रहनुमा जैसा मैं रचता…

रहनुमा जैसा मैं रचता…

उपन्यास लिख रहा हूँ, पता नहीं रहनुमा रचूँगा या नहीं, रचना चाहूँगा भी या नहीं। लेकिन इतना तय है कि ‘रहनुमा जैसा मैं रचता’  इस वाक्य में अधूरापन है, इसे पूरा करता है यह वाक्य कि रहनुमा जैसे मैं रचता।

यह जरूर है कि उपन्यास लिखे जाने में, यहाँ बात करने में अनुभव और उनकी स्मृतियाँ बहुत बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। इन स्मृतियों ने ‘अकथ कहानी प्रेम की…’ के सवालों से जूझने बल्कि सवालों को पूछने में भी भूमिका निभाई है। यादें और वे तेजरफ्तार बदलाव जो रोज मेरी यादों में जगह बना रहे हैं, मुझे अब उपन्यास  लिखने को कह रहे हैं। अखिलेश ने, एक बार मुझसे बात करते हुए,  ‘अकथ’ को अपने आपको खोजती किताब कहा था। उपन्यास उस खोज का अगला चरण है, और दरपेश सवाल उपन्यास के बारे में, खुद अपने बारे में सोच-विचार का बहाना है। सवाल वही कि मैं रचता तो कैसा रचता रहनुमा, कैसे रचता रहनुमा।

तुलसीदासजी ने मानस की शुरुआत खलवंदना से की है, अपन खलवंदना करें न करें, काल-वर्णना तो करनी ही होगी। काल याने बीतता समय, बल्कि भर्तृहरि की मार्मिक चेतावनी याद करें तो वह समय जिसमें हम बीत रहे हैं—कालो न यातो वयमेव याता:।

यह ऐसा काल है जिसमें साझे सपनों का अकाल  है। ऐसा वक्त है जब पहचानें आगे आ गयी हैं सपने पीछे छूट गये हैं, जो सपने हैं भी वे एक दूसरे से टूट गये हैं। अलग अलग पहचानें अलग अलग सपने। औरत का सपना अलग, दलित का अलग, अश्वेत का सपना अलग, मजदूर का अलग। जितनी पहचानें उतने सपने। जितने सपने उतने संघर्ष और आपस में वास्ता कोई नहीं या बस कहने भर को। एक तरफ है खगोलीकरण की वास्तविकता और दूसरी तरफ मुक्ति की, बेहतर दुनिया की लालसा, लेकिन इन दोनों के बीच संबंध बना पाने की कल्पना कमजोर पड़ती जा रही है।

यथार्थ को भी उसकी पूरी जटिलता में हम कितना देख पा रहे हैं, पता नहीं, लेकिन यह तो बहुत गहरे में लगता है कि  सपने जो देखा करती थीं, वे आँखें ही शायद हमने खो दी हैं, और सुधी जन आँखों को इस तरह खो देने का उत्सव मना रहे हैं। रोमन सिटीजनों के निर्देश पर उनके लिखी स्क्रिप्ट पर ग्लेडियेटर एक दूसरे के प्राण ले लेने तक लड़ रहे हैं, यह भूल कर कि लड़ाई असल में उस स्क्रिप्ट के खिलाफ होनी चाहिए जिस पर उनसे एक्ट कराया जा रहा है। और थ्योरी बताने वाले थ्योरी बता रहे हैं कि उचित यही है कि हर कोई अपनी पहचान की लड़ाई आप लड़े, स्थानीय संघर्ष करे—क्योंकि महावृत्तांत- ग्रांड नैरेटिव- तो सारी मुसीबत की जड़ ठहरा। सो, ग्लेडियटरों के बहते खून को देख कर चिल्ला रहे  खूंख्वार रोमनों  की मदोन्मत्त शाबाशियों में सुधी जन स्वर मिला रहे हैं, उत्सव मना रहे हैं,  किलक किलक कर घोषणा कर रहे हैं कि देखो जी देखो वो हुआ महावृत्तांत का अंत।

अब जिसे लड़ना है, अपनी पहचान की लड़ाई आप लड़े, किसी को हक नहीं कि किसी और की ओर से बोलने की जुर्रत कर सके। बड़े संघर्ष वहम हैं, व्यक्ति और नागरिक जैसी बातें तो बस बातें हैं, बातों का क्या, इन बातों में पड़ने की बजाय महावृतांत के अंत की खरीददारी में ही  समझदारी है। और समझदार को चाहिए कि बृहद कल्पनाओं के चक्कर से निकल कर अपनी जगह पर रहे, और वहीं करे जो भी करना है। याने अन्याय का अंत हो न हो इतिहास का अंत तो हो ही गया,  व्यवस्था बदले न बदले,  बदलाव की बात का मतलब तो ही बदल ही गया। यह कोई छोटा बदलाव है जी?

इस अंतोत्सवकारी किलक को सुना जा रहा है, इस किलक में लोग अपने अनुभवों की गूँज सुन पा रहे हैं ऐसी स्थिति बनने में  इस सचाई का योगदान नहीं नकारा जा सकता कि ईसापूर्व रोमन इतिहास के ग्लेडियटर स्पार्टाकस को रहनुमा के रूप में रचने बीसवीं सदी के हावर्ड फास्ट को अहसास हुआ कि  जिस सपने पर भरोसा कर उन्होंने अपना स्पार्टाकस रचा था, वह सपना सपना नहीं दु:स्वप्न साबित हुआ। जिस  देवता पर भरोसा किया था, उसने छल किया- दि गॉड दैट फेल्ड…

इस छल से उत्पन्न पीड़ा ने ही  अंतपुराण को प्रामाणिकता दी है। लेकिन न भूलें कि इस  अंतपुराण ने जहाँ व्यवस्थित रूप से वाणी पाई, जहाँ ग्रांड नैरेटिव के अंत का उत्साह अपनी तार्किक परिणति याने इतिहास के अंत की घोषणा में बदला, उस बयान में सारी चमक के बावजूद यह कसक भी थी कि तरह तरह के अंतों के बाद, इतिहास के अंत के बाद, आदमी और कुत्ते में ज्यादा फर्क नहीं रह जाने वाला है। न भूलें फ्रांसिस फुकुयामा की मशहूर किताब का पूरा नाम– दि एंड ऑफ हिस्ट्री एंड दि लास्ट मैन- इतिहास  का अंत और अंतिम मनुष्य…और याद करें, मनुष्य के लिए ‘इतिहास के अंत’ की उपलब्धि के बारे में फुकुयामा का यह दो टूक कथन-

 

“वे (मनुष्य मात्र) आर्थिक गतिविधियों के जरिए अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति तो कर लेंगे,लेकिन किसी संग्राम में अपने प्राण दाँव पर नहीं लगाएंगे। दूसरे शब्दों में वे फिर से उसी तरह पशु बन जाएंगे, जैसे कि इतिहास के आरंभ में थे। कुत्ते को रोटी मिल जाए तो वह सारा दिन धूप में सोता रह  सकता है, उसे परवाह नहीं कि दूसरे कुत्ते उससे बेहतर हालत में हैं या कहीं दूर दुनिया में किसी कुत्ते का शोषण हो रहा है”। ( दि एंड ऑफ हिस्ट्री एंड दि लास्ट मैन, पेंग्विन, लंदन, 1992, पृ. 311).

 

मैं अपने उपन्यास में रहनुमा रचूँ या न रचूँ, मनुष्य के कुत्ताकरण का उत्सव नहीं मना  सकता। रहनुमा रचा तो ऐसा रचूंगा, ऐसे रचूंगा कि वह मनुष्य के कुत्ते में बदल जाने की नियति की पड़ताल कर सके, उससे टकरा सके। राह दिखा सके या न दिखा सके, इतना जता सके कि इतिहास कूड़े का  ढेर नहीं कि जिस पर पर चढ़ कर बाँग दे कोई भी  मुर्गा और बन जाए मसीहा। इतिहास बंद गली का आखिरी मकान भी नहीं कि जहाँ पहुँच कर हम गठरी पटक कर पसर जाएं कि लो पहुँच गये इतिहास के अंत तक।

मेरा रचा रहनुमा रहनुमा होगा, केवल प्रतिनिधि नहीं। अपने वक्त की एक गौरतलब बात यह भी है  कि नेता और प्रतिनिधि पर्यायवाची मान लिये गये हैं। मान लिया गया है कि हमारी  इच्छाओं को जो कह दे, उनके लिए जो कुछ कर दे वह हमारा नेता है। रिप्रेजेंट करने और लीड करने में फर्क भुला दिया गया है,  और रिप्रेजेंट भी वही करे जो मेरे जैसा हो मेरी बिरादरी, मेरी पहचान मेरी आइडेंटिटी का हो। मेरी सांस्कृतिक पहचान और उसमें भी वही जो मेरा मन हो, मेरी इकलौती पहचान है।  तो जब मेरा प्रतिनिधित्व ही मेरा नेतृत्व है तो होना तो यही है, होना तो यही था कि

 

चलता हूं थोड़ी दूर, हर इक तेज रौ के साथ

पहचानता नहीं हूं अभी, राहबर को मैं

शाइर को जो कसक है रहनुमा को न पहचानने की, उस कसक को शब्द देने में ही उस सवाल का जबाव मिलने की मुझे उम्मीद है जो दिये गये विषय-‘रहनुमा मैं जैसा रचता’-  में मैंने जोड़ा है- रहनुमा मैं जैसे रचता…कोशिश करेगा मेरा उपन्यास कि रौ, राह और राहबर, रहनुमा के आपसी रिश्तों की पड़ताल कर सके…राहरौ और राहबर में फर्क कर सके। मैं ध्यान रखूंगा कि रहनुमा बनाने के चक्कर में उस पात्र को अपनी मनचीती सोच का निर्जीव प्रतीक न बना दूँ, मनुष्य का झंडाकरण न कर दूँ। रहनुमा हो या मसीहा, मनुष्य अंतत: मनुष्य है—उसे रहनुमा बनाने के चक्कर में उसकी मनुष्यता की छुट्टी कर देना काफी अमानुषिक हरकत है, जिससे बचना चाहिए उपन्यास में भी, उपन्यास के बाहर भी। अपने रचना-संसार में प्रजापति मैं भले ही होऊं, ‘यथारोचते’ की महिमा मुझे भले ही हासिल हो, लेकिन उस महिमा की भी मर्यादा है। रहनुमा रचूंगा या नहीं पता नहीं लेकिन कोशिश रहेगी कि किसी भी पात्र को रचते समय महिमा और मर्यादा का संतुलन बना रहे।

इतिहास और महावृत्तांत के अंत के उत्सव मनाने का नहीं, यह समय, यूरोकेंद्रित आधुनिकता की अहम्मन्यता को चुनौती देती, परस्पर संवादरत आधुनिकताओं और उनसे संभव हो सकने वाले नये यूनिवर्सलिज्म की खोज का;  नये महावृत्तांत की खोज और बखान का समय है। मेरा रचा रहनुमा इस चेतना से ही उत्पन्न होगा।  अपने देश के संदर्भ में  वह राज नॉस्टेल्जिया के इलीट रूपों से भी टकराएगा और पॉलिटिकली करेक्ट रूपों से भी क्योंकि वह जानेगा कि आधुनिकता कोई वायरस नहीं जो यूरोप में पैदा हो कर फैलता चला गया। वह जानेगा कि चीनियों को लाइलाज अफीमची, अफ्रिकियों, आज्तेकों और इंकाओं  को जन्मजात असभ्य बल्कि अमानुष और भारतीयों को सतत रूप से जड़, विधवादाहक लोगों के रूप में इतिहास देवता ने नहीं उपनिवेशवाद के राक्षस ने गढ़ा  है।  वह जानेगा कि  उपनिवेशवाद की सबसे बड़ी सफलता यही है कि भारत जैसे देश में  राज नॉस्टेल्जिया केवल ‘प्रतिक्रियावादियों’ का ही अग्निभक्षी क्रांतिकारियों का भी प्रिय शगल है। वह जानेगा कि  गलत रिसर्च करना कैसे सिखाया जाता है और सही रिसर्च करना कैसे सीखना पड़ता है।

और सबसे बड़ी बात यह कि मेरे सोचे किसी पात्र को रहनुमा बनाएगी वह हिम्मत कि वह  गाँधी की तरह घोर अलोकप्रिय फैसले ले सके;  कह सके कि एक चौरी-चौर कांड काफी है  देशव्यापी आंदोलन को वापस ले लेने के लिए। जो अपने नैतिक संकट और विफलता-बोध को छुपाने की बजाय उससे टकरा सके, अपने साथियों को न्यौता दे सके कि वे भी टकराएं उस नैतिक संकट से, और जो आएं उन्हें साथ लेकर निकल सके उन सवालों के जबाव खोजने – ‘जो अब तक पूछे ही नहीं गये’।

10 Responses to “रहनुमा जैसा मैं रचता…”

  1. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल says:

    अप्रतिम गद्य! अद्भुत!
    अत्यधिक विचारोत्तेजक.
    आशा है कि उपन्यास से पहले भी हमें ऐसा ही काफी कुछ पढ़ने को मिलता रहेगा.

  2. खुर्शीद अनवर says:

    रहनुमा ..एक बड़ा सवाल

    एक के बाद खुदा एक चला आता था
    दिल तंग आ के कहा मेरा खुदा कोई नहीं.
    और फिर बात वहीँ ठहर गयी. आज तक ठहरी है. नेता और प्रतिनिधि उलझाव अब सवाल ही नहीं रहा. “पहचानता नहीं हूँ अभी राहबर को मैं”. के अलावा राह्बरी की चाल और तौर भी उलझे .
    अब आई बात इन्तेज़ार की .
    दाम-ए-हर मौज में है हल्का-ए-सदकाम नेहंग
    देखें क्या गुज़रे है कतरे पे गुहर होने तक .
    कतरा तो दिख गया अब गुहर बनेगा. पढ़ कर यही लगा. अकथ से आगे का सिलसिला … . तल्खी जिसके बिना प्रेम पूरा नहीं हो सकता.

    • शुक्रिया खु्र्शीद, कतरा गुहर बने न बने वो लहू बनने की कोशिश तो करेगा जो रगों में ही न दौड़ता रहे आँख से भी टपके…

  3. kumar gaurav says:

    आपके लेख पडकर लगता है जैसे कोई कविता पड़ रहा होऊ …इसे पडकर लगा जैसे शमशेर की ‘अमन का राग’ कविता …की कोई बिलकुल नयी व्याख्या पड़ा रहा हो …

    • धन्यवाद, गौरव।

      • प्रेम कुमार says:

        सर, आपको साधुवाद ! विचारों में लय का अबाध प्रवाह कैसे एक गद्य को पद्यात्मक स्वरुप में ढाल देता है, ये मैंने अभी-अभी जाना है, आपके अद्यतन पोस्ट-“रहनुमा जैसा मै रचता” से गुजरकर एवं इसके कंटेंट्स से सीधे-सीधे टकराकर | आपने सच कहा -आज साझे सपने का अकाल है, तभी तो लोग अलग-थलग है, बेज़ार है, बेहाल है, बाह्य आवरण में अमीर औ’ अन्दर से कंगाल है | यथार्थ से मुंह मोड़ लेने का ही परिणाम है कि आज सपने की परिभाषा तक बदल गयी | आँखे बंद करके कल्पनालोक में रत कायरता जटिल परिवेश को देख पाने तक का साहस नहीं जुटा पाती, समस्याओं से दो-चार होना तो दूर की बात है | जरुरत है ऐसे हालात में एक रियल रहनुमा के रचे जाने की; और आप जैसा कोई सशक्त हस्ताक्षर ही ऐसी रचना कर सकता है | इस आगाज़ ने आने वाले रहनुमा की एक झलक तो दे ही दी है हम पाठकों को; बेसब्री से इंतज़ार रहेगा आपके उपन्यास का |

  4. Kirti Prakash Mishra says:

    सर, आपके लेखन में चरम गहराई है. गध्य और पद्य में अंतर न के बराबर है

  5. aanand k singh says:

    I underastand “kaalo na yaato ..” is composed by Shankar and not by Bhartrihari….

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