैं— फिर जन्म से ऊंच-नीच कैसे मान पाते हो, सभी घटों में राम तुम्हें क्यों नहीं दिखता। जीव-हत्या करते हो, फिर भी धर्मपालन का वहम पाले बैठे हो, और जो बेचारे आजीविका के लिए वध करने पर विवश हैं, उन्हें कसाई कहते हो। पांडेजी कहते हैं, मैं तो नामजप भी करता हूँ, कबीर कहते हैं, कोरे जप से होता हो, तो खांड का नाम लेने भर से मुँह मिठास से न भर जाए। कबीर का बल रहनि पर है, जो कहा जाए, उसे जीने पर है, व्यर्थ के वाद-विवाद करने वाले तो— बाद बदैं ते झूठा:

बेद पढ़्यां  का यहु फल पांडे, सब घटि देखै रामा।

जनम मरन थैं तो तूं छूटै, सुफल हूंहि सब कामा।।

जीव बधत अरु धरम कहत हौ, अधरम कहां है भाई।

आपन तो मुनिजन ह्वै बैठे का सनि कहौ कसाई।।

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पंडित बाद बदैं ते झूठा।

राम कह्या दुनियां गति पावै, खांड कह्यां मुख मीठा।।

(गौड़ी, 39, 40 ग्रंथावली, पृ0 169-70)

कबीर चूंकि बहुत बातें करते हैं, बार-बार कहते हैं, सुनो, सुनो, कहै कबीर; ऐन इसीलिए कबीर यह भी अच्छी तरह जानते हैं कि  असली बात तो अकथ ही है, प्रेम की कहानी अंततः अकथ ही है। यह अकथ कहानी गूंगे का सपना  है, किसी तरह कह भी दें तो इसकी महिमा पर पतियाने वाले नहीं मिलते। अकथपन  प्रेमानुभव का है। अलौकिकता भी उसी की है। प्रेमकहानी का अकथपन “अलौकिक” प्रेम बखानते  कबीर की कविता में “लौकिक” प्रेम-काव्य ‘ढोला मारू रा दूहा’ से जस का तस चला आया है:

अकथ कहाणी प्रेम की, किणसूँ कही न जाइ।

गूँगा का सपना भया, सुमर  सुमर पिछताइ।।[3]

कहे बिना रहा भी नहीं जाता, लेकिन कहा भी नहीं जाता। कहें भी कैसे, बोलना तो जीभ से ही है, लेकिन जिस शब्द से कहा जा सकता है, वह “जिभ्या पर आवै नहीं”, वह तो देह के परे है,  विदेह है: “सब्द सब्द सब कोइ  कहै, ओतो सब्द विदेह”। ऐसे विदेह शब्द की चोट जिसे लगी हो, उसे भी लगभग विदेह ही हो जाना पड़ेगा। बहुत कुछ कहने के बावजूद, उसे  तो जैसे ठौर ही रह जाना पडे़गा :

सारा बहुत पुकारिया, पीड़ पुकारै और।

लागी चोट सबद की, रह्या कबीरा ठौर।। ( सब्द  कौ अंग, 8, ग्रंथावली, पृ0107 ).

कवि होने का सबसे बड़ा प्रमाण, या कहें कवि की मजबूरी तो यही है कि शब्देतर की महिमा भी अंततः शब्द में ही बखानने की कोशिश जारी है। मौन को भी कह सकने वाले शब्दों की खोज कोई कवि भला कैसे छोड़ दे। स्वयंवर के  समय सीता की मनोदशा की बात करते हुए तुलसीदास ने जो कहा है, किसी भी सार्थक कवि की असली चुनौती वही है: “उर अनुभवति कह न सकि सोई। कवन विधि कहै कवि कोई”। सीता स्वयं न कह सकें, न कह सकने की स्थिति को ही स्वीकार कर ले, कवि को तो “कहना” ही होगा, न कह पाने को भी कहना होगा। ‘जो सत्य है वह  कहा नहीं  जा सकता, जो कहा जा सकता है, वह सत्य कैसे हो सकता है’ लाओ त्जे  की तरह यह  जानते हुए भी कहना होगा। जिन्होंने गाया नहीं, उन से तो ‘वह’ दूर है ही, कबीर जानते हैं कि गाने वालों को भी नहीं मिल पाता, लेकिन शब्द में विश्वास तो फिर भी बनाए ही रखना होगा:

कबीर गाया तिनि पाया नहीं, अणगायां थैं दूरि।

जिनि गाया बिसवास सूं, तिन रांम रह्या भरपूरि।।

( बेसास  कौ अंग, 21, ग्रंथावली,पृ0 100).

 

3.या पद को बूझै, ताको तीनों त्रिभुवन सूझैं:  उलटबाँसी का अर्थ

 

        कबीर की आवाज का अत्यंत रोचक और विचारोत्तेजक  स्वर सुनाई पड़ता है, उलटबाँसियों में। इन कविताओं  से जाहिर होता है कि कबीर जागने-रोने के कवि तो हैं ही ( दुखिया दास कबीर है, जागे और रोवे), देखने और हँसने के कवि भी हैं। यहाँ चीजें उलट-पुलट जाती  हैं। गधे चोलना पहन  कर नाचते हैं। मछलियां पेड़ों पर चढ़  जाती हैं। सिंह कहीं चूहों के ब्याह में पान लगाते हैं, तो कहीं गायों की रखवाली का दम भरते हैं। इस काव्यरूप को कबीर ने तांत्रिक परंपरा से पाया था। उस परंपरा में ‘संधाभाषा’ एक कोड-‘समयसंकेत- थी। पी.सी. बागची ने सातवीं से ग्यारहवीं सदी के बीच कभी रचित‘हेवज्रतत्र’से संधाभाषा की परिभाषा उद्धृत की है:“सन्धाभाषं महाभाषं समयसंकेतविस्तरम्”।[4] इस तंत्र के तेरहवें अध्याय में संधाभाषा के  समयसंकेतों-कोड्स- की पूरी सूची दी गयी है। ऐसी सूचियों का अनुसरण करते हुए ही कबीर की उलटबाँसियों को पढ़ने के प्रयत्न किए गये हैं। इस बात पर ध्यान नहीं दिया गया है कि  कबीर पारिभाषिक को संवेदनात्मक बनाते हैं, किसी सूची का अनुगमन कर, तकनीकी कोड में तकनीकी बातें करने की बजाय, उस कोड को कविता के कोड में बदल देते हैं। गायों की रखवाली करते सिंहों को ही नहीं, चोलना पहन कर नाचते गधों को भी दिखाते हैं। ‘हेवज्रतंत्र’ की  समयसंकेत-सूची में सिंह तो होंगे ही, गधे शायद न हों।

उलटबाँसियों की ‘रहस्यपरक’ व्याख्याएं करने का मोह छोड़, सहजयान, तंत्र की समयसंकेत सूचियों, डिक्शनरियों की सहायता से इनका अर्थ बूझने की बजाय, यदि इन्हें सहज रूप से, कविता की तरह पढ़ें, तो निश्चय ही आपकी पहली प्रतिक्रिया बेतुकेपन पर हँसने की होगी। यह बेतुकापन कबीर के अपने निजी अनुभव से जुड़ा हुआ तो है ही, क्या वह आपका अपना निजी अनुभव नहीं है? क्या आप अपने आस-पास सिंहों को गायों की रखवाली का दावा करते नहीं देख रहे? उलटबाँसी कविताओं को सर्जनात्मक शब्द की तरह पढ़ने वाले पाठक को इस जगत के बेतुकेपन की  सचाई तो निश्चय ही सूझने लगेगी, हो सकता है कि त्रिभुवन की तुक ( या बेतुक)  भी वह बूझ ही ले।

एक-एक शब्द को किसी गूढ़ साधना के प्रतीक की तरह पढ़ने के संस्कार से मुक्त होकर इन कविताओं को पढ़ेंगे तो आपकी भी पहली प्रतिक्रिया वैसी ही होगी, जैसी लिंडा हैस्स को उलटबाँसी समझा रहे दादा सीताराम की हुई थी—“मजा आ गया”, और आप भी शायद बच्चों की तरह हँस पड़ेंगे, जैसे ‘स्कॉलरली डिस्कसन’ की तलाश में पहुँची लिंडा हँस पड़ी थीं, आपको भी शायद याद आएगा कि ‘सोचने की बनी-बनाई आदतें तोड़ने की एक विधि बाल-सुलभ मनोदशा में पहुँचना भी है’।[5]

ऐसी मनोदशा में पहुँच कर आप हँस तो सकेंगे ही, बहुत कुछ ऐसा देख भी सकेंगे, जो ‘गंभीरता’ और पांडित्य के कारण कई बार आँखों से ओझल हो जाता है। बाघ और बकरी के ब्याह का  वर्णन आपको  हँसाता तो है ही, कुछ देखने का अवसर भी देता है। बकरी को जीवात्मा और बाघ को परमात्मा मानने का व्यायाम एक ही दो पंक्तियों के बाद हाँफने लगेगा, बेहतर है कि बाघ और बकरी के ब्याह की तैयारियाँ बस यों ही देखी जाएं। देखें कैसे काग कपड़े धो रहे है, बगुले ब्रश कर  रहे हैं, मक्खियां हेयरकट ले  रही हैं, बारात की तैयारियों का आलम है:

छेरी बाघहि ब्याह होत है, मंगल गावै गाई।

बन के रोझ धरि दाइज दीन्हों, गो लोकन्दे जाई।।

कागा कापड़ धोवन लागै, बकुला किरपे दाँता।

माखी मूड़ मुड़ावन लागी, हमहूं जाव बराता।।

उलटबाँसियों के प्रसंग में लोग पारिभाषिक शब्दावली  की शरण में  शायद इसलिए जाते  हैं कि ऐसा हर पद अर्थ को बूझने  की चुनौती के साथ समाप्त होता है:

कहै  कबीर सुनौ हो संतो, जो  यह पद अर्थावै।

सोई पंडित सोई ज्ञाता, सोई भक्त कहावै।। (पद 55 ‘बीजक’, पृ0 129).

चूँकि औपनिवेशिक आधुनिकता में रचे-बसे पंडितजन  कबीर को भी, उनके श्रोता-समाज को भी निरक्षर, भोले-भाले लोग मानते हैं, सो यह भूल जाते हैं कि भक्ति के लोकवृत्त में विचरण  करने वालों के लिए  संधा-भाषा वैसी ‘एग्जॉटिक’ वस्तु नहीं थी, जैसी इन पंडितों के लिए। ऐसी स्थिति में, कबीर  अपने पाठकों को  संधा-भाषा की समय-संकेत सूची याद करने का सुझाव दें—यह गैरजरूरी ही था। बाघ को परमात्मा और बकरी को आत्मा बताने वाला कबीर से पंडित, ज्ञाता या भक्त होने का प्रमाणपत्र निश्चय ही नहीं पाता। यह अर्थ कबीर के  लोकवृत्त में सभी बूझते थे। चुनौती जीवन के बेतुकेपन को, साथ ही ‘नर को ढाढस’ देने वाली ‘अकथ कथा’ को देखने की है। किताबी ज्ञान के तौर पर जानने की नहीं, ऐंद्रिक अनुभव के तौर पर “देखने” की। तभी बेतुकेपन को न केवल झेला-समझा जा सकता है, बल्कि उसके  साथ कुछ मस्ती भी की जा  सकती है, इसी आश्वासन के साथ आरंभ होता है, कबीर कृत बाघ-बकरी परिणय वर्णन: “ नर को ढाढस देखहु आई, कछु अकथ कथा है भाई”।

ढाढस दोनों स्तरों पर जरूरी है। मूलभूत, शाश्वत जिज्ञासा के स्तर पर भी, जहाँ ज़ेन कोआन भी हमें बताते हैं, और नासदीय सूक्त के ऋषि भी कि अनंत अस्तित्व का रहस्य इसका ‘ अध्यक्ष’ भी जानता है कि नहीं, कह नहीं सकते—“यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्तो अंग वेद यदि वा न वेद”। इसके बावजूद मनुष्य अपने स्वभाव से विवश है, जानने की कोशिश करने के लिए, जैसा, जितना कहा जा सके, कहने के लिए। सो, सबसे बड़ी उलटबाँसी तो मनुष्य का स्वभाव ही है। जानता है कि नहीं जाना जा सकता, फिर भी जिद है कि जानना है, चीजों के करीब से करीब जाना है।

फिर कबीर की अपनी, और उनके मेरे-आपके जैसे श्रोताओं/पाठकों की विशिष्ट ऐतिहासिक स्थिति से उत्पन्न होने वाली उलटबाँसियां। ‘पकड़ि बिलाई मुरगै खाई’ –मुर्गा बिल्ली को खा गया, यह तो “उलटबाँसी” है, और, ‘पूजिअ बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ज्ञान प्रवीना’—इसे क्या कहेंगे? यह दस्तकारों, व्यापारियों की उन्नति से चिढ़े चित्त से जन्मी  उलटबाँसी है। कबीर की उलटबाँसी में दिखती उलट-पुलट, सामाजिक व्यवहार की ऐसी उलटबाँसियों पर, आँखों के सामने सर के बल खड़ी  सचाई पर हँसने की विधि है। भाषा का व्यवहार तो सभी  प्रसंगों में होना ही है, इसलिए भाषा के तर्क को उलट देना और फिर चुनौती देना कि ‘इस पद का अर्थ बूझो’— पंडितों को याद दिलाना है कि वे अपने पांडित्य के बेतुकेपन पर भी ध्यान दें।

उलटबाँसी  कविता हमें याद दिलाती है कि कविता का अर्थ समग्रता में ही होता है। एक एक  शब्द के कोशगत, पारंपरिक, प्रतीकात्मक अर्थ को जान लेने भर से कविता का अर्थ नहीं बूझा जा सकता। कई बार कवि मस्ती के  मूड में  ही विसंगतियों का उपहास करना चाहता है। उसके हर पल पर “गंभीरता” लादने वाले न केवल कवि को उसकी मस्ती से वंचित करते है, स्वयं भी ऐब्सर्ड के उस अहसास से हाथ धो बठते हैं, जो उलटबाँसी को उलटबाँसी बनाता है। उलटबाँसी की सार्थकता  किसी रहस्य-साधना की कोडेड निर्देशावली होने में नहीं, उसकी तार्किक विसंगति में ही है। कवितापन उसकी ‘निरर्थकता’ में ही है।

उलटबाँसी कबीर के हाथों, अर्थ-व्यर्थ के सतत संवाद का खुला आकाश रचने वाली  लाजवाब काव्य-प्रविधि में बदल जाती है। इस खुलेपन में कवि तो अपने समय के बेतुकेपन पर हँसता/ रोता ही है, श्रोता/ पाठक भी सोच सकता है कि बेतुकापन कबीर के समय तक ही  सीमित था, या मेरे समय में भी है। चाहे तो उस बेतुकेपन में अपने खुद के योगदान को भी  पढ़  सकता है।

पढ़ें और सोचें कि क्या ऐन हमारे आस-पास सिंह गायों की रखवाली के दावे नहीं कर रहे? कौवे ताल नहीं दे रहे? भैंसे नृत्य नहीं कर रहे? गधे चोलना पहने नाच नहीं रहे? और, ऐसी स्थिति में भी चुहिया बेचारी ( ‘उदरी बपुरी’) क्या  मंगलगीत गाने को विवश नहीं है? क्या स्वयं को शेर-बबर समझने वाले लोग चूहों के लिए  खुशी-खुशी पान लगाते नजर नहीं आते? सबसे बड़ी बात यह कि हम यह सब सिर्फ  देख ही रहे हैं, या खुद भी इस “आनंद” में कहीं शामिल हैं:

धौल मंदलिया बैल रबाबी,कऊवा ताल बजावै।

पहरि चोलना गादह नाचै,भैंसा निरति करावै।।

स्यंघ बैठा पान कतरै, घूंस गिलौरा लावै।

उदरी बपुरी मंगल गावै, कछू एक आनंद गावै।।

( राग गौड़ी, 12, ग्रंथावली, माताप्रसाद गुप्त, पृ0 150).

 

 

4.‘अनल अकासा घर किया: कविता का घर

 

कबीर एक घर जलाते हैं:

हम घर जाल्या आपना लीया मुराड़ा हाथि।

अब घर जालौं तासु का, जो चले हमारे साथि।।

( गुर सिष हेरा कौ अंग, 13, ग्रंथावली, पृ0 112 )

तो एक घर बनाते भी हैं,  ऐसे शिखर पर, जिसकी राह पर चींटी तक के पांव फिसलते हैं:

जन कबीर का सिखरि घर, बाट  सलैली गैल।

पांव न टिकै पिपीलिका, लोगन लादे बैल।।

( सूषिम मारग  कौ अंग, 7, ग्रंथावली, पृ0 54)

कबीर की कविता में बारंबार, घर ही आता है, मकान नहीं। अपने होने की ऊष्मा से ही मनुष्य मकान को घर का रूप देता है, कबीर यह जानते हैं इसीलिए लगातार खोज करते हैं घर की और जानते हैं कि बहुत दूर है घर, और बहुत मुश्किल  है घर का रास्ता:

कबीर निज घर प्रेम का मारग अगम अगाध।

सीस उतारि पगतल धरै, तब निकट प्रेम का स्वाद।।

( सूरातन कौ अंग, ग्रंथावली, पृ0 116)

मुश्किल है, लेकिन संवेदना और चेतना के रास्ते का कोई विकल्प भी नहीं। शब्द के साधक को   चलना तो इसी पर है, अपने विवेक और  विचार के साथ  चलना है, वर्ना तो ऊजड़ों में ही भटकना बाकी रह जाता है:

राह बिचारी  क्या करै, पंथि न चलै विचार।

अपना मारग छोड़ कै फिरै उजार उजार।। (साखी 191 बीजक, पृ0 163).

घर का रूपक, कबीर को सचमुच बहुत प्रिय है, लेकिन कबीर जिस घर की तलाश में हैं, वह ऐसा घर नहीं है, जहाँ आप रिटायरमेंट के बाद चैन से, बाकी बचा जीवन बिता सकें। वह तो बेहद का मैदान है, वहाँ पहुँच कर विश्राम करने का मतलब सुरक्षित होना नहीं, सार्थक होना है:

हद छाड़ि बेहद गया, किया सुन्न असनान।

मुनि जन महल न पावई तहां किया विश्राम।।

( परचा कौ अंग, 11, ग्रंथावली, पृ0 25)

वह जीवन और जीवन के बाद से सतत संवाद और संघर्ष का घर है। ऐसे प्रेम का घर है, जिसमें डूबने वालों को न जाने क्या-क्या झेलना पड़ सकता है।

कबीर और दूसरे निर्गुण कवि घर को व्यक्तिगत खोज के  साथ, समूची सांस्कृतिक परंपरा में व्याप्त खोज का भी रूपक बना देते हैं। उनका प्रेम और घर अलौकिक इस अर्थ में है कि वह सारी मानवता और इन संतों की अपनी सामाजिक स्मृति में विन्यस्त खोज को  धारण करता है। राम  से उनके  नितांत निजी रिश्ते की फैंटेसी को भी धारण करता है, और अमरपुर के  यूटोपिया को भी।  ‘प्रिय’ को रिझा कर आँख की पुतली में मूँद लेने की निजी फैंटेसी के साथ, संत कवि  एक कल्पना-लोक भी रचता है, वैयक्तिक और सामाजिक यथार्थ के समानांतर एक यूटोपिया।

कबीर की बानी में यह  सपना आने वाले वक्त  की कल्पना से कहीं अधिक, पीछे छूट गए घर की स्मृति का रूप ले कर आता है। वह यूटोपिया कम, नॉस्टेल्जिया ज़्यादा है। नारी रूप में पीहर याद करते  कबीर की कविता, यूटोपिया को नॉस्टेल्जिया बनाती कबीर की कविता जो पीछे छूट गया, उसकी दर्द भरी यादों को तो स्वर देती ही है, उसे फिर से पा लेने के  आत्मविश्वास को भी रेखांकित करती है।  वर्तमान  में नजर भले न आए; वह स्मृति और कल्पना में मौजूद है। आने वाले कल की कल्पना  में बीत चुके कल की वेदना भी है। स्मृति और कल्पना के इस अनपेक्षित संबंध से कबीर की कविता को अद्भुत मार्मिकता मिलती है। उनकी कविता में बारंबार आने वाले घर और पीहर कल्पना और स्मृति के इस संबंध के रूपक हैं। कविता में नारी रूप धारते कबीर को सताने वाली पीहर की याद यूटोपिया और नॉस्टेल्जिया के वेदनापूर्ण  संयोग को हमारे सामने मूर्त कर देती है। स्वाभाविक है कि नारी-निंदा के लिए विख्यात कवि की सबसे मार्मिक कविताएं उसके  नारी रूप में ही संभव हुई हैं।

होना तो नहीं चाहिए था, लेकिन कवि को धर्मगुरु मानकर पढ़ने के सर्वव्यापी संस्कार के कारण यह भी स्वाभाविक हो गया है कि हिन्दी के आदिकवि कबीर द्वारा रचित, अपने घर-नगर के नॉस्टेल्जिया की, हिन्दी में  आदि-कविता ‘तजीले बनारस मति भई थोरी’ की याद कवियों-आलोचकों को हिन्दी कविता में घर की जबर्दस्त वापसी के दिनों में भी नहीं आई। क्यों आती भला, इसे तो कबीर के प्रशंसक याद करते हैं, तो संकोच के साथ ही। उन्हें यह पाखंड-विरोधी क्रांतिकारी के कमजोर क्षणों की, विचारधारात्मक विचलन की सूचना देने वाली बात ही लगती रही है, जीवन के अंतिम छोर पर अपने नगर की याद में तड़पते, कासी के जुलाहे कवि  का दर्द , नॉस्टेल्जिया भला इसमें क्यों पढ़ा जाए! धर्मगुरु या क्रांतिगुरु बना दिए गए कवि—कबीर— की बानी को ही प्राथमिक रूप से कवि-वाणी  की तरह क्यों पढ़ा जाए!

बहरहाल, हमें तो कबीर की कविता  अवसर देती है मानव-प्रजाति मात्र की स्मृति से जुड़ सकें। उस सुरति—स्मृति और कामना—का कुछ परिचय पा सकें, जिसमें तल्लीन मनुष्य के लिए संवदेना के सिंहद्वार खुल जाते हैं:

सुरति समानी निरति में, निरति रही निरधार।

सुरति निरति परचा भया, तब खुले स्यंभ द्वार।।

( परचा कौ अंग, 22,  ग्रंथावली, पृ0 27)

कबीर के “घर” में निश्चिंतता, एक बार खोज पूरी कर लेने के बाद, सारी जिन्दगी आराम की गुंजाइश नहीं है।  अपनी बेलाग स्पष्टता में  कबीर की कविता थर्रा देने वाली भयानक खबर की कविता है। खबर यह कि आलोचना अन्य की नहीं, अपनी भी  करनी है। खबर यह कि दुनिया जहान के  मनचीते बखान पाकर बाकी जिन्दगी के लिए निश्चिंत बैठ सकना कोरी मृगतृष्णा है। जिन विश्वासों को मैं सहेजना चाहता हूँ, वे भी प्रश्नविद्ध किए जाने चाहिएं। वे भी बार-बार विनष्ट होने के लिए नियतिबद्ध हैं। अपने हर विश्वास को सतत रूप से परखते रहने का कोई विकल्प नहीं। स्वयं को बारंबार कसौटी पर कसते रहने का कोई विकल्प नहीं। एकबारगी सारे किस्से खत्म कर, सारे सवाल हल कर चैन से इतिहास के अंत का आनंद ले सके, यह मनुष्य का भाग्य नहीं। उसे तो सतत जिज्ञासा और परख के व्योम में स्वयं को जलाते ही रहना पड़ेगा।

हमने ऊपर कवि की मजबूरी की बात की है। कवि की सबसे बड़ी मजबूरी का सबसे मार्मिक रूपक अनल पक्षी है। कबीर अपनी वाणी को  अनल पक्षी की वाणी सी मानते हैं, जिसके गाने से आग उपजती है।  इस आग में, सबसे पहले स्वयं अनल का घर जल जाता है, फिर भी वह गाता है, और गाने का मोल चुकाता है- वसुधा और व्योम के मध्य, जीवन और अस्तित्व के बीच ‘बिन ठाहर’ की सतत गतिशीलता  में ‘निवास’ करके। बिन ठाहर कबीर का ही प्रयोग है, अद्वितीय प्रयोग है। ठहरने की जगह नहीं, ऐसी जगह निवास । अपनी वाणी में विश्वास की जिद के सहारे:

अनल अकासा घर किया, मधि निरंतर वास।

वसुधा व्योम बिगता रहै, बिन ठाहर विश्वास।।

( मधि कौ अंग, 3, ग्रंथावली, पृ0 91).

 

5. हम तुझ रहे निदान: मृत्यु के सामने कविता.

 

बिना रूपासक्ति के कोई कवि नहीं होता, और बिना मृत्यु की आँखों में आँखें डाले कोई बड़ा कवि नहीं होता। कबीर जिस तरह प्रेम और विरह में डूबते हैं वैसे ही मृत्यु में भी। देह की नश्वरता की भी बात  करते हैं, और देह में सभी तीर्थो का निवास भी देखते हैं।  जानते हैं कि  प्रेम के रोमांच में, विरह की वेदना में देह बजती है रबाब की तरह। अनहद का नाद गूँजता है तो देह में ही गूँजता है। देह  के एकमेक हुए बिना नेह अधूरा ही है। राम से  मिलन की सार्थकता तन-मन के एक होने में ही है—“तन रति करि मन रति करिहौं”।

नश्वरता के बखान के लिए हो, या ‘आतम साधन’ के माध्यम के रूप में, देह कबीर की कविता में बहुत सघन रूप से उपस्थित है। देह उपस्थित है तो मृत्यु को तो होना ही है। देह की गहरी अनुभूति मृत्यु का भय भी उत्पन्न  करती है, उस पर विचार का अवसर भी।  देह और काल की सतत उपस्थिति के बिना कबीर की कविता की कल्पना नहीं की जा सकती। सभी कवियों का हो न हो,मृत्यु सभी  उपदेशकों का  प्रिय विषय अवश्य है, शायद इसीलिए मृत्यु की बात बार-बार करते  कबीर लोगों को उपदेशक से लगते हैं। लेकिन  फर्क “शैली और सामग्री” का है। कबीर की कविता में मृत्यु केवल अंत नहीं आरंभ भी है, केवल भय नहीं, आनंद भी है। चेतावनी तो वह है ही, लेकिन, कुछ अलग ढंग से।

कई कवियों ने ‘नख-शिख’ वर्णन किया है। कविता के एक ढंग में तो वह  स्थापित काव्य-रूढ़ि बल्कि कवित्व की पहचान ही है।  कबीर की कविता में ‘नख-शिख’ एकदम अनपेक्षित रूप में, निर्मम आत्म-साक्षात्कार के क्षण में प्रकट होता है। उस क्षण, कबीर  एक दृश्य देख रहे हैं, साथ ही  आपको भी  दिखा रहे हैं :

देखहु यह तन  जरता है।

घड़ी पहर विलंबौ रे भाई जरता है।।

काहैं कूं एता कीया पसारा। यहु तन जरि बरि ह्वै ह्वै छारा।।

नव तन द्वादस लागी आगी। मुगध न चेतै नख सिख जागी।।

काम क्रोध घट भरै बिकारा। आपहि आप जरै  संसारा।।

कहै कबीर हम मृतक समाना। राम नाम छूटै अभिमाना।।

( गौड़ी, 94, ग्रंथावली, पृ0 201)

इस तन को जलना तो है ही। मरघट में भी, उसके पहले भी। ‘घड़ी पहर’ मरघट के बाहर के समय की भी, सारे जीवन की भी व्यंजना करते हैं। अन्यत्र  ‘हम न मरिहैं मरै संसारा’ कहने वाले कबीर यहाँ ‘हम मृतक समाना’  कह रहे हैं। दोनों ही बातें ‘सत्य’ हैं, कविता का सत्य। कबीर जैसे लोग— जो इन दोनों  सत्यों के भोक्ता भी हैं, दृष्टा भी—उस हँसी को सुने बिना नहीं रह सकते, जो सारे अस्तित्व में गूँजती है—काल की हँसी। कच्ची काया, अस्थिर चित्त लिए हम स्थिरता का प्रयत्न करते हैं, निधड़क हो जाना चाहते हैं, और काल हँसता है:

कबीर काची काया मन अथिर, थिर थिर काम करंत।

ज्यूं ज्यूं नर निधड़क फिरै, त्यूं त्यूं काल  हसंत।। ( काल कौ अंग, 30, ग्रंथावली, पृ0 )

मनुष्य का  जीवन उसे एक समय देता है, लेकिन इस समय में जो अंतर्निहित परवशता और अनिश्चितता है, सिर्फ और सिर्फ मौत की निश्चितता है, उसी के बोध का परिणाम है—भारतीय भाषाओं में  मृत्यु और समय दोनों का वाचक शब्द—काल। काल मृत्यु के नामों में से एक नहीं, सर्वाधिक व्यंजक नाम है। समय में होना, जीवन में होना ही काल में, मृत्यु में होना भी है। जीवन का आरंभ ही समय का—काल का आरंभ भी है। कालचक्र से गुजरना काल की ओर बढ़ना है।

इस विचित्र दशा से मुक्ति भी  दे तो शायद काल ही दे, जीवन में तो मुक्ति  असंभव ही है:

क़ैदे हयात औ’ बंदे ग़म अस्ल में दोनों एक हैं

मौत से पहले आदमी ग़म से नजात पाए क्यों?

कौन जाने मौत भी नजात देती है या नहीं। देती ही हो तो भी मनुष्य को नजात जीवन में ही चाहिए। साधना की सफलता कहिए या  प्रेम की परिणति—कबीर उसे  राम का दर्शन कहते हैं, और वह उन्हें इस  जीवन में ही चाहिए—“ मूंवा पीछै देहुगे, सो दरसन किहि काम”।

दर्शन की यह  चाह मृत्यु को कबीर के लिए डर की बजाय आनंद में भी बदलती है:

कबीर जिस मरने थैं, जग डरै, सो मेरे आनंद।

कब मरिहूं कब देखिहूं, पूरन परमानंद।। ( सूरातन कौ अंग, 13)

डर हो या आनंद,  अपिरहार्य तो मृत्यु है ही, इस सत्य से मुँह चुराना व्यर्थ है; और सिलसिले टूटते रहते हैं, मौत का सिलसिला अमर है:

कबीर रोवणहारे भी मूये, मूये चलावनहार।

हा हा करते ते मूये, कासनि करौं पुकार।।

कबीर जिनि हम जाए, ते मूये हम भी चालणहार।

जे हमकौं आगे मिलैं, तिन भी बंध्या भार।। ( काल कौ अंग, 31-32).

गरज कि,

कमर बाँधे यां चलने को सब यार बैठे हैं।

बहुत आगे गए, बाकी जो हैं, तैयार बैठे हैं।

मृत्यु की अपरिहार्यता कबीर की, या किसी की भी ‘मौलिक सूझ’ नहीं है। यहाँ जो कविता  उत्पन्न हो रही है, वह ‘ध्वनित वस्तु’ के  कारण नहीं, ध्वनन की  ‘शैली और सामग्री’ के कारण ही हो रही है। ‘यह जग आंधरा जैसी अंधी गाइ। बछा था सो मर गया, ऊभी चाम चटाई’ इस कथन में भी ‘ध्वनित वस्तु’ तो जीवन की क्षणभंगुरता ही है, लेकिन दिल हिला देने वाला ‘भावोन्मेष’ कर रहा है, मरे बछड़े को चाटती अंधी गाय का बिंब।

इस बिंब की रचना में संलग्नता भी है, और निर्वैयक्तिक तटस्थता भी। इन परस्पर विरोधी मनोदशाओं को एक ही साथ साधने में अक्षम चित्त मृत्यु पर या तो रो सकता है, या उसकी अपरिहार्यता पर उपदेश दे सकता है। उसे कविता में नहीं ला सकता। मृत्यु की अपरिहार्यता के बारे में उपदेश या सांत्वना देने के लिए जो शब्द बरते जाते हैं, वे किसी अपने की मृत्यु के प्रसंग में खोखले हो जाते हैं।  नितांत निजी अनुभव हमें इस लायक छोड़ता नहीं  कि हम उसे अन्यों के अनुभवों के परिप्रेक्ष्य में रख सकें। या तो निर्वैयक्तिक तटस्थता निभती है, या फिर निजी चोट की वेदना। कवि और उपदेशक का फर्क इसी से मालूम पड़ता है कि मृत्यु के बारे में संलग्नता और तटस्थता का संतुलन कितनी खूबी से निभाया गया। यह संतुलन साधते हुए कोई बड़ा  कवि जब मृत्यु को विषय बनाता है तो ‘निराला’ की  ‘सरोज-स्मृति’ सी कविता  संभव होती है।

कबीर ने निराला की तरह किसी प्रियजन की मृत्यु पर कविता नहीं रची, लेकिन उनकी कविता में मृत्यु इतनी बार है, इतने रूपों में है … साधना का रूपक, नश्वरता का बयान होने से कहीं आगे, वह जीवन का प्रथम और अंतिन सत्य है; अवसन्न कर देने वाला, लेकिन अपरिहार्य सत्य। इससे मुँह चुराना सामान्य जीवन-विधि हो सकती है, लेकिन कवि-संवेदना उससे कब तक मुँह चुराए, और क्यों चुराए? यक्ष के प्रश्नों के उत्तर देते हुए युधिष्ठिर ने सबसे बड़ा आश्चर्य इसी को बताया था कि रोज दूसरों को मरते देख भी हम ऐसे जीते हैं जैसे अमर हों। यह परम आश्चर्य पलायन की सूचना देता है, या जिजीविषा की?

असली यक्ष-प्रश्न यही है, और इसका  कोई एक सही उत्तर हो नहीं सकता।

मृत्यु हमारे अनूभूत जीवन का अंत है, शायद नहीं भी है। लेकिन कविता के जीवन का तो वह निश्चय ही अंत नहीं है। कबीर की कविता मृत्यु से कतराने की बजाय उससे जुड़ी अनेक भावदशाओं को शब्दबद्ध करती है।  कबीर की रूपासक्ति, प्रेमासक्ति और जीवनासक्ति ही उन्हें मृत्यु के साथ संवाद का साहस देती है। उसके पार की कल्पना का साहस, अमर- देश की खोज की प्रेरणा देती है।‘सजीवनि कौ अंग’ की पहली ही साखी है:

जहां जुहा् मरन व्यापै नही, मूवा न सुणियै  कोई।

चलि कबीर तिहि देसड़ै, जहां बैद विधाता होई।। ( ग्रंथावली, पृ0 125)

कितना बड़ा आश्वासन है; ऐसे देश का होना, भले ही केवल कल्पना में जहां किसी के मरने की बात तक सुनने में नहीं आती। इस आश्वासन और मृत्यु की अटलता के बीच ही फैला है वह बेहद का मैदान जिसका नाम जीवन है। अमरता की चाह और मरने की सचाई के बीच की रस्साकशी से ही सार्थक जीवन की तलाश का, ‘हमहुं सुमिरे दुई बोल’ की कामना का जन्म होता है। जीवन की सार्थकता जो पा लेते हैं, वे सचमुच बार-बार नहीं मरते। बार-बार नहीं जन्मते। लेकिन तभी जब मरने का  कारण ज्ञात हो, अवसर ज्ञात हो, विधि ज्ञात हो। कितनी सहज और सरल शर्त है! इस शर्त को जो समझ गया, वही है जीवन्मृतक, राम-कसौटी पर खरा। उसे राम की भी परवाह करने की जरूरत नहीं रह जाती। राम स्वयं उसके पीछे-पीछे लगा फिरता है:

मरता मरता जग मुवा, औसर मुवा न कोई।

कबीर ऐसैं मरि मुवा, ज्यूं बहुरि न मरनां होई।।

कबीर जीवन थै मरिबो भलौ, जौ मरि जाने कोइ।

मरनैं पहले जे को मरे, तो कलि अंजरावर होइ।।

कबीर खरी कसौटी राम की, खोटा टिकै न कोइ।

राम कसौटी सो टिकै, जो जीवत ही मृतक होइ।।

कबीर मन मृतक भया दुरबल भया सरीर।

तब पाछै लगा हरि फिरै कहत कबीर कबीर।।

( जीवत मृतक कौ अंग, 5,8,9,2, ग्रंथावली, पृ0  107-109)

कबीर जानते हैं—‘साधो ई मुरदन का गाँव’। राजा-प्रजा, पीर-फकीर, वैद्य-रोगी, जोगी-साधक सब के सब मुर्दे हैं। अठासी हजार मुनि हों, या तैंतीस करोड़ देवता- काल की फाँसी सबके गले में लगी हुई है। बहुत पहले, ठीक यही बात कही थी—महाभारत युद्ध के विजेता युधिष्ठिर ने—‘हस्तिनापुर मुर्दों का गाँव बन चुका है। न हम जीते हैं, न धर्म जीता है, जीता है केवल काल’।

मृत्यु का जवाब है कविता। भक्ति अर्थात्  भागीदारी—‘हम न मरिहैं, मरै यह संसारा। हमको मिला जियावनहारा’।  मृत्यु का अनुभव भोग कर याद करना अंसभव है, उसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है, याने मृत्यु ठेठ कविता है। वह सेल्फ के बाहर है, इसलिए सदा ही रहस्य है, उसकी सैद्धांतिकी संभव है, खबर नहीं। कौन जाने क्या हो रहा है वहाँ, कौन जाने क्या होगा जीवन के पार।  हाँ, मनुष्य का  जीवन जैसा है, उस का चुनाव हमने किया है, विष के इस वन का चुनाव  हमने ही किया है…जहाँ से कोई निकास नहीं, बस डर है:

कबीर विष के वन में घर किया श्रप रहे लपिटाई

ताथैं जियरै डर गह्या जागत रैनि बिहाई। (काल कौ अंग, 28, ग्रंथावली,  पृ0 124)

इस आत्महंता चुनाव से बाहर निकलने का चुनाव भी किया जा सकता है, किसी मुख को अपना राम और खुद को उसका कबीर बना कर, जगजीवन में पुष्पगंध की तरह व्याप्त राम के ‘जेति औरति मरदां कहिए’ रूपों के साथ संबंध बना कर। कबीर ही नहीं, और कवि भी जानते  हैं—‘अच्छर तो दो ही हैं इश्क के, लेकिन है विस्तार बहुत’।

 

 

कबीर की कविता से संवाद का एक दौर  पूरा हुआ, इस किताब के साथ, और इस पल में  बस मैं हूँ और वह है—कबीर की कविता:

सती पुकारे सलि चढ़ि, सुन रे मीत मसान।

लोग बटाऊ चलि गये, हम तुझ रहे निदान।।

श्मशान मुर्दों का गन्तव्य भी है, और अल्पजीवी वैराग्य का रूपक भी। इस वैराग्य-रूपक में  गूँजती है कविता के जीवन-राग की, आश्वासन की, संशयहीन आत्मविश्वास की आवाज; जलती चिताओं की गंध के बीच हवा को  साँस लेने लायक बनाती हुई,  व्याप्ती है कबीर-वाणी की कस्तूरी-गंध :

पिंजरि प्रेम प्रकास्या, जाग्या जोग अनंत।

संसा छूटा सुख भया, मिल्या प्यारा कंत।।

पिंजरि प्रेम प्रकास्या, अंतरि भया उजास।

मुख कस्तूरी महमही, वाणी फूटी बास।। ( परचा कौ अंग, 13, 14).

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 



[1] हजारीप्रसाद द्विवेदी, कबीर’, पृ0 225.

[2] वही, पृ0 71.

[3] ‘ढोला मारू रा दूहा’ सं0 नरोत्तमदास स्वामी, सूर्यकरण पारीक, रामसिंह, राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर, 205, पृ0 109.

[4] पी,सी, बागची, स्टडिज इन तंत्राज’, (खंड एक), यूनिवर्सिटी ऑफ कैलकटा, 1939, पृ0 27.

[5] लिंडा हैस्स, ‘दि बीजक ऑफ कबीर’, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, 1986, पृ0143.

“The Naths in Hindi Literature”

My essay “The Naths in Hindi Literature” has appeared in the volume “Yogi Hero and Poets: Histories and Legends of the Naths” edited by David Lorenzen and Adrian Munoz, published by State University of New York Press.

This essay is based on the key-note address I gave to the conference on ” The Nath-Yogis” by the El  Collegio de Mexico, Mexico city in 2007.

The Volume also contains essays by David Lorenzen, Daniel Gold, Daniel Gordon White, Ishita Bannerjee-Dube and others.

For more information click here- http://www.sunypress.edu/p-5272-yogi-heroes-and-poets.aspx

‘The Erotic to the Divine’- my essay in volume on Bhakti and Sufism.

My essay- “The Erotic to the  Divine: Kabir’s notion of Love and Femininity”  has been published as part of the volume entitled, “Poetics and Politics of Sufism and Bhakti in South Asia” edited by Kavita Punjabi, published by Orient BlackSwan, New Delhi.

This essay explores the dynamics of Kabir’s notion of love and underlines the connections between Kabir’s spiritual restlessness ( ‘Ramabhawna’ ), his outrage towards injustice( ‘Samajbhawana’) and the agitation of love(‘Kamabhawna’). It explores the creative tension between the poet’s sanskaras leading to condemnation of woman as such  and simultaneously adopting the persona of a female in his most poignant poetic moments. I relate this creative tension of Kabir to the more general question of the power of creative feminine observed in other creative male individuals – poets and mystics.

This essay is based on a lecture I delivered at the Kabir Utsav organised by Sahitya Akademi in Banaras in 2004, and its Hindi version forms chapter 9- “kam milave Ram kun…’: Shashwat Streetwa aur Kabir ki Prem-Dharna”  of my book- Akath Kahani Prem ki

Here is a small excerpt from the essay:

“We should first pay attention to the fact that Kabir is not the only male  who, despite giving spiritual instruction (updesh) filled with condemnation for woman, is compelled to take on the voice and form of a woman at the time of spiritual practice (sadhana) and poetry. On the level of aesthetic sensibility, the creative power of the the feminine has been accepted by poets and spiritual practitioners (sadhaks) across the world. Amongst the males who practice the sadhana of loving the parmatma (The supreme spirit and Godhead), some take the form of a woman themselves; others imagine parmata itself in the form of a woman. The acceptance of the power of the creative feminine can be observed in both cases.

[…]

Rather than tearing apart Kabir’s poetic sensibility into agreeable little pieces, if it is instead grasped in its totality, it is not difficult to see that love itself is Kabir’s departure point, love itself is his ideal. Kabir sees and values the world through his love-cognition: love is the fundamental cognitive act for him.
Whether it is his reflections on supreme reality or his social criticism, it is the subterranean Saraswati that waters the Ganga and Yamuna of Kabir’s experience and his fearless ideal is love.

The volume has articles dealing with the themes of love, loss and liberation and covers literature as well as performing arts and cinema.

The other contributors to this important volume are Ishpita Chandra, T.S. Satyanath, Raziuddin Aquil, Swapan Majumdar, Kavita Punjabi, Amlan Das Gupta, Vidya Rao, Pallavi Chakrovorty, Abhishek Basu, Moshumi Bhowmik  and Kumkum Sangari.

The Wisconsin Conference

कल याने रविवार, 23 अक्तूबर को मेक्सिको के लिए रवाना होना है, आज शाम टॉमस ट्रॉटमान के सम्मान में रिसेप्शन आयोजित किया गया था। उसके बाद हम कुछ दोस्तों को डिनर के लिए जाना था, लेकिन इंद्राणी ने रिसेप्शन के दौरान  जो कहा, उसके बाद बस एकांत में ही जाया जा सकाता था, स्मृति और लेखन के एकांत में…

इंद्राणी  कल पेनल सुनने भी आईं थीं, मैं तो पहचान नहीं पाया, उन्हीं ने बताया कि वे सन सत्तासी-अट्ठासी से लेकर बानवे तक के उन गहमा गहमी भरे दिनों में साथ थीं…वे दिन सांप्रदायिकता विरोधी आंदोलन के दिन….आज लगता है कि संस्कृति और परंपरा और राजनीति के अंतस्संबंधों को समझने की कोशिशों के दिन…

” I Was typical convent educated person…in my social set-up, it was not necessary, rather it was unthinkable that I should know anybody like Kabir, Mira or Nanak…I was upset that my liberal, open space was being taken over and wanted to intervene and felt helpless….had no language to comminaicte….I went to Sampradayikat Virodhi Andolan because of Dilip and He brought you in…

You, Purushottam ji were never my teacher in a formal sense but you taught me and many like me so much…in fact, it was you who made us realise the power of Bhakti poetics…you coined that most evocative slogan- ” कण-कण में व्यापे हैं राम..” you made us interact with the critical sensibilty implict in the Bhakti poetics…you made us realise way back in niniteis the existence of early modernity in pre-colonial India….It is so nice to see that great insight into the Indian cultural experience finally articulated in an academic way in your book..

What you taught me through the activites of Sampradayikta Virodhi Andolan-SVA- I have tried to inculcate in my teching, to convey it to my students…your work is being carried froward by many a young scholars…and I feel so grateful, Purushottam ji, I had to say this to you.”

 

इंद्राणी चटर्जी आजकल रटगर्ज यूनिवर्सिटी में इतिहास पढ़ाती हैं। यह लिखने के पहले मैं काफी उहा-पोह से गुजरा हूं, अपनी तारीफ सुनना तो खैर अच्छा लगता है, लेकिन इस तरह की कृतज्ञता को कोरी तारीफ कहना अच्छा नहीं लगता। संकोच यह भी था कि इसे सबके सामने रखना क्या ठीक होगा?

जो बात मैंने ेइंद्राणी से कही, उसमें शायद इस संकोच का समाधान भी था-” इंद्राणी मैं, यह बात हिन्दी में ही कह सकता हूं, अंग्रेजी मेरी खोज-बीन और उसे व्यक्त करने की जबान तो है, लेकिन दिल की जबान तो हिन्दी ही है सो हिन्दी में—छप्पन साल  का हो चुका हूँ ज्यादा से ज्यादा बीस और…आपकी बात सुन कर लगा कि जिन्दगी बेकार तो नहीं गयी. कुछ अच्छा काम हो गया है इस जीवन के जरिए….”

कुछ मित्रों को यह आत्म-विज्ञापन लग सकता है, लगता रहे, मेरी बला से… मुझे बस इतना कहना है- उन तीन-चार सालों ने सचमुच अपने समाज को, परंपरा को उसकी ताकत और कमजोरी को, उसके संकटों को समझने में बहुत गहरी मदद की। वे दिन सदा के लिए साथ हैं….जो नारा गढ़ा था, जिसे इंद्राणी याद कर रही थीं- कण कण में व्यापे हैं राम, मत भड़काओ दंगा लेकर उनका नाम’  इस नारे को लेकर हुईं बहसों को याद करते हुए जो परचा लिखा था, ऑक्सफोर्ड लिटरेरी रिव्यू में 1993 में जो छपा था- ‘स्लोगन एज ए मेटाफर ऑफ कल्चरल इंटेरोगेशन’ आज एक बार फिर से याद आया इंद्राणी की बात सुन कर कि वे दिन बहुत कुछ सिखा कर गये हैं, उस सीखने के दौरान इंद्राणी जैसे दोस्तों के जीवन और मन में कुछ महत्वपूर्ण घटने के कारक ग्रह अपन बने…क्यों न इस पर संतोष महसूस करें कि जिंदगी यूं ही नहीं चली गयी, अंत समय अभी ही वहाँ दरवाजे पर खड़ा अपन को शरारत से देख रहा हो, तो भी जब वह ऐन सर पर आ खड़ा होगा, शायद अगले चंद मिनटों में, शायद अगले चंद बरसों में….ऐसा नहीं लगेगा कि बस आए, खाया-पीया औऱ चलते बने…

इस संतोष का एक पल भी कितनी राहत  देता है…शुक्रिया दिलीप…सांप्रदायिकता विरोधी आंदोलन की परिकल्पना के लिए…शुक्रिया मुझे उससे जोड़ने के लिए…

कृतज्ञता की ऐसी निश्छल अभिव्यक्ति और उसका लक्ष्य होने के गौरव को क्यों छुपाऊं?

इतना प्यार जिन्दगी में इतने लोगों से मिला है, क्यो न उस प्यार का, और दोस्तो का गुण गाऊं…

दोनों घुटनों में दर्द के कारण चलनें तक में लाचारी और रज़ा अली हसन को सही नी-कैप लाने के लिए तीन बार बाजार जाना…फिर अपने पुर-लुत्फ अंदाज में यह कहना कि ‘ जाता कैसे नहीं, आपने मेरी शायरी की तारीफ जो की”…रज़ा पाकिस्तान के हैं, यहाँ अंग्रेजी साहित्य पर काम करते हैं, औऱ अंग्रेजी में ही कविता लिखते है, बहुत दिलचस्प कवितायें लिखते हैं, जल्दी ही आपके सामने पेश करूंगा उनकी कवितायें…उनके  दोस्त अजफर मोइन का काम मुगल इतिहास पर है, ‘अकथ..’ पर बातचीत सुनने मोइन तो आए थे, रज़ा साहेब कहीँ और मसरूफ बताए जाते थे। सुनने वालों में लुटजेंडार्फ तो थे ही, हाइडी पावेल्स भी थीं, और आंद्रे विंक भी। कई नौजवान अध्येता भी थे। पशौरा सिंह का पाठालोचन ( सिख परंपरा के संदर्भ में) मशहूर है, उनकी टिप्पणियां बहुत काम की थीं। डेविड औऱ जैक से तो इस पैनल के बहुत पहले से  ‘अकथ..’ के बारे में और उसके अलावा भी बरसों से बात होती ही रही है। शैल्डॉन पोलक और एलीसन बुश से भी भेंट हो गयी।

 

बढ़िया गुजरे ये दो दिन यहाँ विस्कांसिन में…

.टॉम ट्राटमान के बारे में सुना बहुत था, प्रभावित था उनके लाजबाव काम से, मुलाकात पहली बार हुई और दोस्ती की शुरुआत हो गयी…

 

स्टुअर्ट गोर्डन से भेंट हुई, दोस्ती में बदली। उनकी किताब की कापी नहीं मिल पाई, हालांकि अरबी अनुवाद उन्होंने दिखाया…किताब का नाम है ” व्हेन एशिया वाज वर्ल्ड”….याने आंद्रे गुंदर फ्रैक औऱ जैक गुडी की ही तरह उन्होंने दिखाया है कि यूरोप दुनिया का केंद्र हमेशा से ही नहीं चला आया है, बमुश्किल चंद सदी पहले हकीकत कुछ  और थी, और आज की हकीकत को समझने के लिए जरूरी है उन सदियों में बनी-बिगड़ी और बदली हकीकत का बोध हासिल करना।

स्टुअर्ट सातवें दशक के कैंपस-विद्रोह मे सक्रिय थे, वियतनाम युद्ध के विरोध में निकाली गयी झाँकी का हिस्सा होने  के कारण पिटे भी थे, लेकिन राजनैतिक हिंसा के सवाल पर उनकी राय उन दिनों के कॉमन सेसं के विरुद्ध थी, औऱ वे आज तक आहिंसा से प्रतिबद्ध हैं…उनके अपने शब्दों में…”I was trained in Gandhian  non-violence by the quakers…and we must realise that Gandhi has already transcneded the tradition he personally belonged to, he is the real universal hero, source of inspiration for any one who comes to the basic realisation that political violence ultimtely strengthens the most organised form of political violence-namely the state.”

 

 

आज शाम जैक हॉली के साथ चाय पी, जैक को भावुक होते आज पहली बार देखा….क्या है ऐसा पुरुषोत्तम….इतना स्नेह…Do you really deserve it….?

पता नहीं, शायद कुछ वस्तुनिष्ठ और एकेडमिक ढंग से लिखना चाहिए इन दो दिनों के बारे में, मसलन यह कि अपने देश के प्रगतिशील लोग अंग्रेजी आधुनिकता के प्रति अभी तक कितने भी “कृतज्ञ”  क्यो न हों, दुनिया भर के इतिहास पर काम करने वालों की समझ कुछ और बनती जा रही है। ‘अकथ कहानी…’ के ऐतिहासिक तर्क के प्रति जो उत्साह पैनल में, और पैनल के बाहर दिखा, दूसरे पैनलों में इसका जो उल्लेख हुआ, उसका कारण शायद यही है कि यह किताब प्रचलित आधुनिकता ही नहीं उत्तर-आधुनिकता के भी यूरोकेंद्रित स्वभाव और चरित्र से टकराती है। साथ ही यह किताब यूरो-केंद्रिकता का प्रतिवाद करने के उत्साह में यूरोप मात्र को रद्द करने, ओरियंटलिज्म के बरक्स ऑक्सि़डेंटलिज्म की रचना करने के प्रलोभन के विरुद्ध स्पष्ट चेतावनी भी देती है।

खैर, जो सराहना हुई, जो आलोचना हुई ( जैक, डेविड और पशौरा सिंह तीनों ने ही कई गंभीर सवाल उठाए हैं, अन्य दोस्तों ने भी), उन सबसे बात को और अधिक तर्क-संगत बनाने में सहायता मिलेगी, आखिरकार अध्ययन और जिज्ञासा की मूल प्रतिज्ञा तो यही है,यही होनी चाहिए—” तेजस्वि नावधीतमस्तु, मा विद्विषावहै’ ( हमे नहीं, हमारे पढ़े हुए को , सोचे हुए , हमारे अध्ययन को  तेजस्विता प्राप्त हो, हम विवाद कितने भी कर लें उन्हें विद्वेषों में न बदलने दें)…

कोशिश करूं कि विस्कांसिन के इन दो दिनों की स्मृति इस प्रतिज्ञा की स्मृति में घुल-मिल जाए, सदा ही घुली-मिली रहे…

कल की रात मेक्सिको—-एकांत की भूल-भुलैया- मेक्सिको में, “अपने” कासा में बीतेगी…

पेनल डिसकसन में बोलते हुए, पास में दिख रहे हैं टाम ट्राटमान। फोटो लिये हैं अजफर मोइन ने…बोलते हुए डेविड, साथ में टॉम ट्रॉटमान, मैं, पशौरा सिंह, जैक हॉली…

 

Contextualizing Kabir: Full Speech

Speaking on Kabir

A video extract of a lecture I delivered recently, in Mumbai:

Thanks to Satyen Bordoloi for uploading this.

Second Edition of Akath Kahani Prem Ki…

I am happy to announce that the second edition of my book Akath Kahani Prem Ki: Kabir Ki Kavita Aur Unka Samay is forthcoming from Rajkamal Prakashan:

Akath Kahani Prem Ki ... second edition cover

Second Edition Cover

It will be launched on September 9 at 5pm at Triveni Kala Sangam, Mandi House . Harbans Mukhia will be the keynote speaker. Ashok Vajpeyi, Javed Anand, Om Thanvi and Ved Prakash will speak on various aspects of the book. Namwar Singh will preside. All are welcome to attend.

Some of the important themes that are likely to be discussed are Kabir’s contribution as a poet, the Kabir-Ramanand connection, bhakti as spirituality without religion, evolution of early Indian modernity and the setback suffered by the same due to the colonial intervention.

The first edition of the book was launched in October, 2009 and has been exceedingly well received. Akath Kahani Prem Ki… was awarded the first Rajkamal Kruti Samman

>> Download an extract (hindi)
>> Read an extract in english translation (published in Communalism Combat – January 2010)